बुधवार, 9 मार्च 2016

उदार समावेशी धर्म की जरूरत 2nd

संकीर्णतावादी धाराओं की प्रमुख विशेषताएं
समावेशी उदार सनातन धर्म ? सच कहें तो ऐसा कोई एक छोटा-मोटा समूह नहीं है। यह भारतीय बहुसंख्यक समाज का धर्म है, जिसमें अनेक संकीर्णतावादी धाराएं पनपती और विलुप्त होती रहती हैं। अंततः वे भी उसी मुख्य धारा में शामिल हो जाती हैं।
इन संकीर्णतावादी धाराओं के प्रति समाज के कुछ लोगों में प्रबल आकर्षण होता है क्योंकि वे निम्न दावे करती हैं, जो प्रचलित परंपराओं के विरुद्ध या भिन्न होती हैं, जैसे- वे प्रचलित रूढि़यों के विरुद्ध हैं, उनके प्रवर्तक ज्ञान पहले वालों से श्रेष्ठ है, इसमें नयापन है, पुराने बंधन नहीं हैं, काफी प्रभावशाली लोग इसे अपना रहे हैं, या अमुक विचार या पहचान वाले लोगों के विरुद्ध है, वगैरह।
कुछेक भक्ति आंदोलनों को छोड़ दें तो ऊपर से सुधारवादी या उदारवादी लगने वाली ये धाराएं मूलतः बड़े पैमाने पर समाज के बहुसंख्यक वर्ग के प्रति हिकारत और द्वेष भाव तथा प्रतिक्रयावादी कार्यक्रमों से भरी होती हैं। इनकी प्रेरणा के मूल स्रोत प्रायः बाहरी होते हैं और कई बार इनकी कार्यप्रणाली भी बाहरी शैली वाली होती है। कई बार तो समकालीन राजनीति से प्रचारित, प्रसारित और पोषित भी होते हैं।
भीड़, नयापन, प्रतिक्रिया और नये किश्म के संगठन के कारण उदार समावेशी समाज इन्हें भी एक नये प्रयोग के तौर पर लेता है। बाद चल कर अपने ही पाखंड तथा अंतर्द्वंद्वों के कारण आकर्षण खोते ही इनके अनुयायियों को भी बहुसंख्यक धारा में पुनः वापस आ जाना पड़ता है। सबसे नए और बड़े उदाहरणों में आर्य समाज है। आर्यसमाजी लोग तेजी के साथ सनातनी धारा में लौटे और लौट रहे हैं। कुछ दिनों बाद बस कुछेक औपचारिकताओं के अतिरिक्त सनातनी तथा आय्रसमाजी का फर्क करना कठिन हो जाएगा क्योंकि बहुसंख्यक समाज ने आर्यसमाज की वैचारिक बातों को छोड़ सुविधा वाली बातें अपना लीं तो फिर क्या आर्यसमाजी? क्या सनातनी? जब जैसी सुविधा, तब वैसी पहचान और काम।

धर्म सबंधी मेरा प्रस्ताव: किश्त 1


एक उदार समावेशी धर्म की जरूरत
आज धर्म के नाम पर चारो तरफ घृणा और हिंसा का माहौल है। धर्म को अनमोल बनाने वाले सत्य, करुणा, मैत्री जैसे मूल्य तो लगता है कि धर्म से बाहर ही हो गए हैं। कहीं मिलते भी हैं तो किसी गुप्त योजना के मुखौटों के रूप में। ऐसे अनमोल जीवन को सार्थक एवं सुखद बनाने वाले भावों की जगह विभिन्न समूहों की सामाजिक पहचान, उनका वर्चस्व, संसाधनों पर कब्जा आदि ही धर्म शब्द के अर्थ हो गए हैं और बाकी की बातें बेकार मान ली गई हैं।
आज धर्मों के देश भारत में भी न केवल अल्पसंख्यक बल्कि बहुसंख्यक हिंदू धर्म भी अंदरूनी तथा बाहरी दोनो तौरों पर खतरे में है। इस्लाम अपने ही इलाके में और ईशाइयत अपने इलाके में संकट में है। ये सभी अपनी समस्याओं को पहचानने की हिम्मत भी गंवा बैठे हैं और केवल बाहरी संकट का ही हवाला देते हैं कि एक धर्म एवं उसके मानने वालों पर दूसरे धर्म के लोगों द्वारा खतरा पैदा किया जा रहा है।
एक हद तक यह सच भी है। योरप-अमेरिका आदि के ख्रीस्त पंथ को इस्लाम के जेहादी विस्फोट और भारतीय धर्म न सही, योग-तंत्र के प्रचारकों से खतरा तो है ही। भौतिकता और सायंस टेक्नोलोजी से सभी धर्म वाले डरते हैं। साम्यवादी तथा उपभोक्तावादी दोनो नजरिए खतरा पैदा किए रहते हैं क्योंकि ये दोनो ही सायंस को मानते हैं। इनसे डरे हुए धर्म प्रचारक, व्यास आदि बार-बार सांयस का हवाला देते मिलते हैं।
यह संकट इसलिए है क्योंकि धर्म के प्रवक्ता और अधिकारी धर्म के अतीतकालिक रूपों में ही उलझे रहना चाहते हैं। काल के प्रवाह के साथ उसमें परिष्कार और समावेशी प्रणाली से डरते या चिढ़ते हैं। तब समस्या का समाधान कैसे हो? 
मैं कई सालों से इस पर सोचता रहा हूं और प्रयोग भी करता रहा हू कि शायद कोई राह मिले। अब मुझे स्पष्ट हो गया है कि एक उदार और समावेशी धर्म की जरूरत है। वह धर्म कैसा हो? किस धर्म के करीब हो? ऐसे प्रश्नों के आते ही सारे विवादों और आशंकाओं का खड़ा होना सहज है। किसे उदार या अनुदार कहा जाए? आदर्श के स्तर पर और व्यवहार के तौर पर भी अंतर कम नहीं हैं।
मुझे कुछ समाधान सूझे, जिन्हें मैं अगले 3-4 किश्तों में आपसे साझा करूंगा ताकि अपनी समझ और जीवन शैली में मैं भी समावेश कर सकूं। केवल निंदा या घृणा आधारित सुझाव न ही भेजें क्योंकि अब यह प्रगट है, रहस्य नहीं है।

मेरी समझ एवं प्रस्ताव--
1 ऐसे धर्म की बात, जिसमें सबको सम्मान एवं स्वीकृति मिले। अतः व्यक्ति, समूह या समुदाय के जय-पराजय का यहां कोई मूल्य नहीं है। वे तो विभिन्न कारणों से उत्पन्न हुई घटनाएं हैं, जिनमें एक कारण धर्म की पूर्ववर्णित संकीर्ण एवं वर्चस्ववादी व्याख्या भी है।
2 किसी प्रस्ताव के साथ वर्तमान में एवं व्यवहार में आचरण के स्तर पर मिलान भी जरूरी है। जब मिलान करते हैं तो देखते हैं कि कुछ धर्म अपनी मूल अवधारणा के ही स्तर पर ऐसे बंधे हैं कि उनका समावेशी होना संभव नहीं है। उनकी मूल अवधारणा में ही एक व्यक्ति या उसके दूत को छोड़ अन्य किसी का भी पूर्ण ज्ञानी एवं भरोसे मंद होना संभव नहीं है। ऐसी कट्टरता के साथ दिली रिश्ता तो मुमकिन ही नहीं है। बस, केवल कुछ क्षणों वाला, मजबूरी वाला समझौता होगा और भीतर में चालबाजी भी चलती रहेगी कि कब अपने को श्रेष्ठ स्थापित करें और दूसरे को नीचा दिखाएं।
3 इसलिए स्पष्ट है कि ऐसे समावेशी विचार से वे लोग ही सहमत हो सकते हैं जो अनेक पुराने ज्ञानियों के साथ अनेक वर्तमान तथा भावी ज्ञानियों को स्वीकार करने को तैयार हों। ऐसी वैचारिक उदारता केवल सनातनी हिंदुओं तथा महायानी बौद्धों एवं जैनों में पाई जाती है। बौद्धों में थेरवादी तथा सांप्रदायिक एवं सुधारवादी हिंदू विविधता एवं बहुलता को स्वीकार नहीं कर पाते। लिहाजा यह प्रस्ताव भी आरंभिक तौर पर उन्हें ही दिया जा सकता है किसी मुसलमान, ईशाई या संकीर्णतावादी बौद्ध को नहीं। 
हां, इस प्रस्ताव पर अपने को तटस्थ, धर्मनिरपेक्ष या नास्त्कि मानने वाले भी विचार कर सकते हैं क्योंकि यहां ईश्वर न मानना भी एक विकल्प है और उसका भी मान बराबर है।
4 आचरण के स्तर पर भी यदि देखें तो उपर्युक्त समुदाय को विविधता में जीने का पुराना अभ्यास है। यदि यह अपने को और अधिक उदार बनाए तो सहज ही अन्य निष्ठा एवं पहचान वाले लोग राजी खुशी इस जमात में शामिल होना चाहेंगे, जैसे आज सायंस टेक्नेलोजी आधारित जीवन शैली के प्रति सबका आकर्षण है।

मंगलवार, 1 मार्च 2016

मुझे शिकायत है

मुझे शिकायत है
1 एक शब्द से, जिसके कारण रोज मेरी हेठी होती है।
2 अपने गांवों वाले देश में मुझे घटिया किश्म का आदमी समझा जाता है।
3 मेरी पहचान कानूनी तौर पर बदल दी जाती है, वह भी झूठे अर्थ में।
4 यदि मैं उसे न मानूं तो आप मुझे देश द्रोही भी कह सकते हैं।
5 मैं पूरा देशी-देहाती आदमी हूं, न कभी विदेश गया न जाने का सपना है नेपाल तक जाने का मौका नहीं मिला, जो पास में है और पसासपोर्ट की भी दरकार नहीं है।
6 हम से ऐसी हिकारत क्यों?
सवाल मेरे भी हैं-
7 क्या यह देश केवल नागरिकों का है?
8 या फिर शहरी लोगों का?
9 या सिटिजन्स का
10 गांव में रहने वालों, उस पहचान से जीने वालों का क्यों नहीं?
यह नागरिकता क्यों इतनी कीमती है? मेरे मन की पीड़ा क्या किसी को कभी साली? क्या इस शब्द को बदल नहीं देना चाहिए?