शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

संस्मरण 4 मौन में व्याख्यान

संस्मरण 4 मौन में व्याख्यान

भारतीय संस्कृति के अनेक पक्षों में महत्वपूर्ण पक्ष अध्यात्म, योग वगैरह की साधना, उसकी विविध पद्धतियों एवं उसकी लंबी परम्परा को भी माना जाता है। तन, मन एवं सृष्टि के साथ उसके संबंधों पर कई जन्मों तक में न पढ़ी जा सकने लायक किताबें लिखी-पढ़ी, बिखरी पड़ी है। पोथियों के खिलाफ बोलनेवालों की भी पोथिंयाँ आ गई हैं। यह पोथी विरोध समझ में नहीं आता था।
मेरे गाँव-इलाके यूँ कहिए कि जिले के आरा, सासाराम रोड पर पीरो बिक्रमगंज के बीच दुर्गा डीह नामक गाँव में एक महान व्यक्ति पैदा हुए, 1920 के आस-पास। बचपन में साधु होकर घर से निकले। हिमालय आदि में साधना सीखी। साधना पूरी हो गई। अब बारी आई सिखाने की। गुरूजी ने दक्षिणा-बिदाई के अवसर पर कहा - ऋषिकेश वाले शिवानंद जी के शिष्य देश-विदेश में योग सिखा रहे हैं। तुम भी सिखाओ।
नये साधु का नामकरण स्वामी मधुसूदनदास जी हो गया था। स्वामी मधुसुदन दास जी ठहरे अनपढ़। अनपढ के द्वारा योग शिक्षा, वह भी देश एवं विदेश में। आसन-प्राणायम हठयोग सिखाना नहीं, सिखाना राजयोग, ध्यान योग, कुंडलिनी, साधना वगैरह। स्वामी मधुसुदन दास जी की मजबूरी में उनके भीतर के असली गुरू का स्वरूप उभरा और उन्होंने ऐसी विधि प्रचलित की, जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सका।
स्वामी मधुसूदन दास जी पूरे परिवार को एक दरी पर पाँच-छः फूट की दूरी पर बिठाते। उन्हें आँख मूंदने को कहते और अपने सामर्थ्य से उनकी अंतर्यात्रा शुरू करा देते।
आँख बंद किए हुए ही अपने शरीर एवं मन के संस्कारों के अनुरूप सबकी साधना शुरू। आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, धारणा, ध्यान एवं एक साथ होने लगते। मजेदार यह कि किसी को पता नहीं कि मेरी साधना के इस मार्ग को क्या कहते हैं, उनकी प्रगति का स्तर क्या है और उसका महत्व क्या है? परिणाम यह कि कोई अहंकार नहीं। केाई ढांेग नहीं, न दुविधा, न प्रश्न, न उत्तर, बस सभी लगे रहे।
संकट मेरे जैसे किताब वालों को कि अदभुत विधि है? कितनी प्रामाणिक और सरल। जब बाहर से ही पता इतना चल जाता है तो भीतर का क्या अनुमान करें। दुर्भाग्य ऐसे सच्चे साधु को लोग समझ नहीं सके। अब तो उनके चेले भी किताब लिख रहे हैं। इनका आश्रम गुजरात में है।

1 टिप्पणी:

  1. सही कहा आपने, यह दुर्भाग्य ही है.

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