सोमवार, 25 अप्रैल 2011

इस बार सत्तू पर एकादशी की चोट और बृहस्पति का प्रकोप

इस बार भी सत्तू खाने के उत्सव वाला दिन आ ही गया। इस दिन की प्रतीक्षा अनेक लोगों को रहती है। नए चने का सत्तू, बौराया हुआ आम या टिकोरा, शुद्ध घी, दूध ,गुड़ के साथ सना सत्तू, नए घड़े/सुराही का पकी मीट्टी की सोंधी खुशबू वाला पानी सब नया-नया, सबका मजा लाजवाब। कुछ लोग खश की जड़ पानी में डाल देते हैं। मुझे पीने में खश पसंद नहीं है।
आज मेष की संक्रांति है, खरमास समाप्त हो गया। रूखा-सूखा, उदास टाइप वाला समय गया। शादी-विवाह अन्य उत्सव मंगल मनाने और अपने घर में अवसर न हो तो दूसरों की शादी से भी मजा लेने की आज से पूरी छूट है। बाजर-बिजनेश की रौनक अलग।
फिर भी इस खुशी के मौके पर एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों का संकट हो गया। सतुआन साल में बस एक दिन आता है ये एकादशी जी का क्या, महीने में दो बार पधारते हैं और वृहस्पतिवार को हर हफ्ते आना ही है। एकादशी के दिन फलाहार होता है। एकादशी करने वाला महान माना जाता है।
सत्तू की प्रतिष्ठा अब बढ़ी है, जब से लोगों को गैस एवं एसिडिटी की बीमारी पकड़ी है। मैं तो सामान्य आदमी हूँ, एकादशी नहीं कर सकता। न तो अभाव में दुःखी रह सकता हूँ, न महँगे फलाहार एवं नृत्य-संगीत वाली एकादशी का खर्च जुटा सकता हूँ अतः मैं सत्तू वाले सतुआन के पक्ष में हूँ। बुरा हो उनका, जिन्होंने सास टाइप खाली बैठी घरेलू औरतों के लिए सप्तवार व्रत की पोथी निकाल दी है। हर दिन के खाने-पीने के नियम अलग-अलग बना डाले हैं।
ये नियम अगर सतुआन की तरह ‘अवश्य खाने’ के बारे में रहें तो मुझे कोई दिक्कत नहीं लेकिन कुछ लोग तपस्वी बनने की चक्कर में ‘न खाने’ के नियम अधिक बनाते हैं। इन्हें दूसरों को और बस न चले तो अपने को सताने में मजा आता है। नियम बनाया कि वृहस्पतिवार को चना, सत्तू, भूँजा या भूँज कर पिसा हुआ अन्न न खाएं। इस चक्कर में मेरा सतुआन फँस गया था। श्रीमती जी ने एकादशी की, व्रत रखा और बेचारे सतुआन को छोड़ दिया।
मैं ने पूरा मजा लिया - प्रातः काल नाश्ते में सत्तूू, घी, दूध, गुड़ आम के टिकौरे के साथ और दोपहर में सत्तू, भूना जीरा, नमक (दोनों सादा एवं काला) नींबू और छोटी सी हरी मिर्च के साथ थोड़ी सी गोलमिर्च मिलाकर विधिवत खाया। सत्तू खाने की शास्त्रीय विधि है। खाने की ही नहीं बनाने की भी विधि वैदिक काल से वर्णित है। सत्तू एक वैदिक भोजन है। देवता हिमालय में रहते हैं इसलिए तिब्बत, चीन एवं संपूर्ण उत्तरी भारत में सत्तू खाया जाता है। सत्तू बनाना एवं खाना ज्ञानी लोगों का काम है - वेद में कहा गया है -
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र घीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते,भद्रैषा लक्ष्मीर्निहिताधिवाची।।
भावार्थ - जैसे बुद्धिमान व्यक्ति चलनी से सतू को साफ करता है, उसी प्रकार धीर व्यक्ति मन से वाणी को शुद्ध कर लेता है, भित्रता करने वाला व्यक्ति मैत्री की ठीक पहचान रखता है। हे सज्जन व्यक्ति यह जो लक्ष्मी है, वह वाणी (सुंदर) में प्रतिष्ठित है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्तू खाने के लिए सुंदर वैदिक मंत्र भी उपलब्ध है। गौरवशाली इतिहास है, उत्सव है और भला चाहिए क्या? इसके बावजूद देवगुरू वृहस्पति को सतू से कब नाराजगी हो गई इसका इतिहास नहीं मिलता। ठीक इसी तरह फिल्मों के माध्यम से प्रचारित संतोषी माता के प्रभाव के पहले शुक्रवार को खटाई खाने पर पाबंदी नहीं थी। दही और नींबू से साल में 50 दिन का वैर तो संपूर्ण भारतीय भोजन संस्कृति से बगावत है, यह धार्मिक हो ही नहीं सकता। संतोषी माता के व्रत में प्रसाद खाने वालों पर भी पाबंदी है, यह तो और खतरनाक है।
तो मैं शुक्र और वृहस्पति दोनों की नाराजगी मोल लेने को तैयार हूँ और हर साल सतुआन मनाऊँगा उस दिन एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों आकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं अगर धर्मशास्त्री बनूँगा तो प्रावधान करूँगा कि सालाना उत्सवों के दिन अगर एकादशी जैसे व्रत की तिथि आ जाय तो उस दिन की एकादशी में अवश्य सतू खाना चाहिए।
आशा है, आप मुझसे अभी सहमत न भी हों तो अगले साल सतुआन तक सहमत हो जायेंगे।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

मौके की मदद

मौके की मदद

एक बार हमलोग अर्थात् पति-पत्नी एवं दो साल के पुत्र के साथ मोटर साईकिल यात्रा कर रहे थे। उत्तरी एवं मध्य भारत के सुदूर गाँव के जंगलों में समाज सेवा करने वालों से मिलने एवं वादियों में घूमने का निर्णय हुआ।
उसी क्रम में हमलोग एक मित्र के यहाँ कटनी में रूके थे। वह दौर हमारे अर्थसंकट का दौर था। तय किया गया कि कटनी से जबलपुर जाकर शाम तक वापस आया जा सकता है। हमलोग सुबह रवाना हुए। भेड़ा घाट में स्नान हुआ। कुल सौ रूपये में से भोजन वगैरह में 50 रूपये खर्च हो गए। शहर से बाहर निकलते ही मोटर सायकिल पंचर। मरम्मती बाद बढ़े कि फिर पंचर, इस प्रकार तीन बार पंचर। हिम्मत जुटाकर वापस चले।
रास्ते के जंगल में जोर की वर्षा और ओले। किसी तरह बेटे को बीच में छुपाया। हेलमेट और बैग से जान बचाई। तीन-चार कीलोमीटर पर एक बाजार या छोटे कस्बेनुमा आबादी में पहुंचे तो पता चला कि यहां एक लॉज है, जिसमें रात बिताइ जा सकती है। हमने मोटरसायकिल खड़ी की। लॉजवाले से सिगल कमरा मांगा क्योंकि हमारे पास पैसे बहुत कम थे, कुल मात्र 45 रुपये। खैरियत थी कि पेट्रोल था। लॅाजवाले किसी हाल में तैयार नहीं। वह 65 रुपये के डबल बेड पर टड़ा था। हम भींगे हुए कांप रहे थे। कपड़े भी अतिरिक्त नहीं थे। उसी समय दो और सज्जन उसी लॉज में भींगे पहुंचे। उन्हे कुछ आशंका हुई तो पूछा कि आपको डबल बेड लेने से एतराज क्यों है?
हमने अपनी सच्चाई बताईं उन्हें दया आ गई। उन्होंने 45 रुपये दिये। डबल बेड लिया गया। कृतज्ञतापूर्वक पूर्वक उनका पता पूछा ताकि उनके रुपयों को मनिआर्डर से वापस किया जा सके। हमें पता नहीं मिला। हाँ, एक सुझाव मिला कि अगर कोई आपको भी मुसीबत में मिले तो यह राशि उसे दे कर समझियेगा कि कर्ज की वापसी हो गई।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

प्रेत भोजन

प्रेत भोजन

1980 की बात है। मै बी0एच0यू0 का छात्र था। हॉस्टल नहीं मिला था। कमरा खाली नहीं था, उस समय हॉस्टल में गुंडों का बर्चस्व था। तात्पर्य है कि पहले छात्र को कमरे पर काबिज होना पड़ता था। आवंटन आदि की औपचारिकता बाद में पूरी कर ली जाती थी।
कला संकाय के छात्रों को बिरला छात्रावास मिलना था। समस्या गंभीर थी, एक तो कमरे का मिलना, फिर गुंडो का आतंक। पता लगाने पर पता चला कि एक कमरा 198 नंबर का खाली है, जिसे कोई लेने को तैयार नहीं है। वह कमरा अभिशप्त माना जाता था। उसमें रहने वाले पूर्ववर्ती 2 छात्रों ने आत्महत्या कर ली थी। उस समय उसमें अस्थाई योग शिक्षक मौर्य जी का भोजन बनता था क्योंकि घर में उन्हें मनोनुकूल भोजन नहीं मिल पाता था। मौर्य जी हठयोगी थे। उनका प्रेशर कूकर 8 लीटर का था। 24 घंटे में एक बार खाना पसंद करते थे। भारतीय होकर भी पूरे अफ्रीकी कद-काठी के थे। उनसे लड़ने का किसी को साहस नहीं था और उनका स्वभाव अति विनम्र।
मौर्य जी ने कमरा देना स्वीकार किया। असली बात यह थी कि मैं रह सकूँगा या नहीं। अप्रैल के महीने में एक रात मेरा ‘कमरा प्रवेश’ हुआ। न बिस्तर, न पंखा, जो चौकी थी उस पर तकिये के रूप र्में इंट पर गमछा रखकर सो गया। सोने में उस्ताद होने पर भी नींद आते ही भय घेरने लगा।
पहले बरामदे में रूनझुन आवाज आई, फिर करूण क्रन्दन, फिर 2 प्रेत दिखाई दिये और उसके बाद प्रेतों का मेला ही लग गया। पता नहीं रात के कितने घंटे बीत गए। मुझे प्रेत नोच रहे थे, कोई गला दबा रहा था। लगता कि अब साँस बंद हो जायेगी और मौत हो जायेगी।
अचानक मेरे मन में विचार आया कि मुसीबत में हनुमान जी काम आते हैं। हनुमान जी का विचार आते हीं मुझमें भी ज्ञान एवं बल का संचार होने लगा। आइडिया की तो बात ही क्या कहिये? विचार आया कि सुरसा जब मुँह फैला कर हुनमान जी को उदरस्थ कर सकती है, तब मैं ही क्यों नहीं इन प्रेतों का भोजन कर लूँ।
आम तौर पर जगे हाल में शाकाहारी ब्यक्ति भयानक प्रेतभोजी हो गया। मैं ने मुहँ फैलाया और साँस के बल पर प्रेतों को खींच खींच कर भोजन करता रहा। भय भयानक आत्म विश्वास में परिवर्तित हो चुका था। आस-पास के सारे प्रेत समाप्त हो चुके थे।
इस क्रम में मेरे पेट के अंदर हवा भरती जा रही थी, आनंद मस्ती अलग। जब भर-पेट भोजन हो तो डकार आयेगी ही। तो मुझे भी लंबी-लंबी डकार आने लगी। उसकी आवाज से पड़ोस के कमरे के लोगों को परेशानी होने लगी कि इस कमरे से ऐसी आवाज क्यों आ रहीं है। उस कमरे में निशाचर प्रकृति के लोग रहते थे। निशाचर मतलब छात्रवेश में छुपे अपराधी। उन्होंने टार्च जलाया, कमरा खुला था, बल्ब तो था ही नहीं। एक शव जैसा देख बे घबराये। साँस एवं डकार के कारण उन्हें मुझे छूने की हिम्मत जुटानी पड़ी। मुझे झकझोर कर जगाया।
मेरा स्वप्न बाधित हो गया था। भोजन से संतुष्टि पूरी नहीं हुई थी। मैं ने चिढ़कर जवाब दिया कितना अच्छा भोजन चल रहा, बीच में ही किसने विघ्र डाल दिया, लगता है तुम्हें ही खाना पडेगा।
उन्होने पूरी तरह जगाया। परिचय पूछा, नींद एवं स्वप्न का हाल बताना पड़ा। वे मुझे डरा नहीं सके। मैं उस कमरे में लगभग 5 महीने रहा। प्रेत भोज के बाद मृतआत्माओं का प्रकोप तो नहीं हुआ किन्तु उन निशाचरों ने बाद मे मुझे बहुत कष्ट दिया।

रविवार, 10 अप्रैल 2011

काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य

संस्मरण 5
काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
काका साहब की दाढ़ी 1970 के आस-पास काफी लंबी हो चुकी थी। चौड़ा चहेरा और सुंदर सफेद दाढ़ी मुझे अच्छी लगी थी। मेरी उम्र 10-11 साल के करीब होगी।
राजगिर, बिहार में सर्वोदय सम्मेलन था। मैं अपने पितामह के साथ था । किसी फूजी गुरूजी की चर्चा थी। उसी समय राष्ट्रपति के द्वारा शांति स्तूप का उद्घाटन होना था लेकिन मैं राष्ट्रपति से अधिक उनके उड़नखटोले के प्रति उत्सुक था। खैर दोनों केा देख लिया, कुछ खास मजा नहीं आया।
अब बारी महापुरुषों से मिलने की थी। गाँधी से मिल नहीं सकता था। मेरा जन्म 1959 में हुआ, ऐसा लोगों का कहना है। मैंने सोचा कि इस भीड़ में मैं बड़े लोगों से कैसे नजदीक से मिल सकता हूँ। तब बाबा (मेरे पितामह)से पता चला कि सबके अंतरंग क्षण एवं समय भी होते हैं। बिनोबा जी से मिला, ठीक-ठाक काम चलाऊ आदमी थे। खुशी की बात थी कि बच्चों से भी बात कर सकते थे। जयप्रकाश जी को बच्चे समझ में नहीं आते थे। मेरा एक बार उनसे मुकाबला हुआ। मैं अपनी फुलवारी के बिचड़े के लिये उनकी अच्छी सी माला जो उन्होंने उतार कर रख दी थी उसे पाने के प्रयास में था और उन्हें मेरी हरकतें नागवार लग रही थीं। चोर सिपाही के इस खेल में मुझे डर तो लग रहा था पर उन्हें छका कर बड़ा मजा आया। इसका वर्णन अलग से करूंगा।
काका कालेलकर जी के कमरे में हमलोग पहुँचे। उस समय वे राज्य सभा में सांसद थे। मेरे पितामह की भी दाढ़ी थी। पितामह ने पूछा काका साहेब! आपने दाढ़ी क्यों बढ़ाई? काका साहब ने पूछा - दाढ़ी तो आपकी भी बढ़ी हुई है, आपने क्यों बढ़ाई? मेरे पितामह ने कहा मैं तो 1923 से ही बढ़ाए हूँ, उस जमाने कहाँ नाई ढ़ूढ़ता, जो बढ़ गई सो बढ़ती रही। आपने तो बाद में बढ़ाई। काका साहब ने कहा - पाठक जी! दाढ़ी मेरे पूरी फक सफेद है। यह तो मैं अब बुढ़ापे का प्रमाण बना गले में लटकाए फिर रहा हूँ कि कुछ तो आराम मिले वरना लोग मुझे बूढ़ा मानने को तैयार ही नहीं। बाद में मुझे उनके कुछ विनोद पढ़ने को मिले। मैं जब भी पढ़ता मुझे काका कालेलकर जी, उनकी दाढ़ी और वे क्षण याद आ जाते।

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

मेरी भैरव साधना

मेरी भैरव साधना

मैं बनारस के नगवाँ गाँव में रहता था। यह गाँव शहर से सटा हुआ था। अस्सी से दक्षिण नगवाँ गाँव है। शहर के पास, लेकिन मजा गाँव का। कष्ट भी वही। मेरा कमरा सड़क के किनारे था, कमरे के सामने बरामदा फिर सड़क, उसके बाद गेंदे की खेती, उसके बाद गंगा, गंगा किनारे कच्चा घाट। एक से एक जादू-टोने के सामान रोज मिलते, आखिर कितना डरा जाय तो हम डरे हीं, नहीं। हमारे जैसे कई ऐसे छात्र थे जो नहीं डरते थे।
एक दिन मैं नागरी नाटक मंडली (शहर का परम्परागत प्रेक्षा गृह) से नाटक देख करीब 12 बजे रात को कमरे में लौटा। बहुत तेज भूख लगी थी। लकड़ी के कोयले की अंगीठी पर खिचड़ी बनी, घर का घी मिलाया, थाली में परोसा। उस समय मेरे पास न पंखा था न टेबुल, न कुर्सी। एक चारपाई, कुश की, सस्ती वाली, दो चटाईयाँ, एक छोटा संदूक, एक साईकिल, यही कुल जमा पूँजी थी।
मैं चटाई पर बैठ गया, संदूक सामने रखा, गंदगी से बचाव एवं पंेट की रक्षा हेतु उस पर कुश की चटाई रखी, उस पर घी के सुगन्ध से युक्त खिचड़ी भरी थाली, बगल में लोटे-ग्लास में पानी। चूँकि खिचड़ी के ठंढे होने तक इंतजार करना ही था अतः पीछे रखी चटाई से पीठ टिकाकर बैठ गया। प्रतीक्षा थी खिचड़ी के ठंढी होने की। पता नहीं कब थकान और खुले दरवाजे से आती गंगा की ठंढी बयार ने मुझे सुला दिया। जब आँख खुली तब तक थाली पूरी साफ हो चुकी थी। मैं मन मसोसकर सो गया।
दूसरे दिन नित्य क्रिया के लिए गंगाजी से वापस लौटा तो मेरे मकान मालिक मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी तरह नतमस्तक। मेरा भूख से बुरा हाल था और वे थे कि मुझे महान साधक सिद्ध किए जा रहे थे।
बार-बार बोल रहे थे - मैं ने अपनी नजर से रात के 2 बजे देखा है कि कमरे में ध्यानस्थ साधक बैठा है और एक महान भैरव (बड़ा काला कुत्ता) मजे से भोग लगा रहा है। सामने पात्र (ग्लास) है, पता नहीं उसमें दक्षिण मार्गी का गंगा जल है या वाम मार्गी की मदिरा (कारणवारि)। ऐसा निर्विघ्न आमंत्रण एवं भैरव को साक्षात् भोग लगाते तो मैं ने कभी देखा ही नहीं। आप सचमुच सिद्ध पुरूष हैं। यह मैं ने देख लिया है। कुछ आशीर्वाद दें, मेरा भी भला हो।
उन्होंने आश्वासन दिया कि अगर आप वाम मार्गी हैं तो भी मैं आपको कमरे से नहीं भगाऊँगा। इतना ही नहीं पूजा सामग्री अर्थात् मांस एवं मदिरा की व्यवस्था मेरी ओर से रहेगी।
मुझे भय सताने लगा कि कहीं मेरी भैरव साधना की चर्चा घर पहुँच गई तो आगे की पढ़ाई-लिखाई का खर्चा बंद हो जायेगा। मेरी भैरव साधना न करने सफाई कभी नहीं मानी गई।


मेरी काम भावना का विकास
मसूरी से आगे कैम्पटी में एक संस्था है सिद्ध। वहाँ बड़े-बड़े महान समाज सेवकों एवं बुद्धिजीवियों की एक बैठक हो रही थी। श्री अरूण कुमार पानी बाबा की कृपा से मैं भी वहाँ शामिल था, एक अज्ञानी। मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैं ने भी एक लेख लिख मारा - ”शिक्षा में मौन का महत्त्व“। बैठक में शिक्षा से संस्कार एवं संस्कार से ब्रह्मचर्य तक की बात उठी। आदरणीय राधा बहन जी और किसी पॉलिटेकनिक कॉलेज के एक प्राचार्य जी मनुष्य के अन्दर छुपी काम भावना के उन्मूलन में पूर्णतः तत्पर थे। वे दोनो ब्रह्मचारी, मैं पूर्णतः सांसारिक माया वाला आदमी। इनकी बात समझ में ही नहीं आ रही थी। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं ने अपनी उलझन रखी, सो आपको भी बता रहा हूँ।मैं गाँव में पैदा हुआ, वहाँ खेती और पशुपालन दोनो होता था। पशुओं की कामेच्छा, यौनक्रिया, गर्भधारण एवं प्रसव हमारे नित्य पारिवारिक चर्चा का प्रसंग था, क्योंकि गाय/भैस के प्रसव से हमारे दूध मिलने का सीधा रिश्ता था। बनिए के कर्ज की भरपाई खेती से नहीं पशुपालन से ही हो पाती थी। 10-12 साल तक भले ही हमने मनुष्य को रति क्रिया करते न देखा हो किन्तु पता था कि मनुष्य भी कुछ ऐसा ही करते हैं। 16-17 साल तक अपनी जवानी भी चढ़ने लगी थी। 20 साल की उम्र कॉलेज के दिनों की। आए दिन संत महात्मा, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते-सुनाते मिलते तो घर के बड़े लोगों के साथ बहनों की शादी के लिए वर ढूंढ़ने जाने में भी झोला ढोने के लिये बे मन उनका साथ देना पड़ता। मुख्य चिंतन का विषय लड़के-लड़की की कद-काठी, दोनो के भावी दांमपत्य के मूल आधार, कमाई की संभवना, संततियोग एवं शारीरिक संरचना होते। और तो और जब हम जिम्मेारी के लायक माने जाने लगे तो हमें पशु मेले से बछिया और कड़िया (भैस का मादा बच्चा) खरीदना सीखना था। दो बातें मूल थीं कि के आगे बछिया और कड़िया चलकर दुधारू हो, प्रसवकाल में मरे नहीं। पूरी जवान गाय, भैस के शरीर विकास का अनुमान, चमड़ी से हड्डी तक पैनी नजर पहचानने वाली बने, यही तो काम था। जब जानवर समझा तो आदमी भी समझ में आने लगे।
इस प्रकार मेरी काम भावना का विकास होता रहा। बाहर की औरत के पहले हमें तो भीतर की औरत से भंेट कराया गया, उसका मजा ही अलग है। इस प्रसंग को बाद में लिखूँगा। हाँ तो इस प्रकार सृष्टि के नजदीकी सभी रूपों को काम भावना की दृष्टि से देखने-सुनने, विचार करने की प्रक्रिया पर मुझे समाज के किसी सदस्य ने न कभी टोका, न मना किया, इसलिये उस बैठक में समझ में नहीं आया कि मेरी काम भावना के विस्तार से समाज को क्या संकट हुआ ?अब तो अगर अविवाहित लड़के-लड़के दिखे नहीं कि तुरन्त ख्याल आता है कि जोड़ी कैसी रहेगी? ठीक लगी तो लगता है इनकी शादी हो जाती। मेरा बेटा भोपाल में पढ़ता है, उसकी बहू के लिए ख्याल आ ही जाता है। मैंने अपनी तीन बहनों एवं दो भाईयों की शादी में सीधे जिम्मेवारी बड़े भाई के रूप में निभाई। हर साल एक-दो जोड़ी का जुगाड़ बैठाता हूँ। मुझे अपने बेटे के लिए अच्छी बहू के साथ एक अच्छी खूबसूरत समधन भी मिल जाये तो और अच्छा। इससे न तो मेरी पत्नी को समस्या होगी न एक मस्त समधी से मुझे जो हँसी मजाक में रस लेने वाला हो। बुढ़ापे का सुख तो इसी में है कि दूसरे को खेलते-खाते हँसते देख अपनी जवानी और बचपन की बेवकूफियों पर हँसा जाए, नहीं तो जलन का रोग चिता पर चढ़ने से पहले ही जला डालेगा।
मुझे समझ में नहीं आता कि ब्रह्मचर्यवादियों की समस्या क्या है? मेरी काम भावना के विकास से उन्हें क्या कष्ट हो सकता है? उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया। यदि मेरा रास्ता गलत हो तो सुधार का प्रयास इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो किया ही जा सकता है। अन्यथा यह काम भावना पोते-पोतियों की पीढ़ी तक फैलती ही जायेगी। ईश्वर जाने आगे क्या होगा?

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

संस्मरण 4 मौन में व्याख्यान

संस्मरण 4 मौन में व्याख्यान

भारतीय संस्कृति के अनेक पक्षों में महत्वपूर्ण पक्ष अध्यात्म, योग वगैरह की साधना, उसकी विविध पद्धतियों एवं उसकी लंबी परम्परा को भी माना जाता है। तन, मन एवं सृष्टि के साथ उसके संबंधों पर कई जन्मों तक में न पढ़ी जा सकने लायक किताबें लिखी-पढ़ी, बिखरी पड़ी है। पोथियों के खिलाफ बोलनेवालों की भी पोथिंयाँ आ गई हैं। यह पोथी विरोध समझ में नहीं आता था।
मेरे गाँव-इलाके यूँ कहिए कि जिले के आरा, सासाराम रोड पर पीरो बिक्रमगंज के बीच दुर्गा डीह नामक गाँव में एक महान व्यक्ति पैदा हुए, 1920 के आस-पास। बचपन में साधु होकर घर से निकले। हिमालय आदि में साधना सीखी। साधना पूरी हो गई। अब बारी आई सिखाने की। गुरूजी ने दक्षिणा-बिदाई के अवसर पर कहा - ऋषिकेश वाले शिवानंद जी के शिष्य देश-विदेश में योग सिखा रहे हैं। तुम भी सिखाओ।
नये साधु का नामकरण स्वामी मधुसूदनदास जी हो गया था। स्वामी मधुसुदन दास जी ठहरे अनपढ़। अनपढ के द्वारा योग शिक्षा, वह भी देश एवं विदेश में। आसन-प्राणायम हठयोग सिखाना नहीं, सिखाना राजयोग, ध्यान योग, कुंडलिनी, साधना वगैरह। स्वामी मधुसुदन दास जी की मजबूरी में उनके भीतर के असली गुरू का स्वरूप उभरा और उन्होंने ऐसी विधि प्रचलित की, जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सका।
स्वामी मधुसूदन दास जी पूरे परिवार को एक दरी पर पाँच-छः फूट की दूरी पर बिठाते। उन्हें आँख मूंदने को कहते और अपने सामर्थ्य से उनकी अंतर्यात्रा शुरू करा देते।
आँख बंद किए हुए ही अपने शरीर एवं मन के संस्कारों के अनुरूप सबकी साधना शुरू। आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, धारणा, ध्यान एवं एक साथ होने लगते। मजेदार यह कि किसी को पता नहीं कि मेरी साधना के इस मार्ग को क्या कहते हैं, उनकी प्रगति का स्तर क्या है और उसका महत्व क्या है? परिणाम यह कि कोई अहंकार नहीं। केाई ढांेग नहीं, न दुविधा, न प्रश्न, न उत्तर, बस सभी लगे रहे।
संकट मेरे जैसे किताब वालों को कि अदभुत विधि है? कितनी प्रामाणिक और सरल। जब बाहर से ही पता इतना चल जाता है तो भीतर का क्या अनुमान करें। दुर्भाग्य ऐसे सच्चे साधु को लोग समझ नहीं सके। अब तो उनके चेले भी किताब लिख रहे हैं। इनका आश्रम गुजरात में है।