शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

विधवाओं की स्थिति का रहस्य

अभी हेमामालिनी ने विधवाओं की बात शुरू की तो मुझे भी कुछ बातें याद आने लगीं। मैं कोई निष्कर्ष नहीं दे रहा बस कुछ सूचनाएं भर। मैं ने भी इस मुद्दे पर कुछ अध्ययन किया है, उसी से कुछ जानकारियां दे रहा हूं- 
1 संभवतः 1978 में भारतीय लोक सभा में या हो सकता है राज्य सभा में इन विधवाओं की दुर्दशा पर प्रश्न उठा था। उसके बाद इसके सामाजिक कारणों को पहचानने के लिये एक शोध किया गया जिसकी परोक्ष कमान प्रख्यात विदुषी कपिला वात्स्यायन और प्रत्यक्ष कमान स्व. प्रो. बैद्यनाथ सरस्वती के जिम्मे थी और स्थानीय कार्य भार संभाल रहे थे श्री सत्यप्रकाश मित्तल।
2 डाटा संग्रह के बाद मैं श्री सत्यप्रकाश मित्तल जी को सहयोग कर रहा था, संस्कृत में लिखे धर्म शास्त्रीय ग्रंथों को समझने और उससे जुड़ी सामाजिक उलझनों पर भारत के विभिन्न क्षेत्रों के धर्माचार्यों के विचारों को समझने में। संस्कृत-पालि के ग्रंथों के अनुवादों में अनुवादकों ने भारी मनमानी कर रखी है, खाशकर तीन धारा के लोगों ने- आर्यसमाज, गीताप्रेस और राहुल सांकृत्यायन एवं अन्य वामपंथी अनुवादकों ने। इसलिये रिसर्च में राधाकृष्णन सहित ये तीनो मान्य नहीं हैं। मजबूरी में एक अनुवादक/दुभाषिये की जरूरत थी तो मैं भी शामिल हो गया। मैं आचार्य और संस्कृत आनर्स दोनों की परीक्षा दे कर परिणाम आने तक की अवधि में बुद्धि की धार पजाने के लिये बनारस गया था।
3 वहां अजीबोगरीब जानकारियां मिलीं, जैसे- बनारस में रहने वाले गैर हिंदी भाषी संस्कृत पंडित पूरी तरह जानकार होने पर भी धार्मिक-सामाजिक प्रश्नों का उत्तर केवल संस्कृत या भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में ही देने को तैयार थे न हिंदी ना अंग्रेजी।
4 अधिकांश विधवाएं एक ही सांस्कृतिक क्षेत्र की थीं। जी हां, बंगीय धर्म परंपरा वाली। मिथिला धर्म परंपरा में बंगीय है, इसी तरह बंगाल से सटा उड़ीसा का क्षेत्र। मिथिला छोड़ बिहार के अन्य क्षेत्र से घूमंतू सधुआइनें मिलती हैं/मिलीं लेकिन वृद्धांश्रमों में रहने वाली नहीं। बंगाल के धनी लोगों ने न केवल आसपास के पठारी इलाकों में अपनी हवाखोरी के लिये बंगले बनवाये बल्कि अपने घर की विधवाओं के लिये काशी में भी अनेक घर बनवाये। मिथला वाले इतने धनी नहीं थे न घर बनवाये। ये घर कई बार धनी विधवाओं के द्वारा विधवाश्रम में बदल दिये गये। ऐसा ही एक विधवाश्रम था, प्रसिद्ध मानवशास्त्री और कभी गांधी जी के निजी सचिव रहे प्रो. निर्मल कुमार बसु का जिसका नाम था सरोजिनी आश्रम। अब वहां स्कूल चलता है। मेरे समय तक विधवाएं थीं। 
5 बंगाल में विधवा ही नहीं स्त्री को संपत्ति में वह सामाजिक अधिकार नहीं जो अन्य उत्तर भारतीय क्षेत्रों में। विधवा स्त्री को यहां का सवर्ण समाज बहुत ही क्रूर दृष्टि से देखता है। लाख हर बात पर मां-मां कहे विवाह की अवधारणा ही वहां विचित्र है। जारी.....

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