शुक्रवार, 26 जून 2015

टोडी हिन्दुत्व और एंग्लोफिल

पानी बाबा के विचार 1
आजादी की लड़ाई के दौरान ‘टोडी बच्चा, हाय-हाय’ का मुहावरा काफी प्रचलित था। उन दिनों इस मुहावरे का सहज अर्थ ‘अंग्रेजों का पिट्ठू’ था। मूलतः ‘टोडी’ का अर्थ हीनता से उपजा मेंढक जैसा बौनापन और नकलची तौर पर उछाल लगा कर लंबा या ऊंचा दिखने की प्रवृत्ति। अ्रगरेजों जैसा बनने, दीखने या कम से कम आत्ममुग्ध हो कर वैसा ही महसूस करने की प्रवृत्ति एंग्लोफिल है।
भारतीय संदर्भ में इसका वस्तुनिष्ठ संदर्भ इस्लाम और इसाईयत जैसा शौर्यवान बनने की प्रबल उत्कंठा और प्रवृत्ति से है। यही प्रवृत्ति आधुनिकता के संदर्भ में है। टोडी हिन्दुत्व की प्रवृत्ति के अनेक स्वरूपों की अभिव्यक्ति पिछले 150-200 वर्षों में देखने में आयी है।

शनिवार, 20 जून 2015

इस योग का मतलब क्या?

बाबा! इस योग का मतलब क्या?
शब्दार्थ
योग शब्द युज् धातु से बना है, यज् से नहीं। यज् से यज्ञ होता है। युज् मतलब जुड़ना, इसी धातु से भाव वाचक योग शब्द बना है। इसलिये योग शब्द का इससे अलग वस्तुतः अपना कोई अर्थ नहीं है। जैसा प्रसंग, वैसा अर्थ ।
हो भी यही रहा है। अभी यह राजनैतिक योग है, सतही, हंगामेदार, व्यापक प्रचार-प्रसार वाला एकदिनी। इसमें बड़ी बात है कि इतने लोग एक साथ कुछ करेंगे तो विरोधियों में भय का योग होगा। घृणा प्रधान, व्यायाम प्रधान, मानसिक-वाचिक तपरहित, श्रद्धारहित, बुद्धिभ्रष्टक, उग्र हिंदुत्व की कक्षा वाला योग होगा क्योंकि इस धारा का ही इस समय सत्ता में योग है। 
खैर एक भूल/कपट का सुधार करना पड़ा है। संघ वालों ने ‘‘सूर्य नमस्कार’’ नाम को स्वीकार कर लिया। पहले तो उन्होंने इसका नाम भी बदल रखा था।
चर्चाएं कई हैं। किसी ने कहा बाबा रामदेव जी के जन्मदिन पर आयोजित है। मुझे इस पर भरोसा नहीं हुआ।  बाबा रामदेव जैसे शुद्ध व्यवसायी और निष्ठा हीन व्यक्ति के लिये भाजपा इतना करेगी??? इघर बी.एन. मिश्र जी ने बताया कि पूर्व संघ प्रमुख हेडगेवार जी के जन्मदिन पर यह आयोजित हो रहा है। इनका योग के प्रचार7प्रसार में क्या योग दान???? मुझे तो कुछ नहीं मालूम। यह है संयोग, राजयोग, गुप्तयोग का मिश्रित योग।
गलती तो पहले ही हुई जब हठयोग के आंशिक पक्ष को ही योग नाम दिया जाने लगा कि कम से कम कुछ लोग इसी बहाने, स्वास्थ्य रक्षा के लिये ही सही इधर आकृष्ट होंगे। ईमानदार लोगों ने स्वास्थ्य रक्षा के नाम पर लोगों का ध्यान तो आकृष्ट किया लेकिन परंपरा की रक्षा करते हुए योग के अन्य पक्षों पर पूरा ध्यान दिया और ध्यान योग, भक्तियोग, कुंडलिनी योग, लय योग, स्वरयोग, नाद योग आदि को आगे बढ़ाया। राजनीति और उसके साथ दवा एवं उपभोक्ता सामग्री आदि के व्यसाय को नहीं जोड़ा। आयुर्वेद उनका अंग नहीं रहा। राम कृष्ण परमहंस तथा उनके,  शिष्यगणों, महर्षि रमन, स्वामी शिवानंद के प्रमुख शिष्यों, स्वामी कैवल्यानंद, स्वामी प्रणवानंद, परमहंस योगानंद के गुरु स्वामी युक्तेश्वर गिरि, दक्षिण के गृहस्थ योगाचार्य श्री ......... अय्यर आदि असली साधकों ने किसी ने योग को व्यवसाय या राजनीति के साधन के रूप में इश्तेमाल नहीं किया।
इसके विपरीत आर्यसमाज, उससे निकली धाराएं, जैसे- गायत्री परिवार आदि ने कार्यकर्ताओं के आर्थिक संरक्षण के लिये दवा एवं उपभोक्ता सामग्री आदि के व्यसाय को समानांतर कार्यक्रम के रूप में जोड़ा। इसके बाद इस शैली को आशाराम आदि सभी बाबाओं ने अपनाया। बाबा रामदेव ने इसे कारपोरेट कल्चर दे आकार दे दिया।  राजनीति के मामले में अभी हाथ पैर मार रहे हैं। देखें!! सत्तायोग उनके भाग्य में है या नहीं??
योग साधना वाले गीता आदि में वर्णित राजयोग में तो उनकी रुचि ही नहीं।

मंगलवार, 16 जून 2015

क्या हर आदमी का नक्सली होना जरूरी है?

क्या हर आदमी का नक्सली होना जरूरी है?
सुविधावादी ज्ञान संभी खतरनाक होता है सुविधापूर्ण ज्ञान। सच तो यह कि यह ज्ञान का केवल भ्रम है। ऐसा ही एक ज्ञान है नक्सल क्षेत्र संबंधी ज्ञान कि वहां हर आदमी नक्सली होता है या नक्सल समर्थक और ऐसे क्षेत्र में जाना तक नहीं चाहिए वरना नक्सली पकड़ लेंगे और हत्या कर देंगे।
मेरी अपनी मजबूरी भी है और सहजता भी कि मैं इन्हीं क्षेत्रों में घूमता रहता हूं। मेरा गांव, नौकरी का स्थान सामाजिक कार्यक्षेत्र सभी इन्हीं इलाकों में हैं। भोजपुर के सहार प्रखंड में गांव, अरवल के कुथा प्रखंड में नौकरी और पूरे मगध क्षेत्र में चाहे वह मैदानी हो या पहाड़ी, जहां तहां जल संरक्षण के सामाजिक प्रयोग।
इस प्रकार पूरे सघन नक्सली क्षेत्र में ही रहता जीता हूं। कुछ मित्र पूछते हैं- आपको नक्सली परेशान नहीं करते? सुदूर जंगलों में भी अकेले या सपत्नीक कैसे घूमते रहते हैं? वगैरह। कल हम दोनों गया जिले के अंतिम सीमावर्ती गांव गोपाल डेरा गये थे। लगभग निषिद्ध जैसे माने जानेवाले छकर बंधा पंचायत का गांव जहां कोई सरकारी पदाधिकारी अभी तक नहीं पहुंचा। आम आदमी तो पहुंचते ही हैं तो हम भी पहुंचे। एक तरफ से 70 की मी की हाइवे यात्रा अपनी पुरानी 1993 माडल मारुति नान एसी कार से, उसके बाद 15 की मीटर की ठोकरवाली ग्रामीण सड़क, उसके बाद 8 की मी. जगल-पठार की कच्ची सड़क और खेत वाला रास्ता फिर 5 की मी पैदल। पूरी दौपहरी पैदल या पत्थर पेड़ की छाया में सुस्ताते-चलते बीती। देर रात गया शहर वापस भी आ गये।
हम गये थे कुछ गांव के लोगों के द्वारा अपने बल पर पहाड़ी का पानी रोक कर सिंचाई सुविधा बनाने के प्रयास का समर्थन तथा सहयोग करने। न जान, न पहचान तो रास्ते से एक पंडित जी को ले लिये। उन्हें केवल अपनी ही नहीं कई जातियों के लोगों की रिश्तेदारी का पता था। गाना बजाने में रुचि रखने के कारण आसपास के गांवों में लोगों की रिश्तेदारियों की लंबी फेहरिस्त। एक व्यक्ति उस गांव के ही मिल गये सड़क किनारे उनके सहारे दुर्गम रास्ते को पहचानने में भी असुविधा नहीं हुई। भोक्ता जाति के लोगों के कई गांव। बातचीत हुई आगे के काम के बारे में सोचा भी गया। न मैं, न पंडित जी, न रास्ते मिले कलक्टर भोक्ता, न ही तमाम वे लोग जो इस यात्रा में प्रासंगिक रहे कोई भी हथियार बंद था न नक्सली, ना ही कोई खतरा हुआ।
हर जगह जाने मिलने के तरीके होते हैं। आप बेमतलब किसी के बेड रूम या पाखाने में घुसते हैं क्या? मललब यह कि हर जगह हर समय न खतरा ही है न हर आदमी नक्सली। मेरे एक परिचित हैं- ए. एच. खान वे डीम. एस.पी के मुंह पर और मंच से कहते हैं यहां कोई नक्सली नहीं है, असली नक्सली डीम. एस.पी हैं। मैं ऐसा नहीं कह सकता यह अलग प्रकार का अतिवाद है।

बुधवार, 10 जून 2015

इंडोलोजी का दुष्प्रभाव 3

इंडोलोजी का दुष्प्रभाव 3
पिछले पोस्ट का शेष भाग
विविधता भरे भारत में भी विभिन्न काल खंडों में समाज ने किस तरह समन्वित रूप से जिया और पारस्परिक एकता बनाई, इसी ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचने से रोकने के उपाय साम्राज्यवादियों द्वारा किये गये ताकि औपनिवेशिक शासन को सही ठहराया जा सके।
यहबात कूट-कूट कर भर दी गई कि आजादी, राष्ट्रीय भावना जैसी बातों के मूल स्रोत भी विदेश में ही हैं और वहीं से उनका आयात होना चाहिए। परिणामतः लाला लाजपत राय से ले कर आज तक के विद्वान स्थानीय समाज, आपसी संबंध, देवी देवता, रश्मो रिवाज के भीतर छुपी अनमोल बातों को केवल अंध विश्वास और मिथक मान कर टालते रहे।
इसका इतना दुष्परिणाम हुआ कि विनोबा जी जैसे संस्कृतज्ञ और अध्यात्मवादी भी सतबहिनी की परंपरा, पूजा पाठ, अनुष्ठान, श्राद्ध-बारात जैसी बातों को बेकार का कहने लगे। समाज पर इन परंपराओं का इतना प्रभाव है कि सतबहिनी की विनोबाजी द्वारा की गई व्याख्या को किसी ने नहीं माना कि ये सात देवियां समाज की सात गुणों और शक्तियांे के प्रतीक हैं। यदि प्रतीक हैं तो किस तरह? उनकी परंपरा, अनुष्ठान, लोकाचार आदि से संबंध भी तो बताना पड़ेगा? लोक जीवन में अघ्यात्म को समझने के लिये क्षेत्रीय धर्मशास्त्रों एवं अखिल भारतीय व्यवस्था के बीच संतुलन-सामंजस्य बनाना पड़ता है तभी वह समाज में मान्य कर्मकांड बन पाता है। भारतीय समाज और संस्कृति को जानने की जगह मनमौजी की तरह बात करने वाले इंडोलोजिस्टों को यही तो नहीं आता है। परिणामतः तिलक जैसे क्रातिकारी गणपति पूजा को सामाजिक एकता के नये प्रतीक/प्रतिमान बनाने में सफल हो गये किंतु विनोबा जी विफल।
भाग्य का खेल देखिए कि जो व्यक्ति अपने आश्रम में मंदिर बनाने में संकोच करे कि मूर्तिपूजा करें या नहीं? उसके आश्रम की जमीन के नीचे से खुदाई में जब मूर्तियां निकल जाएं तब क्या हो? लाचारी में उन्हें तो रखना ही होगा और जमीन से निकली मूर्तियों पर फूल माला चढ़ते देर कितनी लगती है, तो शुरू हो ही गई मूर्ति पूजा। यह पोस्ट यहीं पूरा होता है।

मंगलवार, 9 जून 2015

इंडोलोजी का दुष्प्रभाव 2


गुलामी से लड़ने वाले बड़े योद्धा भी कई बार गुलाम बनान वाले के षडयंत्र के शिकार हो जाते हैं। भारत का दुर्भाग्य रहा कि साम्यवादी, गांधीवादी, लोहियावादी या संघी शायद ही कोई इससे बचा। लोकमान्य तिलक शायद बचे पाये हों। यह जानना दुखद भले हो लेकिन सामान्य लोगों की आंख खोलने वाला होगा। जो लोग प्राचीन इतिहास, भारतीय इतिहास या संस्कृति पर आमतौर पहले बोतले लिखते हैं, उन्हें मेरी बात आसानी से पचने वाली नहीं है क्योंकि वे तो स्वयं उसी बौद्धिक गुलामी को आदर्श मान कर काम कर रहे हैं।
यदि पैमाना ही गलत हो, बिंब उलटे हों तो नाप और चित्र कैसे सही हो सकते हैं? 
बिनोबा भावे का समाज में ही नहीं मेरे घर और मेरे मन में भी आदर है लेकिन बड़े लोगों की भूल भी अनुकरणीय नहीं हो सकती। बिनोबा भाव ऐसे व्यक्ति रहे जिन्हें गणित ज्योतिष की अच्छी जानकारी थी। शरीर छोड़ने के कुछ दिनों पूर्व तक गणित का अभ्यास करते थे और एक कार्ड रूपी अभ्यास पुस्तिका दनके शिरहाने रखी होती थी। ये सारे विवरण उनके आश्रम से प्रकाशित मैत्री पत्रिका में दर्ज हैं।
बिनोबा जी एक बड़े दार्शनिक थे। भारतीय दर्शन और खाश कर वेदांत दर्शन पर उन्होंने बिलकुल नई स्थापना दी है। प्रायः लोग इस बात को नहीं जानते। ‘‘ब्रह् सत्यं जगत्स्फूर्तिः, जीवनं सत्यशोधनम्’’ ब्रह्म सत्य है या सत्य ब्रह्म है और जीवन सत्य के शोधन के लिये है। इस पर उन्होंने प्रवचन भी दिये। वे चाहते थे तो एक नया संप्रदाय भी बना सकते थे फिर भी उन्होंने ऐसा काम नहीं किया।
ऐसा विलक्षण विद्वान, संस्कृतज्ञ, गणितज्ञ, दार्शनिक और उच्च्तम कोटि का साधक, जैसा योग पर ‘‘महागुहा में प्रवेश’’ जैसी पुस्तक लिखने वाला, भारत की लगभग संपूर्ण संत परेपरा का अध्येता अनेक भाषाओं का जानकार तथा अपनी स्वेच्छा से योगियों वाली अपनी मौत को आमंत्रित करके दिखा देने वाला व्यक्ति भी इंडोलोजी के दुष्प्रभाव से नहीं बच सका।
विनोबा जी ने दर्शन और योग पर तो समय लगाया लेकिन साधना की लोक परंपरा को ही भूल गये। ऐसी सरल बात जो पूरे भारत में आसानी से स्वीकृत है विनोबा जी से छूट गई। सतबहिनी, सप्त मातृका की पूजा ग्राम देवी के रूप में पूरे भारत में होती है। इनके साथ एक भैरव जी भी होते हैं। यह सात प्रकार की देवियों की विविधता पूर्ण साधना परंपरा का समन्वित रूप है। बिनोबा जी चाहते तो इस विषय को अच्छी तरह समझ सकते थे लेकिन ऐसा हो नहीं सका। उन्होंने अपने विद्या बल का प्रयोग कर दिया और विफल भी हो गये। अगले अंक में जारी.............

बुधवार, 3 जून 2015

इंडोलाजी : यूरोपीय वैचारिक षडयंत्र 1


आप यदि भारतीय संस्कृति, सभ्यता, समाज में रुचि रखते हैं, धर्म, कर्म, परंपरा, इतिहास, पूजापाठ अनुष्ठान, रीति रिवाजों से संबंधित लिखने पढ़ने या कर्म कांड, तंत्र, योग, पौरोहित्य, राजनीति आदि से संबंधित काम रोजगार से जुड़े हों तो इस बात का पूरी खतरा है कि आप जाने-अनजाने कहीं यूरोपीय वैचारिक षडयंत्र के शिकार बन कर रोज बरोज अपनी ही समझ की बलि तो नहीं चढ़ा रहे???????
योरप वालों ने भारत को समझने की कोशिश की क्योंकि वे बाहरी थे, अनजान थे। राज काज चलाने के लिये जो आवश्यक हो उतना जानना तो बहुत जरूरी था ही साथ ही फुरसत में कुछ जन भी लिया जाये तो हर्ज ही क्या है? उनके लिये यदि सतही ज्ञान भी हो जाये तो क्षम्य है क्योंकि वे अनजान, विदेशी और बाहरी लोग थे। हमें समझने का उनका पैमाना भी वैसा ही होना स्वाभाविक था। वस्तुतः केवल ऐसा ही नहीं हुआ, कुछ विदेशियों ने भारत की हर परत को अंदरूनी तौर पर समझने की ही नहीं जो उनके लिये सभव था, उसकी चरम सीमा तक जा कर भारतीय विद्या और संस्कृति को जीने की कोशिश की। ऐसा एक नाम सर जॉन वुडरफ का है।
ऐसे उदार लोग साम्राज्यवादियों को बहुत खटके। अतः बाकायदा षडयंत्र कर इंडोलाजी एवं ओरयेंटोलोजी जैसे शब्द गढ़े गये, उन्हें कुछ खाश अर्थों तक सीमित किया गया, भारत को समझने के लिये यूरोपीय पैमानों की शर्तें थोपी गईं, वगैरह। आज के अनेक बुद्धिजीवी उन्हीं उलझनों और सतही तथा यूरोपीय पदावली एवं पैमाने के अहंकार से ओत प्रोत हो कर भारतीय परंपरा तथा विद्या के क्षेत्र में उतरते हैं। यूरोपीय साम्राज्यवादी बुद्धिजीवी आज भी विधिवत उस काम में लगे हैं और कई बार निर्लज्जता पूर्वक भारतीय लोगों को गलत काम के लिये उकसाते भी हैं। मेरा सामना एक बार ऐसे ही एक प्रतिष्ठित महानुभाव - सर मार्क टुली से हुआ। अगले किश्तों में जारी........