शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

लगता है बात कुछ और है


आज कर्मा एकादशी है या पद्मा? पब्लिक तो कर्मा जानती है। जो पूजाविधि की कथा है- झूर पूजन विधि, जो बाजार में है और जिसे पुरोहित लोग पढ़ते हैं, उसमें कर्मा है। अन्य एकादशी के प्रति जनता का उतना लगाव नहीं है, जितना कर्मा के प्रति। यह केवल एकादशी ही नहीं, बहुत कुछ है। बिहार झारखंड में भाई-बहन के प्रेम के उत्सव के रूप रक्षा बंधन तो नया फिल्मी व्रत है। बिना रक्षा पाने का बंधन बांधे, ‘‘भैया-भौजी के करम-धरम’’ बहन का व्रत-तप के बिंबों के साथ भाई-बहन के प्रेम का यह उत्सव कई दिनों तक चलनेवाला उत्सव है।
इसमें दार्शनिक पक्ष भी हैं। आम आदमी की भाषा और बिंब में कि कर्म, उसका परिणाम किस तरह का होता है? मन पर पड़ी छाप कैसी होती है? आदमी का अपने मूल स्थान से लगाव कैसा होता है और कैसा होना चाहिये? भाग्य प्रधान है या पुरुषार्थ? व्यक्ति के प्रयास एवं परिवार की मंगल कामना के बीच क्या संबंध है? ऐसी अनेक बातें।
अब इस बात पर कोई ब्राह्मण ही सोचे, ऐसी सीमा तो हो नहीं सकती। अतः लोगों ने, आम लोगों ने सोंचा। अपने बिंबों में अपने सिद्धांत रचे। पंडितों को समझना हो तो समझें या इस भ्रम में रहें कि सनातन धर्म केवल कुछ अभिजात लोगों के लिये है। जो आचार किसी संस्कृत पोथी में नहीं मिल रहे, वे गलत हैं। पहले उनका संदर्भ तो मिलाया जाय। ऐसा न हो कि कोई पुस्तक ही छूट रही हो?
रही बात आयुर्वेद के निर्देशों की तो एक बात गजब की है। मैं बचपन और जवानी में खुद खेतों में काम करने वाला रहा हूं, केवल कराने वाला नहीं। अपने ही दालान के पायों पर फोटो की तरह फ्रेम किया हुआ स्वस्थ वृत्त, ऋतु चर्या पढ़ कर हंसता था कि अगर इसका पालन किया जाय तो खेती ही नहीं होगी। आगे का क्या कहें? इस प्रकार देखने-समझने कि कोशिश में तो लगता है कि मामला कुछ और है।
 कुछ बातें मैं ने अपने पुराने पोस्ट .http://bahuranga.blogspot.in/2013/09/blog-post_16.html में भी की हैं।

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