सोमवार, 25 अप्रैल 2011

इस बार सत्तू पर एकादशी की चोट और बृहस्पति का प्रकोप

इस बार भी सत्तू खाने के उत्सव वाला दिन आ ही गया। इस दिन की प्रतीक्षा अनेक लोगों को रहती है। नए चने का सत्तू, बौराया हुआ आम या टिकोरा, शुद्ध घी, दूध ,गुड़ के साथ सना सत्तू, नए घड़े/सुराही का पकी मीट्टी की सोंधी खुशबू वाला पानी सब नया-नया, सबका मजा लाजवाब। कुछ लोग खश की जड़ पानी में डाल देते हैं। मुझे पीने में खश पसंद नहीं है।
आज मेष की संक्रांति है, खरमास समाप्त हो गया। रूखा-सूखा, उदास टाइप वाला समय गया। शादी-विवाह अन्य उत्सव मंगल मनाने और अपने घर में अवसर न हो तो दूसरों की शादी से भी मजा लेने की आज से पूरी छूट है। बाजर-बिजनेश की रौनक अलग।
फिर भी इस खुशी के मौके पर एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों का संकट हो गया। सतुआन साल में बस एक दिन आता है ये एकादशी जी का क्या, महीने में दो बार पधारते हैं और वृहस्पतिवार को हर हफ्ते आना ही है। एकादशी के दिन फलाहार होता है। एकादशी करने वाला महान माना जाता है।
सत्तू की प्रतिष्ठा अब बढ़ी है, जब से लोगों को गैस एवं एसिडिटी की बीमारी पकड़ी है। मैं तो सामान्य आदमी हूँ, एकादशी नहीं कर सकता। न तो अभाव में दुःखी रह सकता हूँ, न महँगे फलाहार एवं नृत्य-संगीत वाली एकादशी का खर्च जुटा सकता हूँ अतः मैं सत्तू वाले सतुआन के पक्ष में हूँ। बुरा हो उनका, जिन्होंने सास टाइप खाली बैठी घरेलू औरतों के लिए सप्तवार व्रत की पोथी निकाल दी है। हर दिन के खाने-पीने के नियम अलग-अलग बना डाले हैं।
ये नियम अगर सतुआन की तरह ‘अवश्य खाने’ के बारे में रहें तो मुझे कोई दिक्कत नहीं लेकिन कुछ लोग तपस्वी बनने की चक्कर में ‘न खाने’ के नियम अधिक बनाते हैं। इन्हें दूसरों को और बस न चले तो अपने को सताने में मजा आता है। नियम बनाया कि वृहस्पतिवार को चना, सत्तू, भूँजा या भूँज कर पिसा हुआ अन्न न खाएं। इस चक्कर में मेरा सतुआन फँस गया था। श्रीमती जी ने एकादशी की, व्रत रखा और बेचारे सतुआन को छोड़ दिया।
मैं ने पूरा मजा लिया - प्रातः काल नाश्ते में सत्तूू, घी, दूध, गुड़ आम के टिकौरे के साथ और दोपहर में सत्तू, भूना जीरा, नमक (दोनों सादा एवं काला) नींबू और छोटी सी हरी मिर्च के साथ थोड़ी सी गोलमिर्च मिलाकर विधिवत खाया। सत्तू खाने की शास्त्रीय विधि है। खाने की ही नहीं बनाने की भी विधि वैदिक काल से वर्णित है। सत्तू एक वैदिक भोजन है। देवता हिमालय में रहते हैं इसलिए तिब्बत, चीन एवं संपूर्ण उत्तरी भारत में सत्तू खाया जाता है। सत्तू बनाना एवं खाना ज्ञानी लोगों का काम है - वेद में कहा गया है -
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र घीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते,भद्रैषा लक्ष्मीर्निहिताधिवाची।।
भावार्थ - जैसे बुद्धिमान व्यक्ति चलनी से सतू को साफ करता है, उसी प्रकार धीर व्यक्ति मन से वाणी को शुद्ध कर लेता है, भित्रता करने वाला व्यक्ति मैत्री की ठीक पहचान रखता है। हे सज्जन व्यक्ति यह जो लक्ष्मी है, वह वाणी (सुंदर) में प्रतिष्ठित है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सत्तू खाने के लिए सुंदर वैदिक मंत्र भी उपलब्ध है। गौरवशाली इतिहास है, उत्सव है और भला चाहिए क्या? इसके बावजूद देवगुरू वृहस्पति को सतू से कब नाराजगी हो गई इसका इतिहास नहीं मिलता। ठीक इसी तरह फिल्मों के माध्यम से प्रचारित संतोषी माता के प्रभाव के पहले शुक्रवार को खटाई खाने पर पाबंदी नहीं थी। दही और नींबू से साल में 50 दिन का वैर तो संपूर्ण भारतीय भोजन संस्कृति से बगावत है, यह धार्मिक हो ही नहीं सकता। संतोषी माता के व्रत में प्रसाद खाने वालों पर भी पाबंदी है, यह तो और खतरनाक है।
तो मैं शुक्र और वृहस्पति दोनों की नाराजगी मोल लेने को तैयार हूँ और हर साल सतुआन मनाऊँगा उस दिन एकादशी और वृहस्पतिवार दोनों आकर भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं अगर धर्मशास्त्री बनूँगा तो प्रावधान करूँगा कि सालाना उत्सवों के दिन अगर एकादशी जैसे व्रत की तिथि आ जाय तो उस दिन की एकादशी में अवश्य सतू खाना चाहिए।
आशा है, आप मुझसे अभी सहमत न भी हों तो अगले साल सतुआन तक सहमत हो जायेंगे।

4 टिप्‍पणियां:

  1. सत्तुआ सत्यदेवश्च, मुठरिया पञ्च देवता,
    घोर घोरांडा पिण्डाश्च, पनियाश्च पंचामृतं ||
    अहो सत्तू ....!!!

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 14 अप्रैल 2018 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  3. आदरणीय -- आपने सत्तू खूब खाया और ओरों को ललचाया | आपके हृदय स्पर्शी लेख में अलग रंग पाया | सत्तू को खाने की अलग अलह विधियों से परिचय हुआ | आपके लिए तो श्री मति जी का एकादशी व्रत वरदान हो गया | सुंदर रोचक लेख | सादर आभार और नमन |

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