शनिवार, 2 नवंबर 2013

यमांतक क्रोधराज की साधना

यमांतक क्रोधराज की साधना

मगध प्रयोगभूमि है, सिद्धों की भूमि है। सिद्ध शरीर, मन एवं प्रकृति, तीनों के रहस्यों को जानकर एक से एक सुविधाजनक एवं चमत्कारी साधना-विधियों का आविष्कार करते थे और उसे लोकसंस्कृति में स्थापित करते रहते थे। इसी तरह की विधियों में से एक विधि क्रोध की ऊर्जा के रूपांतरण की विधि है जो ‘यम कूटने’ के नाम से जानी जाती है। 

यह अनुष्ठान स्त्रियों द्वारा भातृद्वितीया (कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वितीया) के दिन किया जाता है जिसे यमद्वितीया, ‘गोधन-पीठा’ आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन यम-यमी की गोबर की आकृति बनाकर उसे कूटा जाता है और विश्वास किया जाता है कि व्रत करने वाली स्त्री के भाई को बड़ी उम्र प्राप्त होगी।
मानव जीवन में क्रोध की समस्या सबसे खतरनाक है। क्रोध प्रायः विध्वंसक रूप में पाया जाता है लेकिन आत्मरक्षा या कमजोर व्यक्ति की रक्षा के लिए भी क्रोध का उपयोग होता है। अन्याय-असत्य का विरोध भी क्रोध के साथ होता है इसलिए क्रोध जैसी मानव की प्राकृतिक प्रवृ़ित्त को सर्वथा अनुचित या हानिकारक सिद्ध कर देना तथ्य के विपरीत होगा।
भारतीय साधकों की दो धाराएँ चर्चित हैं। पहली धारा मन के विश्लेषण को प्रधानता देती है। दूसरी धारा मन के रूपांतरण को महत्त्व देती है। संसार की जड़ सामग्री का संयोजन एवं उससे अपने संबंध के स्वरूप को निश्चित करने का काम मन का है। वर्तमान जीवन ही नहीं, अगले जन्म की मूल योजना इसी जन्म में मन के द्वारा बना ली जाती है। 
इस बिंदु पर दोनांे ही धाराओं का मत एक है। पूर्णतः विश्लेषण और मन का निरोध योगाचार्य पतंजलि को अनुकूल पड़ता है। उनके मत में चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’। इसके विपरीत मत वशिष्ठ जी का है। इनकी विधियाँ रूपांतरण की विधियाँ हैं। 
इसी प्रकार बौद्ध परंपरा में विभज्यवादी-थेरवादी दृष्टि विश्लेषणप्रधान है और महायान-वज्रयान की विधियाँ रूपांतरण को प्रधानता देती हैं। 
यहाँ वज्रयान एवं सिद्ध पंथ की मिलीजुली धारा द्वारा लोक-कल्याण के लिए क्रोध को रूपांतरित करने और इस रूपांतरण के क्रम में क्रोध की कार्यप्रणाली को समझने की एक विधि का वर्णन किया गया है। 
लोकमानस अपने हिसाब से काम करता है। वह अपने काम की चीज विभिन्न धाराओं से ग्रहण करता है। इसमंे कोई बुराई भी नहीं है। कभी-कभी कोई साधक अपनी श्रेष्ठता और मौलिकता सिद्ध करने के प्रयास में दूसरे के प्रयासों को अनदेखा कर देता है किंतु तटस्थ समीक्षा मे सारी बातें साफ हो जाती हैं।  
महायान-वज्रयान परंपरा में पाँच तथागत और उनके पाँच कुल माने गए हैं। इनके नाम भी सामान्य दृष्टि से विचित्र लगते हैं। जैसे - राग कुल, मोह कुल, द्वेष कुल इत्यादि। इसी प्रकार एक विशेष देवता की कल्पना की गई है जो सभी प्रकार के क्रोधों का राजा है। वह अत्यंत प्रबल और प्रचंड है। क्रोधराज का सामर्थ्य इतना अधिक है कि वह जीवन का अंत करने में सक्षम यम को भी अर्थात् मृत्यु को भी नष्ट कर देने वाला है। इसीलिए उसे यमांतक, यम का अंत करने वाला क्रोधराज कहा गया है। 
अनेक साधनाओं एवं सिद्धियों में यमांतक क्रोधराज को प्रगट करने की आवश्यकता होती है। किसी भी देवता को प्रगट करने के लिए उसके अनुरूप अनुष्ठान विधि से साधना करनी होती है। यमांतक क्रोधराज को प्रगट करने के लिए भी उसके मंत्र, चर्यापद, गीति अर्थात् गीत, गीत के अनुरूप ताल, लय, छंद, बीजमंत्र (जैसे हूँ यमांतक क्रोधराज का बीजमंत्र है) के साथ-साथ मन में क्रोध की भावना करनी पड़ती है। तब उस साधक या साधिका के मनोकायिक व्यक्त्तित्व में यमांतक क्रोधराज अवतरित होता है। 
भारतीय साधना परंपरा का यह विश्वास है कि मनुष्य अपनी साधना के बल पर स्वयं देवता ही नहीं साक्षात् ईश्वर का सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है। हर देवता की स्थिति में पहँुचने और वैसा सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए विधियाँ बनाई गई हैं। यदि विधियों का सही ढंग से पालन करते हुए अनुष्ठान या साधना की जाय तो तदनुरूप फल प्राप्त होता है। 
इसी विश्वास के आधार पर समाज में अनेक व्रत-अनुष्ठान प्रचलित हैं। दीपावली के बाद की द्वितीया तिथि को मगध में क्रोधराज की उपासना का अनुष्ठान होता है। इस दिन स्त्रियाँ अपने भाई के दीर्घायुष्य के लिए आधे दिन का व्रत रखती हैं। वे गोबर या मिट्टी से यम की प्रतिमा बनाती हैैं और उस प्रतिमा को मूसल से कूटती हैं। यह प्रतिमा जमीन पर बनाई जाती है। यह एक सामान्य सा दिखने वाला अनुष्ठान है जिसके अन्य घटकों की चर्चा क्रोध के रूपांतरण संबंधी मूल प्रक्रिया के विषय में सैद्धांतिक चर्चा के ऊपरांत की जाएगी।
तात्त्विक रूप से यदि विचार किया जाय तो क्रोध एवं प्रेम, दोनों एक ही ऊर्जा से निकली हुई भावना के दो रूप हैं। क्रोध और प्रेम में कोई मौलिक अंतर नहीं है। यदि क्रोध का गहनतम अभ्यास किया जाय और क्रोध में संपूर्णता से जीने की कोशिश की जाय तो उतना ही गहरा और प्रामाणिक प्रेम प्रगट होगा। 
परिशुद्ध प्रेम को अपने भीतर में प्रस्फुटित करने के लिए अन्य उपायों की तरह संपूर्ण और विशुद्ध क्रोध का अभ्यास करना भी एक उपाय है। विशुद्ध क्रोध का आशय यह है कि क्रोध की भावना का अभ्यास करते समय व्यक्ति के मन में केवल क्रोध का ही भाव रहे, दूसरा भाव नहीं। संपूर्ण का आशय है कि क्रोध का आलंबन प्रारंभ में चाहे जो कोई भी हो लेकिन धीरे-धीरे क्रोध के आलंबन का दायरा बढ़ता जाय और संसार ही नहीं सृष्टि का कोई भी व्यक्ति, यम जैसा प्रचंडतम व्यक्ति भी क्रोध के प्रकोप से नहीं बच सके, ऐसी प्रचंड भावना हो।
मृत्यु सबका विरोधी है। वह दुखदायी, उग्र एवं प्रचंड है। मृत्यु का देवता यम है। इसलिए ऐसे कठोर यम के ऊपर क्रोध करने में कोई विरोध भी नहीं हो सकता है। 
भय एवं क्रोध के कारण लगभग एक होते हैं। क्रोध करने का मूल उद्देश्य है भय पर विजय प्राप्त करने का प्रयास। वस्तुतः भयातुर व्यक्ति के क्रोधी होने और क्रोधी व्यक्ति के भयातुर होने की गुंजाइश हमेशा रहती है। 
मृत्यु के भय से इस संसार का कौन प्राणी भयभीत नहीं होता है। इस भय के स्थान पर यदि मृत्यु के ऊपर क्रोध का अभ्यास किया जाय तो अपनी संपूर्णता में पहुँचकर यह क्रोध मृत्यु के भय को पूरी तरह समाप्त कर सकता है। क्रोध की संपूर्णता में भय की समाप्ति के बाद मनोबल की जो ऊर्जा अभ्यासकर्ता को प्राप्त होती है वह चाहे तो प्रेम के रूप में उसे किसी पर भी न्योछावर कर सकता है। 
भैयादूज के दिन किए जाने वाले अनुष्ठान में अनुष्ठान करने वाली स्त्रियों के मन में जो ऊर्जा उत्पन्न होती है वह प्रेम में रूपांतरित हो जाती है। उस ऊर्जा का, प्रेम का आलंबन एवं लाभार्थी भाई होता है। एक ही आलंबन में चूँकि ऊर्जा का स्थानांतरण आसान होता है इसीलिए इस अनुष्ठान में वास्तविक लाभार्थी, प्रेम का पात्र एवं उसके पारिवारिक विस्तार (पत्नी, बाल-बच्चे), सभी को मानसिक रूप से क्रोध का आलंबन बनाया जाता है।  बाद में वे सभी प्रेम एवं आर्शीवाद के पात्र हो जाते हैं।
अनुष्ठान कहने का आशय यह है कि सारी क्रिया मानसिक एवं सांसारिक स्तर पर की जाती है लेकिन उसका कोई वास्तविक या सामाजिक रूप नहीं होता है। मानसिक स्तर पर ही क्रोध के घनीभूत होने की प्रक्रिया को परिवर्तित कर उसे विस्तृत और व्यापक बनाने का क्रम शुरू कर दिया जाता है और यह क्रम धीरे- धीरे बढ़ता हुआ यम तक को अपना आलंबन बना लेता है।
यमार्यन्तानि यन्त्राणि कपालान्तं व्रतं महत्। 
समाजान्तानि तन्त्राणि न भूतो न भविष्यति।।
अहो सुविस्मयमिदं यद्दोषं तद्गुणं भवेत्।
न बोधिर्नाभिसमयो न भावो न च भावना।।
                     ( पृ. सं0 132) कृष्णयमारितंत्रम।
सारे यंत्र यमारि तक सीमित हैं, कापालिक से अधिक व्रत नहीं, समाज (गुह्य समाज) तक ही तंत्र हैं। इससे अधिक न हुए, न होंगे। यह कितने आश्चर्य की बात है कि न बोधि है, न (विशेष) अभिसमय, न भाव, न भावना। जो दोष है वही गुण हो जाता है।
इस सैद्धांतिक पृष्ठभूमि में बौद्ध परंपरा में किए जाने वाले यमांतक क्रोधराज के अनुष्ठान एवं भैयादूज के दिन किए जाने वाले अनुष्ठान की तुलना करने का प्रयास किया जा रहा है। 
यमांतक क्रोधराज के अनुष्ठान प्रत्याहार जैसे सामान्य अभ्यासों के द्वारा संभव नहीं हैं। ये भावना, कल्पना, एकाग्रता के गहन अभ्यास के द्वारा पूरे होते हैं। जहाँ तक यमांतक क्रोधराज की साधना-विधियों की तुलना का प्रश्न है तो इस प्रसंग में यह ध्यान रखना जरूरी है कि लोक-परंपरा में जब कोई भी साधना-विधि व्यापक रूप से शुरू होती है तो सर्वत्र उसका रूप शत-प्रतिशत एक ही प्रकार का नहीं होता है। विधियों का क्रमिक विकास भी होता है और साथ ही साथ क्षेत्रीय अंतर से भी सांदर्भिक अंतर आते रहते हैं। आगे इन दोनों अंतरों की प्रक्रियाओं के कुछ उदाहरण रखे जा रहे हैं। 
महायान परंपरा के मुख्य और आरंभिक ग्रंथों में एक मंजुश्रीमूलकल्प है। मंजुश्रीमूलकल्प का 50वां यमांतकक्रोधराजपरिवर्णनम् (पृ. 427- 430), 51वां यमांतक- क्रोधराजाभिचारुकपटलः, (पृ. 431-436), 52वां यमांतकक्रोधराजसर्वविधिनियमपटलः (पृ.437-450),ये तीनों पटल यमांतकक्रोधराज की साधना के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं। यमांतकक्रोधराज की भावना एवं उसके मंत्र और मंत्र तथा भावना के साथ किए जाने वाले अनुष्ठान के विविध लाभों की पूरी जानकारी यहाँ दी गई है। 
किसी पटल (चित्रपट, कैनवास) में जैसे अन्य देवी-देवताओं की उपासना के लिए चित्रपट बनाए जाते थे। उसी प्रकार से यमांतकक्रोधराज के लिए बनाए जाने वाले पट के निर्माण की प्रक्रिया विस्तृत रूप से वर्णित है। लोक-परंपरा में आज के समय यमांतक क्रोधराज के लिए मगध में पटनिर्माण की परंपरा उपलब्ध नहीं होती है। इसके स्थान पर भैंस के गोबर की आकृति जमीन पर बना दी जाती है और केवल यम ही नहीं, यम-यमी दोनों की आकृतियाँ बनाई जाती हैं। यह एक स्पष्ट अंतर है। 
मंजूश्रीमूलकल्प में जो फल बताए गए हैं और उससे होने वाली जो विविध सिद्धियाँ बतायी गई हैं, आज लोक-परंपरा में उन सिद्धियों की कोई चर्चा नहीं है। केवल इतना ही विश्वास है कि इस अनुष्ठान से अनुष्ठान करने वाली स्त्री के भाई को लंबी आयु प्राप्त होती है। 
बाद में अन्य छोटे-छोटे उपासना-क्रमों में भी यमांतकक्रोधराज की उपासना को आधार जैसा बना दिया गया है। चाहे वह यक्षिणी साधना का प्रसंग हो या कोई अन्य अनुष्ठान, यमांतकक्रोधराज की भावना का महत्त्व बढ़ता गया है। ऐसा लगता है कि बौद्ध परंपरा के लोग यम के पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं। छोटे-छोटे अनुष्ठान एवं कई प्रकार के ऐसे बिंब यम के विरोध में मिलते हैं। जैसे यमदंष्ट्रिणी, यमदाढ़ी, यमदूती, यममथनी, यमांतक, यमांतकृत्, यमारि आदि।1 ऐसे शब्द एवं उनसे जुड़े हुए अनेक बिंब उपलब्ध होते हैं। 
मानसिक एवं तात्त्विक स्तर पर यम एवं उसके विरोध या अंत करने की प्रक्रिया विविध ग्रंथों के विभिन्न स्थानों पर स्पष्ट की गई है। अकुशल धर्म यम रूपी हैं और उनको नष्ट करने वाली प्रक्रिया या अवस्था यमदंष्ट्रिनी है। इसी प्रकार कुछ पारिभाषिक अर्थ भी बनाए गए हैं जो कि प्रगट शाब्दिक अर्थ से मेल नहीं खाते हैं। जैसे उत्पत्ति कुशल धर्मों का संरक्षण यमदूती, अनुत्पन्न्ा अकुशल धर्मों का अनुत्पादन यममथनी हैं। 
इसी प्रकार यमांतक कहने का आशय यह है कि मृत्यु आदि के भय से मुक्त सभी तथागतों का जो श्रेष्ठ दमनात्मक ज्ञान है वही यमांतक है। दूसरी परिभाषा के अनुसार यम नरक है। भगवान बुद्ध महाक्रोध समाधि के द्वारा उस नरक का अंत करते हैं इसलिए वे यमांतकृत् है। 
यम मोह अंधकार और अविद्या रूपी है। ऐसे यम का नाश पारमार्थिक सत्य के द्वारा भगवान करते हैं इसलिए भगवान बुद्ध यमांतकृत् हैं। पूर्वोक्त रूप से यह स्पष्ट होता है कि यम अविद्या, अंधकार, नरक के अकुशल कर्म आदि के पर्याय के रूप में स्वीकृत है और मानव मन की इन सारी त्रुटियों, मलों का नाश क्रोध की साधना के द्वारा किया जा सकता है इसलिए इस साधना को महाक्रोधराज  साधना कहा गया है। क्रोध को महानतम अवस्था तक विधिपूर्वक सही ढंग से विकसित करने पर अनेक छोटे-मोटे मल नष्ट हो जाते हैं। 
किंवदंतियों में एवं साधु-संतों के बारे में प्रचलित आख्यानों में भी साधु- संतों का नकली रूप से ही सही, बहुत क्रोधी होना प्रायः चर्चित रहता है। समाधि या महासमाधि की अवस्था विविधता की समाप्ति, भेद की समाप्ति और सघनतम तादात्म्य की अवस्था होती है। ऐसे कई अन्य बिंब हैं - जैसे प्रज्ञा या उपाय की विधि और अनुष्ठान करने वाली चेतना के तादात्म्य की अवस्था जिसे पारिभाषिक रूप से युगनद्ध अवस्था कहते हैं। उस युगनद्ध अवस्था तक पहुचने वाला मार्ग और ज्ञान यमांतक है। सारे राग-द्वेष अपने और पराए की भावना में विकसित होते हैं। 
मगध मंे की जाने वाली साधना में जिस भाई के कल्याण की साधना की जाती है उसके अनिष्ट और अमंगल भाव वाले वाक्प्रहार, गालियों तथा क्रोध के साथ ही यह अनुष्ठान शुरू होता है और पूरे तन-मन को क्रोधाभिभूत किया जाता है। क्रोध की पराकाष्ठा में तादात्म्य स्थापित हो जाना मूल विधि है। 
तंत्रकोश में कहा गया है - यममद्वयं स्व-पराभिनिवेषो, तस्यान्तको युगनद्धवाहीति अर्थः। स्व और पर का भाव यम है और उसका अंत करने वाला युगनद्ध भाव वाला जो स्वरूप है वह यमांतक है।
चित्रपट की जगह गोमय आकृति बनाते समय भी यम और यमी के युगनद्ध रूप को रखा जाता है। उसमें भी यहाँ की परंपरा के अनुसार दोनों के मुख एक दूसरे के सामने नहीं होते हैं। युगनद्ध भाव के जैसे संभोगकालीन चित्र मिलते हैं उस तरह की आकृति न बनाकर एक का पैर और दूसरे का सिर इस प्रकार की उल्टी युगनद्ध आकृति बनाई जाती है। इसीलिए मगध में यह माना जाता है कि पति-पत्नी को सामान्य समयों में भी बिस्तर पर इस तरह नहीं लेटना चाहिए जिसमें एक का सिर और दूसरे का पैर आमने-सामने पड़े इससे आयु क्षीण होती है। 
यम को, द्वित्व को अंत कर देने की प्रक्रिया भी चलती रहती है और सामने गोमय आकृति में युगनद्धता का बिंब, उसका स्मारक तत्त्व सामने रहता है और उसको कूट-कटकर एक साथ मिला दिया जाता है। स्वाभाविक रूप से शून्यता और क्रोधाभिवेश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बच जाता है। 
इसी प्रक्रिया के पक्ष में गुह्यसमाजतंत्र के एक सिद्धांत का उल्लेख मिलता है। जो भाव किसी भी अकुशल भाव का नाश करे उस अकुशल भाव के द्वारा भी अभ्यास किया जाता है। मोह का मोेह के द्वारा उपभोग कर लेने से मोह का क्षय हो जाता है और मोह का क्षय होने से यम का क्षय होता है। वहीं तंत्रटीका में इस प्रक्रिया को और स्पष्ट किया गया है कि ग्राह्य एवं ग्राहक का आकार जब परिहीण या समाप्त हो जाता है, दोनों एक हो जाते हैं तब महासुख नाम वाला एक ही रस वाला ज्ञान उत्पन्न होता है। 
वही ज्ञान यमारि है, वही यम का शत्रु है। गोधन कूटने की प्रक्रिया में भी यम और यम को कूटने वाले, दोनों की ग्राह्य-ग्राहकता समाप्त होते ही क्रोध की परिणति महासुख नामक सुख में हो जाती है और ऐसा व्यक्ति ही वस्तुतः तादात्म्य अवस्था में जिस किसी की मंगलकामना करता है उसे उसकी मंगल कामना का आशीर्वाद प्राप्त हो जाता है। 
इस प्रकार संक्षेप में इस अनुष्ठान के कुछ घटकों की तुलना की गई। क्रोधकुल के जितने अनुष्ठान हैं उनसे  कुछ न कुछ समीपता मिल जाना बहुत सरल है। इसलिए जो इस विषय का विस्तृत अध्ययन करना चाहेंगे वे वहाँ अध्ययन कर सकते हैं। मगध में इस समय पट की जगह गोमय आकृति का बनाना और भावना के रूप में क्रोध की भावना को मजबूत करने के लिए तन-मन, दोनों को सम्मिलित करने की प्रक्रिया प्रचलित है जो गोधन कूटने की प्रक्रिया है। 
इस कूटने की प्रक्रिया का विस्तार और इस विधि में समन्वय कब किया गया यह शोध एवं अध्ययन का विषय है लेकिन इसके मौलिक सिद्धांत एवं मूल दृष्टि एक हैं। जहाँ तक पौराणिक परंपरा से इस अनुष्ठान की तुलना का प्रश्न है, पौराणिक परंपरा में यह अनुष्ठान कार्तिक द्वितीया और यमद्वितीया के नाम से जाना जाता है। यम का स्थान साधना की दृष्टि से सूर्यमंडल में है। यम सूर्यवंशी हैं, सूर्य के पुत्र हैं और नदियों में यमुना को सूर्य की पुत्री माना गया है। सूर्यपुत्री यमुना चंद्रवंशी क्षत्रियों के प्रदेश में घूमती हैं। यह एक समन्वय का रूप है। इस प्रकार यम और यमुना दोनों का रिश्ता भाई-बहन का है। 
एक बार प्रसन्न्ा होकर यम ने यमुना को वरदान दिया कि जो भी स्त्री यमद्वितीया (भ्रातृद्वितीया) के व्रत का अनुष्ठान करेगी उसका भाई यम के कोप से मुक्त रहेगा और उसकी अकाल मृत्यु नहीं होगी। 
भातृद्वितीया के दो रूप लोक-परंपरा में प्रचलित हैं। एक रूप यम कूटने वाला है जो प्रायः काशी के पूर्वी क्षेत्रों में प्रचलित है। काशी के पश्चिमी क्षेत्रों और विशेषकर ब्रज में यमद्वितीया के दिन यमुना में स्नान का और खास करके मथुरा में यमुना-स्नान का महत्त्व है। प्रातः काल यमुना-स्नान किया जाता है और सायंकाल गोवर्धन पहाड़ पर दीप-दान किया जाता है। वहाँ केवल प्रेम है, यम एवं यमुना भाई बहन हैं, अंत का भाव नहीं है।
भाई और बहन के प्रेम को प्रगट करने वाली धारा में यम को अंत करने और कूटने की संभावना यम को अंत करने की कल्पना का मूल स्रोत बौद्ध परंपरा में ही मिलता है। यमारि, यमांतक जैसे बिंब बौद्ध परंपरा में ही हैं। काशी के पूर्व के क्षेत्रों में यम को कूटने के बाद अनुष्ठान के अंतिम चरण के रूप में मूसल को यम और यमी की छाती पर रख दिया जाता है। और कूटने वाली स्त्री का भाई उसके ऊपर चढ़कर पार करता है और यम के भय से मुक्त होने की भावना करता है।
साधना की प्रक्रिया मंे सूर्य, सोम एवं अग्नि की मंडल भावना के लिहाज से यदि देखा जाय तो यम की उपासना चाहे मित्रभाव से हो रही हो या शत्रुभाव से, दोनों में ही सूर्यमंडल की भावना मूल विषय है। सूर्यमंडल की भावना प्रचंड क्रोध की साधना के लिए अनुकूल पड़ती है। इसका विस्तार साधनमाला में मिलता है।
लोक-परंपरा में कई धाराओं की सामग्रियों का समन्वित रूप उपलब्ध हो रहा है। एक ओर यमांतक क्रोध के साथ यम को कूटने की प्रक्रिया चल रही है तो दूसरी ओर पौराणिक धारा के अनुसार यम और यमुना के बीच के अनन्य प्रेमभाव को भाई-बहन के प्रेम भाव के रूप में स्वीकृत किया गया है। 

संदर्भ एवं उद्धरण -
1. देखें- बौद्ध तंत्रकोश भाग-1-
यमदंष्ट्र्णिी-
उत्पन्न्ाानामकुशलानां धर्माणां प्रहाणं यमदंष्ट्र्णिी।
 (वसंततिलक योग, पृ. 57)
यमदाढी-
अनुत्पन्न्ाानां कुशलानां धर्माणामुत्पादनं यमदाढी। (व0 ति0, पृ. 57)
यमदूती-
उत्पन्न्ाानां कुशलानां धर्माणां संरक्षणं यमदूती। (व0 ति0, पृ. 57)
यममथनी-
अनुत्पन्न्ाानामकुशलानां धर्माणामनुत्पादनं यममथनी।  
(व0 ति0, पृ. 57)
यमांतकः-
मरणादिभयान्मुक्तं सर्वताथागतं परम्। 
प्रकृष्टं दमनज्ञानं त्तो यमांतकः स्मृतः।। (ज्ञा0 सि0 15.15)
यमांतकृत्-
यमो नरकस्तस्य भगवान महाक्रोधसमाधिनान्तं करोति नाशयतीति यमांतकृत् नेयार्थः। यमो मोहान्धकारोऽविद्या तस्य परमार्थसत्येनान्तं करोति नाशयतीति यमांतकृत् नीतार्थः। (गु0 स0 प्र0, पृ. 26)।
(2) बौद्ध तंत्रकोश भाग-2 पृष्ठ 112
यमांतकः-
यमं द्वयं स्वपराभिनिवेशः, तस्यान्तको युगनद्धवाहीत्यर्थः। 
(अ0क0,पृ. 49)
यमांतकृत्-
अविनाशात्मका धर्मा अनुत्पादस्वभावतः। 
समयः सर्वभावनां तेनैवान्तककृद्यमः।।  (गु0 स0, 19.52)
मोहो मोहोपभोगेन क्षयमोहो यमांतकृत्।
कायान्तकृद् भवेत्तेन तथा ज्ञेयान्तकृ˜वेत्।। (गु0 स0, 19.57)
यमारिः-
  ग्राह्यग्राहकाकारपरिहीणमहासुखैकरसं यज्ज्ञानं तद्यमारीत्यर्थः।
(कृष्णराज तंत्र टीका, पृ.134)
(3) प्रत्यालीढपदोर्ध्वकेशरसटाकोटिस्खलत्तारका-
कुन्दापीडकरालभोगिपटलालड्कारभीमास्पदम्।
उद्यद्दक्षिणपाणिदण्डविकटं प्रज्ञासमालिड्गितं
नत्वा रक्तयमारिमात्ममतये त्तसाधनं ब्रूमहे।। (पृ. स0 537)
ध्यायात् समाहितमना हृदये स्वकीये
रक्ताकृतिप्रभवचण्डमरीचिबिंबम् ।
रक्ताकृतिप्रभवचण्डकरस्थनीलं 
हुँकाररूपकुलिशाङ्कितनीलदण्डम्।
दण्डस्थहुँकृतिधरस्फुरदंशजालं 
स´्चोदिताखिलजिनानयनप्रवेशम्।।
दृष्ट्वैतदेव निखिलं परिणम्य पश्चात्
आत्मानमाशु परिभाव्य यमारिरूपम्। (पृ. सं0 548)
पश्चाद् विचिन्त्य भगवद्हृदयस्थितार्क- 
संस्थायिहुँकृतिकरैरवभास्य विश्वं।
तत्र प्रवेशमचिरं पुनर्व्विदध्यात्।। (पृ. सं0 549)
कृत्वा यमारिभगवल्लधुसाधनं मे 
मैत्रोश्रियं यदिह जातमगण्यपुण्यम्।
तेनास्तु विश्वमखिलं भगवद्यमारि 
रूपं भवेयमहमप्यचिराद् यमारिः।। (पृ. सं0 550) 
साधनमाला, बिनयतोष भट्टाचार्य, 
ओरियंटल इंस्टिच्यूट, बडौ़दा 1968

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