सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

मेरी काम भावना का विकास


मसूरी से आगे कैम्पटी में एक संस्था है सिद्ध। वहाँ बड़े-बड़े महान समाज सेवकों एवं बुद्धिजीवियों की एक बैठक हो रही थी। श्री अरूण कुमार पानी बाबा की कृपा से मैं भी वहाँ शामिल था, एक अज्ञानी। मुझे कुछ सूझा नहीं तो मैं ने भी एक लेख लिख मारा - ”शिक्षा में मौन का महत्त्व“। बैठक में शिक्षा से संस्कार एवं संस्कार से ब्रह्मचर्य तक की बात उठी। 

आदरणीय राधा बहन जी और प्रसिद्ध पर्यावरणविद प्रो. जी.डी अग्रवाल जी मनुष्य के अन्दर छुपी काम भावना के उन्मूलन में पूर्णतः तत्पर थे। वे दोनो ब्रह्मचारी, मैं पूर्णतः सांसारिक माया वाला आदमी। इनकी बात समझ में ही नहीं आ रही थी। मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं ने अपनी उलझन रखी, सो आपको भी बता रहा हूँ।

मैं गाँव में पैदा हुआ, वहाँ खेती और पशुपालन दोनो होता था। पशुओं की कामेच्छा, यौनक्रिया, गर्भधारण एवं प्रसव हमारे नित्य पारिवारिक चर्चा का प्रसंग था, क्योंकि गाय/भैस के प्रसव से हमारे दूध मिलने का सीधा रिश्ता था। बनिए के कर्ज की भरपाई खेती से नहीं पशुपालन से ही हो पाती थी। 10-12 साल तक भले ही हमने मनुष्य को रति क्रिया करते न देखा हो किन्तु पता था कि मनुष्य भी कुछ ऐसा ही करते हैं। 16-17 साल तक अपनी जवानी भी चढ़ने लगी थी। 20 साल की उम्र कॉलेज के दिनों की। 

आए दिन संत महात्मा, ब्रह्मचर्य का पाठ पढ़ाते-सुनाते मिलते तो घर के बड़े लोगों के साथ बहनों की शादी के लिए वर ढूंढ़ने जाने में भी झोला ढोने के लिये बे मन उनका साथ देना पड़ता। मुख्य चिंतन का विषय लड़के-लड़की की कद-काठी, दोनो के भावी दांमपत्य के मूल आधार, कमाई की संभवना, संततियोग एवं शारीरिक संरचना होते। और तो और जब हम जिम्मेारी के लायक माने जाने लगे तो हमें पशु मेले से बछिया और कडि़या (भैस का मादा बच्चा) खरीदना सीखना था। दो बातें मूल थीं कि के आगे बछिया और कडि़या चलकर दुधारू हो, प्रसवकाल में मरे नहीं। पूरी जवान गाय, भैस के शरीर विकास का अनुमान, चमड़ी से हड्डी तक पैनी नजर पहचानने वाली बने, यही तो काम था। जब जानवर समझा तो आदमी भी समझ में आने लगे।इस प्रकार मेरी काम भावना का विकास होता रहा। 

शरीर के बाहर वाली की औरत के पहले हमें तो भीतर की औरत से भंेट कराया गया, उसका मजा ही अलग है। इस प्रसंग को बाद में लिखूँगा। 

हाँ तो इस प्रकार सृष्टि के नजदीकी सभी रूपों को काम भावना की दृष्टि से देखने-सुनने, विचार करने की प्रक्रिया पर मुझे समाज के किसी सदस्य ने न कभी टोका, न मना किया, इसलिये उस बैठक में समझ में नहीं आया कि मेरी काम भावना के विस्तार से समाज को क्या संकट हुआ ? अब तो अगर अविवाहित लड़के-लड़के दिखे नहीं कि तुरन्त ख्याल आता है कि जोड़ी कैसी रहेगी? ठीक लगी तो लगता है इनकी शादी हो जाती। 

मेरा बेटा जवान है, उसकी बहू के लिए ख्याल आ ही जाता है। मैंने अपनी तीन बहनों एवं दो भाईयों की शादी में सीधे जिम्मेवारी बड़े भाई के रूप में निभाई। हर साल एक-दो जोड़ी का जुगाड़ बैठाता हूँ। मुझे अपने बेटे के लिए अच्छी बहू के साथ एक अच्छी खूबसूरत समधन भी मिल जाये तो और अच्छा। इससे न तो मेरी पत्नी को समस्या होगी न एक मस्त समधी से मुझे, जो हँसी मजाक में रस लेने वाला हो। बुढ़ापे का सुख तो इसी में है कि दूसरे को खेलते-खाते हँसते देख अपनी जवानी और बचपन की बेवकूफियों पर हँसा जाए, नहीं तो जलन का रोग चिता पर चढ़ने से पहले ही जला डालेगा।

मुझे समझ में नहीं आता कि ब्रह्मचर्यवादियों की समस्या क्या है? मेरी काम भावना के विकास से उन्हें क्या कष्ट हो सकता है? उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया। यदि मेरा रास्ता गलत हो तो सुधार का प्रयास इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो किया ही जा सकता है। अन्यथा यह काम भावना पोते-पोतियों की पीढ़ी तक फैलती ही जायेगी। ईश्वर जाने आगे क्या होगा?

1 टिप्पणी:

  1. अभी-अभी फेशबुक से इस पोस्ट की जानकारी मिली।अच्छी अभिव्यक्ति है।और रही बात कामज्ञानार्जन की तो वह तो लगभग कॉमन है- परिवेश के मुताविक।
    धन्यवाद।

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