गुरुवार, 31 जुलाई 2014

जी हां मैं और आप दोनों तांत्रिक हैं

जी हां मैं और आप दोनों तांत्रिक हैं
भारत में ज्ञान की धारा के सरलीकरण और जटिलीकरण के पक्ष-विपक्ष में लंबे समय से संघर्ष चल रहा है। सरलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि अगर विषय सरल रहे तो मुझे और मेरे अपने लोगों के साथ अन्य को भी उसका लाभ आसानी से मिल जायेगा। जटिलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि यह विषय इस प्रकार से कहा लिखा और समझाया जाय कि हर जगह पेंच फंसी रहे और कुछ खाश लोगों तक ही उपयोगी बातें सीमित रहें ताकि लाभार्थियों से उसके एवज में अधिकतम लाभ लिया जा सके, वर्चस्व कायम रहे।
तंत्र शब्द और उसका अर्थ इस पेंच में इस तरह उलझा कि रोज अनेक बार अनेक संदर्भों में तंत्र शब्द का प्रयोग करने के बावजूद अगर कोई कहे कि मैं तांत्रिक हूं तो लोग उसे शक की निगाह से देखेंगे और यदि वह दूसरे को कहे कि आप तांत्रिक हैं तो दूसरा पलट कर तुरत खंडन करता है नहीं मुझे तंत्र वंत्र से कोई लेना देना नहीं।।
तंत्र यदि ऐसा भयानक और घृणा के लायक ही है तो लोक तंत्र, राज तंत्र, तंत्रिका तंत्र, स्नायु तंत्र, योग तंत्र, आदि शब्दों का प्रयोग क्यों ? तंत्र शब्द का नाम सुनते ही डरने या घृणा करने की जगह उसे समझने की आवश्यकता है। तंत्र का सीधा और व्यापक अर्थ है- विस्तार, विस्तृत कार्यप्रणाली। कोई भी मूल सूत्र या व्यवस्था  जीवन व्यवहार में तभी लागू हो सकेगी जब उसकी कोई कार्यप्रणाली भी हो। यह कार्य प्रणाली ही तो उस सूत्र, सिद्धांत या व्यवस्था का तंत्र अर्थात विस्तार हुआ। उदाहरण के लिये- किसी भी देश में संफल या विफल लोक तंत्र का तब तक कोई वास्तविक मतलब नहीं होता जब जक चुनाव एवं राज्य सत्ता पर सामान्य नागरिकों के नियंत्रण तथा हस्तक्षेप की कार्यप्रणाली का निर्धारण न हो जाय। लोक तंत्र की सफलता सच में तब तक नहीं होगी जब तक आम नागरिकों के मन में अन्य सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों की तुलना में लोक तांत्रिक मूल्यों के प्रति अधिक श्रद्धा और स्वीकार्यता न हो जाय। लोकतंत्र धार्मिक विश्वासों से ऊपर हो।
इसी प्रकार से विभिन्न काल खंडों में भारत के विविधता पूर्ण वातावरण में अनेक प्रकार के सूत्रों, सिद्धांतों एवं तकनीकों को मिला कर सामाजिक-राजनैतिक आवश्यकता के अनुरूप उनके तंत्र अर्थात विस्तृत कार्य प्रणालियां विकसित हुईं। ये कभी भी प्रकृति, समाज और राज्य के निरपेक्ष नहीं रहीं। अंतर इतना रहा कि किसी ने राज्य, किसी ने समाज और किसी ने केवल प्रकृति की व्यवस्था को महत्त्व दिया और अन्य की उपेक्षा की। तंत्र को समझने में चूंकि विस्तृत जानकारी और अध्ययन की आवश्यकता होती है साथ समय तथा क्षेत्र के अंतर को भी समझना होता है अतः लोग तंत्र के अर्थ को ही सीमित कर प्रयोग करने लगते हैं अन्यथा इस प्रकृति, समाज और राजनीति को समझने ओर उसके बीच जीने और खेलने वाले हम सभी तांत्रिक हैं। भाग कर जा कहां सकते हैं? तंत्र शब्द से भी पिंड छुड़ाना आसान नहीं है, अर्थ का हाल तो कह ही दिया।

गुरुवार, 10 जुलाई 2014

अर्थ/अनर्थ का शास्त्र

शब्दार्थ
अर्थ/अनर्थ का शास्त्र और तर्जुमे का खेल
आज की शिक्षित पीढ़ी और खाश कर हिन्दी भाषी पीढ़ी साम्यवादी/साम्राज्यवादी अनुवादकों के तर्जुमे/अनुवाद के कारण अनेक मामलों में भ्रांत धारणाओं का शिकार है। मघ्यमार्गी, राष्ट्रवादी कहने वालों ने इस समस्या पर ध्यान ही नहीं दिया और पारंपरिक संस्कृतनिष्ठ अनुवादकों ने अपनी परंपरा को प्रगट करने की जगह केवल क्लिष्ट जटिल शब्दों को अनुवाद के बतौर पेश किया। विज्ञान की चोरी का उदाहरण मैं ने रखा है। आज अर्थ शास्त्र को देखते हैं। वैसे भी आज बजट का दिन है।
हम लोगों के समय में भी कालेजों में यही पढ़ाया जाता था कि अर्थशास्त्र के जनक आदम स्मिथ हैं। साथ ही सारे पैमाने यूरोपीय, शब्द या तो यूरोपीय या भारतीय शब्दों को बिना उनके पूर्व प्रचलित अर्थ के जाने हुए प्रयोग।
भारत में अर्थ शास्त्र की एक स्वतंत्र धारा रही है। इसके जनक जो हों फिर भी पहली विस्तृत पुस्तक आचार्य विष्णु गुप्त उर्फ चाणक्य द्वारा लिखी गई मिलती है। उसके बाद भी यह सिलसिला जारी रहा। इस शास्त्र की परंपरा में अर्थ का मतलब है- आजीविका, चाहे वह शिल्प हो, खेती, विपणन या सेवा, और उस पर अनेक प्रकार के कर लगा कर राज्य कोश को बढ़ाना और श्रेष्ठी वर्ग को प्रसन्न साथ ही इस बात की सावधानी रखना कि प्रजा में क्षोभ न हो और वह बगावत पर न उतर जाये।
भारतीय पारंपरिक अर्थ शास्त्र भी साम्राज्यवादी है। लेकिन आधुनिक साम्राज्यवादी इसका नाम नहीं लेना चाहते, न कांग्रेसी विद्वान न ही संघी। वामपंथियों के भारतीय ज्ञान से सर्वाधिक नफरत है। भारतीय पारंपरिक अर्थ शास्त्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के करों का प्रावधान है। साथ ही पूरी सूची दी गई है कि उत्पादक, विक्रेता, सरकारी कर्मचारी तो चोरी करते ही हैं। मनोरंजन आदि सेवा कर्म करने वाले भी कर में चोरी करते हैं।
श्रीमान चाणक्य जी ने तो वेश्यावृत्ति का भी बखूबी अध्ययन किया और भिन्न प्रकार की वेश्याओं द्वारा वेश्यावृत्ति के विभिन्न चरणों पर अलग अलग कर निर्धारित किये तथा उसकी वसूली के उपाय भी बताये।
आ कल ब्राह्मण लोग चाणक्य भक्ति में लीन है। उन्हें यह जान कर शायद ही अच्छा लगे कि श्रीमान चाणक्य जी ने ब्राह्मणों को भी ठगने के उपाय बताये। गीता के श्लोकों में ब्राह्मण की जो आजीविका बताई गई हो। सच यह है कि जंगली एवं ऊसर जमीन को सुधार कर उसे खेती लायक बनाने एवं सिंचाई की व्यवस्था करने में ये कुशल रहे हैं। जमीन के प्रति इनके लगाव के कुछ ही अपवाद हैं।
इसलिये श्री चाणक्यजी कहते हैं कि ब्राह्मणों को बरबाद जमीन दान करो, वे उसे उपजाऊ बना देंगे। फिर किस बहाने उसे हथियाने से किसी को कौन रोक सकता है।