शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

दर्शन-दर्शन का खेल 3


बुनियाद से भागते भारतीय दर्शनप्रेमी
दर्शन प्रेमी इसलिये कहा कि आज के तथाकथित बुद्धिजीवी जो भारतीय चिंतन परंपरा की बुनियादी बातों से ही भागते हैं, पाश्चात्य पैमानों, वर्गीकरणों में जिस किसी तरह भारतीय बातों को ठूंस-ठांस कर समझने का विफल प्रयास करते हैं और न समझ पाने पर उलटे गालियां देते हैं, उन्हें क्या कहूं?
पंच महा भूत, काल संबंधी व्यवस्था, गति संबंधी व्यवस्था और पैमानों से संबंधित सिद्धांत भारत में वही नहीं हैं जो योरप या माडर्न सायंस में हैं। सहमत या असहमत होना दीगर बात है लेकिन भारतीय बातों को पाश्चात्य ढंग से आप कैसे समझेंगे और एसी जिद क्यों? दरसल बौद्धिक गुलामी के शिकार पंडित चाहे वे संस्कृत वाले हों या अंगरेजी वाले उन्हें कुछ समझ में नहीं आता। हिंदी वालों का तो और बड़ा दुर्भाग्य है।
यहां अनेक बुनियादी मामलों में विविधता है ही । ईश्वर, आत्मा, परमात्मा के अस्तित्व तक के मामले में न केवल चार्वाक या बौद्ध वैदिक भी एक मत नहीं हैं। इस संसार में काम कौन करता है चेतन या जड? गीता जैसी पुस्तक चेतन को कर्ता नहीं मानती, वह तो जड प्रकृति को कर्ता मानती है। कार्य भी वही , कारण भी वही और कर्ता भी वही। यदि ऐसी बुनियादी सावधानी न रखी जाय तो पुस्तक समझ में आये कैसे?

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

दर्शन-दर्शन का खेल 2

दर्शन-दर्शन का खेल 2
बात 1981 या 1982 की है। मैं शिक्षक पद के लिये साक्षात्कार देने गया । मुझसे एक विशेषज्ञ ने पूछा- आप न्याय-वैशेषिक में शोध कर रहे हैं। भारतीय दर्शन के छात्र हैं तो बताइये कि भारतीय दर्शन में प्रमाण कितने माने गये हैं, और उनका स्वरूप क्या है?
मैं भारी असमंजस में पड़ा कि किस दर्शन को आधार मान कर बताऊं कि प्रमाण का स्वरूप क्या है? यहां तो कई दर्शन हैं और प्रमाण के स्वरूप भी सबके अलग हैं। यह उलझन तो अनेक दर्शनों को एक भारतीय दर्शन मानने से बनती है। वस्तुतः न प्रमाणों की संख्या में एकरूपता है न स्वरूप में। मैं ने सीधा सा उत्तर दिया मैं ने कोई भारतीय दर्शन नहीं पढ़ा। पता नहीं इसका विवरण संस्कृत, पालि या प्राकृत के किस ग्रंथ में है।

       मैं अच्छी तरह जानता था कि यह तो स्वनामधन्य दासगुप्ता और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के दिमाग की उपज है। वस्तुतः दर्शन 6 और चार्वाक लोकायत आदि मिला कर कोई 7 कोई 8 कोई 9 भी मानते हैं। सभी के सभी अपने लक्ष्य के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रमाण एवं प्रमेय वाले।
और तो और यदि पुराने में से सांख्य को ही लें तो प्रकृति-पुरुष का वही संबंध और विवरण गीता या कालिदास के शंकुतला नाटक में नहीं मिलता, जो सांख्यकारिका या सांख्य सूत्र में है।
ऐसे में मुझे कहां से अधिकार मिलता है कि मैं यहां की सीेंग और वहां की पूंछ मिला कर एक नये दर्शनीय जीव की सृष्टि कर दूं। जो अपने को समर्थ मानते हैं वे रोज करते रहते हैं। मेरी सीमा यह है कि जहां जो लिखा या कहा गया है, उसे उस संदर्भ में वैसा ही प्रस्तुत करूं।
इस दृष्टि से आगे कुछ नमूने प्रस्तुत करूंगा, आप चाहें खुद मिला कर देखिये। असहमत होना आपका हक है।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

दर्शन-दर्शन का खेल

दर्शन-दर्शन का खेल
मानव जीवन में संसाधनों के मामले में कोई अमीर-गरीब हो सकता है लेकिन समय सबके लिये सीमित है। 24 घंटे का दैनिक माप सबके लिये है। इसलिये वाग््जाल में समय नष्ट करने का मैं पक्षधर नहीं रहा, ना ही किसी को हराने-जिताने का। हम बिहारी 1000 साल से यह झेल रहे हैं। मंडन मिश्र-शंकराचार्य को झेला, तब नव्य न्याय की सांदर्भिक सुष्पष्ट पदावली वाली शैली विकसित की कि आपको जो कहना हो निश्चयात्मक सांदर्भिक अर्थों के साथ कहें।
दुर्भाग्य से यह भी नहीं टिका। लगभग 5-6 सौ वर्षों तक तो तर्क, अलंकार शास़्त्र (साहित्य समीक्षा शास्त्र) तक यह शैली मान्य रही लेकिन उसके बाद उससे भी गंदी आदत हमारे पुर्खों ने लगा ली। वह आदत है- पूर्व पक्ष (विरोधी पक्ष) को दूषित एवं भिन्न रूप में कहने की। इस चर्चा में सत्य तो आरंभ में ही छूट गया। यह चर्चा चर्चा न हो कर युद्ध हो गई।
मतलब कि दूसरे की बात को बदल कर कहेंगे तो उसका खंडन करना आसान होगा और अपनी बात भी स्पष्ट तथा निश्चयात्मक रूप से नहीं कहेंगे। जब जो मन में आयेगा अर्थ निकाल लेंगे। शास्त्रार्थ के नाम पर लंठई और कुतर्क का बोलबाला हो गया।
इस हाल में कौन अपना समय खराब करे? मजाक के रूप में प्रचलित हुआ ‘‘हुज्जते बंगाल’’।
हमारे यहां 20 वीं शदी में प्रो. रामावतार शर्मा हुए पटना यूनिवर्सिटी में। वे कहते थे 1 सप्ताह में चाहो तो एक नया दर्शन पूरी तर्क पद्धति के साथ गढ़ लो। यह तो हो सकता है लेकिन जैसे ही उस नवगठित दर्शन को सामाजिक जीवन में लाने की बात होगी, उसकी हवा निकल जायेगी क्योंकि समाज और प्रकृति किसी पुराने या नये गढ़े हुए दर्शन और तर्क पद्धति से नहीं चलते।
तब क्या करें? क्या बातचीत ही बंद कर दें? ऐसा कैसे कहा जा सकता है? सच्चे दिल दिमाग वाली ‘वाद’ कथा तो हो ही सकती है। उसकी आरंभिक पहचान होती है वक्ता जब अपने वक्तब्य का संदर्भ स्पष्ट करता है।


सोमवार, 21 दिसंबर 2015

esjk xhrk Lok/;k; fd”r 1

xhrk i<+us eryc igys jV dj daBLFk dj ysus fQj ml ij izopu@O;k[;ku lquus fQj le>us vkSj mlds ckn iz;ksx dj vuqHko djus dk flyflyk thou ds 5osa lky ls “kq: gqvkA vkt blds Hkh 50 lky ls T;knk gks x;sA blds ckotwn ;g Hkjkslk ugha gks ldk Fkk fd xhrk Bhd ls i<+h & le>h xbZ ;k ugha\ vr%&
bl ckj dh uojkf= esa lko/kkuh ls xhrk i<+us dk iz;kl fd;k x;kA vusd nqfo/kk,a feVha ysfdu nnZ Hkh dkQh gqvkA
yxHkx 50 lky ls csgks”kh] Hk; ;k etcwjh esa i<+us dk rks cqjk izHkko jgk gh xhrk izsl ds vuqokn us Hkh cgqr xM+cM+ fd;k FkkA

 xhrk esa ukjk;.k ugha feys vkSj prqHkZt fo’.kq ds xnk vkSj pdz dh tkudkjh rks feyh ysfdu irk ugha dSls “ka[k vkSj in~e dk fooj.k jpukdkj ls NwV x;kA blls “kd gqvk fd bl “yksd dks gM+cM+h esa rks ugha tksM+k x;k\

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

भारतीय समाज को जोड़ने में आदि शंकराचार्य की भूमिका

भारतीय समाज को जोड़ने में  आदि शंकराचार्य की भूमिका


      किसी भी व्यक्ति के काम को ठीक से जाने-समझे बगैर उसकी निंदा करना सही नहीं है। ऐसा करना अपनी ही मूर्खता को प्रश्रय देना है। यदि कोई व्यक्ति किसी विंदु पर किसी की आलोचना करे तो इसका मतलब यह नहीं कि वह उसका विरोधी हो गया।
      आदि शंकराचार्य भी मनुष्य थे। उनकी परंपरा में भी मनुष्य ही संन्यासी हुए तो कमियां तो रहेंगी ही अन्यथा संन्यास की साधना की जरूरत ही क्या रहेगी?
      आदि शंकराचार्य ने भारत को सांस्कृतिक-धार्मिक रूप से जोड़ने का सपना देखा। समकालीन बौद्ध मत को मुख्यतः एवं अन्य मतों को अपना विरोधी प्रतिद्वंद्वी माना। उनकी दृष्टि से वे एकांगी एवं अपूर्ण हैं। हम आदि शंकराचार्य की समझ से बेशक असहमत हो सकते हैं लेकिन समाज को जोड़ने के लिये उन्होने जो किया उसे झुठलाया नहीं जा सकता।
उनके कामों में 2 बहुमूल्य हैं-
1 भारत की सांस्कृतिक विविधता की स्वीकृति-
आदि शंकराचार्य ने यह नहीं कहा कि मंडन मिश्र के पराजित होने के बाद मंडन मिश्र तथा उनके अनुयायियों को दक्षिण भारतीय नंबूदरी व्यवस्था को स्वीकार करना होगा। उनके तरह कपड़े पहनने होंगे या कि दक्षिण भारत में प्रचलित पूजापाठ एवं समाज व्यवस्था संबंधी धार्मिक व्यवस्था को मानना होगा। इसके विपरीत उन्होने मिथिला के लोगों को अपनी पंरपरा के अनुसार जीने की सहज छूट दी।
आदि शंकराचार्य से अलग अन्य संप्रदाय क्या यही सुविधा अपनी परंपरा में लाये गये लोगों को देते हैं? जी नहीं। रामानुज एवं अन्य संप्रदाय के वैष्णव जानबूझ कर अपने आचार अपने गांव-गोत्र के लोगों से अलग रखते हैं। यह है सांप्रदायिकता का देशी रूप। पहचान बदलना-बदलवाना और अलग दिखने-दिखाने के साथ दूसरे से दूरी बनाना एवं अपने को श्रेष्ठ मान कर दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश। माथे की साज सज्जा ही नहीं बदली जाती खानेपीने में दूसरों से अछूत जैसा व्यवहार इस परिवर्तन में अनिवार्य होता है। आदि शंकराचार्य और उनकी परंपरा इस मामले में बहुत उदार रही।
2 पंचदेवोपासना 5 देवताओं की एक साथ उपासना का नियम
सांप्रदायिकता संकीर्णकता की पराकाष्ठा पर तब पहुचती है जब अपनी ही मूल परंपरा के किसी एक मात्र देवता, बिंब एवं जीवन शैली की पहचान में सिमटने का आदर्श प्रस्तुत करती है। यह प्रवृत्ति वैदिक, बौद्ध एवं जैन तीनों में मिलती है। अपने लोगों से वे कम नहीं लड़ते? कभी भीतरी या कभी बाहरी व्यक्ति भी झगड़ा सुलझाने की कोशिश करता है, जैसे - हालफिलहाल में विनोबाजी ने श्वेतांबर-दिगंबर जैन संप्रदायों के लिये समणसुत्तं नामक एक संकलन बनाया और अनेक जैन मुनियों से सहमति भी दिलायी लेकिन इससे वह मान्य थोड़े ही हो गया। जैन मुनियों में प्रतिस्पर्धा जबर्दश्त है।
एक तथाकथित आधुनिक साधु ने तो हनुमान जी को अपनाने लेकिन राम आदि किसी का नाम भी लेने से मना कर दिया। अपने गुरु स्थान के मूर्तियों को तोड़ताड़ कर फेंकवा दिया।
आदि शंकराचार्य ने एक उपाय सोचा और 5 देवताओं की एक साथ उपासना नियम की व्यापक स्वीकृति दिलायी कि आप यदि किसी नये मंदिर का निर्माण करेंगे तो उसमें केवल एक ही देवता की मूर्ति की स्थापना नहीं कर सकते। कम से कम 5 देवताओं की मूर्ति तो लगानी ही होगी। उसमें आप एक को प्रधान और बाकी को गौण आकार भले ही दे सकते हैं। इस प्रकार कम से कम आराध्य देवीदेवताओं के प्रति असहिष्णुता तो मिटी। ऐसी समझदारी आखिर किसने दिखाई? इस क्रम में 5 देवताओं के भक्तों को भी तो परस्पर स्वीकृति सिखाई।
आज भी इसके विपरीत आधुनिक हिंदू संप्रदाय और उनके मंदिरों में यह प्रवृत्ति आपको नहीं मिलेगी। भारत की राजधानी के हाल में बने बड़े मंदिरों में जा कर देखिये। सच सामने आयेगा। सामाजिक दृष्टि से इन बड़े मंदिरों से लाख गुना अच्छे वे मंदिर हैं जो आम लोगों ने अपने चंदे वगैरह से अतिक्रमित जमीन पर बिना किसी शास्त्र या परंरपरा के अपनी भावना के आधार पर बनाये हैं। जब जिसे जिस देवता को बिठाने की इच्छा हुई, जहां जगह मिली वहां बिठा दिया या दीवार में चिपका दिया। 5 क्या अनेक देवी देवता इन मंदिरों में मिलेंगे।
इसलिये केवल उत्तेजक बातों में ही रुचि लेने की जगह गुणग्राही होने में भलाई है। गुण ना हिरानो, गुणग्राहक हिरानो है। अगली किश्त में - क्या सच में शंकरचार्य ने बौद्धों को भारत से भगाया?