बुधवार, 24 सितंबर 2014

विधवाओं की स्थिति का रहस्य 4


पहले के तीन पोस्ट में परिप्रेक्ष्य लिखा गया है। इस प्रकार बंगाल और मिथिला से अनेक विधवाओं का काशी और बृंदावन में आ कर रहना और शेष जीवन भिक्षा पर बिताने की मजबूरी खड़ी हो गई। कुछ गौड़ीय संप्रदाय में दीक्षित हैं लेकिन अधिकांश का किसी संप्रदाय से न संबंध है न ही किसी संप्रदाय के धर्माचार्य ने इनकी जिम्मेवारी ली है।
खादी का सहारा
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अगर भारत में सूत कातना सवर्ण समाज में पुण्य काय्र नहीं माना गया होता तो बंगाल और मिथिला की सवर्ण विधवाओं की पता नहीं क्या दुर्दशा होती? महीन खादी केवल बंगाल और मिथिला में ही बनती है। अब बंगाल से सूत कातना लगभग समाप्त है लेकिन खादी संस्थाओं के भीतर असवर्ण आंदोलन के द्वारा मिथिला की इन कत्तिनों को खादी से बाहर करने के अनेकों प्रयत्नों के बाद भी यह सिलसिला जारी है।
दक्षिण बिहार में कोइरी, कुर्मी जाति खाशकर कोइरी जाति ने आंदोलन चलाया कि किसी न किसी प्रकार से सवर्ण महिलाओं को खेत में उतारा जाय। इसे सामाजिक उपलब्धि का एक पैमाना बनाया गया। संपन्न सवर्णों की महिलायें तो खेत में मजदूरी करने से रहीं तो गरीब असहाय सवर्ण महिलाओं को खेत में उतारा जाय। संयोग से ऐसी सवर्ण विरोधी खादी संस्थाएं मुख्यतः दक्षिण बिहार में ही खुलीं, जहां की सवर्ण महिलाएं कत्तिन का काम ही नहीं करती थीं लेकिन दक्षिण बिहार में इनका केन्द्र होने और जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्राति की परिभाषा का अर्थ ‘असवर्ण वर्चस्व’ मानने वालों का दबदबा खादी संस्थाओं पर बना रहा। मिथिला की कत्तिनों ने खादी संस्थाओं के सवर्णविरोधी दुर्व्यवहार से तंग आ कर सूत को सीधा बाजार में बेंचना शुरू किया और जितनी खादी की दुकानें हैं, उनमें सरकार और खादी आयोग से प्रमाणित कम, निजी करोबार वाली ज्यादा हैं। 
हाथ के महीन सूत वाली मिथिला या बंगाल की खादी धोती सबसे महंगी होती है। उसमें भी संस्थागत दुकानों में उसी धोती की कीमत कम से कम 40 प्रतिशत अधिक रहती है। ऐसी निजी दुकानें खादी के साथ हैंडलूम और पावरलूम के कपड़े भी बेंचती हैं अतः कपड़ा तो स्वयं समझना पहचानना होता है।
आज कल खादी के कपड़े के साथ पूजा में उपयोग हुतु रूई की बत्ती बनाने का काम भी इन महिलाओं द्वारा किया जाता है। हालात बहुत ही खराब है, बस खैरियत इतनी कि अपने गांव-घर में रहने का अवसर मिल जाता है और भीख नहीं मांगनी पड़ती।

सोमवार, 22 सितंबर 2014

विधवाओं की स्थिति का रहस्य 3


स्त्री के स्वतंत्र संस्कार की अवधारणा और अनुभव का महत्त्व आध्यात्मिक रूप से भी तभी रहेगा जब बंगाल से पूरब आसाम की जनजातियों या संथालों जैसी सामाजिक संरचना रहे, जिसमें स्त्री को संपत्ति पर अधिकार रहे और पुरुष प्रधान समाज में प्रचलित वैधब्य को कोई महत्त्व न हो, न तो सामाजिक, धार्मिक व्यवहार में न ही संपत्ति पर अधिकार के मामले में।
बंगाल मिथिला में ऐसा नहीं हुआ। स्त्री को देवी भी माना गया लेकिन भीतर-भीतर विधवा को घर से बाहर कर उसकी संपत्ति हड़पने की क्रूर सामाजिक स्वीकृति के खिलाफ आंदोलन नहीं हुआ बल्कि व्यभिचार, वेश्यावृत्ति के लिये एक स्वतंत्र संभावना बना दी गई। पहले यह अत्याचार संतानहीन विधवाओं पर किया जाता था बाद में अति क्रूर स्वार्थी पुत्रों द्वारा मां को भी घर से निकाल बाहर किया जाने लगा। 
कलकत्ता भारत में पाश्चात्य संस्कृति की पहली पाठशाला है। इसके बुरे प्रभावों में एक रहा घर के वृद्धों की सेवा न करना। ऐसे हाल में विधवा मां जो बूढ़ी हो गई हो या बूढ़ी हो रही हो, उसे कौन पूछे? धनाढ्यों ने तो काशी में आश्रम बनवा कर वहां भेज दिया। मध्यवर्गीय और उनके नकलची लोगों ने बस मांग मूड़ कर काशी या पश्चिम की ओर जाने वाली किसी ट्रेन में बिठा देना ही पर्याप्त समझा। मैं निजी तौर भी इस व्यवहार से पीडि़त अनेक विधवाओं से मिल चुका हूं। काशी में और गया में भी। गंगालाभ, काशी करवट, हरि बोल आदि शब्दों/मुहावरों का वास्तविक और दूसरा अर्थ जो अत्ंयत क्रूर है, वह है- गंगा में डूबो कर मारना, उसके मुंह पर तब तक पानी छिड़कना जब तक उसकी सांस बंद न हो जाये। इस प्रक्रिया को 19वीं शताब्दी तक बंगाल में मौन स्वीकृति रही। ऐसे हाल में कोई भी विधवा परिवार की क्रूर मानसिकता की भनक पाते ही स्वतः घर छोड़ने को तैयार हो जाती है। विधवाओं की बाढ़ ने काशी में कहावत प्रचलित की- ‘‘रांड़, सांढ़, सीढ़ी, संन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी’’। क्रमशः जारी

विधवाओं की स्थिति का रहस्य 2


कई बार जब पब्लिक अपने मन से कई परंपरा की बातों को बिना सावधानी के मिलाती है तो बेइमानों की चांदी कटती है। ऐसे घालमेल के उदाहरण हर क्षेत्र में मिलेंगे। फिलहाल बंगाल-मिथिला का प्रसंग है। मिथिला का साक्षात संबंध बंगाल से रहता है जबकि मगध पर काशी, मिथिला, बंगाल और उड़ीसा तीनों की सामाजिक मान्यताओं का प्रभाव है। इस प्रकार यहां मिली-जुली व्यवस्था है।
बंगाल एवं मिथिला के सवर्णों में विवाह के बारे में एक से एक अतिवादी मान्यताएं रही हैं। बंगीय दृष्टि से विवाह संस्कार केवल स्त्री का होता है, पुरुष का नहीं। इस विषय पर अनेक शास्त्रार्थ हुए और वहां की क्षेत्रीय परंपरा यही रही। पति रूपी पुरुष उस संस्कार में मुख्य व्यक्ति नहीं सहायक मात्र है। विवाह एक बोध है, एक मानसिक संस्कार है। इसलिये पति की मूल योग्यता किसी स्त्ऱी के मन में वह तथाकथित संस्कार रूपी अनुभूति स्थापित करने की है न कि घरेलू जिम्मेवारियों की। जिम्मेवारियां तो स्त्री एवं उसके मैके के लोगों की है। इस दृष्टि को इतना आदर मिला कि कुछ लोगों को बाकायदा केवल विवाह संस्कार स्थापित करने वाला पति मान लिया गया। यह आदर्श तथा परंपरा मुख्यतः ब्राह्मण एवं कायस्थों के बीच सीमित रही। ऐसे परिवारों एवं व्यक्तियों को कुलीन कहा गया। ये लोग अनेक विवाह करते थे। एक कहावत है कि मिथिला के कुलीन ब्राह्मण की जिंदगी तो ससुराल में ही कटती है। दुखद ही नहीं दर्दनाक मान्यता यह भी कि असली कुलीन तो अपनी पत्नी को पहचान तक नहीं सकता, बेचारा कितने को पहचाने? ऐसे किसी दरिद्र कुलीन की पत्नी मरे तो उसका संरक्षण कौन करे? क्रमशः जारी......
पहले पोस्ट का लिंक----
 http://bahuranga.blogspot.in/2014/09/blog-post_19.html

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

विधवाओं की स्थिति का रहस्य

अभी हेमामालिनी ने विधवाओं की बात शुरू की तो मुझे भी कुछ बातें याद आने लगीं। मैं कोई निष्कर्ष नहीं दे रहा बस कुछ सूचनाएं भर। मैं ने भी इस मुद्दे पर कुछ अध्ययन किया है, उसी से कुछ जानकारियां दे रहा हूं- 
1 संभवतः 1978 में भारतीय लोक सभा में या हो सकता है राज्य सभा में इन विधवाओं की दुर्दशा पर प्रश्न उठा था। उसके बाद इसके सामाजिक कारणों को पहचानने के लिये एक शोध किया गया जिसकी परोक्ष कमान प्रख्यात विदुषी कपिला वात्स्यायन और प्रत्यक्ष कमान स्व. प्रो. बैद्यनाथ सरस्वती के जिम्मे थी और स्थानीय कार्य भार संभाल रहे थे श्री सत्यप्रकाश मित्तल।
2 डाटा संग्रह के बाद मैं श्री सत्यप्रकाश मित्तल जी को सहयोग कर रहा था, संस्कृत में लिखे धर्म शास्त्रीय ग्रंथों को समझने और उससे जुड़ी सामाजिक उलझनों पर भारत के विभिन्न क्षेत्रों के धर्माचार्यों के विचारों को समझने में। संस्कृत-पालि के ग्रंथों के अनुवादों में अनुवादकों ने भारी मनमानी कर रखी है, खाशकर तीन धारा के लोगों ने- आर्यसमाज, गीताप्रेस और राहुल सांकृत्यायन एवं अन्य वामपंथी अनुवादकों ने। इसलिये रिसर्च में राधाकृष्णन सहित ये तीनो मान्य नहीं हैं। मजबूरी में एक अनुवादक/दुभाषिये की जरूरत थी तो मैं भी शामिल हो गया। मैं आचार्य और संस्कृत आनर्स दोनों की परीक्षा दे कर परिणाम आने तक की अवधि में बुद्धि की धार पजाने के लिये बनारस गया था।
3 वहां अजीबोगरीब जानकारियां मिलीं, जैसे- बनारस में रहने वाले गैर हिंदी भाषी संस्कृत पंडित पूरी तरह जानकार होने पर भी धार्मिक-सामाजिक प्रश्नों का उत्तर केवल संस्कृत या भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में ही देने को तैयार थे न हिंदी ना अंग्रेजी।
4 अधिकांश विधवाएं एक ही सांस्कृतिक क्षेत्र की थीं। जी हां, बंगीय धर्म परंपरा वाली। मिथिला धर्म परंपरा में बंगीय है, इसी तरह बंगाल से सटा उड़ीसा का क्षेत्र। मिथिला छोड़ बिहार के अन्य क्षेत्र से घूमंतू सधुआइनें मिलती हैं/मिलीं लेकिन वृद्धांश्रमों में रहने वाली नहीं। बंगाल के धनी लोगों ने न केवल आसपास के पठारी इलाकों में अपनी हवाखोरी के लिये बंगले बनवाये बल्कि अपने घर की विधवाओं के लिये काशी में भी अनेक घर बनवाये। मिथला वाले इतने धनी नहीं थे न घर बनवाये। ये घर कई बार धनी विधवाओं के द्वारा विधवाश्रम में बदल दिये गये। ऐसा ही एक विधवाश्रम था, प्रसिद्ध मानवशास्त्री और कभी गांधी जी के निजी सचिव रहे प्रो. निर्मल कुमार बसु का जिसका नाम था सरोजिनी आश्रम। अब वहां स्कूल चलता है। मेरे समय तक विधवाएं थीं। 
5 बंगाल में विधवा ही नहीं स्त्री को संपत्ति में वह सामाजिक अधिकार नहीं जो अन्य उत्तर भारतीय क्षेत्रों में। विधवा स्त्री को यहां का सवर्ण समाज बहुत ही क्रूर दृष्टि से देखता है। लाख हर बात पर मां-मां कहे विवाह की अवधारणा ही वहां विचित्र है। जारी.....

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

ये जो विश्वकर्मा जी हैं


इन्हें समझना भी आसान नहीं है। वैसे तो हिंदू होने के नाते किसी भी बात को समझने की कोइ्र अनिवार्यता नहीं है। हमें जब जो मन में आये मानने की सुविधा है लेकिन मनुष्य होने के नाते यदि शास्त्र, परंपरा ब्रह्माझउीय संरचना किसी भी दृष्टि से समझने की कोशिश करेंगे तो अजीबोगरीब उलझनें सामनें आयेंगी। आज प्रसंगानुसार  विश्वकर्मा जी को लेते हैं।
ये भी देवता हैं। लेकिन इनकी दाढ़ी-मूछें हैं, शायद ब्रह्माजी की कॉपी होने के कारण या सूर्यवंशी होने के कारण। मूर्तिशास्त्र के ग्रंथ जो कहें, सूर्य के जो डिस्कनुमा प्रतिमा या चित्र बनते हैं, उसमें दाढ़ी-मूछें होती हैं। ये विश्वकर्मा जी हाथी पर चलते हैं। इनकी महिमा ऐसी कि इन्होंने न केवल खराद मशीन बनाई बल्कि उस पर सूर्य को ही चढ़ा कर काट-छांट कर दिया। नाम है विश्वकर्मा। यदि विश्व की सृष्टि इनके जिम्मे है तो ब्रह्मा जी का काम क्या होगा? ये कहीं ब्रह्मा जी के प्रतिद्वंद्वी तो नहीं हैं। पब्लिक ने इनके नामार्थ को नहीें लिया। इनके कार्यक्षेत्र को मानवीय और यांत्रिक सृष्टि तक ही मुख्य रूप से रखा।
इनकी उत्पत्ति की कथा सूर्य के अन्य संतानों- यम, यमी, धर्मराज, चित्रगुप्त, यमुना, शनिश्चर के साथ आती है। कथा तो कथा है। अपनी उत्पत्ति के पहले ही संतानोत्पत्ति करने वाले सूर्य को ये सुधार सकते हैं।
लाचारी में अपने मन को थोड़ा आधुनिक बना कर सोचना पड़ता है तब लगता है कि ये सूर्य के संतान हों या न हों आखिर इन्हें किस परंपरा में जगह मिलती? इसलिये सूर्य की परंपरा में जगह मिली। यदि यह माना जाय कि इनकी मशीन पर वास्तविक सूर्य नहीं सूर्य की मूर्ति का निर्माण हुआ तो वह मूर्ति मेरे अनुमान से लोहे की नहीं होगी। लोहे या धातु की मूर्ति को ढालना आसान है, खरादना नहीं। पत्थर की शिला को भी खराद मशीन पर चढ़ाना बहुत कठिन लगता है। यह जो बिहार से उड़ीसा तक का क्षेत्र है, वहां लकड़ी की मूर्ति की महिमा है। जगन्नाथ जी के बारे में तो आप जानते ही होंगे। इसी तरह सूर्य की मूर्ति का भी प्रावधान है। इस प्रकार पहली बार इनकी मशीन से सूर्य की लकड़ी की प्रतिमा का निर्माण हुआ, ऐसा अर्थ भी लगाया जा सकता है। ऐसे विश्वकर्मा जी के पास हाथी न हो तो कुछ नहीं हो सकता, न लकड़ी ढोना, न पत्थर हटाना न अन्य कोई काम, जिसमें भारी बल की जरूरत हो। जय विश्वकर्मा जी!

सोमवार, 15 सितंबर 2014

आज शोक दिवस है

आज शोक दिवस है, जीउतिया
महाभारत में जो भीम की कथा है, उसमें वह एक ऐसे राक्षस को मारता है, जो हर दिन एक बैलगाड़ी पर लदे सामान के साथ उसे ले जाने वाले गाड़ीवान को भी मार कर खा जाता है। इसी तरह मगध जो मूलतः पठारी और नाग वंशियों का क्षेत्र है, वहां प्रतिदिन गरुड़ के भोजन के लिये एक नाग को स्वतः प्रस्तुत होना पड़ता था। उस दिन जाने वाले नाग की माता का विह्वल होना सहज है। नागों की रक्षा के लिये हिमालय का रहने वाला विद्याधर जीमूतवाहन जो समुद्र से लौट रहा था एक मां को तड़पता देख उसके पुत्र के बदले स्वयं गरुड का भोजन बनने को प्रस्तुत हो जाता है। उसका नाम जीमूतवाहन है। गरुड़ के सामने स्वयं प्रस्तुत और पीड़ा झेलते हुए भी संयमित जीमूतवाहन की करुणा से गरुड का भी हृदय परिवर्तन हो जाता है। 
उसे जीवनदान मिलता है, विष्णु उसे अपने लोक में प्रतिष्ठित करते हैं। बाद की कथा में तो उसे विष्णु का अवतार भी माना लिया गया। आज जीमूतवाहन गरुड़ के सामने स्वयं प्रस्तुत और पीड़ा झेलते हुए हाल में है। अतः सभी पुत्रवती माताएं शोक में हैं और वे लोग जो जीमूत, जीउत को अपना कुल पुरुष मानते हैं। कल जब उसे जीवनदान मिलेगा तभी अन्न जल ग्रहण करेंगी और अपने पुत्र के लिये भी चिरंजीविता का आशीर्वाद प्राप्त करेंगी।
काशी परंपरा एवं पश्चिमी क्षेत्र के पंडितों को मगध, मिथिला आदि की यह लोक आस्था नहीं पचती है। वे इसे दूसरे अष्टमी उत्सव से गुमराह करने का निरंतर प्रयास करते हैं। स्थानीय पंडितों में भी जो अपने को ज्यादा काशीवादी और अब नागपुर के संघवाद के करीब मानते हैं, वे लोक आस्था का मजाक उड़ाते हैं लेकिन उनमें जो कर्मकांड से रोजीरोटी का जुगाड़ करते हैं, उन्हें तो व्रती माताओं की आस्था के सामने झुकना पड़ता ही है। माताएं पूछ बैठती हैं- रखिये अपने पास मुहूर्त ज्ञान, पहले यह बताइये कि जब तक जीमूतवाहन जीवित नहीं होगा व्रत कैसे तोड़ा जायेगा? कृतज्ञता नाम की भी कोई बात होती है या नहीं? उसके साथ बात यह कि जो जो स्वयं आफत में है, उससे अपने पुत्र के प्राणों की रक्षा की मांग माताएं नहीं कर सकतीं। जीमूतवाहन भी तो किसी का पुत्र ही है न?
विस्तृत विवरण is post पर पढ़ सकते हैं- 
http://bahuranga.blogspot.in/2013/09/1-2-3-4-5-6-1.html

जिउतिया की पूर्व संध्या पर

एक बात पहले ही साफ कर दूं कि मैं इन्द्र आदि देवताओं और स्वर्ग में एक पक्षीय श्रद्धा नहीं रखता। अतः अपने 3-4 पोस्टों के माध्यम से स्वयंभू देवभक्तों की गालियां सादर स्वीकृत हैं। चूंकि विष्णु पक्षपाती हैं और कपट में विश्वास करते हैं, इसी परंपरा में एक सिद्धहस्त कपटी की भांति दूसरों को कपटी घोषित कर अंततः दंडित करते हैं अतः वे भी निष्पक्ष नहीं हैं। 
आगे के पोस्टों की कथा एवं सूचनाएं पंरंपरागत तथा ग्रंथों पर आधारित हैं। व्याख्या मेरी है।
इस पृष्ठभूमि में स्मरण करें कि भारत के क्षत्रियों के प्रसिद्ध कुल हैं- सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी बाद में अग्निवंशी भी। ये सभी मुख्यतः मैदानी इलाके वाले हैं, जो बाद में अन्यत्र भी बसते गये। इनके समानांतर छोट या बड़े और मुख्यतः पहाड़ी-पठारी इलाकों में जो राजे रजवाड़े हुए वे हैं नागवंशी। यहां नागवंशी कहने का मतलब कत्तई केवल राजा शिशुनाग और उसके वंशज नहीं है।
नागवंशी राजाओं की कथा भी महाभारत काल से चलती आ रही है। इनके पक्ष विपक्ष में न केवल मैदानी भारत में ध्रुवीकरण होते रहे बल्कि पूरा भारत, चीन तथा दक्षिण एशिया भी राजनतिक तथा सांस्कृतिक वर्चस्व के संघर्ष में लगा रहा।
जीउतिया की कथा इसी वर्चस्व के संघर्ष की कथा है, जिसमें हिंसा पर अहिंसा के विजय की गौरव गाथा तथा श्रद्धांजलि है। जीउतिया के पहले दिन गरुड की हिंसा की भेंट चढ़े विद्याधर हिमालय वासी जीमूतवाहन की पीड़ा का स्मरण कर दिन भर शोक मनाने उसके जीवन रक्षा की कामना करने तथा दूसरे दिन जीवन बच जाने पर उत्सव मनाने का। 
वैष्णव धारा की अहंतुष्टि कि हमे जीमूतवाहन को विष्णु का पार्षद बनाया और बौद्ध धारा की संतुष्टि कि चलिये विष्णु जैसे पक्षपाती और गरुड जैसे क्रूर का भी हृदय परिवर्तन हो गया। इस पूरे घटनाक्रम को हृदय में और जीमूतवाहन के पक्ष में मगध मिथिला की महिलाएं हैं, पुराना बौद्ध समाज है, नागांनद नाटक है। स्थानीय गरीब, दलित लोग हैं, खाश कर भूंइयां और तांती जाति के लोग।
विरोध में काशी कुल के लोग हैं, जो आकर मगध में बसे हैं, उन्हें आदर्श मानने वाले ब्राह्मण हैं। मगध को विष्णु क्षेत्र बनाने वाले श्राद्ध जैसी शैव परंपरा के अनुष्ठान को वैष्णव व्यवसाय बनाने वाले लोग हैं। क्रमशः जारी

शनिवार, 6 सितंबर 2014

आज उत्सव-प्रधान अनंत व्रत है

किसी व्रत या उत्सव में सम्मिलित होने का सुख अलग होता है और उसे समझने का अलग। आप चाहें तो दोनों का सुख लें या किसी एक का।
रामनवमी और अनंत चतुर्दशी हमारे यहां सुविधाजनक व्रत हैं। इसमें उत्सव मनाने, खुश होने और खाने-पीने का व्रत अर्थात दृढ़ संकल्प लिया जाता है कि हम प्रसन्नतापूर्वक इस अवसर पर पूआ-पूड़ी और अनंत के समय सेवई खायेंगे। मात्र दोपहर तक का व्रत। प्रातःकाल से सफाई, नदी में स्नान, पूजा पाठ की तैयारी, खानेपीने की व्यवस्था, औरतों का सजना संवरना और अनंत पूजा के साथ कथा श्रवण। आ गई दोपहर, बस खा पी कर प्रसन्न हो जाना। पहले गांवों में हाथ से सेवई बनाने का काम पहले ही शुरू होता था। हमें उसी से पता चल जाता था कि अनंत व्रत आने वाला है।
इसमें सेवई का बहुत महत्त्व है। यह न केवल खाद्य सामग्री है अपितु पूरा सांस्कृतिक बिंब है। शिक्षा एवं ज्ञान की पहली है। इसके बिना न बोध कथाएं पूरी होती हैं न पंचतंत्र। यह मगध के अपमान-सम्मान का बिंब हैं। गौर करने पर पता चलता है कि अनंत व्रत की महिमा भी अनंत जैसी है। 
और सबसे बड़ी बात यह कि अनंत से डरने की जरूरत नहीं। अनंत को भी एक हद तक तो समझा जा ही सकता है। जो भी आदमी अनंत की खोज में है, उसे क्षीर समुद्र के मंथन जैसा प्रयास करना पढ़ता है, तभी उसे अनंत फल मिलते हैं। आप भी जाहें तो ऐसा कर सकते हैं।
इसके लिये आपको अपनी समझ की सीमाओं को पहचानना होगा। सामान्य देशी आदमी की देशी समझ देशी अवधारणाओं पर निर्भर होती है। उस प्रकार 14 भुवनों की सीमा में ही हमारा व्यावहारिक अनंत सीमित है। व्यवहार के लिये अनंत को भी स्पष्ट करना होता है, तभी धर्म, कर्म, व्रत, उत्सव, संस्कार, संबंध, दायित्व आदि व्यवहारों में सही गलत का निश्चय हो पाता है। 
लोगों ने एक समय उन्मुक्त चिंतनों की दुविधाओं एवं विविधताओं से परेशान भावप्रधान आम जनता को मानने की सुविधा प्रदान की और 14 भुवनों की लगाई गई गांठ को ही देवता का विग्रह माना। आधुनिक उदाहरण लें तो जैसे गुरु ग्रंथ साहिब गुरु हैं, वैसे ही 14 भुवनों की सीमा की पक्की गांठ रूपी पुरुषार्थ का आधार माने जाने वाले दाहिने हाथ में बांधी जाने वाले 14 गांठों वाला अनंत का विग्रह ही देवता है।
अन्य परंपराओं से इसके संबंध को समझने के लिये मेरा पुराना पोस्ट भी पढ़ सकते हैं- अनंत की 14 गांठें http://bahuranga.blogspot.in/2013/09/blog-post_7912.html

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

लगता है बात कुछ और है


आज कर्मा एकादशी है या पद्मा? पब्लिक तो कर्मा जानती है। जो पूजाविधि की कथा है- झूर पूजन विधि, जो बाजार में है और जिसे पुरोहित लोग पढ़ते हैं, उसमें कर्मा है। अन्य एकादशी के प्रति जनता का उतना लगाव नहीं है, जितना कर्मा के प्रति। यह केवल एकादशी ही नहीं, बहुत कुछ है। बिहार झारखंड में भाई-बहन के प्रेम के उत्सव के रूप रक्षा बंधन तो नया फिल्मी व्रत है। बिना रक्षा पाने का बंधन बांधे, ‘‘भैया-भौजी के करम-धरम’’ बहन का व्रत-तप के बिंबों के साथ भाई-बहन के प्रेम का यह उत्सव कई दिनों तक चलनेवाला उत्सव है।
इसमें दार्शनिक पक्ष भी हैं। आम आदमी की भाषा और बिंब में कि कर्म, उसका परिणाम किस तरह का होता है? मन पर पड़ी छाप कैसी होती है? आदमी का अपने मूल स्थान से लगाव कैसा होता है और कैसा होना चाहिये? भाग्य प्रधान है या पुरुषार्थ? व्यक्ति के प्रयास एवं परिवार की मंगल कामना के बीच क्या संबंध है? ऐसी अनेक बातें।
अब इस बात पर कोई ब्राह्मण ही सोचे, ऐसी सीमा तो हो नहीं सकती। अतः लोगों ने, आम लोगों ने सोंचा। अपने बिंबों में अपने सिद्धांत रचे। पंडितों को समझना हो तो समझें या इस भ्रम में रहें कि सनातन धर्म केवल कुछ अभिजात लोगों के लिये है। जो आचार किसी संस्कृत पोथी में नहीं मिल रहे, वे गलत हैं। पहले उनका संदर्भ तो मिलाया जाय। ऐसा न हो कि कोई पुस्तक ही छूट रही हो?
रही बात आयुर्वेद के निर्देशों की तो एक बात गजब की है। मैं बचपन और जवानी में खुद खेतों में काम करने वाला रहा हूं, केवल कराने वाला नहीं। अपने ही दालान के पायों पर फोटो की तरह फ्रेम किया हुआ स्वस्थ वृत्त, ऋतु चर्या पढ़ कर हंसता था कि अगर इसका पालन किया जाय तो खेती ही नहीं होगी। आगे का क्या कहें? इस प्रकार देखने-समझने कि कोशिश में तो लगता है कि मामला कुछ और है।
 कुछ बातें मैं ने अपने पुराने पोस्ट .http://bahuranga.blogspot.in/2013/09/blog-post_16.html में भी की हैं।