अभिनव धर्मशास्त्र

सनातन धर्मीय स्मार्त परंपरा में वर्तमान समय के अनुरूप
‘‘धर्मशास्त्रीय ग्रंथ संकलन/संस्करण’’ हेतु निवेदन


मान्यवर,
आपकी क्षमता, महिमा एवं समाज तथा धर्मशास्त्र के प्रति आपकी निष्ठा का मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं है। एक गृहस्थ साधक, ब्राह्मण, संस्कृत एवं पालि भाषा का विद्यार्थी और अनेक महानुभावों का कृतज्ञ तथा कृपापात्र होने के नाते आपके समक्ष लोक कल्याण और प्रकारांतर से आत्म कल्याण हेतु निवेदन कर रहा हूँ।
ज्ञात हुआ है कि पौरोहित्य-कर्मकाण्ड में आपकी रुचि एवं गति है। आप केवल अर्थोपार्जन के लिए ही कर्मकाण्ड नहीं कराते, उसे समझने-समझाने का भी काम कर सकते हैं। अतः यह विस्तृत प्रस्ताव आपके पास भेज रहा हूँ। मेरी प्रार्थना है कि कृपया -
1. एक बार इसे समय निकालकर पढ़ने की कृपा करें और जहाँ कहीं भी आपको कुछ संशोधनीय/ परिवर्तनीय लगे कृपया चिन्हित कर लें, हो सके तो अपना संशोधन लिख भी लें।
2. एक बार सारे विद्वानों का विचार संग्रह कर सभा बुलाई जायेगी जिसमें आप भी आमंत्रित होगें। इस सभा में चर्चा के बाद अंशों को जोड़ा/घटाया जायेगा।
3. जिन क्षेत्रों में जो विद्वान/साधक विशेष दक्षता वाले होंगे उनसे लिखने/बताने का आग्रह किया जाएगा और सभा बुलाकर सबके अनुमोदन-संस्तुति से यह महनीय और विशाल कार्य पूरा किया जायेगा। उस बड़ी सभा में सम्मिलित सभी विद्वानों/साधकों का नाम पता मूल पुस्तक के साथ प्रकाशित होगा।
आचारप्रधान धर्मशास्त्रीय ग्रंथ वे ग्रंथ माने जाते हैं, जिनके अनुरूप हमारा प्रतिदिन का व्यवहार नियंत्रित एवं मर्यादित होता है। दैनिक पूजा पाठ, जातकर्म, विवाह, श्राद्ध आदि सभी प्रकार के संस्कार, व्रत, उपवास यात्रा, गृहारंभ आदि कार्यों को किस प्रकार धर्म के अनुरूप संपादित किया जाय, विवाह, संपत्ति का बँटवारा, उत्तराधिकार, मंदिर निर्माण आदि सामाजिक कामों की प्रक्रिया एवं पूजा पद्धति आदि विषयों का निरूपण धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में होता है। इनके अंतर्गत ही कर्मकांडीय ग्रंथों की गणना होती है।
धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में सनातन धर्मीय वैदिक परंपरा के मूलभूत सिद्धांतों का पालन तो होता ही है, साथ ही उनका देश एवं काल सापेक्ष निरूपण एवं विधान किया जाता है। देश एवं काल सापेक्ष धर्माचरण के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि धर्मशास्त्रीय प्रावधान मौलिक रूप से वैदिक सिद्धांतों के अनुरूप होने पर भी देश (स्थान भेद) की दृष्टि से अनेक प्रकार के हों और काल की दृष्टि से भी उनका कुछ समय के वाद नई व्यवस्था, सामंजस्य एवं सुधार की प्रक्रिया के साथ बार-बार निरूपण होता रहे। इसी कारण से कर्मकांडीय ग्रंथों की बार-बार रचना/परिष्कार का कार्य पहले भी किया जाता रहा है। अनेक स्मृतियाँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में लागू र्हुइं। मनुस्मृति जैसी मुख्य स्मृति की टीकाएँ भी क्षेत्रभेद से लागू र्हुइं। पुराणों के बाद उनकी अगली कड़ी के रूप में उपपुराण लिखे गए। शिव, शक्ति एवं विष्णु के नानाविध रूपों की पूजा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में की जाती है। सामान्य भारतीय हिन्दू गृहस्थ अपनी परम्परा से प्रतिदिन पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर धार्मिक जीवन जीने का प्रयास करता है और तीर्थ स्थानों पर जाकर विभिन्न तीर्थों के विभिन्न नियमों का पालन करता है। कालक्रम में कर्मकांडीय/धर्मशास्त्रीय ग्रंथों की बार-बार रचना/परिष्कार की परंपरा रुक गइर्, जिससे अनेक उलझनें पैदा हो गईं और कालबाह्य नियमों के विरुद्ध अनेक लोग विभिन्न सुधारवादी या आधुनिक संप्रदायों/धर्मों की शरण में जाने को विवश हो गए।
आवश्यकता
इस स्थिति में यह आवश्यक है कि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूपी चारों पुरूषार्थों में रुचि रखने वाले गृहस्थ समाज के लिए एक एक नए धर्मग्रंथ की रचना की जाय जो - परंपरागत समाज, सनातन धर्म के मूलभूत तत्त्व, जैसे - लोक-परलोक, संस्कार, अनुष्ठान, पूजा-पाठ, प्रकृति-पुरूष संबंध, तीर्थ, विवाह, पितर-देव आदि योनियों से संबंध, प्रकृति के विभिन्न घटक - जड़, चेतन, नदी, पर्वत, पहाड़, वृक्ष-वनस्पति आदि सबके साथ अनुकूल संबंध रखने, उनकी कृपा के प्रसाद का लाभ उठाने, भूूल सुधारने, नए परिर्वतनों से ताल मेल बनाने, काल बाह्य आचरणों को हटाने, गुलामी एवं औपनिवेशक काल में स्वीकार किये गए आपात्कालीन प्रावधानों को बदलने/सुधारने एवं सही दिशा में समाज को ले जाने की व्यवस्था, क्षेत्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता के सूत्रों की स्वीकृति से भरापूरा और संकीर्ण, ढोंगी, अत्याचारी व्यवस्था तथा तात्कालिक राजनैतिक स्वार्थों से पूर्णतः रहित हो। जो निगम-आगम दोनों परंपराओं से संवलित हो।
कृपया ध्यान दें -
कुछ बातें धर्मशास्त्र की मूल प्रकृति एवं वर्तमान समाज की आवश्यकता को देखते हुए पूर्व निर्धारित हैं। यह प्रयास मूल रूप से सनातनधर्मी अनेक देवी-देवताओं के उपासक गृहस्थों के लिये मार्गदर्शक ग्रंथ की रचना हेतु किया जा रहा है अतः उसकी सीमा में ही नए ग्रंथ का संकलन/रचना होनी है। अतः ऐसे संशोधन/सलाह शायद सम्मिलित न किये जायं जो पूर्व निर्धारित मानदंडों की सीमा के प्रतिकूल हों जैसे -
किसी एक क्षेत्र का दूसरे क्षेत्र पर वर्चस्व का प्रयास, जैसे काशी की परम्परा को अखिल भारतीय बताना। इसी प्रकार मगध, मिथिला, कलिंग, मालवा सबकी क्षेत्रीय परम्परा की जगह केवल एक परम्परा को सही ठहराना।
किसी एक सम्प्रदाय वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन को दूसरे से श्रेष्ठ या हीन मानकर किये गये प्रयास।
गुप्त रूप से किसी एक क्षेत्र या परम्परा का दूसरे पर हावी करने का प्रयास जैसे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, सर्वश्रेष्ठ देवता या नाग क्षेत्र पर गरुड क्षेत्र का वर्चस्व, नरसिंह की हत्या वह भी गरूड द्वारा, वह भी शैव परम्परा के लोगों द्वारा। ऐसी चालाकियों के पक्ष में कोई तर्क नहीं स्वीकृत होगी।
किसी जाति विशेष का वर्णांतरण तो समाज में उस जाति की लंबी भूमिका (गुण एवं कर्म) के आधार पर संभव होता है। ऐसे उदाहरण भी हैं किन्तु किसी व्यक्ति का वर्ण व्यवस्था में ऊध्वारोहण नहीं होता।
जजमान या पुरोहित की केवल सुविधा से अनुष्ठान नहीं बन सकते। अनुष्ठान की कालबाह्यता का निर्धारण इस आधार पर होगा कि उसका अनुपालन किस सीमा तक संभव है।
किसी एक या दो ग्रंथों को ही बिना समीक्षा प्रमाण मानना, जो स्वयं दूसरे ग्रंथों पर अवलंबित हों या किसी क्षेत्र विशेष का प्रतिनिधित्व करते हों या किसी क्षेत्र विशेष के लोकाचार के समर्थक हों, जैसे निर्णय सिन्धु या धर्मसिंधु। इनका महत्त्व केवल क्षेत्रीय है। आज से मात्र 100-50 वर्ष पूर्व प्रकाशित किसी भी संस्कार या अनुष्ठान पद्धति को एक मात्र प्रमाण नहीं माना जाएगा, हाँ उस पर विचार अवश्य होगा।
संस्कृत मूल पाठ पर भरोसा करें, हिन्दी अनुवाद पर नहीं, भले ही वह गीता प्रेस का ही प्रकाशन क्यों ंन हो। गीता प्रेस, गुजरात, मारवाड़, एवं उत्तर प्रदेश की परम्परा तथा शाकाहार को आदर्श मानता है। उसके मानक एवं परंपरा मगध, बंगाल या मिथिला वाले क्यों मानें ? आशा है, आपके बहुमूल्य सुझाव इस अभियान को अवश्य प्राप्त होंगे।
ये पूर्व निर्धारण क्यांे है ? इसके पीछे क्या चिंतन है? इसका आधार संलग्न विस्तृत आलेख में मिलेगा।
संलग्न आलेख में केवल मूल विंदुओं का वर्णन है, जिस पर विस्तृत ग्रंथ की रचना एवं संकलन होना है न कि यह स्वयं केाई ग्रंथ है।
अनुमान लगाया गया है कि यह ग्रंथ लगभग 2000 पृष्ठों का होगा और इसे अंतिम रूप देने तक रचनाकारों/संकलनकर्त्ताओं की बड़ी मंडली बन जायेगी। जो लोग जिस प्रकार की भूमिका निभाएंगे उनका नाम उसी रूप में उल्लिखित होगा। बड़े ग्रंथ के विभिन्न भागों केे विभिन्न लेखक भी हो सकते हैं।
इसका प्रकाशन ‘अभिनव धर्म प्रकाश’ न्यास’’ की ओर से किया जाएगा। धन की व्यवस्था सामाजिक सहयोग से होगी ताकि लोगों को आसानी से कम मूल्य पर पूरा ग्रंथ उपलब्ध हो सके।
इस महनीय ज्ञानयज्ञ में आप अपनी भूमिका तय करेंगे और यश के भागी बनेंगे, ऐसी आशा है।
निवेदक

रवीन्द्र कुमार पाठक


अभिनव धर्म प्रकाश न्यास की ओर से प्रस्तावित एक नए धर्म शास्त्रीय ग्रंथ की आवश्यकता
पृष्ठभूमि एवं विचारणीय प्रमुख विंदु
धर्म ग्रंथ परिचय
भारत में धार्मिक ग्रंथ तीन प्रकार के होते हैं।
1. सर्वश्रेष्ठ आदर्शमूलक - वेद, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्, और योगसूत्र आदि ग्रंथ। ऐसे ग्रंथों के अनुरूप ही अन्य ग्रंथों, साधना विधियों, उपासना, अनुष्ठान के नियम, आचार-विचार की योजना एवं सृष्टि की जाती है। इनके विरुद्ध जाने की अनुमति नहीं है। इन सर्वश्रेष्ठ आदर्शमूलक ग्रंथों की व्यापक योजना एवं उच्चतम स्तर की ओर लक्ष्य कर शेष विचार एवं निर्णय होते हैं।
2. कथा एवं लीला प्रधान ग्रंथ - पुराण, उपपुराण, माहात्म्य गं्रथ आदि इस कोटि के ग्रंथ हैं। इनसे जीवन जीने की कला एवं धर्म के अनुकरणीय सिद्धांतों का ज्ञान होता है। इन दोनों के अनुरूप जीवन जीने का प्रयास करना सनातनधर्मीय सभी गृहस्थों का कर्तव्य होता है।
3. तीसरे प्रकार के ग्रंथों को आचारप्रधान धर्मशास्त्रीय ग्रंथ कहा जाता है। इस कोटि के अन्तर्गत वे ग्रंथ आते हैं, जिनके अनुरूप हमारा प्रतिदिन का व्यवहार नियंत्रित एवं मर्यादित होता है। दैनिक पूजा पाठ, जातकर्म, विवाह, श्राद्ध आदि सभी प्रकार के संस्कार, व्रत, उपवास यात्रा, गृहारंभ आदि कार्यों को किस प्रकार धर्म के अनुरूप संपादित किया जाय, विवाह, संपत्ति का बँटवारा, उत्तराधिकार, मंदिर निर्माण आदि सामाजिक कामों की प्रक्रिया एवं पूजा पद्धति आदि विषयों का निरूपण धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में होता है। इनके अंतर्गत ही कर्मकांडीय ग्रंथों की गणना होती है।
धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में सनातन धर्मीय वैदिक परंपरा के मूलभूत सिद्धांतों का पालन तो होता ही है, साथ ही उनका देश एवं काल सापेक्ष निरूपण एवं विधान किया जाता है। देश एवं काल सापेक्ष धर्माचरण के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि धर्मशास्त्रीय प्रावधान मौलिक रूप से वैदिक सिद्धांतों के अनुरूप होने पर भी देश (स्थान भेद) की दृष्टि से अनेक प्रकार के हों और काल की दृष्टि से भी उनका कुछ समय के वाद नई व्यवस्था, सामंजस्य एवं सुधार की प्रक्रिया के साथ बार-बार निरूपण होता रहे। इसी कारण से कर्मकांडीय ग्रंथों की बार-बार रचना पहले भी की जाती रही है। अनेक स्मृतियाँ भारत के विभिन्न क्षेत्रों में लागू र्हुइं। मनुस्मृति जैसी मुख्य स्मृति की टीकाएँ भी क्षेत्रभेद से लागू र्हुइं। पुराणों के बाद उनकी अगली कड़ी के रूप में उपपुराण लिखे गए। शिव, शक्ति एवं विष्णु के नानाविध रूपों की पूजा भारत के विभिन्न क्षेत्रों में की जाती है। सामान्य भारतीय हिन्दू गृहस्थ अपनी परम्परा से प्रतिदिन पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर धार्मिक जीवन जीने का प्रयास करता है और तीर्थ स्थानों पर जाकर विभिन्न तीर्थों के विभिन्न नियमों का पालन करता है। कालक्रम में यह परंपरा रुक गइर्, जिससे अनेक उलझनें पैदा हो गईं और कालबाह्य नियमों के विरुद्ध अनेक लोग विभिन्न सुधारवादी या आधुनिक संप्रदायों/धर्मों की शरण में जाने को विवश हो गए।
उलझन - 1)
16वीं एवं 17वीं शताब्दी तक कालनुरूप धर्म ग्रंथों की रचना की जाती रही। उनका समकालीन समाज एवं राजा से अनुमोदन प्राप्त किया जाता रहा और उसे सहमति तथा राजदंड दोनों के माध्यम से समाज में लागू किया जाता रहा, जैसे - आज के कानून किन्तु उसके बाद यह परम्परा गडमड हो गई। मगध, मालवा आदि कुछ क्षेत्रों में आलस्यवश विद्वानों ने क्षेत्रीय पंचांग निकालने एवं धर्मशास्त्रीय ग्रंथों की रचना, अनुमोदन आदि का काम बंद कर दिया तो काशी, मुंबई, गोरखपुर आदि स्थानों से स्वघोषित अखिल भारतीय या सार्वदेशिक स्वीकृति वाले धर्मग्रंथों एवं पंचांगों की रचना एवं व्यावसायिक प्रकाशन का कार्य शुरू हुआ। धार्मिक मामलों में ब्राह्मण विद्वानों की जगह प्रकाशनों के मालिक वैश्य समाज का वर्चस्व बढ़ता गया। गीता प्रेस जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशन की पुस्तकें भी वंगीय एवं उत्कलीय समाज के धर्मप्रेमियों को स्वीकार्य नहीं हो सकीं, वे कलकत्ते तक ही सीमित रहीं क्योंकि उनके हिन्दी अनुवाद अनावश्यक रूप से उत्तर भारतीय एवं शाकाहारी समाज की तरफदारी करते हैं। तांत्रिक अनुष्ठानों की समझ नहीं होने पर भी इन्होंने पद्धतियाँ लिखीं। इस प्रकार क्षेत्रीयता वाली विविधता में एकता की समझ ही लुप्त हो गई।
उलझन - 2)
इसके साथ ही पिछले 200 वर्षों में सुधारवादी आंदोलनों की बाढ़ आ गई। इन सभी ने एक स्वर से एक बात पर सहमति जताई कि पूजा-पाठ, अनुष्ठान, संस्कार के सामाजिक बंधनों से बाहर निकल कर ईशाई लोगों की तरह जीवन जीना ही श्रेयष्कर है।
सामान्य गृहस्थ समाज विविध ढ़ंग से दुविधाग्रस्त एवं संकटापन्न हो गया। एक ही घर में कई विचारों के लोग रहने लगे। रक्त संबंध तो विचारों की तरह रोज बदल नहीं सकते। अनुष्ठानों के विभिन्न घटकों की मूल समझ जब पुरोहित समाज से गायब होने लगी तो वे उसे अपने परिवार की अगली पीढ़ी को समझाने में असमर्थ होने लगे, जजमानों को क्या समझाते। पारंपरिक कर्मकाण्ड लगभग नासमझी, अनास्था एवं उपेक्षा के साथ मजबूरी की सामाजिकता का निर्वाह मात्र बन कर रह गया।
उलझन - 3)
भारत में जब बड़े उद्योग लगने लगे तब रोजी-रोटी के लिये तेजी से विस्थापन शुरू हुआ। महानगरों और औद्योगिक क्षेत्रों का क्षेत्रीय स्वरूप आबादी की दृष्टि से बदलने लगा, वह लगभग अखिल भारतीय रूप लेने लगा। ऐसी स्थिति में भी क्षेत्रीय धर्म शास्त्र एवं बाहर से आकर बसे लोगों की समझ की उलझनें बढ़ीं और भीतर भीतर नकल तथा वर्चस्व दोनों को स्वीकृति मिलती गई। लोगों ने अपने मन से रुचिकर बातों को आत्मसात किया। इसके साथ-साथ कर्तब्य मर्यादा के बंधन से छुटकारा एवं सामाजिक कुरीतियों मुक्ति जैसी भली बुरी दानों प्रकार की बातें सम्मिलित होती गईं। नए संप्रदायों ने तो उेसा प्रचार किया कि लोग अनेकता में एकता के सूत्र ही भूल गए।
आवश्यकता
इस स्थिति में यह आवश्यक है कि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूपी चारों पुरूषार्थों में रुचि रखने वाले गृहस्थ समाज के लिए एक एक नए धर्मग्रंथ की रचना की जाय जो - परंपरागत समाज, सनातन धर्म के मूलभूत तत्त्व, जैसे - लोक-परलोक, संस्कार, अनुष्ठान, पूजा-पाठ, प्रकृति-पुरूष संबंध, तीर्थ, विवाह, पितर-देव आदि योनियों से संबंध, प्रकृति के विभिन्न घटक - जड़, चेतन, नदी, पर्वत, पहाड़, वृक्ष-वनस्पति आदि सबके साथ अनुकूल संबंध रखने, उनकी कृपा प्रसाद का लाभ उठाने, भूूल सुधारने, नए परिर्वतनों से ताल-मेल बनाने, काल बाह्य आचरणों को हटाने, गुलामी एवं औपनिवेशक काल में स्वीकार किये गए आपात्कालीन प्रावधानों को बदलने/सुधारने एवं सही दिशा में समाज को ले जाने की व्यवस्था, क्षेत्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता के सूत्रों की स्वीकृति से भरापूरा और संकीर्ण, ढोंगी, अत्याचारी व्यवस्था तथा अल्पकालिक दलगत राजनैतिक स्वार्थों से पूर्णतः रहित हो।
दुहरा प्रावधान
ऐसे धर्मशास्त्र का स्वरूप मूल बातों में अखिल भारतीय स्तर का एवं दैनिक मामलों में क्षेत्रीय स्तर का होना चाहिए। आज की महानगरीय सामाजिक व्यवस्था में क्षेत्रीय पहचान एवं आचार बहुत तेजी से मिश्रित हो रहे हैं। दक्षिण भारतीय व्यंजन पूरे उत्तर भारतीय शहरों में उपलब्ध हैं और महानगरों में अंतरजातीय विवाह बहुत तेजी से बढ़ रहा है। पहले की तरह नगरों का खेती एवं जजमानी प्रथा( खेती एवं पशुपालक समाज में दश्तकारों, सेवाकर्मियों एवं ब्राह्मणों की सामूहिक आजीविका एवं उत्पादन में अंश का निर्धारण) से संबंध नहीं है। अतः महानगरीय विवाह में बढई, लुहार की भूमिका लोगों को समझ में नहीं आती। अतः महानगरीय एवं क्षेत्रीय इन दो प्रकार के प्रावधानों से युक्त विस्तृत धर्मशास्त्रीय गं्रथ की जरूरत है।
धर्म की समझ एवं धर्मपरायणता के लिए दैनिक पूजा-पाठ अनुष्ठान में संस्कृत भाषा की सीमा का निर्धारण भी जरूरी है। यह समझना-समझाना भी जरूरी है कि वैदिक मंत्र, बीजमंत्र, लौकिक संस्कृत के स्तोत्र एवं आरती, माहात्म्य तथा कथा में क्या मौलिक अंतर है और कहाँ संस्कृत का प्रावधान होना जरूरी है और कहाँ राष्ट्रभाषा या क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग होना चाहिए।
इस समझ के अभाव में जजमान की जगह पुरोहित ही संस्कृत में क्या-क्या प्रासंगिक-अप्रासंगिक बातें बोल जाते हैं, जिसे सुनकर संस्कृत भाषा का जानकार व्यक्ति बहुत व्यथित होता है। जजमान-पुरोहित, परिवार, जाति एवं समाज की किसी कर्मकाण्ड में क्यों और क्या भूमिका होती है, इसकी समझ के बगैर सनातन धर्म की रक्षा संभव नहीं है।
सुधारवादी संप्रदायों की भूल एवं दुविधा
भारत में सनातन धर्म की बहुसंख्यक धारा के विरुद्ध अनेक सुधारवादी आंदोलन हुए और उनमें से अधिसंख्यक ईशाई मत या इस्लाम से प्रभावित रहे हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से सुधारवादी सम्प्रदायों में निम्न आकर्षण एवं भ्रांतियाँ दिखती हैं -
पूर्वजन्म-पुनर्जन्म में अनास्था, किंतु स्वर्ग-नरक में विश्वास। काल को आवर्ती न मानकर रेखीय मानना। अर्थात पुनर्जन्म की जगह एक ही जन्म के बाद सीधे स्वर्ग या नरक की व्यवस्था मानना, वह भी प्रलय के बाद। यह तो ईशाइयत या इस्लाम की बात है न कि सनातन धर्म सम्मत।
अनेक लोकों वाली भारतीय ब्रह्माण्डीय अवधारणा से असहमति। अपनी परंपरा एवं इतिहास को भारतीय दृष्टि से समझने की जगह यूरोपीय दृष्टि से समझना। पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड, संस्कार, अनुष्ठान को व्यर्थ मानना फिर भी धर्म की राजनीति या व्यवसाय करना, जैसा रानैतिक दल एवं अब संतई का दावा करने वाले भी करते हैं।
सगुण-निर्गुण को समझाने की जगह केवल निर्गुण निराकार की बात करना। मूर्ति पूजा, सगुण पूजा, साकार पूजा का विरोध परंतु अपने गुरु एवं स्वपोषित विग्रह की पूजा। ऐसे अनेक नवोदित संप्रदाय मिलेंगे जो आधे आर्यसमाजी आधे सनातनी की तरी व्यवहार करते हैं। संसार की यज्ञमय कल्पना एवं जजमानी व्यवस्था की निंदा एवं विरोध। शासन, प्रशासन से करीबी रिश्ता बनाने का प्रयास चाहे वह स्वतंत्रता से पहले की हो या आज की। दरसल ये ईशाई मिशनरियों की नकल से उत्पन्न संप्रदाय हैं।
जाति आधारित व्यवसायों को हड़पने के लिए जातीय व्यवस्था या रोजगार की निंदा कर धर्म के सिद्धांत का विरोध करना, धार्मिक संगठनों का दवा बेंचने से ले कर साबुन सैंपू तक बेचने लग जाना, अपने को लाख क्रांतिकारी कहने पर भी तिलक-दहेज, सजातीय विवाह की सीमा का पालन करना, नए नए पुरोहित की जगह ब्राह्मण या अन्य जातियों में सुविधानुसार छलपूर्वक प्रवेश का प्रयास करना एवं छुपे-छुपे उन्हीं अनुष्ठानों, कर्म काण्डों का पालन, जिसकी वे निंदा करते हैं। पंडे-पुरोहितों, ब्राह्मणों के पारंपरिक व्यवसायों पर अतिक्रमण। ऐसे लोग बहुत प्रयास के बाद भी कुछ दिनों के बाद धीरे-धीरे बहुसंख्यक धारा में वापस आ जाते हैं। अतः ऐसे मतों की उपेक्षा करना एवं उन्हें अपनी रुचि के अनुसार अनुष्ठान की छूट देनी चाहिए क्योंकि मुख्य सनातन धारा अपने आपको समय-समय पर सामंजित, संस्कृत करने में तो विश्वास करती है दूसरों को छल, बल या प्रलोभन से बदलने में विश्वास नहीं करती।
सनातन धारा की अपनी उलझनें, जड़ताएँ एवं कुरीतियाँ -
बहुसंख्यक सनातन धारा पूर्णतः दूध की धुली हो, ऐसा भी नहीं है। इसमें भी कालक्रम में अनेक कुरीतियाँ विकसित र्हुइं, जो आज इस तरह प्रभावी हैं मानो मुख्य सनातन धारा कुरीतियांे का संग्रह हो। उसमें पुनर्जीवन का तत्त्व हीं नहीं बचा हो। ऐसा लगना आंशिक सत्य पर आधारित है, जिसके मुख्य कारणों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है -
सनातन धारा लंबे समय से गुलामी में रही है। सत्ता के करीबी लोगों ने इस्लाम एवं ईशाइयत को जाने अनजाने अनेक प्रकार से सनातन धारा पर हावी करने का प्रयास किया। इनके इस व्यवहार का विरोध भी हुआ किन्तु लाचारी में उसे ही श्रेष्ठ मान लिया गया।
अनेक देवी देवताओं की पूजा को ठीक से समझने की जगह एक ही ईश्वर, एक ही शक्ति की पूजा एवं आराधना के प्रभाव से तुलसीदास और मीरा भी नहीं बच सकीं। यह उस काल का उन पर प्रभाव था। उनका जीवन विरक्त एवं संत का होने से उनका काम तो चल गया किन्तु समाज का आज भी नहीं चल सकता। तुलसीदास राम की जगह कृष्ण को भी प्रणाम नहीं कर सकते, क्या सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है?
कहाँ कहौं छबि आजकी भले बनो हे नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवे, धनुष-बाण लो हाथ।।
हो सकता है शैवों वैष्णवों के बीच समन्वय सूत्र बनाने वाल,े चित्रकूट और काशी का सेवन करनेवाले तुलसी दास ने ऐसा न भी किया हो परंतु यह बात आज भी उन्हीं के नाम से प्रचलित है।
धर्मशास्त्र की समझ के लिए पात्रता की समझ जरूरी है। गृहस्थ के जीवन एवं विरक्त के जीवन में आसमान जमीन का अंतर होता है। कई बार गृहस्थ एवं विरक्त के आचार पूर्णतः विरोधी होते हैं। इसलिए समाज एवं कानून ने दोनों की सीमाएँ तय की थीं, जैसे कि विवाह, श्राद्ध आदि के अवसर पर सम्मिलित नहीं होने की बात। शैव संन्यासियों ने तो इस नियम को माना पर वैष्णव संन्यासियों ने धीरे-धीरे इस मर्यादा को तोड़ दिया। आज तो इतने प्रकार के धर्माचार्य मनमाना उपदेश दे रहे हैं कि उन पर टिप्पणी करना व्यर्थ है।
पिछले 50 साल से कर्मकाण्ड की भयावह दुर्दशा हो गयी है। संस्कृत अध्ययन में पुरानी परंपरा की संस्कृत शिक्षा में तो कर्मकांड की शिक्षा होती भी रही है। हाई स्कूल, बी.ए., एम.ए. की पढ़ाई में कर्मकांड को नहीं लाया गया। आधुनिक दृष्टि कर्मकांड को अंधविश्वास मानती है। शास्त्री, आचार्य करने वालों में भी भूले भटके छात्र ही कर्मकांड, योग, आगम, पुराण आदि विषयों में आचार्य करते थे। कई पीढ़ियों से साहित्य, न्याय, सांख्य, व्याकरण जैसे विषयों में आचार्य करने वालों को कर्मकांड की कोई व्यवस्थित शिक्षा नहीं मिलती रही। घर का संस्कार एवं जजमान को प्रसन्न करने या ठगने की कला ही कर्मकांड का आधार रही और वह भी नष्ट-भ्रष्ट पद्धतियों के बल पर। न्याय एवं व्याकरण के विद्वान प्रायः अहंकारी एवं धर्मशास्त्र के क्षेत्र में अल्पज्ञ होने पर भी धार्मिक रंगदारी करते रहे।
आज पात्रता पर विचार नहीं किया जाता। एक कुमार या कुमारी कन्या जिसे दांपत्य का अनुभव ही न हो, वह दांपत्य जीवन पर क्यों उपदेश दे या ऐसे अनुष्ठानों में क्यों सम्मिलित हो, यह पात्रता का प्रश्न है ?
इसी तरह विवाह जब काम सुख, प्रजनन एवं उत्तराधिकार का सम्मिलित रूप है तब यह आडंबर कि विवाह केवल प्रजनन के लिए है दांपत्य को दुखमय बनाता है और व्यभिचार की जटिलता को उत्पन्न करता है।
विवाह के समय स्त्रियों का वर्चस्व सहज है। कामोत्तेजना के साथ उस पर नियंत्रण का अनुष्ठान अभ्यास आज भी जब सामूहिक समाजिक रूप से स्त्रियाँ वर-वधू दोनों को कराती हैं तो केवल संस्कृत का मंत्र पढ़नेवाले पंड़ितों को यह व्यर्थ या धर्म विरुद्ध लगता है।
पतंजलि के सूत्र के दुरुपयोग से पतंजलि अगर किसी लोक मंे होंगे तो फूट-फूटकर रो रहे होंगे कि जो दूसरे से असंसर्ग हेतु शौच की भावना का उन्होंने उपदेश दिया था वह छूआछूत की बुराई में परिणत हो गया। शौचात् स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्गः , पातंजल योगसूत्र। इस विषय पर विस्तार से अन्यत्र लिखा गया है।
पर्दा प्रथा जो पूर्णतः इस्लामिक प्रभाव से आई थी, जिसका किसी पुरानी पुस्तक में अस्तित्व तक नहीं है, सौभाग्य से वर्तमान समाज से स्वयं लुप्त हो गई। दुर्भाग्य वश कई शदियों तक यह स्त्रियों पर अत्याचार का माध्यम बनी रही।
धर्म तब विकृत स्वरूप का हो जाता है जब छल-बल या पाखंड के बल पर किसी अन्याय या अत्याचार को सही ठहराया जाता है। इस प्रक्रिया से कुराीतियाँ पनपतीं और बढ़ती हैं। बेमेल विवाह, बाल विवाह, पकडुआ विवाह, दहेज के बल पर वरक्रय या वर-विक्रय रूपी विवाह से किसी पुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं होती। घर में भयानक कलह एवं अविश्वास का माहौल पैदा होता है। अपने सामर्थ्य के अनुसार उच्चकुल में योग्य वर को कन्यादान या गंधर्व विवाह की तरह प्रेम विवाह में भी छल उसकी सरसता को समाप्त कर देता है।
अतः इन्हें उचित या आदर्श नहीं माना जा सकता कि 60 साल के अमीर का विवाह 15 साल की गरीब कन्या से संतानोपत्ति के लिए हो। अगर विवाह हो ही गया तो प्रायाश्चित्त पूर्वक सामाधान ढूंढ़ना पड़ेगा अन्यथा निरपराध संतति नाहक दंड के भागी बनेंगी। स्वैच्छिक वेश्यावृत्ति एवं असहाय को वेश्यालय या उसके समतुल्य स्थान पर पहुँचाने का फर्क तो समझना ही पड़ेगा।
‘छेका’ - ‘वाग्दान’ जैसा अनुष्ठान तिलक जैसे घटिया अमानवीय लालच का संस्कार डालने वाला अनुष्ठान मात्र रह गया। इससे भला कौन सा शुभ संस्कार पड़ने वाला है।
धर्म जब चातुर्वाणिक चारो वर्णों एवं सभी जातियों के लिए हो तो केवल कुलीन, सवर्णों के आचरण या उनकी समस्या को हिन्दू धर्म या सनातनी धारा की समस्या नहीं कहा जा सकता।
पश्चिमी भारत में इस्लाम का प्रभाव अधिक रहा, अगर वहाँ सामाजिक एकरूपता में अनुष्ठानों की भूमिका कम हो गई तो इसके सामाधान हेतु सीधे अतीत कालीन वैदिक युग में नहीं जाया जा सकता।
धर्मशास्त्रीय प्रावधानों को बदलने के संदर्भ में यह ध्यान रखना होगा कि द्वापर या त्रेता से सीधे सतयुग में लौटने की व्यवस्था नहीं है, जैसा कि आर्य समाज या अन्य संप्रदायों ने किया है। कलियुग के बाद सतयुग आयेगा और वह भी प्रलयोपरांत नई सृष्टि होने पर न कि आज के धर्म शास्त्रीय समस्याओं को सुलझाये बिना सीधे-सीधे वैदिक रचनाओं के पाठ करने से और पुराणों स्मृतियों को व्यर्थ या अप्रमाणिक घोषित करने से।
यह समझ ही सर्वथा असत्य पर आधारित है कि वैदिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं हुआ है। बात वेद वाक्यों को बदलने की नहीं है। वेदानुरूप कालोचित प्रावधान तो होते ही रहे हैं।
संस्कार के नाम पर बंगाल एवं मिथिला की कुलीन प्रथा के विरूद्ध विधापति ने आंदोलन किया। किसी राजा की तरह समाज के किसी परिवार को दर्जनों शादियाँ करने को प्रतिष्ठा देना तो अनेक उलझने एवं समस्याएँ पैदा करेगी हीं, जैसा बंगाल और मिथिला के कुलीनों में हुआ।
सम्प्रदाय - अर्थात ऋषि, मंत्र, देवता एवं धर्मशास्त्रीय सामाजिक स्वीकृति की परंपरा।
किसी साधना विधि को उसकी पूरी समग्रता में करना एवं दूसरी पीढ़ी को ठीक-ठाक पहुँचा देना यह सम्प्रदाय की मूल भावना है। किसी एक साधना विधि को मानने का मतलब यह नहीं हो सकता कि दूसरी विधियाँ गलत हैं और केवल एक हीं विधि को मानना सबके लिये सही है। दरअसल संम्प्रदाय के इस संकीर्ण व्यावसायिक और वर्चस्ववादी दृष्टि ने भारतीय समाज का बहुत अनिष्ट किया है। मुख्य धारा के सनातनी गृहस्थ, बहुसंख्यक समाज ने इस सकीर्णताः को हमेशा समझा और इससे दूर रहने का सरल उपाय किया कि हम तो सबका आदर करेंगे। राम, कृष्ण, विष्णु, शिव एवं बुद्ध तथा उनकी परम्परा के देवों को भी तैतीस करोड़ देवी देवताओं वाले स्वर्ग लोक आदि का वासी मान लेगें। बौद्ध परम्परा में तायतिंस (33) नामक भुवन (लोक) माना गया है जहाँ देवता रहते हैं। वैदिक परम्परा में तो मृत्युलोक की भाँति देवलोक की योनियों का भी वर्णन है। इस मत के अनुसार यक्ष-यक्षिणियां, गंधर्व-अप्सराएँ सभी देव योनियों वाली हैं। ये सभी विभिन्न शक्तियों वाली एवं साक्षात् उसी शक्ति स्वरूपी हैं। इन्द्र, वरूण केवल मूर्तिरूपी नहीं मेघ, बिजली, पानी आदि के रूप में हैं। इतना हीं नहीं, नए देवी-देवता उनकी साधना, विधि, मन्त्र आदि का आविष्कार तथा समावेश किया जा सकता है। ऐसा करने वाले को ऋषि का दर्जा दिया जाता है। जैसे देवता अनेक, उसी तरह ऋषि भी अनेक। जैसे क्षेत्र अनेक, वैसे हीं स्मृतियाँ अनेक।
पुराणों के बाद उपपुराणों की सृष्टि हुई। यहाँ प्रामाणिक ग्रंथ की पहचान रचनाकार के त्याग के आधार पर ही की जाती है। रचनाकार को अपना नाम छोड़ना पड़ता है। सारे पुराणों के रचनाकार तो व्यास जी ही होंगे। तंत्र की पुस्तकों का आरम्भ ‘‘भैरवी ने पूछा - भैरव ने कहा’’ वाक्य से होता है। हर गं्रथकार भैरव है और उसकी हर प्रेरणा भैरवी है।
सम्प्रदाय प्रवर्तन का स्वरूप पराक्रमी और व्यक्ति केन्द्रीत नैगमिक स्वरूप वाला है। धर्मशास्त्र प्रवर्तन का स्वरूप समाज की स्वीकृति पर आधारित है। एक व्यक्ति या समूह, सभा, समिति या संगठन जो भी हो धर्म शास्त्रीय व्यवस्था का प्रस्ताव करता है, उसके बाद समाज उसे स्वीकार करता है। विद्वत्सभाएँ, गणसंघ एवं राज्य सत्ता द्वार भी उसे स्वीकृति दी जाती है।
आज जब राजतंत्र समाप्त हो गया, ऐसी स्थिति में समाज के पमुख पुरोहित वर्ग, विचारक, विद्वान एवं समाज सेवियों के ऊपर यह जिम्मेवारी आती है कि पुनः वर्तमान समय के अनुरूप बहुसंख्यक समाज के लिये धर्मशास्त्रीय ग्रंथ का प्रवर्तन किया जाय।
किसी एक धारा की गुरू परम्परा आधारित सम्प्रदायों का प्रवर्तन तो होता ही रहेगा और उसमें कुछ लोग सम्मिलित होंगे हीं फिर भी व्यापक बहुसंख्यक समाज की इससे संरचना नहीं हो सकेगी। इस ग्रंथ की रचना बहुसंख्यक सनातनी समाज की समस्याओं, उलझनों एवं चुनौतियों को ध्यान में रखकर राष्ट्रभाषा हिन्दी में की जायेगी ताकि बहुसंख्यक समाज इसे पढ़-सीखकर धर्मानुरूप आचरण कर सके।
आचार भेद एवं पात्रता की संगति -
धर्माचारण विधितापूर्ण ही ंहो यह जरूरी है। बच्चा, बूढ़ा, स्त्र.ी-पुरूष, धनी-गरीब, विद्वान-मूर्ख, अनपढ़, बीमार, विकलांग आदि के भेद से धर्माचारण के भेद होने ही चाहिए यहील पात्रता का प्रश्न है लेकिन उनके लिए किए गए विधान धर्म की मूल भावना के विरूद्ध नहीं होने चाहिए।
कोई व्यक्ति यदि अपने घर में मंदिर बनाता है तो उसे मंदिर हेतु दान लेने का हक क्यों हो और अगर सार्वजनिक मंदिर बनाता है तो उस पर उसका व्यक्तिगत नियंत्रण नहीं हो सकता और मंदिर में प्रवेश या निषेध की तो बात ही नहीं खड़ी होती।
मोहन नामक व्यक्ति मोहनेश्वर महादेव की स्थापना कर सकता है, किन्तु अन्य किसी भी रूप पर तो सर्वजन का अधिकार है। वहाँ जाति, वर्ण या देश का भेद कहाँ है ? महादेव, भैरव और काली के मंदिर में छूआ-छूत कैसा ? जो लोग जैसी श्रद्धा और सामर्थ्य रखते हैं उन्हे उसके अनुरूप साधना उपासना की सुविधा होनी ही चाहिए।
इस बात को ध्यान में रखकर आज के लिए पात्रता का आगे वर्णित समाधान/प्रावधान करना चाहिए चाहे वह संस्कार का प्रश्न हो या अनुष्ठान का।
संस्कार सम्बन्धी पात्रता -
संस्कार नैमितिक कर्म है जो जन्म, मृत्यु आदि घटनाओं पर आधारित होता हैं। संस्कार की आज समझ समाप्त हो गई है और लोग लोकलज्जा निवारण हेतु येन केन प्रकारेण संस्कार पूरा करते हैं। चूँकि दोनों प्रकार के संस्कार में कुछ न कुछ संस्कार तो मन में पड़ता ही है अतः वास्तविक प्रभाव की स्थिति स्पष्ट करते हुए सभी संस्कारों को दो वर्गां में वर्गीकृत कर सकते हैं - सर्वांगीण और निर्वाह मूलक।
वास्तविक/ सर्वांगीण -
सर्वांगीण संस्कार वह है, जिसमें संस्कार की पूरी प्रक्रिया संपन्न की जाय और यह निश्चित किया जाय कि जिस उद्देश्य से जो संस्कार किया जा रहा है, वह ठीक से पूरा हो जाए।
इस प्रकार के संस्कार के अनुष्ठान की पूरी प्रक्रिया का पुनः निर्धारण आवश्यक है क्योंकि आज की जितनी संस्कार पद्धतियाँ चलन में है, उनमें संस्कार की ठीक समझ नहीं है और वे सभी निर्वाह तक सीमित हो गई है। जो लोग ठीक से संस्कार करना-कराना चाहते हैं, उनके लिए इस प्रकार की विधियाँ अनुकूल हांेगी। धीरे-धीरे अन्य लोग भी संस्कार के महत्व को समझकर विधिवत संस्कार आदि अन्य अनुष्ठानों की ओर प्रवृत्त होंगे। अनेक लोग जानकारी एवं समझ के अभाव में सामर्थ्य एवं श्रद्धा होने पर भी सही संस्कार नहीं करा पाते हैं।
निर्वाह मूलक
बहुत सारे गरीब, मजबूर, परदेशी आदि लोगों के पास न समय होता है, न सामर्थ्य, न इस बात की चिंता रहती है कि मन, वाणी और शरीर पर संस्कार हो रहा है या नहीं? उनके संस्कार केवल श्रद्धामूलक हैं या सामाजिक मजबूरी वाले। ऐसे लोगों पर विधिपूर्वक अनुष्ठान का दबाव डालना जरूरी नहीं है।
ऐसे लोगों के लिए श्रद्धामूलक संक्षिप्त कर्मकाण्ड का प्रावधान किया जाना चाहिए, जिससे जो भी परिणाम हो शुभ हो। उनके चित्त में जटिलता, ग्लानि, कपट, ऋण आदि का बोझ उत्पय न हो। न ही समाज में संस्कारों के बारे में भ्रांतियाँ उत्पन्न हों।
काम्य अनुष्ठान
विशेष कामना की पूर्ति हेतु किये जाने वाले काम्य अनुष्ठानों के साथ समझौता नहीं होना चाहिए। अनुष्ठान के बाद भी जब जजमान को लाभ नहीं होता है तो धर्म के प्रति अनास्था होती है। पुरोहित समाज को चाहिए कि वे स्वयं पहले काम्य अनुष्ठानों/कर्मों की प्रक्रिया एवं विधि-विधान ठीक से समझें और उन्हीं अनुष्ठानों को पूरा कराएँ जो वस्तुतः सफलता देने वाले हों।
काम्य अनुष्ठानों की भाषा द्वयर्थक होती है और मन की ग्रंथियों के अनुरूप उनकी रचना रहती है। दूसरे के भले की भावना से भी मानसिक शांति हो सकती है। अतः चौराहे पर नियमित रूप से एक राशि का त्याग कराना मानसिक तप का अनुष्ठान हुआ। आज उनकी प्रक्रिया समझे वगैर ही निस्फल काम्य अनुष्ठान कर लोग धर्म के विरोधी होते जा रहे हैं। ऐसे मामलों में पुरोहित समाज को लालच से बचना चाहिए।
धर्मशास्त्र के नए संस्करण के प्रस्ताव एवं अनुमोदन की बाधाएँ -
1. गृहस्थोचित धर्मशास्त्र में संसार की अनेकानेक समस्याओं पर देश-काल सापेक्ष्त चिंतन करने एवं समाधान
बताने में बहुत श्रम लगता है, जिससे कोई सीधा आर्थिक लाभ नहीं है।
2. दुराचार एवं कुरीतियों की आलोचना करने के कारण साधन संपन्न एवं हिंसक लोगों से रिश्ता बिगड़ने की
आशंका रहती है।
धर्म का क्षेत्र बहुत व्यापक है। केवल ईश्वर की प्रार्थना करना एक सुविधाजनक मार्ग है। संसार को उलझन, माया, भ्रम या अनुपयोगी कहकर जिम्मेदारियों से भागना भी सरल है। ठीक इसके विपरीत हर पल सांसारिक जीवन का भोग (सुख एवं दुख का भोग) करते हुए उस आचरण एवं भोग को धर्मानुरूप शैली एवं नियमों में बाँधना संसार की जटिलताओं के ज्ञान के वगैर संभव नहीं है। भारत में जहाँ द्वैत एवं अद्वैत दोनों की साधना की सुविधा है वहाँ भोजन पकाने से लेकर खाने तक में विचार करना जरूरी हो जाता है कि जीवन

परोक्ष विधियों का स्पष्टीकरण -
दूसरों का भला करने के शुभ विचार से अपने मनोकायिक रोग दूर होते हैं। इस प्रकार व्यक्तिगत कल्पना हेतु भी परोपकारी भावना का अभ्यास साधनाविधि हुई, जिसमें बात घुमाकर कही जा रही है। यम द्वितीया के दिन यम को कूटने, क्रोध का अनुष्ठान करने और फिर भाई तथा समस्त लोक की मंगलकामना का अनुष्ठान चित्त-वृत्तियों के रूपांतरण के सिद्धांतों के समझे बिना किसी की समझ में नहीं आ सकता।
इसी तरह संकल्प, महासंकल्प, जप, होम, कवच, तर्पण, अभिषेक, प्रायश्चित्त, उपवास आदि की कार्य प्रणाली का ग्रंथों में वर्णन परोक्ष रूप में किया गया है। आज इन सबों को सीधे-सीधे स्पष्ट रूप में बताना जरूरी हो गया है। ऐसा न करने के कारण भ्रम एवं अनास्था की वृद्धि हो रही है और दूसरी तरफ पाखंड भी नाहक बढ़ रहा है।
तंत्र, आगम संबंधी विधियाँ एवं स्त्रियों के नेतृत्व में किये जाने वाले अनुष्ठान तो पूरी तरह उपेक्षित एवं अबूझ जैसे होते जा रहे हैं। इनकी स्पष्ट व्याख्या जरूरी है।
कई अनुष्ठान ऐसे होते हैं जिसकी मूल विद्या तो लुप्त हो गयी है पर उसके प्रति आकर्षण जर्बदश्त है। केश राशि के माध्यम से चिकित्सा करने की विद्या ऐसी ही विद्या है। केश को लेकर अनेक विधियाँ एवं अनुष्ठान सृजित किए गए हैं। मैं इस विद्या को नहीं जानता, संभव है केाई दूसरा जानता हो। ऐसे संदर्भों की सही जानकारी देकर लोगों पर छोड़ना चाहिए कि इस अनुष्ठान (जैसे लाबर लेने) की केाई आवश्यकता नहीं है जब तक इस विद्याा का कोई जानकार न हो। उबटन लगाने, चुमावन करने, आरती करने की विधियाँ केवल विश्वास आधारित नहीं है इनका शति प्रतिशत शुभ परिणाम आता है। ये विधियाँ योग-तंत्र परम्परा की हैं। इन्हें न्यास एवं अभिषेक आदि के रूप में समझना जरूरी है।
सामान्य गृहस्थ जीवन में दक्षिण मार्ग एवं वाम मार्ग की सफल उत्तम विधियों का समावेश हजारों साल पहले किया गया। केवल वेदोच्चारण पर आस्था रखने वाले बेवजह नाक-भौं सिकोड़ते हैं और नास्तिक भी उसी तरह मजाक उड़ाते हैं। आज इस बात की पूरी स्पष्टता के साथ पुनः स्थापना आवश्यक है।
आज के समय में छूआ-छूत मानने की कोई वाध्यता नहीं है। जन्म संबंधी वर्चस्व समाप्ति की ओर है। ऐसी दशा में सच्चे कर्मकाण्ड के रहस्य पक्ष का प्रकाशन नहीं किया गया तो केवल धर्म के विरोध या धर्मांतरण की ही समस्या नहीं बढ़ेगी अपितु नई पीढ़ी का विवाह नामक व्यवस्था से ही विश्वास उठ जाएगा।
पुरोहित समाज में अधिसंख्यक लोगों को इन बातों की समझ नहीं है, उन्हें समझना सीखना चाहिए और जिन्हे वस्तुतः व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान हो, उन्हें आगे बढ़कर विधियों को सिखाना चाहिए।

प्रस्तावक का परिचय -
नए धर्मशास्त्र सीखने का प्रस्ताव देने के पूर्व मैं लगभग 30 वर्षों से धर्मशास्त्र की गुत्थियों को समझने सुलझानें में लगा रहा हूँ। बचपन से लेकर 25 साल की उम्र तक मुझे भी धर्मशास्त्र-कर्मकाण्ड की बातें बहुुत फालतू लगती थीं। फिर भी मन में यह भाव बना रहता था कि सारी की सारी बातें गलत नहीं हो सकतीं। मैं बगावत कर कर्मकाण्ड से मुँह मोड़ दर्शन शास्त्र के अध्ययन में लग गया। साथ ही योग (पतांजलि के अष्टांग योग) की साधना में 1978 से दीक्षा लेकर लग गया। इसी बीच समाजशास्त्रियों एवं कानूनविदों की संगति से पता चला कि मैं तो भारी भ्रम में था, समाज तो दर्शनशास्त्र की जगह धर्मशास्त्र के बल पर चलता है और धर्मशास्त्र क्षेत्रीय होते हैं।
मैंने सप्रयास संपूर्ण भारत के धर्मशास्त्रों का पारायण किया। समाज व्यवस्था की विविधता देख दंग रह गया। इसके बाद भी अनुष्ठान, पूजा-पाठ की बाते ठीक से समझ में नहीं आ रही थीं। सत्संग करने पर दक्षिण मार्गी तंत्र साधना की पुस्तकों एवं आचार्यों से पूजा-पाठ के कई रहस्य समझ में आए। योग तंत्र परम्परा पर सच्ची श्रद्धा रखनेवाले बिहार योग विद्यालय के साधकों के सान्निध्य से यह समझ में आया कि आधुनिक समाज के लिए कैसे मूल विधियों को उपयोगी बनाया जा सकता है। इसके बावजूद सामूहिक साधना समाज के योगदान एवं अनिवार्यता की समझ नहीं बन सकी।
चूँकि मैं पालि भाषा का अध्यापक हूँ। अतः बौद्ध तंत्र की समझ भी धीरे-धीरे बनने लगी और यह समझकर विस्मयकारी वास्तविकता से परिचय हुआ कि बहुसंख्यक समाज उदार एवं समझदार दोनों हेाता हैं। एक ओर वह उपयोगी विधियाँ सभी धाराओं से सीखकर आत्म्मसात कर लेता है और अनुपयोगी सामग्री को छोड़ देता है। समयाचार, दिव्याचार और कौलाचार में तो सारी बातें ही एक हो जाती हैं।
इस सामाजिक प्रयास में कई बार अनमोल बातें भी छूट जाती हैं, जो समाज के लिये प्रायः सुविधाजनक नहीं हेातीं। मनुस्मृति से लेकर पालकालीन रजवाड़ों तक ने जातीय संकीर्णता को तोड़ने का प्रयास किया पर वर्चस्ववादी और परपीड़क लोगों ने कुरीतियों को पूरा प्रश्रय दिया।
बौद्ध परम्परा के तंत्र ग्रंथों से पता चलता है कि स्त्रियों को किस प्रकार और क्यों डायन कह कर मारा जाता है। इस षडयंत्र में ईशाई मिशनरियां पूरे संसार में इसे पनीत काम मान कर औरतों की हत्या कराती रही हैं। इन सारी बातों को समझते-समझते उम्र की ढ़लान पर आया तब पता चला कि जो बातें अकेले-अकेले 10 साल में सीखी जाती है अगर समाज के बीच सीखने-सिखाने का माहौल हो तो यह 10 दिनों में न सही एक दो महिनों में जरूर सीखा जा सकता है।
सामाजिक अनुष्ठानों, संस्कार, यज्ञ, कीर्तन, हेाम आदि की शास्त्रीय विधियाँ, उनकी उलझनों की मूल समझ के बाद भी सबसे बड़ी चुनौती मेरे सामने यह है कि एक अकेले तो यज्ञ, बारात, शवयात्रा कुछ भी नहीं होते। मनुष्य परिवार में पैदा होता है उसे विभिन्न संस्कार, परिवार एवं समाज में ही सुविधा से प्राप्त होते हैं। आज भी गृहस्थ समाज में उदारता, श्रद्धा एवं जिज्ञाशा बनी हुई है।
मैंने गृहस्थ लोगों को ध्यान में रखकर धर्म, संस्कृति, साधना, रतिशास्त्र, योग एवं विचार प्रधान पुस्तके लिखीं, प्रकाशित करायीं, फिर भी यह देख कर दुख होता है कि नासमझी एवं सामूहिक पहल एवं स्वीकृति के अभाव में हमारी परम्परा नष्ट हो रही है। हमारी अपनी अगली पीढी़ को सही बात बता नहीं पा रहे।
प्रस्ताव देने वाले को अपनी जाति, कुल, गुरु परम्परा आदि का विवरण स्पष्ट देना चाहिए। क्योंकि सनातन धर्मीय व्यवस्था में पात्रता की समीक्षा होती है और समीक्षा करने वालों को इससे सुविधा होगी।
भोजपुर जिले के सहार प्रखंड के अंधारी ग्राम के मग ब्राह्ममण (जिसे लोग शाकद्वीपी या साकलदीपी कहते हैं) परिवार में बिक्रम संवत् 2016 ईश्वी सन् 1959 में मरा जन्म हुआ। मेरे परिवार के विभिन्न लोगों की श्रद्वा विभिन्न सामाजिक राजनैतिक धाराओं में थी। शांकर अद्वैत वेदांत की नीरसता, रामानंदी वैष्णव धारा की सरसता के बीच पतंजलि-परंपरा के योग, ध्यान, अनुष्ठान, पुरश्चरण, नित्य, संध्या तर्पण जजमानी गुरु बनने की परंपरा के बीच सरकारी नौकरी तथा राष्ट्रीय आंदोलन आदि की विविधतापूर्ण कथा-व्यथा भी साथ-साथ देखने को मिली।
सौभाग्य से पिछले 50 सालों के अनेक साधक एवं आचार्याें की कृपा एवं वात्सत्य मुझे भरपूर मिले। मैं ने अनेक विद्वानों तथा साधकों से सीखने का प्रयास किया और आज भी भारतीय आचार्यों से सीखने लायक अनंत ज्ञान राशि शेष है। मेरे ऊपर कृपा करने वाले आचार्यों-साधकों का नाम उल्लेख करना चाहता हू जिनकी कृपा मेरे ऊपर रही है -
पितृकुल -
स्व पं गणेशदत्त पाठक - प्रपितामह, कविराज, वैष्णव
स्व पं रघुनाथ पाठक - प्रपितामह, काव्य, सांख्य, वेदांत तीर्थ, वेदांती
स्व पं विन्ध्येश्वरी प्रसाद पाठक - पितामह, स्वतंत्रता सेनानी, ध्यानयोग, कर्मयोग के
सामाजिक साधक
श्री राम शंकर पाठक - पिता, शिक्षक, मजदूर नेता, कर्मकांड के प्रति पूरी आस्थावाले एवं नियमित संध्या करनेवाले
मातृकुल - स्व पं शिवानन्द मिश्र, नाना, पुलिस पदाधिकारी, नियमित संध्या तर्पण करने वाले
प्रमुख आचार्यगण -
स्व पं सभानाथ पाठक, विद्यागुरु एवं परम्परा के प्रति उत्प्रेरक, आरा
स्व पं राम सुरेश पांडेय, दीक्षा गुरू, योग साधक, आरा
प्रो. श्री नारायण मिश्र - का.हि.वि.वि., वाराणसी संस्कृत विभाग
स्व पं प्रो. केदार नाथ मिश्र - का.हि.वि.वि., वाराणसी, दर्शन विभाग
स्व पं प्रो. रामजन्म मिश्र - का.हि.वि.वि., वाराणसी ज्योतिष विभाग
प्रो. रतिनाथ झा - का.हि.वि.वि., वाराणसी साहित्य विभाग
प्रो. बैजनाथ सरस्वती - प्रसिद्ध मानवजातिवैज्ञानिक
प्रो. सत्यप्रकाश मित्तल - गांधी विद्या संस्थान, वाराणसी
स्व पं मोहनशरण मिश्र - बॉसाटाड़, अरवल
पं. श्री आचार्य चन्द्रशेखर मिश्र - गया
प्रो. मासतिनंदन पाठक - संस्कृत विभाग म.वि.वि. बोधगया।
प्रो. उमाशंकर ऋषि - पटना विश्वविद्यालय, पटना
प्रो. ब्रजमोहन पाण्डेय नलिन -म.वि.वि. बोधगया।
प्रो. सुनीति कुमार पाठक - शांति निकेत विश्वभारत बौद्ध तंत्र के अंतराष्ट्रीय विद्वान।
श्रीधर वासुदेव सोहनी, पूर्व लोकायुक्त, बिहार
प्रो. उमाशंकर व्यास - बौद्ध विद्या के प्रसिद्ध आचार्य।
लाल बाबा (ं पं श्री सिद्धनाथ मिश्र) तांत्रिक
साधु संन्यासी साधक -
स्वामी निरंजनानंद सरस्वती
स्वामी शंकरानंद सरस्वती
ब्रह्मचारी भरत सिंह, गोपालगंज
ब्रह्मलीन केदारपुरी जी
भंते प्रज्ञातीर्थ जी, बोधगया
भंते राष्ट्रपाल महास्थविर, बोधगया
इनके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे विद्वान एवं साधक मिले हैं जिनकी कृपा से मेरा चित्त कुछ न कुछ प्रकाशित हुआ है। स्वयं आचार्य बनने या पुरोहित कर्म में न लगे होने पर भी इन विद्वानों से धर्म एवं समाज के संबंधों को समझने एवं धर्मशास्त्रीय व्यवस्था की गुत्थियों को समझने में काफी मदद मिली है। ऐसे विद्वानों में आगे वर्णित विद्वानों के प्रति भी मैं कृतज्ञ हूँ। प्रो. ब्रजबल्लभ द्विवेदी - काशी, पं. त्रिनाथ शर्मा - काशी, श्री आचार्य रंजन सूरीदेव, पटना, श्री अरूण कुमार पानीबाबा, दिल्ली, श्री अनुपम मिश्र (दोनो प्रख्यात पर्यावरणविद विचारक) ।
सहचिंतक
ऐसे कई लोग हैं जो समय-समय पर धर्मशास्त्र एवं समाज की उलझनों पर चिंतन करने में आंशिक रूप से सहगामी रहे है, उनके बिना मेरी यात्रा आगे बढ़ ही नहीं पातीं और आज भी उनसे संवाद चलता रहता है। ऐसे लोगों में कई धुर नास्तिक एवं कई धर्म के पक्के हैं। फिलहाल उनका उल्लेख नहीं कर रहा हूं।
प्रस्तावित ग्रंथ में गृहस्थों के लिये प्रमुख संकलनीय विषय
धर्म - समाज के सभी वर्गो को ध्यान में रखकर उनकी परिस्थिति एवं स्वभाव के अनुरूप चार पुरूषार्थों की प्राप्ति के उपाय। उपाय अर्थात सामग्री एवं उसकी विधि/कार्य प्रणाली - इसी कारण देश भेद से धर्म शास्त्र के भेद तथा काल भेद से धर्मशास्त्रों का संस्कार परिस्कार तथा नये धर्म शास्त्रीय ग्रंथों की रचना होती रही।
धर्म ग्रंथ - धर्मशास्त्रीयग्रंथ -
हमारे समाज एवं धर्म में एकता, समानता, समरूपता तथा विविधता के अनेक रूप हैं और धर्म संपूर्ण जीवन पर्यन्त जीवन के हर पक्ष में लागू है। कुछ भी उससे बाहर हो नहीं सकता। अतः देश काल एवं पात्र अर्थात उपयुक्त व्यक्ति की दृष्टि से विविध प्रयोजनों के लिए विविध प्रकार के क्षेत्रीय, जातिपरक एवं व्यक्तिपरक उपायों का विधान किया गया है, जो सांदर्भिक, नानाविध और संदर्भों की अनंनता के कारण अनंत दीखते हैं। यह अनंनता भ्रम नहीं, सत्य है भले ही किसी को उलझाानेवाली लगे।
विविधता एवं अनंतता से डरने या चिढ़ने की प्रवृत्ति अभारतीय है। आज्ञानपूर्वक ज्ञान का दूराग्रह रखनेवाली है। क्षेत्रीय संदर्भों के मूल अंतर एंव भेद तथा प्रभावों के बीच भी अनेक नियामक समानताएँ है जिनके आधार पर इन भारतीय विविधताओं के अंतर को पहचाना जा सकता है, जैसे -
भौगोलिक बनावट एवं खेती तथा व्यवसाय का स्वरूप।
स्थानीय एवं आव्रजित आवादी का स्वभाव एवं पहचान।
उस क्षेत्र में उत्पन्न या बाहर से आये धर्म गुरूओं द्वारा सिखाई गई ध्यान एवं साधना की विधि का स्वरूप।
युद्ध, भूकंप, महामारी, बाढ़, जैसी बड़ी आपदाएँ, महत्वपूर्ण राजनैतिक सामाजिक आंदोलन।
हिन्दू धर्म का व्यक्ति जन्म के पूर्व से मरणोत्तर तक अनेक पूजा-पाठ, अनुष्ठान, व्रत उत्सव जैसे विधि निषेधों के बीच जीता है।
समस्या / शंका / उलझनें -

1. विविधता संबंधी।
2. अन्याय-न्याय संबंधी।
3. लाभ-हानि संबंधी।
4. श्रेष्ठ-कनिष्ठ संबंधी।
5. हेय-उपादेय संबंधी।
6. नये-पुराने संबंधी।
7. विश्वास-अविश्वास संबंधी।
8. सहजता-चमत्कार संबंधी।
9. आचार-भेद संबंधी।
10. ग्राम-नगर संबंधी।
11. जाति-वर्ण संबंधी।
12. व्रत-तिर्थ-दिन संबंधी।
13. स्त्री-पुरूष वर्चस्व संबंधी।
तदनुरूप वाद तिथि, नक्षत्र, योग आदि संस्कार से अनुष्ठान में उनका अधिकार
14. भोग-तंत्र संबंधी।
15. स्थिर-परिवर्तनीय संबंधी।
16. एक जन्म-पुर्नजन्म संबंधी।
17. कर्म फल की अनिवार्यत बचाव संबंधी।
18. स्वर्ग-नरक एवं मुक्ति अवातर मुक्ति।
19. मन के अधीन सृष्टि, सृष्टि के अधीन मन
20. ऋषि एवं देवता
21. प्रकृति, शक्ति एवं मानवीकरण
22. साकार-निराकार
23. निगुर्ण-सगुण मुक्ति के विविध स्वरूप।
24. ईश्वर-अनिश्वर
25. भाग्य एवं पुरूषार्थ की सीमा
26. तंत्र-मंत्र एवं यंत्र संबंधी।
27. षड दर्शन संबंधी
28. संप्रदाय भेद संबंधी
29. भोजन-भेद एवं उसका प्रभाव
30. दाय-उत्तराधिकार
31. इतिहास-पुराण
32. स्मृति-विस्मृति, स्मरणीय, विस्मरणीय
33. राजकथा-लोककथा
34. संसार में मन-मन में संसार
35. प्रतीक पूजा - निसर्ग पूजा, तादात्म्य साधना
36. वैध रिश्ता - जार रिश्ता
37. मनुष्य जन्म की दुर्लभता - अनेक जन्म की सुविधा
38. वेदाचार - लोकाचार, निगम - आगम
39. प्रतीक - साधारणीकरण-मानवीकरण
40. स्वप्त - यथार्थ
41. पिंड-ब्रह्मांड
42. पीठ-उपपीठ
43. श्मशान - उसके विकल्प
44. स्नान जल स्नान आदि भेद प्रभेद
45. उपवास
46. शौच - अस्पृश्यता ओैर अशौच का आधार
47. सतक
48. विविध मुहुर्त, उदया तिथि का संदर्भ
49. जातक एवं ब्रह्माण्ड संबंध
50. पितर - श्राद्ध
51. वैवाहिक सीमा - उपादेय/हय/निषेद्ध
52. लक्षण विद्या
53. शकुन
54. आधुनिक व्याख्या
55. आधुनिक आचार
56. यात्रा-योग एवंउसके निर्णय के आधार
57. धर्मशास्त्र का पुनः संस्कार
58. शास्त्रों का बलाबल
59. वेद उसके भेद
60. वेदांग उसके भेद प्रभेद
61. ध्यानविधियाँ
62. योग उसके भेद प्रभेद
63. प्रमुख ग्रंथ
64. ग्रंथ तुल्य टीकाएँ एवं निण्रय ग्रंथ
65. प्रमंुख संत एवं संप्रदाय
66. वेदांत एवं धाराएँ
67. देवासु द्वन्द - युद्ध वर्चस्व, समाधान के तरीके
68. रिश्ते की उलझण
69. प्रमुख देवता, देव, पितर, ऋषि एंव प्रेत में अंतर
70. देवयोनियाँ - यक्ष, नाग, गंधर्व, अपसरा, विधाधर
71. योगीनियाँ - भैरव, डाकिनी, शाकिनी आदि
72. मातृकाएँ
73. नास्तिक संप्रदाय
74. प्राचीन जनपद / देश विभाग
75. द्वीप विभाग
76. प्रचलित कथाएँ
77. जातक कथाएँ
78. कुलाचार कुल परम्परा गोत्र भेद वाम-दक्षिणा, कौल-आधार, मिश्र
आर्षग्रंथ परिचय-
वेद - ऋषियों के सूक्तों साक्षात्कारों एवं उस पर आधारित कथानकों, अनुष्ठानों तथा साधना विधियों का विविधता पूर्ण संग्रह।
विविधता - ऋषिभेद, शाखा भेद, पाठ भेद, वेद भेद, सूल भेद के कारण।
उपवेद - आर्युवेद, गंधर्ववेदए धनुर्वेद आदि का परिचय
सूत्र - श्रोत एवं गृह्य
पुराण - कल्प
स्मृतियाँ - ज्योतिष
छन्द
निरूक्त
मीमांसा
प्रायः सर्व स्वीकृत मूल सिद्धांत-
1. कर्म फल सिद्धांत - उपचार/अपवाद उपासना हस्तक्षेप के साथ।
2. वर्ण व्यवस्था।
3. जाति व्यवस्था
4. अज्ञान एवं संस्कार का बंधन - मुक्ति में सबका अधिकार।
वेद की प्रमाणिकता -
काल की चक्रीय गति
देश काल के अधीन देश कालातीत होने की संभावना।
साधना - उपासना की विधियाँ की विविधता।

पुरूषार्थ संबंधी स्पष्टीकरण
वर्तमान समय में पुरूषार्थ का स्वरूप एवं सीमाएँ
धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ये चार पुरूषार्थ जीवन के आधार स्तंभ हैं। इनके बिना जीवन चलना संभव नहीं है। बिरला ही कोई व्यक्ति होगा जो इनकी इच्छा न रखता हो, इन्हें पाने का प्रयत्न न करता हो और गृहस्थ जीवन में कमोबेश उसे इनकी प्राप्ति नहीं हुई हो।
धर्म
इसका पालन किये वगैर जीवा संभव हीं नही है। क्या सदैव हिंसा, व्यभिचार, अनाचार, झूठ-कपट आदि में लीन रहा जा सकता है? मनुष्य क्या अन्य जीव भी अपनी संरचना एवं स्थिति के अनुरूप संयम एवं अपने समाज के नियम का पालन करते हैं और यदि कोई तोड़ता है तो संघर्ष भी होता है।
सनातन धर्म की पिशिष्टता इसकी सहजता में है। यह स्वधर्म के पालन का पक्षधर है। दूसरे धर्म का पालन या दूसरों पर अपने धर्म के पालन हेतु जोड़ देने की यहाँ कोई व्यवस्था नहींे है, चाहे वह कितना हीे आकर्षक लगे। अतः स्वधर्म एवं पर धर्म के ज्ञान के पहले धर्म का ज्ञान होना भी जरूरी है, तभी धर्मानुरूप हमारा आचरण हो सकेगा।
धर्म शब्द भाववाचक संज्ञा है। ‘धारणात् धर्म’ धारण करने से धर्म, ‘धारयतीति धर्म’’ जो धारण करे वह धर्म, ‘धर्मोरक्षति रक्षितः’ धर्म रक्षा किये जाने पर रक्षा करता है,जैसे वाक्यों से धर्म शब्द के अर्थों को स्पष्ट करने का प्रयास विद्वानों ने किया है। गहराई एवं विस्तार यदि दोनों दृष्टियों से धर्म शब्द के अर्थों का देखें तो सर्वत्र संगति मिल जायेगी। अगर संगति नहीं मिल रही हो तो पूरी आशंका है कि दो भिन्न धर्मों की बातें आपस में उलझ रही हैं।
गहराई की दृष्टि से स्वभाव (अपनी उत्पत्ति, प्रकृति एवं स्थिति) के अनुरूप स्व-स्थ (अपने में स्थित) रहना, जिससे निज रोगों (आयुर्वेद के अनुसार) से पूर्णतः मुक्ति मिले और आगंतुक रोगों से भी प्रतिरोध की क्षमता बढे़, स्वस्थ रहकर ‘स्व-रूप’ का स्वाध्याय करना (ठीक से जानना) और इसके लिए सभी प्रकार का प्रयास करना ‘स्वधर्म है। स्वधर्म का पालन हीे सभी तरह कल्याणकारी है।
स्वधर्म का पालन केवल एक व्यक्ति के लिए ही जरूरी नहीं है अतः सभी लोग स्वधर्म का पालन कर सकें ऐसी ‘स्वतंत्र’ अपनी व्यवस्था की सुविधा भी बनानी होगी। जो व्यक्ति जहाँ तक स्व (अपनापन) का विस्तार कर जीना चाहता है उसे वहाँ तक की सीमा में लागू तंत्र को (व्यवस्था को) मानना धर्म है। व्यक्तिगण कल्याण हेतु घर-संसार छोड़ने वाले पर, सम्पत्ति न रखने वाले पर कर कैसा? जंगल में एकांकी रहने वाले पर नागरिक नियम क्यों ? अवधूत, परमहंस पर संसार के नियम क्यों और कैसे? साथ ही उनका समाज व्यवस्था, गृहव्यवस्था, परिवार व्यवस्था की दैनिक गतिविधियों में दखलदांजी भी बंद। वसुधैव कुटुबकम् मानने वाले किसी एक के पिता-माता नहीं रह जाते। उनके स्वत्व एवं ममत्व, अपनेपन और मेरेपन का क्षेत्र सम्पूर्ण संसार हो जाता है। ऐसे लोगों को सहज ही संसार एवं समाज स्वीकार कर लेता है। समस्या तो तब होती है जब कोई संन्यासी भी बने और दूसरे पर अपनी इच्छाएँ थोपे, भक्तिमार्गी संत होने की घोषणा करे और अपने परिवार, जाति, कुल, गोत्र या देश के ही हित का ध्यान रखे। यह तो धर्म नहीं धर्म का आडंबर हो गया। इसमें संगति कैसे होगी ? बड़े-बूढ़े, विवाहित, विधुर, कुार-कुमारी, विधवा, स्वस्थ्य, बिमार सबके लिए धर्मों की विविधता का होना जरूरी है और उचित भी।
ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी के व्यवहार में अंतर तो सहज है, जो पूर्वजन्म नहीं मानता उसे पुनर्जन्म भी मानने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु जो देश, काल से निरपेक्ष, ब्रह्मात्मैक्य (ब्रह्म के साथ एक हो जाना) रूपी मुक्ति मानता हो, वह केवल स्वर्ग की भावना तक क्यों सीमित रहे?
अतः जरूरी है कि बहुसंख्यक सनातन धर्मावलंबियों के आचार में चारो पुरूषार्थों के साथ स्वर्ग एवं सभी प्रकार की मुक्ति की अवधारणाओं के अनुरूप व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक साधना की पद्धति का समावेश और सामंजस्य दोनो हो।
स्व-धर्म के पालन के साथ दूसरे को भी स्व-धर्म के पालन को स्वीकृति देने के बाद आपसी सामजस की व्यवस्था करना भी धर्म एवं धर्मशास्त्र का विषय हो जाता है।
अर्थ -
(पुरूषार्थ की सीमा एवं संदर्भ में अपेक्षित एवं विहित) अर्थ शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक है। जीवन जीने के लिए जो भी भौतिक संसाधन अपेक्षित होते हैं, वे सभी अर्थ की सीमा में आते हैं। ऐसे संसाधनों का उत्पादन, संचय एवं उपभोग जहाँ जो भी अपेक्षित हो मनुष्य को करना हीं चाहिए। यह स्व-धर्म के अन्तर्गत विहित है।
केवल अपने लिए अर्थ संचय या उपभोग को धर्मानुरूप मानने पर उलझन एवं विरोध तो उत्पन्न होगा हीं क्योंकि अर्थोपार्जन की पूर्ण स्वतंत्रता किसी व्यक्ति विशेष के लिए हीं नहीं हो सकती। यह तो सभी व्यक्तियों के लिए होगी।
पहले राजा समाज या गण के संगठन इन सीमाओं एवं प्रक्रियाओं का निर्धारण करते थे। आज भारत में लोकतंत्र एवं संविधान का जो स्वरूप है, वह इन प्रक्रियाओं का निर्धारण करता है। संविधान के नीति निर्देश तत्व धर्म की मूुल भावनाओं से ओत-प्रोत है किन्तु अनेक प्रावधान एवं सरकार की कार्य प्रणाली इसलिए अनाचारी, धर्म विरूद्ध लगती है (और वस्तुतः है भी)। क्योंकि वह लोकतंत्र और संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के विरूद्ध है। ऐसे सभी आचरण धर्म विरोधी और गर्हित हीं नहीं है असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक है।
न्’यायपालिका का देर से निर्णय करना, अत्यधिक जटिल होना, कानून को ठीक से स्थापित किए बगैर उसे सबको ज्ञात एवं मान्य मानना अधार्भिक है। घनी और गरीब के असीम अंतर से स्पष्अ है कि अनेक लोगों को स्वास्थ्य, स्वःध्याय एवं स्वरूप ज्ञान संबंधी स्वधम के पालन की स्वतंत्रता नहीं है दहेज आदि बुराइयाँ से चार पुरूषार्थों की उपलब्धि में बहुत बाधाएँ आती हैं यह धर्म नहीं है।
जो भी राज्यव्यवस्था कर संचय करने के काम में लगे और प्रजा का न करे वह धर्म विरूद्ध व्यवस्था है, इसमें संशोधन परिवर्तन करना कराना धार्मिक कार्य है।
धर्म की इस मूल कसौटी पर ही अर्थोपार्जन को कसा जा सकता है न कि किसी पुरानी राजशाही को धार्मिक व्यवस्था के विकल्प के रूप में स्वीकार किया जाना उचित है।
प्रजा का रक्षण, पालन-पोषण राज्य व्यवस्था का सहज धर्म है। इसकी जगह जब भी भारतीय राजाओं ने प्रजा की कीमत पर सीमा विस्तार को राजा का मुख्य कार्य माना देश गुलामी की दलदल में फँसा। अतः संपत्ति का निर्माण, संरक्षण, प्रबंधन या भोग को दूसरे के हित की सीमा को क्षति पहुँचाए बगैर वाली सीमा में ही स्वीकार्य माना जा सकता हैै।
यह प्रश्न सहज ही उटता है कि उस सीमा की पहचान कैसी होगी। इस प्रश्न को जितना जटिल रूप से प्रचारित किया गया है वह उतना जटिल नहीं है। इसके लिये नैतिक मापदंड तो मनुष्य एवं समाज स्वयं ही तय कर सकता है कि अमुक अमुक विधियों से उपार्जित संपत्ति धर्म विरूद्ध है चाहे उसकी सीमा जो भी हो। करारोपण, करवंचना, कपटपूर्वक दूसरों की सम्पत्ति हड़पने, लूट-पाट आदि के माध्यम से अर्जित संपत्ति तो स्पष्ट रूप से धर्मविरुद्ध है।
काम:-
काम पुरूषार्थ सबसे विवादास्पद रहा है, पूरा का पूरा विरक्त समाज इसे पुरूषार्थ मानने को तैयार नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर उनके वैराग्य का माहात्म्य घट जाता है।संस्कार एवं अनुष्ठानपूर्वक समाज की सहमति एवं परस्पर अनुकूलता की स्थिति में दंपति बने लोगों को भी काम भावना का विधिवत अभ्यास क्यों नही करना चाहिए? इससे क्या हानि होगी जो दंपति को केवल प्रजनन हेतु आपस में मिलना चाहिए।
मैं अपना ही एक उदाहरण दे कर यह प्रश्न आप लोगों से पूछ रहा हूँ।
मेरी काम भावना का विकास
मसूरी से आगे कैम्पटी में एक संस्था है सिद्ध। शिवहाँ बड़े-बड़े महान समाज सेवकों एवं बुद्धिजीवियों की एक बैठक हो रही थी। श्री अरूण कुमार पानी बाबा की कृपा से मैं भी वहाँ षामिल था, एक अज्ञानी। मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैं ने भी एक लेख लिख मारा - ”शिक्षा में मौन का महत्त्व“। बैठक में शिक्षा से संस्कार एवं संस्कार से ब्रह्मचर्य तक की बात उठी। आदरणीय राधा बहन जी और किसी पॉलिटेकनिक कॉलेज के एक प्राचार्य जी मनुश्य के अन्दर छुपी काम भावना के उन्मूलन में पूर्णतः तत्पर थे। वे दोनो ब्रह्मचारी, मैं पूर्णतः सांसारिक माया वाला आदमी। इनकी बात समझ में ही नहीं आ रही थी। मुझसे बर्दाष्त नहीं हुआ। मैं ने अपनी उलझन रखी, सो आपको भी बता रहा हूँ।मैं गाँव में पैदा हुआ, वहाँ खेती और पषुपालन दोनो होता था। पशुओं की कामेच्छा, यौनक्रिया, गर्भधारण एवं प्रसव हमारे नित्य पारिवारिक चर्चा का प्रसंग था, क्योंकि गाय/भैस के प्रसव से हमारे दूध मिलने का सीधा रिष्ता था। बनिए के कर्ज की भरपाई खेती से नहीं पषुपालन से ही हो पाती थी। 10-12 साल तक भले ही हमने मनुश्य को रति क्रिया करते न देखा हो किन्तु पता था कि मनुष्य भी कुछ ऐसा ही करते हैं। 16-17 साल तक अपनी जवानी भी चढ़ने लगी थी। 20 साल की उम्र कॉलेज के दिनों की। आए दिन संत महात्मा, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते-सुनाते मिलते तो घर के बड़े लोगों के साथ बहनों की षादी के लिए वर ढूंढ़ने जाने में भी झोला ढोने के लिये बे मन उनका साथ देना पड़ता। मुख्य चिंतन का विशय लड़के-लड़की की कद-काठी, दोनो के भावी दांमपत्य के मूल आधार, कमाई की संभवना, संततियोग एवं शारीरिक संरचना होते। और तो और जब हम जिम्मेारी के लायक माने जाने लगे तो हमें पशु मेले से बछिया और कड़िया (भैंस का मादा बच्चा) खरीदना सीखना था। दो बातें मूल थीं कि के आगे बछिया और कड़िया चलकर दुधारू हो, प्रसवकाल में मरे नहीं। पूरी जवान गाय, भैंस के शरीर विकास का अनुमान, चमड़ी से हड्डी तक पैनी नजर पहचानने वाली बने, यही तो काम था। जब जानवर समझा तो आदमी भी समझ में आने लगे।
इस प्रकार मेरी काम भावना का विकास होता रहा। बाहर की औरत के पहले हमें तो भीतर की औरत से भंेट कराया गया, उसका मजा ही अलग है। इस प्रसंग को बाद में लिखूँगा। हाँ तो इस प्रकार सृष्टि के नजदीकी सभी रूपों को काम भावना की दष्श्टि से देखने-सुनने, विचार करने की प्रक्रिया पर मुझे समाज के किसी सदस्य ने न कभी टोका, न मना किया, इसलिये उस बैठक में समझ में नहीं आया कि मेरी काम भावना के विस्तार से समाज को क्या संकट हुआ ?अब तो अगर अविवाहित लड़के-लड़के दिखे नहीं कि तुरन्त ख्याल आता है कि जोड़ी कैसी रहेगी? ठीक लगी तो लगता है इनकी षादी हो जाती। मेरा बेटा भोपाल में पढ़ता है, उसकी बहू के लिए ख्याल आ ही जाता है। मैंने अपनी तीन बहनों एवं दो भाईयों की शादी में सीधे जिम्मेवारी बड़े भाई के रूप में निभाई। हर साल एक-दो जोड़ी का जुगाड़ बैठाता हूँ। मुझे अपने बेटे के लिए अच्छी बहू के साथ एक अच्छी खूबसूरत समधन भी मिल जाये तो और अच्छा। इससे न तो मेरी पत्नी को समस्या होगी न एक मस्त समधी से मुझे जो हँसी मजाक में रस लेने वाला हो। बुढ़ापे का सुख तो इसी में है कि दूसरे को खेलते-खाते हँसते देख अपनी जवानी और बचपन की बेवकूफियों पर हँसा जाए, नहीं तो जलन का रोग चिता पर चढ़ने से पहले ही जला डालेगा।
मुझे समझ में नहीं आता कि ब्रह्मचर्यवादियों की समस्या क्या है? मेरी काम भावना के विकास से उन्हें क्या कष्ट हो सकता है? उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया। यदि मेरा रास्ता गलत हो तो सुधार का प्रयास इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो किया ही जा सकता है। अन्यथा यह काम भावना पोते-पोतियों की पीढ़ी तक फैलती ही जायेगी। ईश्वर जाने आगे क्या होगा?
मोक्ष
धर्म के बाद मोक्ष की सर्वाधिक भ्रामक एवं शास्त्र विरूद्ध धारणा समाज में प्रचारित की गई है। मोक्ष शब्द के अनेक रूप अनेक संप्रदायों को प्रिय हैं। किसी एक ही प्रकार का मोक्ष सभी क्यों पसंद करें? जो लोग स्वर्ग को सुखमय मानते हैं, उन्हें राजतंत्र का सम्मान करना पड़ेगा उन्हें इन्द्र के अधीन किसी पद से संतुष्ट होना पड़ेगा क्येांकि एक ही इन्द्र भगवान् विष्णु के पक्षपात से हर बार इन्द्र बन जाते हैं।
इस समस्या को तार्किक दृष्टि से सांख्यकारिका पुस्तक में उठाया गया है कि वह स्वर्ग भी मृत्युलोक की भाँति अविशुद्धि, क्षय एवं अतिशय दोषों से युक्त है। अमीर-गरीब, दास-दासी वहां भी हैं। देवताओं को भी सारे सुख उपलब्ध नही है। उन्हें भी सीमाओं का पालन करना पड़ता है। उन्हें भय सताता है कि देवत्व का क्षय न हो जाय और ईर्ष्या भी तंग करती है कि बड़े छोटे, स्वामी दास का भाव वहाँ भी है। आधुनिक दृष्टि से सोंचें तो बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो इन्द्र का भी नौकर बनने से मृत्युलोक में स्वतंत्र रूप से खेती या दुकानदारी करना पसंद करेंगे।
गीता भी स्वर्ग को त्रिगुणात्मक मानती है और उससे ऊपर उठने को कहती है। सुख-दुःख पाप-पुण्य जैसे द्वन्द्व अकेले रहते ही नहीं।
स्वर्ग के सदृश अवस्थाओं की भी मान्यता है, जैसे गोलोक, विष्णुलोक, शिवलोक आदि। ऐसे में ईमानदार धर्मशास्त्र को किसी एक परंपरा के पक्ष में नहीं पड़ना चाहिए। चाहे तो कोई अपने पिता को स्वर्गलोक, विष्णुलोक या गोलोक में स्थापित करने का अनुष्ठान करे या न करे। गया का पिंडदान त्रिगुणातीत ब्रहमैक्य भावना वाले व्यक्ति का अनुष्ठान नहीं है। तादात्म्य केवल शैव परंपरा में है या निर्गुण ब्रहम की उपासना में विष्णुलोक में तो पार्षद होने तक की ही अधिकतम सुविधा है। इसी तरह सख्य भाव एवं गोलोक की मानसिकता अलग है।
अतः धर्मशास्त्र में मोक्ष के स्वरूप के वर्णन के साथ उसके अनुष्ठान का वर्णन होना चाहिए। पुराण, उपपुराण या अनुष्ठान पद्धतियाँ किसी एक परंपरा से निश्चित होती है और इस तरह वर्णन करती हैं मानों दूसरा है ही नहीं। धर्मशास्त्र चूँकि विविधतापूर्ण समाज के लिये होता है अतः उसे किसी एक का पक्ष नहीं लेना चाहिए। यह मोक्ष अचानक नहीं मिलता। ब्रह्मात्मैक्य भाव रूपी मोक्ष भी क्रमशः ब्रह्म, विष्णु, रूद्र ग्रंथियों के भेदन के बाद अर्थात् शरीर, मन एवं बुद्धि के मलों के पूर्णतः नष्ट हो जाने पर इनके बंधनकारी प्रभावों से ऊपर उठ जाने पर मिलता है।
तादात्म्य या किसी लोक विशेष में प्रतिष्ठा रूपी मोक्ष भक्ति की धनीभूत अवस्था में उपलब्ध होता है और इसकी साधना जीवनपर्यंत करनी पड़ती है। अज्ञान से मुक्ति क्रमशः ज्ञान की उच्चभूमियों में पहुँचने से और अविधा से मुक्ति चित्त की उच्चतर अवस्थाओं में जाने से होता है।
देवत्व एवं ईश्वरत्व का अंतर सावधानी से समझना चाहिए। देवी देवताओं को उनकी सीमा में देखने और फिर उन्हें ईश्वर सदृश स्थान पर देखने में अनेक भ्रांतियाँ होती हैं।
आदि शक्ति की तुलना किसी मातृका से नहीं हो सकती। विष्णु और उनके अवतार तथा रूपों में तो अंतर करना ही पड़ेगा।
रहस्य चमत्कार एवं अंध विश्वास
रहस्य चमत्कार एवं अंधविश्वास, ये तीनों शब्द अति प्रचलित एवं विवादास्पद रहे हैं। इन शब्दों के प्रति आकर्षण-विकर्षण से अधिक इनके उदाहरणों एवं अर्थों के प्रति हजारों साल से खींचतान चल रही है।
भारत के संदर्भ में इस विषय को समझना जरूरी है तभी सही दिशा का निर्धारण हो सकेगा। संसार में हर बात तब तक रहस्य है, जब तक हम जानते नहीं। हमारा शरीर एवं मन विभिन्न भौतिक साधनों, रंग, ध्वनि, सुर, स्वरों के आरोह-अवरोह से प्रभावित होता है। ऐसी हर सामग्री में एक विशेष प्रकार की शक्ति है। इनकी कार्यप्रणाली का शास्त्रों में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। इन शक्तियों को आप जिस शक्ति या देवी-देवता के नाम से पुकारें, उससे केवल नाम का अंतर होगा।
इनकी कार्यप्रणाली न जानने पर सबकुछ चमत्कार है, और जानने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कहाँ केवल मानसिक स्तर पर घटना घटित हो रही है और कहाँ केवल भौतिक या मिश्रित रूप में। उदाहरणार्थ उत्सव के लिये आवश्यक है कि विविधता हो और कई अनुकूल लोग सम्मिलित हों।
सामान्य प्रकाश से शांति, गहरे लाल रंग से जोश एवं गुस्सा, काले रंग से गहन शांति या भय (संदर्भ एवं पात्र भेद से) उत्पन्न होता है। बिना मिर्च-मसाले के भोजन से मन को एकाग्र करने में सुविधा होती है।
इससे आगे बढ़ने पर जामितीय आकृतियों का अर्थ एवं अवचेतन मन से उनके रिश्ते एवं कार्य प्रणाली को जानना पड़ता है। कोई व्यक्ति किसी देवी-देवता को माने या न माने, ये प्राकृतिक शक्तियाँ सही स्थान में संयोजित होने पर सामान्य भौतिक घटनाओं की तरह काम करती हैं।
दो प्रकार की सूचनाओं ने पूरे समाज को भ्रम में डाल दिया है और उनसे बचना जरूरी है। पहली प्रकार की सूचनाएँ हैं - फलसु्रति संबंधी अर्थात् ऐसा करने से इतने प्रकार के लाभ होते हैं, जैसे - अमुक मंदिर में जाने से सारी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, जबकि ऐसा संभव ही नहीं है। मन तो परस्पर विरोधी इच्छाओं में फँसा रहता है। इस मंत्र के जपने से राजा या स्त्री मुग्ध हो जाती है।
दूसरे प्रकार की सूचनाएँ - वे हैं जो द्वयर्थक भाषा में इस प्रकार लिखी गई हैं, जिससे उसकी कोई नकल न कर सके और उस विद्या के असली जानकारों की मर्जी और उन्हें उसके लिये भुगतान किये बगैर लाभ न उठा सके। यह बात भी लिखी रहती है कि धूर्त, कृतध्न एवं भिन्न परंपरा के लोग इन पुस्तकों को पढ़कर दिग्भ्रमित, पागल या बीमार हो कर बरबाद हो जायं।
एक दृष्टि से ऐसा साहित्य सृजन बहुत ही अमानवीय लगता है। दूसरी दृष्टि से विचार करें तो बिना पूरी और सही जानकारी प्राप्त किये, किसी विद्या के विद्याधरों को बिना दक्षिणा दिये उसका लाभ उठाने की कृतघ्नता क्या उचित है? पुराने भारतीय कॉपी राइट कानून का यह संरक्षणवादी तरीका बहुत सुरक्षित और दुश्मनों के लिये खतरनाक है।
आज भी इसी चालाकी में अनेक लोगों का अनिष्ट हो रहा है। छोटी-छोटी अप्रामाणिक पुस्तक खरीद कर साँप बिच्छु का जहर उतारने, यक्षिणी सिद्ध कर सोने की मुहर पाने की जुगत में लोग बरबाद हो रहे हैं।
इस युग के भी कई बड़े-बड़े विद्वानों ने भी समाज को गुमराह करने के पूरे उपाय कर दिये है। उपन्यास शैली में तांत्रिक कथाएँ लिखी हैं। लोग उन्हें सच मानते हैं।
उपर्युक्त की जगह पतंजलि के योगसूत्र, विज्ञान भैरवतंत्र की विधियाँ, ध्वनियों के स्वरूप संबंधी पाणिनीय शिक्षा, बौद्ध तंत्रों के लिये महायान सूत्र, उनके पटविधान, मंत्र साधना संबंधी अध्यायों को ठीक से पढ़ने-समझने पर ये भ्रांतियाँ नहीं होतीं।
उसके पक्ष या विपक्ष में तत्पर हो जाना अंध विश्वास है। अयोध्या में रामजन्म हुआ यह कथा सिद्ध प्रसंग है। किसी स्थान विशेष पर ही उनका जन्म हुआ या नहीं यह निश्चय करना असंभव की तरह कठिन है।
घट-घटवासी राम, सबके मन में रमण करने वाले राम के सूक्ष्म स्वरूप या चेतनामय स्वरूप को राम नाम के किसी व्यक्ति विशेष में केन्द्रित या सीमित करना अंधविश्वास है। दशरथ पुत्र राम सभी ब्राह्मणों को भी मान्य नही हैं, मुसलमान या ईशाई की बात क्या करें? ऐसे ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या अयोध्या के आसपास है। यह संख्या लाखों करोड़ों में जाएगी। नई पीढ़ी इस प्रसंग को भूल रही है। शायद इसी में शांति है।
संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति
किसी ब्यक्ति समाज या भाषा के प्रति आदर-श्रद्धा रखना एक मानवसुलभ सहज गुण हैं। इस श्रद्धा विश्वास का स्वरूप एवं संदर्भ स्पष्ट न रहने से बहुत हानि होती है। ऋषि एवं राजा का चरित्र उसकी महिमा एवं उससे अपेक्षा को गडबड़ कर दें तो अनर्थ हो जाएगा। इसी प्रकार भाषा एवं संस्कृति के अंतर को भी समझना जरूरी है। कर्मकांड संस्कृत में ही होना चाहिए यह मान लेने पर स्त्री शिक्षा से वंचित सवर्ण ही नहीं ब्राह्मणों के घर की आधी-आबादी भी स्तुति प्रार्थना से वंचित हो जाती, तुलसीदास सूरदास मीराबाई जैसे संर्तोंं का प्रयास व्यर्थ हो जाता। इतना ही नहीं वैदिक संस्कृत के बाद लौकिक संस्कृत में या साहित्य की प्रचलित वेदोत्तरकालीन संस्कृत में पुराण स्मृतियाँ, आगम गं्रथ, रामायण महाभारत आदि ग्रंथ रचे गये हैं। क्या भारतीय समाज इन्हें धर्म एवं संस्कृति के ग्रंथ नहीं मानता? अगर केवल संस्कृत या वैदिक संस्कृत के प्रति ही श्रद्धा रखें तो न संस्कृति, न समाज किसी का कल्याण संभव नहीं है। संस्कृति की समझ एवं आगे उसकी रक्षा के लिये वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत एवं बाद की अन्य भाषाओं में लिखे गए ग्रंथ, विशेषकर संत साहित्य पर आदरपूर्वक ध्यान देना जरूरी हैं। संस्कृति किसी जाति विशेष या धर्म की जागीर नहीं है।
कर्मकांड में तो वैदिक मंत्रों, लौकिक संस्कृत के स्रोतों एवं हिन्दी मराठी, गुजराती आदि में लिखित आरती का साथ-साथ प्रयोग होता है। इनसे भी अद्भुत बीज मंत्र हैं। उन्हें किस भाषा का माना जायेगा?
संस्कृत जैसी बड़ी भाषा में कर्मकांड उपासना, अनुष्ठान एक छोटा भाग है। वैदिक मंत्रों, पौराणिक स्रोतांे, कथाओं एवं बीज मंत्रों के स्वरूप को उनकी परंपरा एवं मर्यादा में स्वीकार करने से सहज समाधान होता है।
मंत्र की परिभाषाएँ भी वैसी ही हैं, जैसे -
वैदिक मीमांसा शास्त्र में - मंत्र की परिभाषा है -
प्रयोग समवेतार्थ स्मारकाः मंत्राः। याग-यज्ञ आदि अनुष्ठानों में समवेत अर्थांे (पदार्थों) का स्मरण दिलाने वाला वाक्य मंत्र है। विधि-निषेधादि अनेक प्रकार से वैदिक मंत्रों का पुनः किया गया है।
पौराणिक मंत्रों की परिभाषा है - मननातृ त्रायते इति मंत्राः। जिनका मनन करने से त्राण (मुक्ति) मिले उसे मंत्र कहते हैं।
बीज मंत्र स्वरूपात्मक होते हैं - वे स्वयं मंत्र अर्थ एवं देवता सब हैं अतः इनकी परिभाषा की आवश्यकता नहीं है।
वैदिक, लौकिक स्वरूपात्मक मंत्रों तक तो संस्कृत भाषा की अनिवार्यता हो सकती है पर शेष मामलों में संस्कृत भाषा की अनिवार्यता बनाकर संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती है। इसलिये यह सर्वथा युक्ति संगत है कि पूजा अनुष्ठान की पुस्तकों में विधि, कथा एवं सामग्री आदि संबंधी पूरा विवरण हिन्दी भाषा में हो और मंत्रों को संस्कृत में ही सुरक्षित रहने दिया जाय।
स्वंय पूजा एवं पुरोहित के नेतृत्व में किये जानेवाली पूजा का अंतर -
इस अंतर को भी समझाना जरूरी है। कुछ कामों में मनुष्य की अकेली भूमिका पर्याप्त है, जैसे - शौच, स्नान आदि किंतु उबटन लगाने में तो दूसरे की भूमिका सक्रिय हो जाती है। संकल्प ब्यक्ति स्वंय करता है परंतु उस व्यक्ति पर जल या अक्षत का अभिषेक तो दूसरा ही कर सकता है। इसलिए यजमान, पुरोहित अन्य पवनियाँ, कुल, समाज किसी की भी भूमिका को केवल पुरोहित निभाएँ यह सर्वथा अनुचित है। हिन्दी में यदि विस्तार से इन बातों को समझा दिया जाय तो स्वतः स्पष्ट हो जाएगा कि कहाँ किस रूप में संस्कृत की अनिवार्यता है और जो भी व्यक्ति उन मंत्रों का उच्चारण ही नहीं कर पाता हो वस्तुतः उसे पुरोहित होने का कोई हक नहीं है।
प्रतिनिधि पूजा-पाठ या अनुष्ठान
मजदूरी लेकर या देकर पूजा-पाठ या अनुष्ठान के विषय में भारी भ्रांति फैलाई गई है। कथावाचन के लिए जरूरी है कि कोई भ्रवण करने वाला हो। यहाँ वक्ता एवं श्रोता का रिश्ता साफ है। पाठ या जप करनेवाले किसी ब्राह्ममण की मदद करना भी सीधी-सीधी समझ में आ सकती है किंतु अगर किसी भी ब्राह्ममण या ब्राह्मणोतर के बदले में किसी अन्य ब्राह्ममण के द्वारा जप पाठ या होम किया जाना सर्वदा फलदायक नहीं हो सकता और भूल प्रक्रिया के विरूद्ध है। भाव के स्तर पर मिलने वाला लाभ केवल सांयोगिक होता है।
इस प्रक्रिया से धर्म के प्रति अनास्था फैलती है और अंततः सभी हो हानि होती है। अतः ब्राह्मणों को कभी भी प्रतिनिधि पूजा का भार नहीं लेना चाहिए। यह तो मृत्य या दासकम के समान है। माता-पिता पुत्र, पत्नी की स्वतः सेवा संरक्षण धर्म है न कि नौकरों के द्वारा रिश्तों का निर्वाह कराना।
इस समय केवल धन-लाभ के लिये बिना तीर्थ यात्रा किये ही काशी, गया एवं अन्य तीर्थों में अभिषेक कराने की चलन बनी है। गया में अपने पितरों का पिण्डदान की आन लाइन करने न रकने के पक्ष में बहस जारी है जो शर्मनाक है।
अगर लौकिक संस्कृत के बाद हिन्दी भाषा में पूजा-पाठ अनुष्ठान की विधियाँ का प्रकाशन पंडितों धर्म शास्त्रियों की सभा द्वारा कराया गया होना और ब्राह्मण यजमान को ठगने की मानसिकता से ऊपर उठते तो यह संकट ही नहीं होता।
राग-रंग
यह प्रश्न बहुचर्चित रहा है कि किसी ब्यक्ति में अपनी चीजों, अपनी मान्यताओं के प्रति गहरा लगाव रहता है और किमसे कम? साथ ही किसका लगाव सही है, किसका गलत? यदि सरलता पूर्वक विचार किया जाय तो प्रचलित मान्यताओं से अलग ही स्थिति नजर आती है।
संसार में कुछ लोग लगाव एवं अपनापन को सहज जीते हैं। उनका कब कहाँ किस व्यक्ति, सामग्री या विचार से लगाव हो जाए, कोई ठिकाना नहीं। इससे उलझने भी बनती हैं और कई बार भारी दुविधावाली मुश्किलें आती हैं। तब या तो दुविधा के साथ ही जीना पड़ता है या लगाव की प्रबलता अथवा परिस्थिति के दवाब में किसी खास तरफ के पक्ष में आदमी मुड़ जाता है। यह चित्र, यह स्थिति आम और बहुसंख्यक आदमी का है। वह पूरी स्थिति को जानता, महसूस करता है और उसे स्वीकार भी करता है।
ठीक इससे भिन्न स्थिति उन लोगों की होती है, जो लगाव, प्रेम, अनुराग अािद रागात्मक वृत्तियों के लिए भी विचारधारा, लक्ष्य, प्राप्ति का जाति, संप्रदाय ईश्वर, ईष्ट आदर्श, कर्त्तव्य जैसे मानकों को लगाव का मूल आधार बना कर केवल उसी के साथ लगाव को केन्द्रित करने के प्रयास में लगे रहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम होती है और समाज में वे आसानी से पहचाने जा सकते हैं। इनका लगाव सघन एवं केन्द्रित होता है। ये लोग कई बार बहुसंख्यक लोगों की विविधता, विचित्रता और सहजता इन्हें बहुत सताती है क्योंकि ऐसे लोगों का जीवन कई संदर्भो में अत्यंत नीरस, विफल नहीं कई बार विकृत भी हो जाता है। शारीरिक एवं मानसिक रोग बहुत ही गहरे और उलझे हुए होते हैं, जिनका इलाज हो ना भी मुश्किल रहता है। ये अपने को महान समझते हैं।
आम आदमी राह चलते अपने सुख-दुख, राग-विराग, अपने दूसरों के द्वारा किये गए व्यवहारों को सरलतापूर्वक कहता-बाँटता फिरता है। ये महान लोग न सहज हँस पाते हैं न रो पाते हैं।
गृहस्थ पिता-माता, भाई-बहन पुत्र-पुत्री रिश्तेदार एवं मित्रों के बीच खींचतान, प्यार-मुहब्बत में सौ बार लात खाकर उनके साथ रहता है तो भी उसे महान लोग भक्ति, आदर्श प्रेम, निष्ठा, लगन वाला न मानकर उसे मोहग्रस्त, जड़ स्वार्थी, मूर्ख एवं अपने जीवन को नष्ट करने वाला बताने का काम करते रहते हैं।
ये गृहस्थ बहुसंख्यक लोग भी अजीब है। ऐसे महान लोगों की सेवा-सत्कार, दान-दक्षिणा, चरण चुंबन आदि उनसे भी लगाव बना लेते हैं, लेकिन उनकी तरह बनते ही नहीें, इस व्यवहार से महान लोगों को बड़ी पीड़ा होती है कि लोगों का मोहभंग क्यों नहीं हो रहा? उनका राग-अनुराग, माया मोह छूटते हीं नहीं है। वे ईश्वर, अल्लाह, खुदा की ओर या किसी निर्धारित आदर्श वादियों की ओर सबकुछ छोड़कर एकाग्र या घनिष्ठ क्यों नहीं हो रहे?
थोड़ी देर के लिए अगर इन महान लोग की बेचैनी पर ध्यान दें तो स्पष्ट लगेगा कि इनका राग सामान्य आदमी से बहुत अधिक प्रबल और गहरा है। इनके पास शांति, संतोष, क्षमा, दूसरे की स्वीकृति और वैचारिक अंतर झेलने तथा उससे सामंजस्य बनाने की कला ही नहीं है, दरअसल वे अपने राग के रंग को इतना गाढ़ा बनाना चाहते हैं, कि दुनिया से उनकी पसंद के अतिरिक्त अन्य सारे रंगों का ही लोप हो जाय या अगर ऐसा न हो सके तो उनके प्रति लगान तो अवश्य समाप्त हो।
गृहस्थों सावधान, हीन भावना धर्म नहीं है न धोखा खाना। इसलिये आज धर्म की पहचान जरूरी है।