बुधवार, 10 जून 2015

इंडोलोजी का दुष्प्रभाव 3

इंडोलोजी का दुष्प्रभाव 3
पिछले पोस्ट का शेष भाग
विविधता भरे भारत में भी विभिन्न काल खंडों में समाज ने किस तरह समन्वित रूप से जिया और पारस्परिक एकता बनाई, इसी ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचने से रोकने के उपाय साम्राज्यवादियों द्वारा किये गये ताकि औपनिवेशिक शासन को सही ठहराया जा सके।
यहबात कूट-कूट कर भर दी गई कि आजादी, राष्ट्रीय भावना जैसी बातों के मूल स्रोत भी विदेश में ही हैं और वहीं से उनका आयात होना चाहिए। परिणामतः लाला लाजपत राय से ले कर आज तक के विद्वान स्थानीय समाज, आपसी संबंध, देवी देवता, रश्मो रिवाज के भीतर छुपी अनमोल बातों को केवल अंध विश्वास और मिथक मान कर टालते रहे।
इसका इतना दुष्परिणाम हुआ कि विनोबा जी जैसे संस्कृतज्ञ और अध्यात्मवादी भी सतबहिनी की परंपरा, पूजा पाठ, अनुष्ठान, श्राद्ध-बारात जैसी बातों को बेकार का कहने लगे। समाज पर इन परंपराओं का इतना प्रभाव है कि सतबहिनी की विनोबाजी द्वारा की गई व्याख्या को किसी ने नहीं माना कि ये सात देवियां समाज की सात गुणों और शक्तियांे के प्रतीक हैं। यदि प्रतीक हैं तो किस तरह? उनकी परंपरा, अनुष्ठान, लोकाचार आदि से संबंध भी तो बताना पड़ेगा? लोक जीवन में अघ्यात्म को समझने के लिये क्षेत्रीय धर्मशास्त्रों एवं अखिल भारतीय व्यवस्था के बीच संतुलन-सामंजस्य बनाना पड़ता है तभी वह समाज में मान्य कर्मकांड बन पाता है। भारतीय समाज और संस्कृति को जानने की जगह मनमौजी की तरह बात करने वाले इंडोलोजिस्टों को यही तो नहीं आता है। परिणामतः तिलक जैसे क्रातिकारी गणपति पूजा को सामाजिक एकता के नये प्रतीक/प्रतिमान बनाने में सफल हो गये किंतु विनोबा जी विफल।
भाग्य का खेल देखिए कि जो व्यक्ति अपने आश्रम में मंदिर बनाने में संकोच करे कि मूर्तिपूजा करें या नहीं? उसके आश्रम की जमीन के नीचे से खुदाई में जब मूर्तियां निकल जाएं तब क्या हो? लाचारी में उन्हें तो रखना ही होगा और जमीन से निकली मूर्तियों पर फूल माला चढ़ते देर कितनी लगती है, तो शुरू हो ही गई मूर्ति पूजा। यह पोस्ट यहीं पूरा होता है।

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