गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

क्या आप ठीक से नहाना जानते हैं?


भारत देश नहाने वालों का देश है। घर के कुएं, नदी, नाले तालाब-पोखर से ले कर समुद्र तक ही नहीं गंगोत्री जमुनोत्री के ठंठे एवं बद्रीनारायण एवं राजगिर के गर्म पानी तक से नहाना पड़ता है। पूरे देश में घूमघूम कर विभिन्न अवसरों पर कभी भाई बहन तो कभी मित्र मंडली के साथ और पति पत्नी को तो साथ-साथ नहाना ही पड़ता है।
इसके बिना आप न धार्मिक व्यक्ति हो सकते हैं न एक जिम्मेवार नागरिक। यहां नहाये हुए व्यक्ति को ही जिम्मेवार माना जाता है। जो ठीक से नहा धो नहीं सकता वह भला और काम क्या करेगा? जिसे सुबह जगने और नहाने से डर लगता हो वह खेती-बारी, पशुपालन कुछ नहीं कर सकता। भैंस कब पानी में घुस जाय कहना मुश्किल, तो आपको भी भैंस के साथ भींगने नहाने को सदैव तैयार रहना होगा। मछुआरे तो पानी में ही रहते हैं। कब मछली की तरह डुबकी लगाने की जरूरत आ पड़े, पता नहीं। माछ, मखाना और सिंघाड़े की खेती करनेवालों को पानी में ही रहने की नौबत रहती है, वह भी सावधानी के साथ कि उसका बुरा असर न उन पर पड़े न पानी पर। पंडित जी रोज नहाने के दावेदार हैं कंपीटिशन भक्त जजमानों के बीच होता रहता है।
कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर अनेक लोगों ने अनेक जगहों पर भीड़ के रूप में या अकेले स्नान किया। हिंदू तो हिंदू मुसलमान भी नहाने के कम शौकीन नहीं हैं। नये जमाने में ंबाथ रूम में कौन कितना खर्च करता है उसीसे उसकी अमीरी का पता चलता है। इस सबके बावजूद सवाल बना हुआ है कि ऐसे सभी लोगों को ठीक से नहाने वाला माना जाय या नहीं? हिंदुस्तान चूंकि नहाने वालों का देश है अतः यहां विधिवत नहाने वालों को ही नहाया हुआ माना जाता है।  बाकी की कोई मान्यता नहीं है।
नहाने वालों का कैसा दर्जा है इस बात का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अंगरेजी में जो ग्रेजुएट शब्द का अर्थ है हिंदी में उसके लिये स्नातक शब्द का प्रयोग होता है। शाब्दिक रूप से स्नातक मतलब है नहाया हुआ। स्नातक एक जिम्मेवार व्यक्ति है जिसने ठीक से नहा लिया है। जो सामाजिक जिम्मेवारी लेने लायक हो गया है। उसकी अंतिम रूप से जांच औरतें करती हैं। पूरी छेड़छाड़ धक्कामुक्की गाली गलौज के साथ कि श्रीमान स्नातक जी का धैर्य एवं संयम उसके अनुरूप है या नहीं?
सारी प्रमुख नदियों को एक लोटे में समाने के लिये उनका स्मरण करना पड़ता है कि -
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती, नर्मदे सिंधु काबेरी जलेस्मिन संन्निधिं कुरु।। अर्थात मेरे सामने रखे इस जल में गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु एवं काबेरी नदियां सभी मिल जायं। यह बात केवल काल्पनिक नहीं होती थी बल्कि सभी नदियों का लाया हुआ जल थोड़ा थोड़ा उसमें मिलाया जाता था। अब केवल औपचारिकतर पूरी की जाती है। अपने मन से नहाने की भी पूरी सामाजिक स्वीकृति नहीं होती । पूरा समाज मिल कर यदि आपको न नहाये तो वह पूरा स्नान नहीं होता। ऐसे स्नान को अभिषेक कहते हैं। चाहे राजा बनाना हों या किसी भी प्रमुख पद पर बैठाना समाज के जिम्मेवार लोग उसे जल छिड़क कर सबके सामने अभिषेक कराते हैं तभी उसकाी सामाजिक मान्यता होती है। आज भी मगध में एवं अन्यत्र भी शादी विवाह के अवसर पर वर वधू को कई बर सभी नदियों वाले उसी कलश के जल से नहाया एवं अभिषिक्त किया जाता है।
ये कुछ नमूने हैं। जन्म से मृत्यु तक, ब्राह्मण से अंतिम जाति तक, मुसलमान ईशाई सभी तबके के लोग नहाने  के प्रति तो अभी भी संवेदनशील हैं लेकिन उनका स्नान पूरा नहीं हो पा रहा है क्योंकि
1 वे अब तीर्थ भाव नहीं रखते। कहते तो हैं तीर्थयात्रा लेकिन मंदिरों की मूर्तियों पर अक्षत, फूल, पैसा बरसाने को ही पूरा समझ लेते हैं। तीर्थ में पुण्य फल का दान नहीं करते क्योंकि उन गरीबों के पास पुण्य बहुत कम होता है। तीर्थ को बचाने की भावना होती तो प्रकट तीर्थ रूपी जलाशय को गभी भी गंदा नहीं करते तीथ्र शब्द का अर्थ ही होता है जल। न उसमें मल-मूत्र पहुचाने वाले होटलों एवं धर्मशालाओं में रहते। पवित्र प्रगट गंगा यमुना जैसी नदियों के किनारे ही उसी नदी को अति छोटा करने वाले मूर्ति में कैद करने वाले मंदिरों की संकीर्णता का विरोध करते और पवित्र नदियों की रक्षा के लिये सोचते।
2 धर्म में भक्ति का बड़ा महत्त्व है। जड़ के साथ भी आत्मीयता भाव रखा जाता है। बहुत अच्छी बात है लकिन कोई अपनी कार मोटर सायकिल को तो पेट्रोल की जगह मिठाई नहीं खिलाता। उसके इलाज के लिये पंडित मौला के पास नहीं जाता। लेकिन जब नदियों की बात आती है तो उसकी आरती उतारने की आजकल चलन बढ़ कर इस हाल में पहुच गई है कि हरिद्वार की नकल पर गया की सूखी फल्गु की आरती उतारी जा रही है। यह तो किसी हाल में भक्ति नहीं हुई। नदी के प्रति भक्ति तो उसमें निरंतर जल प्रवाह को बनाये रखने में ही है।
3 जो लोग लोटावादी हैं और तीर्थों में जाने की जगह घर पर ही काम चलाना चाहते हैं वे भी समझ लें कि अब तीर्थों के जल बोतलों में रखने के लायक कहां रहे?
4 बड़े तीर्थ राष्ट्रीय अखंडता के मोटे रस्से हैं। ये दूसरों को विनम्र एवं सामंजस्य पूर्ण बनाने की परिस्थितियां गढ़ते हैं। भारत के सारे ब्राह्मण केवल अपने को ही श्रेष्ठ समझते हैं और पुराने रजवाड़ों के युद्ध की कथा से इतिहास भरा है। ये तीर्थ अपने को बड़ा माननेवाले सभी लोगों को झुकने की विवशता पैदा करते हैं। दूसरों का पैर छूना पड़ता है। अपने से छोटे राजवाड़े या जमींदारों के इलाके से गुजरने के समय कर देना या अनुमति मांगना तो पड़ता ही था। ऐंठ छोड़े बिना कोई उपाय नहीं है। जगन्नाथ जी के यहां तो परंपरा से भात खाना पड़ता है, छुआछूत नहीं स्वीकार्य है।
5 पर्यटन में आप भले ही काम चला लें तीर्थ यात्रा में तो या तो जल का आचमन (मुंह में लेना) करें या आपकी  पूजा अधूरी। आज कौन हिम्मत करता है आचमन का तो फिर तीर्थयात्रा और स्नान आने कहां किया? पता नहीं आप किसे ठग रहे हैं अपने को या दूसरे को। आज आपका धर्म कोई दूसरा भ्रष्ट नहीं कर रहा, आकी यात्रा एवं सनन अधूरा इसलिये रह रहा है क्योंकि जलस्रोतों को न बचाने एवं जलाशयों को प्रदूषित करने में सबकी भूमिका है।
6 नदी, जलाशयों के घाटों की पवित्रता का स्मरण केवल छट के ही दिन क्यों ? क्या बाकी के दिन वे अपवित्र हो जाते हैं? अब तो कुछ लोग अपने घर पर या छत पर पुराने हौज या कूलर की टंकी में पानी भर कर छठ मना रहे हैं? प्रगट सूर्य के होते हुए भी सूर्य एवं नदियों की मूर्तियां बिठाकर अपने कर्तब्य से भागने का यही नतीजा होगा।
7 धर्म के मामले में सीधी बात यह है कि ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ धर्म तभी आपकी रक्षा करता है जब आप उसकी रक्षा करें। नदियों का स्वभाव रूपी स्वधर्म है बहना और जल को साफ करते हुए वापस समुद्र तक पहुंचाना। जब मनुष्य नदियों को उसके धर्म पालन करने से पूरी तरह रोक दे तो नदियां क्या करें? गटर के जल में अपने पुरखों का अस्थि विसर्जन का चुनाव भारतीय धर्म परायण समाज एवं उसके नुमाइंदों ने किया है, नदियों ने नहीं।
8 नदी तालाब के किनारे पेशाब पैखाना नहीं करना चाहिये। थेड़ा बहुत हुआ भी तो मिट्टी पर किया हुआ पाखाना जल्द मिट्टी बन जाता है। थोड़ा बहुत बरसात में धुल कर गया भी तो उस समय मिट्टी के कणों के साथ रूपांतरित हो जाता है या मछलियों एवं अन्य का भोजन बन जाता है। जो पाखना डिटजर््ेंट एवं साबुन के साथ घुल कर नदी जल में मिलता है, उसका परिष्कार बहुत कठिन हो जाता है। आपको रोज नहाना है तो उस जलाशय एवं घाट की स्वच्छता के प्रति लगाव होगा ही। इन बाथ रूम वालों को उससे क्या लेना देना।
स्नान अगर इस भावना के साथ हो कि यह जल पवित्र है और मुझे पवित्र करने वाला है तो जल स्रोत के प्रति लगाव विकसित हो सकता है। आज स्वच्छता एवं पवित्रता के बीच के अंतर्संबध की समझ समाप्त हो गई है। इाके बिगड़ने की कथा लंबी हैं जिस पर फिर कभी चर्चा होगी। संगम क्षेत्रों की हालात ऐसी है कि पिछली कार्तिक पूर्णिमा के दिन मैं सोन, गंगा और घाघरा अर्थात सरयू के संगम क्षेत्र में गया था। मीलों तक आबादी के न होने पर भी न केवल प्लास्टिक एवं सिंथेटिक कपड़ों के अवशेष भरे थे, वहां सांस लेना भी दूभर हो गया था क्योंकि पूरा माहौल डीजल चालित नावों के धुएं से भरा था । नावों के बीच वहां भी ट्रैफिक की समस्या थी और नाविक नावों के आपस में न टकराने कें लिये काफी सतर्क थे। सोन के बालू का बाजार सब पर भारी पड़ रहा था।
अभी कुछ दिनों पहले मुझे जैनी साधुओं के कुछ समय बिताने का मौका मिला। मेरी पूरी समझ ही उलटी पड़ गई । यह क्या! यहां तो नहाना ही पाप है। अब इस कार्तिक के महीने में आपसे मैं नहाने का सुख क्यों छीनने का पाप करूं। कार्तिक बीतने दीजिये स्नान के विरुद्ध उस समय बोलाभी तो आपको अधिक बुरा नहीं लगेगा।

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

उदार साधकों के साथ बिताये कुछ क्षण 1

उदार साधकों के साथ बिताये कुछ क्षण 1
भारत में उदार एवं अनुदार दोनों प्रकार के साधक बहुत लंबे समय से हैं। मुझे ग्रथ के वर्णन तथा निजी अनुभव दोनों स्तरों पर ऐसे लोग मिले। पांखंडियों और अनुदारों की चर्चा खूब होती है। उदार शांतिप्रिय होने के कारण चर्चा में नहीं रहते।
मैं केवल अपने जीवन में मिले उदार लोगों के साथ की स्मृतियां रखना चाहता हूं। यह उदारता भी दो प्रकार की होती है, पहली अपने अनुभवों/ज्ञान राशि को बांटने की दूसरी अपनी क्षमता से अर्जित धन, प्रभाव, विद्या से लोगों की मदद करने की। उदार लोग मदद करते हैं। किसी पर जबरन अपना आदर्श या योजना नहीं थोपते। यह दिली बात है।
ऐसे ही एक उदार व्यक्ति थे। स्वर्गीय, ब्रह्मलीन, परलोक सिधारे आदि उपाधियां जिन्हें हास्यास्पद लगती थीं आदरणीय बुधमल शामसुखा जी। श्वेतांबर जैन कुल में पैदा हो कर भी इन्होंने समकालीन सभी साधना धारा के लोगों से संपर्क रखा, सबकी मदद की और नकली गुरु के पाखंड में किसी की जान फंसी तो बगावत कर कमजोर के प़क्ष में खड़े हुए, भले ही वह अपने समाज का सबसे प्रतापी व्यक्ति क्यों न हो। प्रोफेसर के पद की भी परवाह नहीं की।
विश्व में पुनर्जन्म पर आधुनिक दृष्टि से जो लोग खोज करते हैं उनके संगठन के भारत में संयोजक रहे और भारत में मैत्री भावना के विकास के लिये बने संगठन के सदस्य तथा मददगार भी। इस समूह का नियम यह था कि अगर कोई व्यक्ति मैत्री का व्रत लेता है तो उसे ऐसे दूसरे सदस्य को 3 तीन शाम तक अपने घर में एक अतिथि मित्र की तरह रहने की व्यव्स्था करनी चाहिये, जिसकी जैसी घरेलू व्यवस्था हो। मुझे उनसे बहुत वात्सल्य मिला। साधक समाज तथा प्रयोगवादियों से ले कर नौटंकीबाजों की चालाकियों सबके बारे में मुझे समझाया तथा उसके दुष्परिणामों से अवगत कराया। मैं ताउम्र उन्हें कभी नहीं भूल सकता। वे दिल्ली के हौजखाश इन्क्लेव में रहते थे। अब इस दुनिया को छोड़ कर चले गये।

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

अपनी पसंद का अर्थ


बहुत लोग मानते हैं कि किसी झूठ को बार-बार दुहराने से वह सच हो जाता है। इसलिये धर्म के नाम पर समर्थन या विरोध में जो भी झूठसच कहा जाय, प्रचार पाकर वही सच हो जायेगा। ऐसे लोग भारत में प्रयुक्त धर्म शब्द के अर्थ को समझने से बचना चाहते हैं। इस सुविधा से तात्कालिक कार्य तो हो जायेगा लेकिन धर्म एवं समाज की न तो समझ हो सकेगी न ही धोखेबाजों और स्वयं उलझे हुए लोगों से बचाव, न ज्ञान का सुख होगा।
भारत में धर्म शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से तीन अर्थों में होता है- 1. स्वभाव, बनावट 2. कर्तब्य/दायित्व 3. व्यवस्था, विधि-विधान, परंपरा। तीसरे वर्गीकरण पर खूब मतांतर होगा ही क्योंकि भारत विविधतापूर्ण देश है। दूसरे पर भी समयानुरूप अंतर आयेगा, राजा ही नहीं तो राजा के प्रति कर्तब्य क्या? अब राज्य के प्रति कर्तब्य भी लोकतंत्र के अनुरूप होगा। अब तो मतदान में भाग लेना ही अनिवार्य धार्मिक कार्य होना चाहिये। पहले वर्गीकरण की बातें दीर्घकालिक प्रकृति की हैं, जिनका स्वभाव नहीं बदला उनका व्यवहार भी नही बदलेगा। सूर्य की गति और प्रकृति मोटे तौर पर वही है।
इसलिये कुछ लोग मूल रहस्य ज्ञान की खोज में लगे रहते हैं। वे व्यवस्थावादियों की परवाह नहीं करते, ऋषि, सिद्ध इसी कोटि में आते हैं। ये सायंटिस्ट की तरह हैं। धर्मशास्त्री कर्तब्य एवं दायित्व को ही धर्म साबित करने में लगे रहते हैं। इन्हें अपने मनोनुकूल या राजा के मनोनुकूल समाज को चलाने की चिंता सताती रहती है। वे धर्म के अन्य पक्षों की निंदा करने तक की गलती करते एवं दंड भोगते हैं। व्यवस्था एवं विधि पद्धति बनाने वाले/विकसित करने वाले पहले दो पक्षों को ध्यान में रख कर जीवन जीने, समाज को संयमित करने आदि की पद्धति विकसित करते हैं। इन्हें समय समय पर उसे बदलते भी रहना पड़ता है। इस कोटि में असली तांत्रिक, कर्मकांडी आदि आते हैं।
और इन सबसे अलग मनमौजी गप्पियों, पैरोडीबाजों, कथाकरों की दुनिया है जो रोज सामने वाले मनोनकूल या उन पर प्रभाव डालने के लिये नई-नई मनोरंजक कहानियों, उपायों में लोगों को फंसाने ही नही स्वयं भी फंसने में रस लेते हैं, किसी का सींग किसी की पूंछ। मैं तो अभी साधारण आदमी हूं। हां, सौभाग्य हो तो ऋषि, नही मौका मिले तो तीसरी कोटि में रहना चाहूंगा। आप चाहें तो अपने को तौल सकते हैं।

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

यह कैसी चिंता?

यह कैसी चिंता?
आजकल लोगों को हिंदू धर्म, भारतीय संस्कृति, साधु-संतों पर विश्वास और ब्राह्मण जाति के गौरव की चिंता खूब होने लगी है। मुझे नहीं लगता कि सभी लोगों को सच में ऐसी चिंता है। जो जिससे लगाव रखता हो वह उसकी चिंता करे तो स्वाभाविक है, न सही आदर्शवाद लेकिन इसमें बुराई भी नहीं।
इसके बावजूद क्या आपने कभी सोचा कि आप किसकी चिंता कर रहे हैं? धर्म के व्यापक अर्थ को आपने केवल निर्जीव तक सीमिति कर लिया, ऐसी तो कोई भी स्तुति नहीं। न स्तोत्र, न सहस्रनाम। साधु के धनवान और प्रभावशाली होने में कैसा वैराग्य? आप अपनी बेटियों की अस्मत लूटने वालों को दंड देने के पहले मुल्लाओं को दंडित करने का तर्क दे रहे हैं। कहीं आप भी  ???????????
अगर चिंता के असली मुद्दों की जांच करेंगे तो पायेंगे कि आप हीरे को छोड़ कोयले के पीछे भाग रहे हैं। यह क्या है?-- मैं उन्हीं धार्मिक शब्दावली में पूछ रहा हूं? संकल्प तो मन से करने की बात है? कवच धारण करने की चीज है, न्यास का मतलब होता है घरोहर और उसे सुरक्षित रखना, ये सब बातें कुछ शब्दों  या वाक्यों को दुहराना भर कैसे हो सकती हैं? तंत्र का अर्थ है व्यवस्था या प्रणाली, पद्धति फिर वह केवल  काला जादू कैसे हो सकती है? आप किसी शास्त्र के पक्षधर हैं या अज्ञान के? चेला बनने में बेइज्जती लगती है तो गुरु बनने को क्यों बेचैन हैं? संध्या एक समय का द्योतक है, समयहीन कुछ संस्कृत के शब्दों या वाक्यों को पढ़ने से संध्या भला कैसे हो सकती है? ऋषि अनेक, विद्याएं अनेक, दार्शनिक मत अनेक फिर अंग्रेजों ईशाइयों या उनके परवर्ती मुसलमानों की तरह जबरन एक ही ईश्वर के लिये इतनी जिद क्यों? अनेक जीव एवं अनेक जीवात्मा, अरे छोडि़ये दूसरे की आत्मा, अपने तन एवं मन की कार्यप्रणाली को समझने की फुरसत नहीं और पूरे संसार को सुधारने का बीड़ा उठा लेते हैं। हमारे 33 करोड़ देवी-देवताओं का क्या होगा? आजकल बेचारे पतंजलि जी भी घोर संकट में हैं। उन्होने तो जप करने को कभी शब्दों या वाक्यों को दुहराने के अर्थ में कहा ही नहीं। तज्जपस्त्दर्थभावनम् उसका जप उसके अर्थ की भावना करना कहा है। यह कैसा पतंजलि प्रेम?
हर प्रायोगिक और अनुभवात्मक बात को जानने सीखने समझने की जगह झटपट उसे दुर्लभ, अति गोपनीय, समाज के लिये अनिष्टकारी खतरनाक बताने लग जाते हैं। होश में रहना भला कब बुरा हो गया? समझ कर मानने से क्या खतरा है कि पहले मान ही लिया जाय? इसी तरह हमने अपनी अगली पीढ़ी को या तो मूर्ख या बगावती बना दिया?
इस पर ईमानदारी से सोचें? ज्ञान न होना उतना बुरा नहीं होता जितना बहाने बनाना और अपनी ही अगली पीड़ी को गुमराह करना। और अंत में- जो भी उपर्युक्त बातों को अपने जीवन में आसानी से लाने पक्ष में हों वे सीखें, सच को समझें फिर चिंता करें अन्यथा आशाराम जैसे ठगों का ही वैभव बढ़ाने में आप भी सहयोगी हो जायेंगे।
मैं अपनी जानकारी भर अपने ब्लाग पर लिखूंगा, मुझसे जो पूछते हैं, उन्हें सिखाता भी हूं। जीवन में करने लायक, आज भी सार्थक और उपयोगी बातों के लिये आप का मेरे ब्लाग पर स्वागत है। प्रश्न, सुझाव, अनुभव, जिज्ञासाएं सबका सादर स्वागत है। फेसबुक पर यदि कोई ऐसा ग्रुप हो तो जानकारी दें।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

पवित्रता का रहस्य 1


भारत में पवित्रता का बहुत महत्त्व है। हर आदमी ही नहीं धर्म, इलाका, भाषा अपने को दूसरे से पवित्र प्रमाणित करने में लगे रहते हैं। यहां भारत में ही पूरब ओर पश्चिम का बहुत फर्क है। जो लोग दोनों छोरों पर गये हों उनके लिये तो सामान्य बात होगी लेकिन जो नहीं गये उन्हें परस्पर एक दूसरे का व्यवहार अपवित्र और गंदा भी लगता है। राजस्थान तथा गुजरात में बरतनों को पानी से घोने से उनकी पवित्रता नष्ट होती है। राजस्थान में उन्हें रेत और राख से साफ कर कपड़े से पोंछना जरूरी है। पानी का इस्तेमाल बिलकुल जरूरी नहीं है। गुजरात में केवल कपड़े से पोंछना पर्याप्त है। पानी से धोना हो सकता है, पर पोंछना जरूरी हैं। रेत या राख की भी अनिवार्यता नहीं है। यही बात उत्तर और दक्षिण के संदर्भ में है। उत्तर में बर्फीले प्रदेश में आदमी कितना नहाये ? समुद्र के किनारे एवं नदी घाटी क्षेत्र में स्नान हर मर्ज की दवा है। सारे पाप स्नान से धुल जाते हैं। नहाने की तिथियों एवं तरीकों से धर्मशास्त्र भरे पड़े हैं।
बौद्ध धर्म को अंतरराष्ट्रीय भी होना है और आलिंगन- चुंबन से परहेज भी रखना है। यहां श्री लंकाई भिक्षु के खिलाफ मोर्चा खुल गया। ‘‘जस करनी तस भोगहु ताता’’। श्री लंकाई भिक्षु पहले पीठ पीछे से ढगड़े की संकीर्ण राजनीति करते थे अब झेलिये स्वयं। कर्मापा जी बोधगया आकर भूल जाते हैं कि महाबोधि तंदिर में जूता पहनना वर्जित है। वे नंगे पांव तिब्बत में कैसे चलें। आदत वैसी ही है। यहां नव कौद्ध आंदोलन के विशेषज्ञ हैं।
       सीधी बात यह है कि आप स्वच्छता का तो मानक तय कर भी सकते हैं। पवित्रता एक मानसिक अवधारणा है, जो न केवल क्षेत्र के भेद से बल्कि व्यक्ति तथा परिवार के भेद से भी भिन्न होती है। अगला पोस्ट- पवित्रता, संखरी और अपैत की रहस्यमयी व्यवस्था

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

अहमदाबाद की सचित्र स्मृति

 चेतन भाई भोजक एवं हरताल भरा खरल। हरताल एक जहरीला खनिज होता है। इससे लिखने की रोशनाई अर्थात् रंग बनता है। हरताल से पीला, हिंगुल से लाल, दीपक की कजली से काला, इसी तरह प्राकृतिक रंग बनते हैं। इसकी अपनी कला एवं शिल्पशास्त्र है।

कार एवं बग्घी का मजा एक साथ

 गुरुकुल के बच्चों की घुड़सवारी







अहमदाबाद की सचित्र स्मृति
चेतन भाई भोजक एवं हरताल भरा खरल। हरताल एक जहरीला खनिज होता है। इससे लिखने की रोशनाई अर्थात् रंग बनता है। हरताल से पीला, हिंगुल से लाल, दीपक की कजली से काला, इसी तरह प्राकृतिक रंग बनते हैं। इसकी अपनी कला एवं शिल्पशास्त्र है।
गुरुकुल के बच्चों की घुड़सवारी
कार एवं बग्घी का मजा एक साथ

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

मेरी काम भावना का विकास


मसूरी से आगे कैम्पटी में एक संस्था है सिद्ध। वहाँ बड़े-बड़े महान समाज सेवकों एवं बुद्धिजीवियों की एक बैठक हो रही थी। श्री अरूण कुमार पानी बाबा की कृपा से मैं भी वहाँ शामिल था, एक अज्ञानी। मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैं ने भी एक लेख लिख मारा - ”शिक्षा में मौन का महत्त्व“। बैठक में शिक्षा से संस्कार एवं संस्कार से ब्रह्मचर्य तक की बात उठी। 

आदरणीय राधा बहन जी और प्रसिद्ध पर्यावरणविद प्रो. जी.डी अग्रवाल जी मनुष्य के अन्दर छुपी काम भावना के उन्मूलन में पूर्णतः तत्पर थे। वे दोनो ब्रह्मचारी, मैं पूर्णतः सांसारिक माया वाला आदमी। इनकी बात समझ में ही नहीं आ रही थी। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं ने अपनी उलझन रखी, सो आपको भी बता रहा हूँ।

मैं गाँव में पैदा हुआ, वहाँ खेती और पशुपालन दोनो होता था। पशुओं की कामेच्छा, यौनक्रिया, गर्भधारण एवं प्रसव हमारे नित्य पारिवारिक चर्चा का प्रसंग था, क्योंकि गाय/भैस के प्रसव से हमारे दूध मिलने का सीधा रिश्ता था। बनिए के कर्ज की भरपाई खेती से नहीं पशुपालन से ही हो पाती थी। 10-12 साल तक भले ही हमने मनुष्य को रति क्रिया करते न देखा हो किन्तु पता था कि मनुष्य भी कुछ ऐसा ही करते हैं। 16-17 साल तक अपनी जवानी भी चढ़ने लगी थी। 20 साल की उम्र कॉलेज के दिनों की। 

आए दिन संत महात्मा, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते-सुनाते मिलते तो घर के बड़े लोगों के साथ बहनों की शादी के लिए वर ढूंढ़ने जाने में भी झोला ढोने के लिये बे मन उनका साथ देना पड़ता। मुख्य चिंतन का विषय लड़के-लड़की की कद-काठी, दोनो के भावी दांमपत्य के मूल आधार, कमाई की संभवना, संततियोग एवं शारीरिक संरचना होते। और तो और जब हम जिम्मेारी के लायक माने जाने लगे तो हमें पशु मेले से बछिया और कडि़या (भैस का मादा बच्चा) खरीदना सीखना था। दो बातें मूल थीं कि के आगे बछिया और कडि़या चलकर दुधारू हो, प्रसवकाल में मरे नहीं। पूरी जवान गाय, भैस के शरीर विकास का अनुमान, चमड़ी से हड्डी तक पैनी नजर पहचानने वाली बने, यही तो काम था। जब जानवर समझा तो आदमी भी समझ में आने लगे।इस प्रकार मेरी काम भावना का विकास होता रहा। 

शरीर के बाहर वाली की औरत के पहले हमें तो भीतर की औरत से भंेट कराया गया, उसका मजा ही अलग है। इस प्रसंग को बाद में लिखूँगा। 

हाँ तो इस प्रकार सृष्टि के नजदीकी सभी रूपों को काम भावना की दृष्टि से देखने-सुनने, विचार करने की प्रक्रिया पर मुझे समाज के किसी सदस्य ने न कभी टोका, न मना किया, इसलिये उस बैठक में समझ में नहीं आया कि मेरी काम भावना के विस्तार से समाज को क्या संकट हुआ ? अब तो अगर अविवाहित लड़के-लड़के दिखे नहीं कि तुरन्त ख्याल आता है कि जोड़ी कैसी रहेगी? ठीक लगी तो लगता है इनकी शादी हो जाती। 

मेरा बेटा जवान है, उसकी बहू के लिए ख्याल आ ही जाता है। मैंने अपनी तीन बहनों एवं दो भाईयों की शादी में सीधे जिम्मेवारी बड़े भाई के रूप में निभाई। हर साल एक-दो जोड़ी का जुगाड़ बैठाता हूँ। मुझे अपने बेटे के लिए अच्छी बहू के साथ एक अच्छी खूबसूरत समधन भी मिल जाये तो और अच्छा। इससे न तो मेरी पत्नी को समस्या होगी न एक मस्त समधी से मुझे, जो हँसी मजाक में रस लेने वाला हो। बुढ़ापे का सुख तो इसी में है कि दूसरे को खेलते-खाते हँसते देख अपनी जवानी और बचपन की बेवकूफियों पर हँसा जाए, नहीं तो जलन का रोग चिता पर चढ़ने से पहले ही जला डालेगा।

मुझे समझ में नहीं आता कि ब्रह्मचर्यवादियों की समस्या क्या है? मेरी काम भावना के विकास से उन्हें क्या कष्ट हो सकता है? उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया। यदि मेरा रास्ता गलत हो तो सुधार का प्रयास इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो किया ही जा सकता है। अन्यथा यह काम भावना पोते-पोतियों की पीढ़ी तक फैलती ही जायेगी। ईश्वर जाने आगे क्या होगा?