शनिवार, 20 अगस्त 2011

भारतीय संस्कृति एवं समाज समझने के सूत्र


भारतीय संस्कृति एवं समाज समझने के सूत्र
मामला केवल शिक्षा का नहीं है। समाज के बारे में समझ का है। बातें आगे बढ़ें उसके पहले मैं आपको अपनी समझ, संदर्भ एवं सीमाओं के बारे में बताना चाहता हूँ।
भारतीय संस्कृति के संबंध में आम आदमी और राज्य व्यवस्था, राजाओं के अनवरत युद्धरत रहने पर भी शिक्षा, शिक्षा प्रणाली, संस्कृति, व्यवसाय का जारी रहना, विभिन्न लोगों का भारत आगमन एवं समाज का भाग बनना आदि बातों पर तो गलत अवधारणाएँ स्थापित की ही गई हैं। सबसे बड़ी समस्या है आम आदमी की जिंदगी में स्थापित प्रायोगिक बातों को एक मिथक या केवल विश्वास मानकर उसे खारिज कर देना। इस अंतिम गलती से तो पूरे समाज को मूर्ख, पागल या अंधविश्वासी मानना ही पड़ेगा।
उलटे अब योग और तंत्र के पीछे फिर दौड़ना भी शुरू हो गया। मैं दोनो ही संदर्भों में सत्य को सामने लाने का प्रयास करता हूँ । प्रायोगिक बातों को, जो अनुष्ठान, चलन, रीतिरिवाजों के रूप में समाज में स्वीकृत हैं स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ। इसे तर्क एवं अनुभव से जाना समझा जा सकता है। इसके पक्ष में परंपरागत प्रयोग पक्षीय योग एवं तंत्र शास्त्र के ग्रंथों को संदर्भ के रूप में उल्लिखित किया जा सकता है। आधुनिक ग्रंथों को जो इन बातों पर विश्वास ही नहीं करते उनका क्या संदर्भ दूँ?
उदाहरण के लिये - चिदाकाश धारणा योग-तंत्र धारा की वह आधारभूमि है जहाँ अनेक छोटी-बड़ी साधनाएँ सीखी जाती हैं। रोग निवारण का काम किया जाता है, छोटे-मोटे चमत्कार होते हैं या फिर ध्यान की गहराई में जाने की साधना होती है। कोई व्यक्ति अगर चिदाकाश धारणा के अस्तित्व को माने तब न आगे की बात समझ में आए। केवल एक मिथक या केवल विश्वास मानकर उसे खारिज कर देने की आधार भूमि में प्रायोगिक बात कैसे समझाई जाय?
मैं तंत्र की लोकोपयोगी बातों को सरलीकृत करके बताता हूँ । एक तरह से तंत्र की सारी बातें एक तरफ से गुप्त हैं लेकिन गोपनियता तो समझें कि है क्या? ऐसी गोपनीयता से समाज का क्या भला-बुरा हो रहा है?
’ समझदार और उदार लोगों के द्वारा लोकोपयोगी उतम बातों को एवं तंत्र की असांप्रदायिक (नन ब्रांडेड) मूल विधियों को स्त्रियों के द्वारा मुख्यतः किये जानेवाले सामाजिक/सामुदायिक अनुष्ठानों में सम्मिलित कर दिया गया।
’ वैदिक पंडित हों या बौद्ध पंडित अथवा नए युग के सेक्युलर बुद्धिजीवी, चाहे सोच-समझ कर इन अनुष्ठानों को नष्ट करनेवाले पुराने/नए संप्रदायों के लोग, किसी का ध्यान भी इनकी तरफ नहीं गया। अनुष्ठान व्यापक रूप से बच गए। दुकानदार दूसरों के माल को खराब कह रहे हैं असली माल आम आदमी के पास है।
’ समाज में स्वीकृति होने के कारण पुराने वैदिक आचार्य हों या नए या साम्यवादी, सर्वोदयी सबके घर में (कुछ कट्टर लोगों को छोड़कर) काशी से पूर्व में बहुसंख्यक स्मार्त (स्मृतियों के अनुरूप चलने वाले) लोगों के बीच तंत्र का वर्चस्व जन्म से श्राद्ध पर्यंत अभी भी चल रहा था नहीं, चल रहा है। इस नासमझी के सुप्रभाव से विधियाँ बची रहीं परंतु शव की तरह, बिना बिजली के पंखे-मोटर की तरह।
’ पहले भी अग्निहोत्री ब्राह्मण के घर भी दो आग ही रहती थी - यज्ञकंुुड की और चूल्हे की। अंतिम आग तीसरी आग तो डोम महाराज के श्मशान कुंड में रहती है या साधक की रीढ़ की हड्डी में। अब न तो घर, न कुंड, न श्मशान कहीं न आग रखी जाती है, न उसकी समझ बाकी है। हां बेमतलब कठोपनिषद पढ़ा जा रहा है- त्रि नाचिकेतस्तृभिरेतदग्नि या इष्टका यावतीर्वा यथा वा। न आग का पता, न ईंट का, फिर हवन हो तो कैसे? मृत्यु के पार जाना तो बहुत दूर की बात हुई।
’ काशी के पूर्व का श्राद्ध चांडाल एवं शूद्रों के साथ भोजन किए बगैर पूरा ही नहीं होता। वेद का चलता कहां है? किस पंरपरागत ब्राह्मण की औकात है कि श्राद्ध से शूद्रों को निकाल बाहर करे?
इस प्रकार देखें तो समझ की समस्या मूल है न कि गोपनियता की। आयुर्वेद एवं ज्योतिष में तो गोपनीयता है ही नहीं। जिनकी गठरी में कुछ है ही नहीं, वे ही अपनी खानदानी विद्या और गोपनीयता का हल्ला अधिक मचाए हुए हैं।
सच पूछिए तो कुल मिलाकर 20-25 अनुष्ठान विधियाँ हैं, इनमें ही सारे पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के उपाय सम्मिलित हैं। सामूहिक किंतु गुप्त रूप से इन्हें तीन-चार साल में सीखा जा सकता है। पारिवारिक/सामाजिक रूप से अधिक से अधिक तीन-चार महीने में। फिर मूर्खों के आडंबर को देखिए और हँसिए। अनुष्ठान भी वही पुराने मगध-मिथिला बंगाल के चिरपरिचित: - संकल्प, न्यास, उद्धार (बीज, मंत्र एवं ऋषि संबंधी) कवच, मटकोर, हल्दी, चुमावन, मंडपाच्छादन, मंडप खोलना आदि ? और कुछ व्रत -
कार्तिक स्नान, माघी मौन, अन्नकूट (गोधन) छठ, नवरात्रि जैसे प्रगट और कुछ गुप्त जैसे अनुष्ठान -गीत गाना, मटकोर, अनुलेपन (उबटन लगाना) विवाह के बाद का चतुर्थी कर्म, लाग बैठना, आशीर्वाद/अभिषेक/चैता गायन, जँतसार गायन, खाट बुनने का गीत गाना, सुतली, सूत जनेऊ बनाने का अनुष्ठान। यही अगर किसी संप्रदाय में दीक्षित होकर ब्रांडेड फार्म में अनेक देवी-देवता या बिना देवी-देवता की जगह किसी एक देवता एवं उनके व्यूह या परिवार के देवता रूपी ब्रांड के साथ सीखा जाय तो 4 से 8 साल लग जायेगा।
मामला तन एवं मन के संबंधों के साथ प्रकृति के से उनके संबंधों को समझने का है, स्वाद, रूप, स्पर्श, ध्वनि, गंध, गीत वन्दना सबको।
एक उदाहरण देखिए -
वैदिक अनुष्ठान में -
कोई व्यक्ति, उपवास या मौन के साथ (जो न के बराबर होता है) मंत्र पढ़ता है, किसी देवता (माना हुआ) को सामग्री अर्पित करता है, ब्राह्मणों को भोजन कराता है, बात समाप्त।
सामाजिक/परिवारिक तंत्र सम्मत में -
भावी वर/वधू को मंडप में सबके समक्ष बिठाया गया। इसके पूर्व कई दिनों से उबटन मालिश चल रही है। साथ ही श्लील-अश्लील चर्चा एवं छेड़-छाड़ भी, वह भी अकेले में नहीं। अब महिलाएँ परीक्षा लेने एवं उसकी अनुभूति को दृढ़ कराने का सम्मिलित अनुष्ठान करती हैं। पंडित मंत्र पढ़ते हैं - कांडात् कांडत् प्ररोहन्ति पुरूषः पुरूषोपरि . . . . .! दूर्वा से हल्दी सभी जोड़ांे पर पैर से शिर तक स्पर्श कराई जा रही है। जैसे दूब की गांठें हैं उसी तरह मानव शरीर में संधियाँ हैं, उनके बीच भी चेतना का प्रवाह है, यह स्मारक (स्मरण दिलाने वाला इशारा करनेवाला) मंत्र है।
भावी वर-वधू न बोल सकता है, न हिल सकता है, बैठे रहना एवं स्पर्श की अनुमूर्ति पर ध्यान केन्द्रित करना है (यही छूट दी गयी है) पहले श्रेष्ठ लोग, फिर हुड़दंग। पूरी होली, हँसी मजाक सब, भाभी वगैरह की छेड़-छाड़ मतलब- स्नायु तंतुओं, मन को उत्तेजित करना, शिथिल होने पर बार-बार उत्तेजित किया जाना और उस सबके बीच सबके समक्ष हाय-हाय! करने की जगह अधिक से अधिक मुस्कुराने की सुविधा के साथ मौन पूर्वक संयमित, शांत रहना।
यह अनुष्ठान तो गाँव-देहात में बचा हुआ है परंतु चेतना तथा स्नायु तंतुओं पर ध्यान देने की बात छूट गई है। स्कूल चल रहा है, शिक्षा नहीं हो रही।
इसी प्रकार से अनेक अन्य उदाहरण हैं। तंत्र के ब्रांडेड फार्म आज भी इंटरनेटी/विदेशी बाजार में खूब उपलब्ध हैं। कामसूत्र जो पूर्णत राजाओं एवं सामंतों की विलास लीला का शास्त्र है, जिसमें कहीं भी समाज एवं संयम नहीं है और चेतना की अंतर्यात्रा का तो रिश्ता ही नहीं है तंत्र शास्त्र का ग्रंथ बन गया है। कहाँ शिव-पार्वती का संबंध और कहाँ काम सूत्र।
मैंने इसीलिए सुरतिसूत्र नाम से एक किताब लिखी है। केवल बाह्यानुभूति पर आधारित जीवन भारतीय जीवन नहीं है। इसी तरह केवल आंतरिक अनुभूति की बात एकांगी है, लोक की उपेक्षा के नकली दावे से भरा पाखंड है। अंतर एवं बाह्य उभयविध अनुभूति के साथ भारतीय जीवन चलता है।
आरंभ से ही दो प्रकार के परस्पर विरोधी उपाय वैदिक, बौद्ध जैन सभी धाराओं में होते रहे -
’ विद्या को सरल, सुलभ लोकोपयोगी बनाने का प्रयास
’ विद्या को हड़पने, ब्रांडिंग करने, अपने समुदाय/समूह के हित एवं वर्चस्व को निरंतर बनाए रखने का प्रयास।
आदिवासी/मूलवासी या सहज विकसित समाज के लोग अपनी विद्या को तो गुप्त या अपने लोगों तक सीमित रखने का प्रयास करते थे पर चालबाजी और ब्रांडिंग नहीं थी। विद्या की जातीय सीमा होने पर भी परस्पर आदान-प्रदान चलता था। संगठित बेईमानी संप्रदाय वालों ने शुरू की। इनके आदि प्रणेता गौतम बुद्ध हुए। उन्होंने ही सत्य/धर्म भले ही वह सापेक्ष हो उसकी बराबरी में संगठन/संघ को लाया। बुद्ध, संघ और धर्म की बराबरी ने अनेक संकट उत्पन्न किए।

भारत को समझने में भूल
भारत को समझने में कई स्तरों पर भूल की जाती है। कुछ भूल भारतीय शैली की है, कुछ आधुनिक एवं पाश्चात्य शैली की। दोनों ही शैलियों में भूल अनजान लोगों से ही होती है, जिसकी अधिकांश भूलों को लोगों के द्वारा दुहराए जाने के लिए संकीर्ण एवं वर्चस्ववादी लोगों ने गलत मापदंड बनाए। भारत में विभिन्न संप्रदायों ने विभिन्न राजे-रजवाड़ों एवं सेठों का सही एवं गलत दोनों प्रकार उपयोग किया।
साम्राज्यवादी लोगों ने अपनी श्रेष्ठता, वर्चस्व और शोषण के लिए भी पूरा वैचारिक स्तर का षडयंत्र किया, जिसके शिकार उनके देश के लोग भी हुए।
इनमें मुख्य भूलें निम्न हैं -
’ सभ्यता विकास की चरणबद्ध प्रक्रिया को ऐतिहासिक काल खंडों के अधीन मानना।
’ मार्क्स के चिंतन को हर मामले में अकाट्य मानना, उसी के अनुसार विकास की व्याख्या करना।
’ आर्य/अनार्य/द्रविड़ जैसे वर्गीकरण को आज की भारतीय समाज व्यवस्था में ढूढ़ना।
’ आधुनिक विज्ञान एवं परंपरा दोनों की सुविधानुसार घालमेल कर पक्षपाती निष्कर्ष निकालना।
’ राज्य, राजा एवं उसकी शासकीय सीमा एवं सांस्कृतिक धार्मिक सीमा को अलग-अलग नहीं मानना, जैसे- मगध को लें तो मगध सांस्कृतिक/धार्मिक रूप से न तो वर्तमान मगध प्रमंडल है, नहीं उज्जैन तक फैला हुआ, न मौर्यकालीन। वह स्थिर है, कर्मनाशा से पूरब, किउल से पश्चिम एवं गंगा से दक्षिण ।
’ स्रौत, स्मार्त धर्म की व्यवस्था के प्रति अनादर ताकि शैव, शाक्त, वैष्णव, आदि विविध संप्रदायों को अखिल भारतीय आचार के रूप में स्थापित किया जा सके।
’ बौद्ध, जैन, लोकायत, सहज प्रकृतिवादियों के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करना और चुपके से उनके द्वारा आविष्कृत विद्या को आत्मसात कर लेना।
’ परस्पर एक दूसरे को बिंबों/साधनों/भावों एवं विधियों का स्वयं गलत अर्थ आरोपित कर पुनः उनका व्यर्थ खंडन करना। इसे पूर्व पक्ष को प्रदूषित करना कहा जाता है।
’ शंकराचार्य-मंडनमिश्र के शास्त्रार्थ तक संदर्भहीन अनेकार्थक बातों के प्रयोग को विद्वत्ता माना जाता था। मिथिला में एक जबर्दश्त क्रांतिकारी चिंतन विकसित हुआ कि सटीक संदर्भयुक्त बात बोलना ही ज्ञानी का लक्षण है। इसे नव्य न्याय कहते हैं। नव्य न्याय के अनविष्कार के बाद बात बदलने की सुविधा जब समाप्त हो गई तो आज की पीएच. डी. के विषयों की मौलिकता वाली समस्या आ खड़ी हुई। सारे विद्या वारिधि तो हो नहीं सकते थे तो कुतर्क शास्त्रार्थ को ही शास्त्रार्थ मानना पड़ा।
’ ऐसे अनर्गल दुष्प्रभावों से मुक्त होकर भारतीय संस्कृति को जानने-समझने एवं जीने का सही तरीका भी है -
सही तरीका -
’ सांस्कृतिक क्षेत्रों को पहचानना एवं सांस्कृतिक प्रभावों को समझना ।
’ वेद-से उपनिषदों तक संस्कृति की यात्रा को पूरा न मानकर वेद-उपनिषद सूत्रग्रंथ, स्मृति, पुराण, उपपुराण, निबंध, ग्रंथों के रूप में ग्रंथों की पहचान करना एवं उनके क्षेत्रीय स्वरूप को समझना।
’ इसी प्रकार आगम परंपरा में भी वैदिक, बौद्ध, जैन आगम, तंत्र संप्रदाय, लोक की विविधता के तंत्र में समावेश के तरीके, समयचार एवं काल चक्र तंत्र के एकाकार होने की प्रक्रिया को समझना।
’ अलिखित फिर भी सर्वमान्य मूल्यों की समझ जैसे-पुराणों, आगमों का कोई लेखक नहीं होता किंतु मंत्रों/अनुष्ठानों के प्रवर्तक ऋषि होते हैं, आदि।
’ उपनिषदों को उलट कर पढ़ना एवं संप्रदायों की साधना विधियों तथा मूल चिंतन की समझ।
’ नए देवी-देवता तथा संप्रदायों के आविर्भाव-तिरोभाव की समझ।
इस दृष्टि से जब समझने का प्रयास होगा तभी सही ढंग से भारतीय संस्कृति संबंधी किसी शंका का समाधान हो सकेगा अन्यथा भगवान की लीला कथा के रूप में कृष्ण का सीता से और जानकी का कृष्ण से भी विवाह सिद्ध किया ही जा सकता है।