सोमवार, 25 अप्रैल 2016

रस की अनुभूति होती है। कैसे? यह न पूछिए

रसानुभूति 2
रस की अनुभूति होती है। कैसे? यह न पूछिए क्योंकि यह तो सभी को कमोबेश होती ही है, कम से कम षट् रस वाली या नव रस वाली या उससे भी अधिक।
असली मामला यह है कि मन भरता नहीं है। भरे तो कैसे? क्योंकि कभी मात्रा में कमी तो कभी बहुत कम समय मिला। मन करता हे कि काश यह अनुकूल अनुभूति कुछ देर और रहती। स्वादिष्ट भोजन थोड़ा और मिलता, मन भरा नहीं। तब किया क्या जाय? मानव इसी जुगाड़ में लगा है।
कुछ सोचते हैं रसानुभूति के पर्याप्त या उससे अधिक संसाधन इकट्ठे करें तो मन भर जाए। कुछ सोचते हैं - इसमें तो भोगने का समय ही नहीं बचेगा तो समय का भी प्रबंध करें और जल्दी जल्दी भोग लें। यह जल्दबाजी भी कम संकट नहीं पैदा करती। मन हो या इन्द्रियां या तन वे ही थक जाते हैं बीमार पड़ जाते हैं। तन एवं इन्द्रियों के लिए अनुकूलता या प्रतिकूलता में तो समानता भी रहती है ओर कुछ टिकाउपन भी लेकिन मन का क्या भरोसा अभी कुछ चाहिए और कुछ देर बाद उससे बिलकुल अलग, तो फिर पूरी, मन भर रसानुभूति हो कैसे?
इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में रसायन वाले रस से शरीर को ठीक रखने, षड् रस तथा पुष्टिकारक रक्त, मज्जा आदि से तन एवं इन्द्रियों को पुष्ट करने तथा भाव रस से मन एवं संजीवनी रस से आत्म तत्त्व मतलब संपूर्ण व्यक्तित्व को सरस बनाने की कला का विकास भारत में हुआ। यह तब तक सार्थक है जब तक मानव जीवन है। नाम, रूप, परंपरा तथा कुल एवं क्षेत्र की दृष्टि से विधियें में अंतर आता है लेकिन रस मूलतः एक है।
रस मूलतः एक ही है, इस बात की चर्चा अगले पोस्ट में।

रसो वै सः वह रस है

रसानुभूति 2
रसो वै सः वह रस है
इस वेद वाक्य को भी ब्रह्म का अर्थ बताने वाला माना जाता है। मतलब कि वह ब्रह्म रस है। रस शब्द कई अर्थों  में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें मुख्य हैं- 1 जीभ से चखा जाने वाला स्वाद रूपी रस- षट् रसए 2 द्रव का पर्यायवाची जैसे सभी तरल पदार्थ, जो अपने साथ जुड़ी चीजों को संभाल कर रखते हैं, जीवन देते हैं, जल आदि, 3 पारा एवं गंधक का योग एवं ऐसी दवाएं, जिनमें पारा-गंधक का योग मिला हो, अनेक आयुर्वेदिक दवाएं, 4 काब्य/नाट्य या गान से मिलने वाली मन को खुश करने वाली अनुभूति, 5 ध्यान, योग, तंत्र आदि के अभ्यास से अपने भीतर के आनंद स्रोत तथा जीवन स्रोत से कण एवं/या विपुल रूप में चखा/अनुभूत किया जाने वाला।
रस के इन 5 अर्थों के अतिरिक्त इनके अर्थ विस्तार से भी कई अर्थ निकल सकते हैं। कोई रस के किसी एक पक्ष के बारे में बताते हुए भी कह सकता है कि वह (उसके अभिप्रेत या विवेच्य) अर्थ, भोजन, काव्य, दृश्य, अनुभूति, आदि कुछ भी रस है या सरस रसयुक्त है। साथ ही वह ब्रह्म का ही अंश है।
यदि कोई अपने को योगी, तांत्रिक (परंपरागत अर्थ में न कि काला जादू वाले) या किसी दर्शन के प्रणेता/भाष्यकार मान कर बात करे तो उसकी जिम्मेवारी उपर्युक्त सभी अर्थों में रस के अर्थ, महत्व, स्वरूप, उसकी अनुभूति/उपलब्धि का मार्ग बताने की होती है।
रससिद्धांत का निरूपण किसी आदर्शवाद, कल्पना, मिथ, चाली बात नहीं है। यहां तो बताना पड़ेगा कि भोजन कैसे स्वादु बनेगा? मूर्तियों या कला के अन्य उपादानों में सौंदर्यबोध की प्रक्रिया क्या होगी? और पैमाने क्या होंगे? वगैरह।  इसी तरह मंचीय प्रक्रिया का विधान भी बताना होगा और काव्य मीमांसा भी जिसे संस्कृत में अलंकार शास्त्र भी कहते हैं।  इन सबके साथ पूजा-पाठ, ध्यान, योग लोक-व्यवहार, कृषि, संगीत, और पता नहीं कितनी सारी बातें, जैसे - मृत्यु तथा उसके बाद सरस जन्म भी।
इन बातों के एक एक पक्ष पर तो कई लोगों ने प्रकाश डाला है लेकिन उनसे आगे बढ़ कर तंत्रालोक जैसे महान ग्रथ के रचयिता श्रीमान अभिनव गुप्त ने सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है और उसकी प्रक्रिया अनेक उपायों के साथ बताई है।
भरत मुनि का प्रसिद्ध सूत्र है- ‘‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः’’। काव्य कला आदि में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारि भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
इन सारी बातों के विस्तार की मूल प्रक्रिया एवं रहस्य मनुष्य के तन, मस्तिष्क, इन्द्रियां, मन एवं उससे गहरी जो भी मानें, उनकी कार्य प्रणालियों का संसार की सामग्रियों से उनके संबंधों के विवेचन में निहित है।
संक्षेप में कहें तो व्यक्तित्व, अंतःकरण का बाह्य संसार से संबंध तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाली अनुभूति या अंतस्थ जप, ध्यान आदि से प्राप्त होने वाली जीवनदायी अनुभूतियां  रस के स्रोत तथा प्रक्रियाएं हैं।
अगली किश्तों में जारी