बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

मेरे गणितीय प्रश्नों के उत्तर 3 --- वाह रे, अनुपात!


वाह रे, अनुपात!
आपने पहले अंगुल आदि मापों के बारे में पढ़ा। आज सरकारों द्वारा प्रमाणित माप-तौल के बाट का प्रयोग होता है। पहले जब ऐसा न हो कर गुंजा, रत्ती जैसे तौल के माप थे तब क्या होता होगा? और वह सही कैसे होता होगा? खाशकर सोना-चांदी जैसे तौलों में?
भारत जैसे बड़े देश में लोगों ने यह काम अपने जिम्मे रखा था। अपने जिममे अर्थात व्यापारी वर्ग के जिम्मे। सोना चांदी में तो वही नियम आज भी लागू है। हर सर्राफा बाजार में एक दुकान मुख्यतः गहने तौलने के लिये होती है। उस दुकान ने जो वजन बता दिया उसे पूरा सर्राफा बाजार मानता है। लोगों ने इसी तरह हर जगह के लिये अपने माप बना लिये थे। इसी से काम चलता था।
अब आते हैं अनुपात पर- यदि जड़ी बूटी वाली कोई दवा या मिठाई बनानी है तो कोई छोटा माप लेते हैं, वह अपने धर का चना या मटर या आम- अमरूद भी हो सकता है। एक आम बराबर गुड़, उससे दुगना बेसन, उससे आधा मेवा, उससे आधा अदरख इस प्रकार आनुपातिक भाषा में सारे आनुपातिक मापों का विवरण । हो तो गया। असली बात तो आनुपातिक संबंधों में है नकि सेर, किलो या क्विंटल में। खेती के लिये बीज, खाद का निर्णय करना है, अपने व्यवहार के लिये यदि जमीन नापनी हो तो बस अपने हाथ से लकड़ी या रस्सी नापी, फिर उसके आनुपातिक अंतर से बांस, फिर कट्ठा या बिस्वा, उससे आगे जो नापना हो नाप लिया। सामाजिक व्यवहार के लिये नापना हो तो फिर जमीन नापने वाले पंच या स्थानीय जमींदार के यहां सुरक्षित माप का प्रयोग करना होगा। 
इसलिये अनेक ग्रंथों में केवल आनुपातिक अंतर ही लिखा गया माप की इकाई नहीं। वास्तु के मामले में वास्तुकार को गजधर भी कहा जाता है। उसके पास अपनी एक लोहे की छड़ी होती थी/है। वह गौरव के साथ उसे ले कर चला करता है/था। उसमें माप अंकित होते हैं। न रहे गज तो क्या? अपना बीता, हाथ तो अपने पास है ही। उसीके आनुपातिक अंतर से सारा काम हो जायेगा। जब यूरोपियन यहां आये तो व्यापार में उन्हें बड़ी परेशानी हुई। नाम तो माप का एक ही लेकिन माप या तौल में सामग्री में अंतर मिलता और पंचायती तौल के बिना काम संभव नहीं । अगर व्यापार से सामाजिक बहिष्कार करना हो तो बस पंचायती तौल वाले को कह दें कि इस व्यक्ति का तौल नहीं करना है। सारा खेल खत्म।  
इसी प्रकार की समस्या पहले अर्थात हजार साल पहले आई और भारत के लोगों ने उड़ीसा तथा मगध के लोगों को इस काम को संभालने की जिम्मेवारी सौंपी। यहां के गणितज्ञों को अनुपातिक की व्याख्या करने, आनुपातिक संबंधों का वर्गीकरण करने, विभिन्न प्रकार के चार्ट बनाने का काम सौंपा चाहे वह मामला किसी भौतिक सामग्री का हो या ग्रहीय पिंडों की गतिविधियों का। शिल्प, औषध तथा नक्षत्रवेध सभी संदर्भों में, सभी विद्याओं में कालिंग और मागध माप प्रमाणिक माने गये। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि यहां के लोगों ने आनुपातिक अंतरों एवं उसके संबंधों को तय करने में पीढ़ी दर पीढ़ी का काम किया। संज्ञा तथा छाया पक्ष के रूप में। सौर तंत्र में इसे दूसरे ढंग से कहा गया। यहां दोनों प्रकारों में अनुपात, आनुपातिक अंतर का बोध एवं उसके मापन को विकसित किया गया। अगले अंक में जारी.........।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

मेरे गणितीय प्रश्नों के उत्तर 2

वाह रे, अनुपात!
अनुपात से ही बोध है। इस पर पोस्ट आ गया। यह अनुपात अन्य मामलों में कैसे निर्णायक होता है, इसकी बानगी के रूप में क्रमशः कुछ उदाहरण प्रस्तुत होंगे। भारतीय वास्तुशिल्प और मूर्तिकला को तो मानना ही पडता है कि यह माडर्न सायंस के पहले से है, चाहे वह मंदिर हो, किला या अन्य बौद्ध विहार आदि वाली संरचना। सभी जगह निर्माण के पहले डिजाइन, वास्तु के छोटे-भागों का निर्धारण, उन्हें लगाने की क्रमबद्धता आदि की बारीकी भी तो रही ही होगी।  इसी प्रकार बड़ी-छोटी जितनी भी प्रतिमाएं बनीं, उनकी खूबसूरती बताती है कि इनके निर्माण में भी माप-तौल का बारक अंतर रखा गया है। लंबाई, चौड़ाई एवं गहराई सभी आयाम संतुलित हैं, बहुत सारी मूर्तियां तो हूबहू नकल जैसी हैं।
जब इस विषय के ग्रंथों को पढ़ते हैं तो उसके माप फुट, ईंच, या मीटर में नहीं मिलते। वे मिलते हैं- अंगुल, मुट्ठी, बीता, हाथ, पोरसा आदि शब्दावलियों में, जो हर व्यक्ति की दृष्टि से अलग होंगे तो फिर आखिर यह माप इतनी बारीकी से काम कैसे करता रहा और ऐसी जटिल संरचनाओं में भी सफलता कैसे मिली? दरसल भारतीय शैली में माप संबंधी सारी सूचनाएं क्षेत्रीय संदर्भ एवं अनुपात के खांचे में याद रखी और बताई जाती हैं। बहुत बार तो जब अंगुल, मुट्ठी, बीता, हाथ, पोरसा जैसे माप का भी प्रयोग न कर केवल आनुपातिक अंतर का प्रयोग किया जाता है, तब इसका रहस्य खुलता है। विस्तृत उत्तर अगले पोस्ट में.....।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

मेरे गणितीय प्रश्नों के उत्तर 1


बचपन से ही मुझे गणित में कमजोर बताया गया और ऊपर से बेचारे और कमजोर कई शिक्षकों को पढ़ाने के लिये लगा दिया गया। वे सवाल पूछने पर जवाब नहीं देते थे, उसके बदले में मेरी खूब पिटाई होती थी और तुर्रा यह कि तुम हो ही गधे, तुम गणित समझ ही नहीं सकते, बुद्धू कहीं के। इसके बाद भी तमाम विफलताओं के बावजूद मेरे मन के सवाल मर नहीं सके। मेरे वे प्रश्न भीतर ही भीतर जोर लगा कर उत्तर खोजते रहे, सालों साल। सौभाग्य से कुछ प्रश्नों के उत्तर भी मिले, कुछ समय से, कुछ बेसमय। 
एक गैरपेशेवर शिक्षक मिले मामाजी श्री हरिद्वार पाठकजी। उन्होंने मात्र 3 महीनों में 8 वीं तक का सारा गणित सिखा दिया। इससे मेरा मनोबल बढ़ा कि मैं गलत नहीं था, मेरे बेचारे और कमजोर शिक्षक गलत थे। उनसे संपर्क कुछ ही दिनों का रह सका। मेरी सफलता से ये बेचारे और कमजोर शिक्षक इतने भड़के कि अपनी औकात भर पूरी जिंदगी मुझसे दुश्मनी निकाली। मैं भी इन्हें अब जा कर माफ कर सका।
जब बात समझ में आई और वह भी 45 के बाद समझ में आई और धीरे-धीरे आती जा रही है तो गणित का मजा ही अलग लग रहा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है- पहले मुझे अनुपात समझ में नही ंआता था कि यह क्या है? 9 तक के अंकों का मतलब तो व्यवहार से समझ में आता था लेकिन न शून्य, न अनुपात। जब अनुपात समझ में आने लगा तो मन नाच उठा कि वाह रे! अनुपात, तेरी महिमा का मैं क्या वर्णन करूं? तेरे बिना तो न जीवन है, न बोध, न कोई व्यवहार। भारतीय संस्कृति में जीने और समझने के लिये तो इसके अनुपात प्रेम को सबसे पहले समझना एवं स्वीकार करना होगा तभी सामान्य व्यवहार से ले कर आध्यात्मिक साधना का शास्त्र समझ में आ सकेगा। वाह रे! अनुपात, तेरी महिमा का मैं क्या वर्णन करूं? किसी भी व्यक्ति, सामग्री या गुण उसकी तुलना एवं मापन की की जरूरत पड़ती ही रहती है। गणित आये या न आये, अनुपात का बोध सबको होता है। जब उसका माप हो जाये तो गणित की भाषा में हो गई उसकी अभिव्यक्ति। अभी अनुपात की महिमा शुरू ही हुई है, कुछ और गुण गान करना है। अतः क्रमशः.......................जारी।