गुरुवार, 12 सितंबर 2013

Branding of Indian Saadhanaa Systems

विमोहन 9
मित्रो, धर्म एवं राजनीति अपनी क्षेत्रीय एवं सामयिक सांदर्भिकता में शुरू भले ही होते हों कुछ समय बाद उनकी branding शुरू हो जाती है। भारत की विविधतापूर्ण स्थिति इसके लिये और अधिक सुविधा देती है। क्षेत्रीय  आचार भेद से धर्म संबंधी व्यवहार का अलग होना तो उचित है लेकिन जब एक सनातन, वैदिक हिंदू जो कहें धर्म सभी जगह है तो मौलिक और बड़ी बातें तो एक ही तरह की होंगी लेकिन राजा अपने राज्य को ही पूरा भारत बनाने की इच्छा रखते थे और पुजारी बस चले तो केवल अपने मंदिर में ही भगवान का वास बताते। लाचारी में पुजारी अपने मंदिर को सबसे जाग्रत, संपूर्ण मनोकामनाओं को पूरा करने वाला बता कर शांत हो जाते हैं। इसके विपरीत समानांतर रूप से ‘एक ब्रांड विरोधी’ और ‘‘सर्व ब्रांड विरोधी’’ धारा भी सक्रिय रहती है।
मंदिर क्या अधिक महत्त्वाकांक्षी मंडली अपने प्रिय किसी एक देवता के अधीन, उनके अंतर्गत, उनका ही दूसरा स्वरूप बता कर पहले विचार के स्तर से किसी एक के महत्त्व को समाप्त कर देती है फिर उस मंदिर के पुराने विग्रह/मूर्ति को। यह है तिरोभाव का खेल। पहले विचार, फिर पुस्तक, फिर मूर्ति। ऐसा विष्णु, बुद्ध, सूर्य एवं शिव के उपासकों ने कई बार किया है। अधिक मंदिर और मूर्तियां भी तो इन्हीं की हैं। सूर्य का विष्णु एवं शिव में अंतर्भाव एवं फिर तिरोभाव खूब किया गया। बुद्ध का व्यक्तित्व वैष्णवों एवं संपत्ति शैवों ने ली बौद्ध साधना विधियों का लाभ शाक्तों ने उठाया। इसके उलटा भी किया गया। ऐसे अनेक खेल हजारों साल चले।
साधना की मूल विधियां लगभग वहीं होंगी, सामग्री भी वहीं होगी। नामकरण एवं लाभ कमाने वाले अलग होंगे। आजकल सर्वधर्म समभाव वाले ऐसा खेल खूब करते है। मुझे उनसे आये दिन निपटना पड़ता है। ये है Super Branding of Indian Hindu Saadhanaa Systems. All God Jaya Shri Krishnaa. Branding of Indian Political Schools में आगे लिखूंगा..................

बबन देवी

बबन देवी
बबन देवी से मेरा भावानात्मक लगाव विकसित होने लगा। इसे विकसित होने में 5 साल लगे। एक दिन मैं उनके समक्ष सारे अहंकार तोड़कर विसर्जित होने वाला था। सोचा था उन्हें कपड़े समर्पित करूँ और पैर छूकर प्रणाम करूँ (वे मेरे प्रणाम के लिए थोड़े ही बैठी रहतीं। वे चल बसीं) और प्रार्थना करूँ कि .............................
हे देवी! मुझे समझ में आ गया कि दुनिया एक सराय है केवल ठहर कर जाने के लिए ही नहीं अन्य मामलों में भी। पूरी विवाह संस्था लाभ हानि, उतराधिकारत के लिए बनी हुई है। यौन सुख अल्पकालिक रूचि का विषय है। आपसी प्रेम तो आते दुर्लभ है और दंपति के बीच प्रेम के दुश्मन अनेक है। ये दुश्मन बाहरी कम घरेलू अधिक होते हैं। आरप तो धन्य हैं क्योंकि आपने एकतरफा, आदर्श, आदरणीय सर्व स्वी कार्य प्रेम किया। जवानी से प्रौढ़ावस्था तक बीवी बच्चे से प्रेम निंदनीय है, स्वार्थ है और बुढ़ापे में अगली पीढ़ी से दुश्मनी फिर प्रेम का आपका लग सकता है कि ऐसी कान सी दुर्लभ बात समय कहाँ है। हुई। हाँ, मेरे लिए हुई। बबन देवी गया सराय की तवायक थी। मैंने देरकर दी कह नहीं सका। ववन देवी बुढ़ापे में (जब मेरी उनसे भेंट हुई) इतनी खूबसूरत थीं तो जवानी में कुछ और हीं रही होंगी। उनकी ठुमरी और गजल गान की मशहुर थी। किराए में दो मंजिले मकान के उपर रहती थी। सराय रोड, गया में वे एक खाश सख्तसियत थी। वे तवायक होकर भी किसी घेरलू औरत से कम नहीं थी। अच्छा खाना बनाना सलीके से कपड़े पहनना। मेरे समक्ष बाद के दिनों में कपड़े का बहुत ख्याल नहीं रखती थी। शरीर थक रहा था।
बबन देवी का संबंध मगध वि॰वि॰ के एक पदाधिकारी से ही आजीवन रहा। वे श्रीमान जन्म से तो ब्राह्मण थे किंतु अवगुणों की कोई कभी उन्होंने नहीं रखी। बबन देवी ने दिन दिया तो दे दिया, कोठे पर ज्यादा तो लंपट ही जाते हैं। आप बबन देवी का प्रतिका इसी से समझ सकते हैं कि सराय में तो उनकी सच्चरित्रता की ख्याति थी है। अपने प्रेमी के घर पर भी उनके पुत्र, पुत्री, बहू बच्चे उनका पूरा आदर करते थे। भले ही घर की मालकिन नहीं थी, परंतु नैतिक अभिभावक थीं और मुसीबत में अपनी संगीत पेशे की कमाई भी न्योछावर कर देती थी।
बबन देवी ने स्वयं संतान उत्पन्न नहीं करने का साथ हीं अपने भतीजे-भतीजी सबको वेश्यावृत्ति से बाहर निकालने का निर्णय लिया था। भतीजे को जमीन खरीद कर दी और गाँव में रहकर खेती करने को कहा। भतीजी को अच्छे से पढ़ाया संभवतः उसे ठण्ज्मबीण् किया था या कोई डिप्लोमा कोर्स उनका गाँव पुराने आरा (शाहाबाद) जिले में है और मैं भी उसी जिले का हूँ। दोनों का कार्यक्षेत्र, रोजगार क्षेत्र गया जिला, तो इस बहाने भोजपुरिया लोगों की जिलादारी भी हो जाती थी।
मेरे उपर उमरदार औरतों का प्यार अद्भूत ढंग से बरसता रहा है। मुझे पुत्रवत स्नेह करनेवाली महिलाएँ कुछ साल पहले तक मिलती रहीं। सामाजिक कामों में व्यस्त रहने के दौरान मेरे भोजन, वस्त्र, स्वास्थ्य एवं शरीर रक्षा के प्रति तो थे सजग रही ही उनके मन में यह सजगता बनी रहती थी कि यह युवक कहीं धोखा न खा जाए, किसी मुसीबत में न पड़ जाए क्योंकि मैं महान मूर्ख आदमी हूँ। अक्ल औसत से थोड़े कम है, कभी -कभी अहंकार चढ़ता है तो अपने को बड़ा काबिल आदमी भी मान लेता हूँ। दुनिया को समझने और कुछ करने की इच्छा ने मुझे इतना वात्सल्य दियाया।
एक बार मेरा पैर टूटा था। बबन देवी मिलने आई घर पर न केवल बैठी बल्कि उनका हाथ मेरे सर को सहलाने के लिए आगे बढ़ा, परिचय नया था। सामाजिक कार्यकर्ता कालेज का अध्यापक सराय में सपलीक घूमने वाले दुस्साहसी और अनुशासित लेवक, पुलिस के अपराध अनुसंधान विभाग से मान्यता प्राप्त, आ॰ए॰एस॰ आई॰पी॰एस॰ पदाधिकारियों के साथ उठने-बैठने वाला ये सब बातें वात्सल्य प्रवाह में विध्न पैदा कर रही थीं। ब्राह्मणों के जातीय अहंकार की असलीयत से पूणतः परिचित बबन देवी सहज मुस्कुरा रही थी। उन्होंने मेरे पास खड़े होकर मेरा कंधा पीठ एवं पाँव सहलाया। दुआएँ दी।
उलाहना भी छोड़ती गई पाठक जी कलेक्टर एवं कमीश्नर के कहने पर मैंने भतीजी को वेश्या के घर का बताया जबकि मैंने उसकी शादी कर दी है। उमीद थी कि कोई नौकरी मिल जाएगी सो वह भी नहीं मिली और यह जो आपने आँगन बाड़ी केन्द्र खुलवाया है, इसमें कौन जाएगा पढ़ने और कौन सी नाचने वाली जाएगी पढ़ाने? एक लड़की जो एम॰ए॰ हिन्दी में पढ़ रही थी मैं उसके घर गया। संयोग से उसे इस छोटी नौकरी की जरूरत नहीं पड़ी वह हाई स्कूल में टीचर हो गई।
एक बार बबन देवी के घर गए काफी दिन हो गए तो फिर उलाहना। क्या पाठक जी! अभी भी मुझ से मिलने में शर्म आती है? मैं क्या बोलता? दरअसल मैं जब भी कोठे पर जाता तो विधिवत् एक डरपोक की तरह जाता। यह सावधानी अमृतलाल नागरजी के उपन्यास थे कोठे बालिया, अमृता प्रतिमा का काल गर्ल एवं संस्कृत की सुप्रसिद्ध पुस्तक कृट्टनीमतम पढ़कर ।ण्ैण्भ्ण्प् नामक सरकारी मान्यता प्राप्त (किंतु गया में पूर्णतः विवादास्पद) संगठन के जिला सचिव की हैसियत का कवच पहन कर जाता। इसके बाद भी तीन संरक्षण खोल और शहर के संभ्रात महिला संगठन की बुर्जुग अनुभवी महिलाओं का संरक्षण, पास के रिहायसी इलाके के वेश्यावृत्ति निरोधक संगठन के कार्यकर्ताओं के माध्यम से संवाद, अंत में अपनी प्रखर एवं दुस्साहसी पत्नी की सहभागिता एवं समर्थन की व्यस्था भी साथ थी।
डरपोक वाली बात में इस मामले में लागू नहीं होती एक व्यवहारिक दृष्टि थी कि कोठे पर जाने के पहले उस महिला नाचने वाली को खबरकर दी जाय और दिन के 12 बजे से 3 बजे के गैर कारोबारी पारिवारिक/व्यक्तिगत समय में जाया जाय। इस समय आम तौर पर मुजरा सुनने वाले या देह-सुख भोगने वाले नहीं आते फिर भी स्थाई संबंध वाले ग्राहक तो आही जाते थे।
बबन देवी के यहाँ तो यह खतरा भी नहीं था। या तो बे समारोहों/रेडियों पर गाती या उनके प्रेमी एवं अन्य परिवारों में सम्मानित सलाहकार बुजुर्ग की तरह जाती है।
मैं स्वंय लज्जित हो गया। सोचा एक बार हिम्मत करके अपने मन की सारी दुविधा उनसे कह दूँगॉ/ आप तो मेरी माँ समान हैं, वंदनीय, पूजनीय है। मेरा घर कब आपके लिए कब बंद हुआ परंतु अवसर चूक गया, बबन देवी इस दुनिया से कर्तव्य पूरा कर विदा हो गई। क्षमा प्रार्थना सहित, उन्हें प्रणाम।

रहस्य, चमत्कार एवं अंध विश्वास

विमोहन 9

रहस्य, चमत्कार एवं अंध विश्वास

रहस्य चमत्कार एवं अंधविश्वास, ये तीनों शब्द अति प्रचलित एवं विवादास्पद रहे हैं। इन शब्दों के प्रति आकर्षण तथा विकर्षण से अधिक इनके उदाहरणों एवं अर्थों के प्रति हजारों साल से खींचतान चल रही है।
भारत के संदर्भ में इस विषय को समझना जरूरी है तभी सही दिशा का निर्धारण हो सकेगा। संसार में हर बात तब तक रहस्य है, जब तक हम जानते नहीं। हमारा शरीर एवं मन विभिन्न भौतिक साधनों, रंग, ध्वनि, सुर, स्वरों के आरोह-अवरोह से प्रभावित होता है। ऐसी हर सामग्री में एक विशेष प्रकार की शक्ति है। इनकी कार्यप्रणाली का शास्त्रों में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। इन शक्त्तियों का आप जिस किसी शक्ति या देवी देवता के नाम से पुकारें, उससे केवल नाम का अंतर होगा।

इनकी कार्यप्रणाली न जानने पर सबकुछ चमत्कार है, और जानने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कहाँ केवल मानसिक स्तर पर घटना घटित हो रही है और कहाँ केवल भौतिक या फिर मिश्रित रूप में।
सामान्य प्रकाश से शांति, गहरे लाल रंग से जोश एवं गुस्सा काले रंग से गहन शांति या भय उत्पन्न होता है। बिना मिर्च-मसाले के भोजन से मन को एकाग्र करने में सुविधा होती है। इससे आगे बढ़ने पर जामितीय आकृतियों का अर्थ एवं अवचेतन मन से उनके रिश्ते एवं कार्य प्रणाली को जानना पड़ता है। कोई व्यक्ति किसी देवी-देवता को माने या न माने फिर भी ये प्राकृतिक शक्तियाँ सही स्थान में संयोजित होने पर सामान्य भौतिक घटनाओं की तरह काम करती ही हैं।

दो प्रकार की सूचनाओं ने पूरे समाज को भ्रम में डाल दिया है और उनसे बचना जरूरी है। पहली प्रकार की सूचनाएँ हैं - फलसु्रति संबंधी अर्थात् ऐसा करने से इतने प्रकार के लाभ होते हैं। जैसे - अमुक मंदिर में जाने से सारी मनोकामनाएँ पूरी होती हैं - ऐसा संभव ही नहीं है। मन तो परस्पर विरोधी इच्छाओं में फँसा रहता है। इस मंत्र के जपने से राजा या स्त्री मुग्ध हो जाती है।

दूसरे प्रकार की सूचनाएँ - वे हैं जो द्वयर्थक भाषा में इस प्रकार लिखी गई हैं, जिससे उसकी कोई नकल न कर सके और विद्या के असली जानकारों की मर्जी और उन्हें उसके लिये भुगतान किये बगैर कोई लाभ न उठा सके। यह बात भी लिखी रहती है कि धूर्त, कृतघ्न एवं भिन्न परंपरा के लोग इन पुस्तकों को पढ़कर दिग्भ्रमित, पागल या बीमार हो कर बरबाद हो जायें।
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एक दृष्टि से ऐसा साहित्य सृजन बहुत ही अमानवीय लगता है। दूसरी दृष्टि से विचार करें तो बिना पूरी और सही जानकारी प्राप्त किये, किसी विद्या के विद्याधरों को दाक्षिणा दिये बगैर उसका लाभ उठाने की कृतघ्नता क्या उचितहै? भारतीय कॉपी राइट का यह संरक्षण वाला जवाबी तरीका बहुत सुरक्षित और दुश्मनों के लिये खतरनाक है।

आज भी इसी चालाकी में अनेक लोगों का अनिष्ट हो रहा है। छोटी-छोटी अप्रामाणिक पुस्तक खरीद कर साँप बिच्छु का जहर उतारने, यक्षिणी सिद्ध कर सोने की मुहर पाने की जुगत में लोग बरबाद होते हैं।
इस युग के भी कई बड़े-बड़े विद्वानों ने समाज को गुमराह करने के पूरे उपाय कर दिये है। उपन्यास शैली में तांत्रिक कथाएँ लिखी हैं, लोग उन्हें अक्षरशः सच मानते हैं।

उपर्युक्त की जगह पतंजलि के योगसूत्र, विज्ञान भैरवतंत्र की विधियाँ, ध्वनियों के स्वरूप संबंधी पाणिनीय शिक्षा, बौद्ध तंत्रों के लिये महायान सूत्र, उनके पटविधान, मंत्र साधना संबंधी अध्यायों को ठीक से पढ़ने-
समझने पर ये भ्रांतियाँ नहीं होतीं।

किसी बात को जाने-समझे बिना ही उसके पक्ष या विपक्ष में तत्पर हो जाना अंधविश्वास है। अयोध्या में रामजन्म हुआ, यह कथा सिद्ध प्रसंग है। किसी स्थान विशेष पर ही उनका जन्म हुआ या नहीं यह निश्चय करना असंभव की तरह कठिन है। घट-घटवासी राम, सबके मन में रमण करने वाले राम के सूक्ष्म स्वरूप या चेतन आत्मा स्वरूप को राम नाम के किसी व्यक्ति विशेष में केन्द्रित या सीमित करना अंधविश्वास है। रावण नामक ब्राह्मण की हत्या करने वाले दशरथ पुत्र राम सभी ब्राह्ममणें को भी मान्य नही हैं, मुसलमान या ईशाई की बात क्या करें? ऐसे ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या अयोध्या के आसपास है। यह संख्या लाखों करोड़ों में जाएगी। नई पीढ़ी इस प्रसंग को भूल रही है। इसी में शांति है।

बुधवार, 11 सितंबर 2013

मजहबी दंगों की रोकथाम

मजहबी दंगों की रोकथाम
डॉ. रवीन्द्र कुमार पाठक
मैं संप्रदाय शब्द के पारंपरिक अर्थ से परिचित हूँ इसलिए सांप्रदायिक दंगा कहना गलत समझता हूँ। दंगे तो मजहबी और गैर मजहबी किसी भी प्रकार के हो सकते हैं। संप्रदाय का मतलब होता है किसी खास बात को ठीक ढंग से दूसरों एवं दूसरी पीढ़ी, उत्तराधिकारी तक सही तरह से पहुँचाना। यह केवल ‘दाय’ अर्थात् उत्तराधिकार ही नहीं बल्कि ठीक ढंग से और पूरी तरह से (पंरपरा ज्ञान आदि को)पहुँचाने का अर्थ रखता है।
भारत के सभी संप्रदाय अपने को पूर्णतः ठीक समझते हैं, यहाँ तक तो ठीक है किंतु दूसरे को किसी न किसी रूप में गलत या हीन समझते हैं, यही झगड़े की बात है। भारतीय वैदिक संप्रदायों की कट्टरता यह है कि अपनी श्रेष्ठता एवं पहचान बरकरार रखने के लिये अपनी विद्या, साधना या परंपरा की जानकारी यथासंभव गुप्त रखी जाय और दूसरी परंपरा को उसे प्राप्त न होने दी जाय। दूसरे की निंदा करने की तो परोक्षतः स्वीकृति है पर यहाँ आदि काल से दूसरे के आचार-विचार को बदलने की अनिवार्यता का प्रावधान नहीं है।

भारत में दूसरों के विचारों को बदलने का काम पहली बार संगठित रूप से बौद्धों ने शुरू किया, जिसमें प्रलोभनों एवं प्रभावों का उपयोग हुआ और प्रभावशाली वर्ग की समस्या आने पर उन प्रलोभनों पर बंदिशें भी लगीं। बौद्ध धर्म विश्व का संभवतः पहला संगठित धर्म है जहाँ विचार या धर्म की सत्ता की जगह संगठन की सत्ता को भी बराबरी का दर्जा दिया गया है और संगठन चलाने के नियमों के ऊपर सैकड़ों किताबें विस्तार से लिखी गयी है। बौद्ध धर्म तक धर्म प्रचार के लिए प्रलोभनों तक की मान्यता दी गयी जो ईशाई मत एवं इस्लाम के आने तक धर्मयुद्ध में परिणत हो गई। पहले युद्ध लड़ना धर्मसंगत था परंतु धर्म के लिये युद्ध या दो धर्मों के बीच युद्ध को सामाजिक स्वीकृति नहीं थी।

ईशा एवं मुहम्मद के संगठित धर्मों की समाज पर पकड़ एवं एशिया में बौद्ध-वैदिक धर्म के लोगों की पराजय से एक निष्कर्ष निकाला गया कि बौद्धों एवं वैदिकों को भी संगठित होना चाहिए तथा मुसलमान एवं ईशाईयों की तरह धर्मयुद्ध लड़ना चाहिए। इसके बाद भारत में भी वैदिक, बौद्ध, शैव-वैष्णव, सिया-सुन्नी, मुसलमान, इशाई, सिख, मराठों का युद्ध जारी रहा जिसे धार्मिक कार्य समझा गया। अपने धर्म की रक्षा प्राण देकर भी करना जरूरी समझा गया।

इसके समानान्तर छल-प्रपंच भी चलते रहे। इसके रोचक एवं दारुण अनेक उदहरण मिलते हैं। भारत में भी इस प्रकार के आपसी झगड़े को दूर करने के लिए भी काफी उपाय हुए फिर भी झगड़े एवं दंगे की समस्या आज तक बनी हुई है।

मेरे सामाजिक जीवन की कहानी ही दंगा रोकने की कला सीखने से हुई। इसके पहले छात्रों की सीमा वाले काम सीखने एवं प्रयोग का काम होता था। मैं एक दिन वर्ष 1983 में रेडियो के लिए प्रहसन लिखने का काम बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के बिरला हास्टल की लान में कर रहा था। शहर में कर्फ्यू लगा था। सामाजिक काम कैसे किया जाय, इस पर हमलोगोें की मंडली तरह-तरह के     शोध एवं प्रयोग करती थी जो हर बार नई एवं प्रयोगात्मक रहती थी, मसलन रेैगिंग रोक देना, छात्र संघ का चुनाव रोक देना, मौलिक लेखन, गायन, पेंटिंग की चुनौती पैदा कर स्थापित लोगों को दिग्भ्रमित कर देना आदि। हमारी मंडली बेशक प्रतिभासम्पन्न एवं भयानक दुस्साहसी थी, जिससे बाद में     अपराधीगण भी डरते थे। जबकि हमने कभी किसी भी प्रकार की तोड़-फोड़ या मार-पीट नहीं की। हाँ, जीवंत नाटक, जीवंत कविता एवं जीवंत हस्तक्षेप का प्रयोग अवश्य होता था। मुझे मंडली के प्रयोगवादी खर्च के लिए छात्रवृत्ति (400 रूपये प्रति माह) के अतिरिक्त राशि की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी, जिसके लिए मैं प्रहसन लेखन का काम करता था। डॉ॰ भानु शंकर मेहता जैसे वरिष्ठ प्रहसन लेखक के बाद रेडियो का दूसरा जूनियर प्रहसन लेखक मैं था। इससे भी चार पांच सौ रुपये कमा लेता था।
दंगे की भावनात्मक तपिश तो थी किन्तु समझ नहीं थी कि क्या किया जाय? किसी तरह कफर््यू पास जुगाड़ करने का प्रयास किया गया। जिसमें सफलता तो नहीं मिली पर दंगे के भयावह रूप का साक्षात्कार हुआ। इस मूर्खतापूर्ण और दुस्साहसिक प्रयास का वर्णन मैं ने अलग से किया है।

कर्फ्यू-पास

बात 1982-83 की है। मैं का0 हि0 वि0 वि0 में शोध छात्र था। हम लोगों की एक मंडली थी। उसमें कई जूनियर-सीनियर छात्र थे। बनारस शहर में उन दिनों प्रतिवर्ष हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते थे। दंगा होते ही कर्फ्यू लागू। हमलोग छात्रावास में रहते थे। बस परिसर तक हमारी गतिविधियां हों या जो घर जाना चाहें उन्हें सुरक्षित बस से स्टेशन भेजा जाता था।

शहर में दंगा था, जाड़े का समय, मैं लान में चटाई पर लेटा रेडियो के लिए नाटक लिख रहा था। स्कालरशिप 400 रुपये की थी, हास्य रूपक में मुझे 250 रुपये मिलते तो मंडली का खर्चा चलता। बी0ए0 का एक छात्र आया और ताना मारा कि शहर जल रहा है और भैया आप इतने निश्ंिचत होकर हास्य रूपक लिख रहे हैं, कहाँ गई आपकी संवेदनशीलता?
मैंने समझाया - भाई कर्फ्यू में क्या करें?
उसनेे कहा - यही सोचिए कि क्या करें?
तय यह हुआ कि परिस्थिति का अध्ययन कर कुछ रिलीफ सामग्री वि.वि. से जमा कर दंगा पीडि़तो में बाँटा जाय, कुछ बयान बाजी हो। फिर समस्या सामने आई कि बिना कफर््यू पास के जायें तो कैसे जाएँ।
मेरे मित्र श्री बैकुंठ पाण्डेय जी भी शोध छात्र थे। अंततः हम दोनों ने तय किया कि तत्कालीन जिलाधिकारी भूरे लाल (जो ईमानदारी एवं कड़ाई के लिए कुख्यात थे।) उनसे ही मिला जाय।

योजना यूं बनी कि एक बड़े सादे कागज पर हास्टल में उपलब्ध सभी प्रकार की मुहरें लगाई जायं एवं फर्जी दस्तख्त कर दिए जायँ। हमलोगों ने वैसा ही किया और गली-दरगली घूमते पत्रकार बने श्री भूरे लाल तक पहुँच गए। कर्फ्यू में घूमने का अनुभव विवित्र था। पुलिस वाले कुत्तों को खदेड़ रहे थे। एक सिपाही तो पोल पर ही लाठियाँ बरसा रहा था। बेंत की लाठी झाडू की तरह  आगे के शिरे पर हो गई थी।

किसी तरह जब हमलोग जिलाधिकारी के पास पहुँचे तो श्रीमान् भूरेलाल स्तब्ध। हमने अपनी मंशा/योजना बताई। वे हँसे, बोले आप लोगों ने कानून का मजाक बना रखा है, तब तक नगर पुलिस उपाधीक्षक श्री द्विवेदी आ गए, वे और चकित। उन्होंने पूछा ये लोग क्या चाहते हैं? कर्फ्यू पास? जिलाधिकारी पुनः हँसे - भाई हमारा कर्फ्यू पास तो आधे पोस्टकार्ड आकार का है आप लोग अपनी कोट पर जिना बड़ा र्क्फ्यू पास चिपकाए हैं उतना बड़ा तो छापा ही नहीं।

इस पास पर जब आप भूरे लाल के सामने खड़े हैं और मैं आपको जेल नहीं भेज रहा हूँ तो समझिये कि आप लोगों के लायक हमारे पास कर्फ्यू पास हमारे पास नहीं है। जरा बचकर लौटिएगा और जाने के पहले गली-मुहल्लों का समाचार भी बताते जाइए।

बाद में हमने दंगा निरोधक तंत्र एवं शास्त्र भी विकसित किया एवं सन् 1985 तक दंगा रोकने में पूरी सफलता पाई। गया में भी मेरा सामाजिक जीवन इसी कार्य से प्रारंभ हुआ।

दंगे का बार-बार होना मेरे मन में सवाल पैदा करता था कि इसका कोई न कोई आपसी तारतम्य होगा जो समझ में नहीं आ रहा है। मैंने सवौदयी लोगों से सीखने का सोचा कि आखिर दंगे में काम कैसे करते है? गाँधी, बिनोवा, जयप्रकाश जैसे व्यक्ति की महानता की कथा और शांति सेना के बगैर क्या केाई साधारण व्यक्ति दंगा रोकने का काम नहीं कर सकता। मैं उस समय शोध-छात्र था।
कफर््यू की हालात में हीं मैं गली दर गली होते हुए राजघाट सवं सेवा संघ के परिसर में पहुँचा। उस समय वहां तीन हस्ती मौजूद थे सर्व श्री रामचन्द्र राही, कृष्णराज मेहता एवं आचार्य राममूर्त्ति  नारायण देसाई जी प्रवास पर थे। इनसे कनिष्ट माने जाने वाले श्री अमरनाथ भाई आदि भी परिसर में ही थे।
शांति सेना के अध्यक्ष होने के नाते मैं पहले राममूर्ति जी से मिला जो कहीं व्याख्यान देने जाने वाले थे। हमारे कुछ प्रश्न थे - बनारस में दंगे की रोकथाम कैसे करनी चाहिए ? आप इसमें क्या भूमिका निभा सकते हैं ? और दंगे बार-बार क्यों होते हैं ?

आचार्य जी का उत्तर था - ‘देखो जी नौजवान, बनारस में दंगे अक्सर होते रहते हैं, बनारस में हमारी ‘शांति सेना’ का संगठन नहीं है। हम अखिल भारतीय स्तर पर काम करते हैं। अगर इन छोटी-छोटी बातों में उलझे रहे तो राष्ट्रीय स्तर का काम नहीं कर सकते।’ उस समय आचार्य जी  अखिल भारतीय शांति सेना के मुखिया थे।

मैं भूखा-प्यासा उदास राही जी के पास गया। उन्होंने कहा - ‘भाई , शांति सेना का काम तो आचार्य जी का है, मैं इसमें क्या कर सकता हूँ। रही बात नौजवानों को काम सिखाने की तो तुम अमरनाथ भाई से मिलो वे सर्वोदय एवं गाँधी मार्ग के टेªनिंग देते हैं।’

मेरा मन दंगाईयों से अधिक इन सर्वोदयी लोगों पर भड़का हुआ था। मन में ठन गया कि इन्हे इस बार शहर बनारस में नंगा करके छोड़ना है ताकि ये बनारस में दुबारा आने की हिम्मत न करें, राजघाट में रहना तो बहुत दूर की बात है और इनसे सीखने को कुछ मिलना नही है, शयद स्वयं भी कुछ नहीं आता। फिर भी अमरनाथ भाई से मिलने चला गया। पहले गुड़-पानी, फिर भोजन तब बात। यह हुई  नौजवानों को सिखाने वाले से पहलेी मुलाकात। गुस्सा कुछ ठंढाया पर उत्तर वही बेतुके कि पहले संगठन था अब मेरी जिम्मेवारी अखिल भारतीय हो गई, समय नहीं है कि कुछ कर सकंे।

अमरनाथ भाई के आवास से निकलते हीं एक साईकिल प्रेमी बुजुर्ग मिले - भगवान काका। उन्होंने राही जी के यहाँ हमारी चर्चा सुनी थी। टोका और रोका। बोले मैं तुम्हें दंगे में काम करना बता सकता हूँ। बुद्धिजीवी सर्वोदयी उन्हें निरा मूर्ख प्राणी मानते थे। उन्होंने अपनी जमा पूँजी से रत्न सूत्र निकालकर मुझे सौपे कि दंगें की हालात में कफर््यू लगने पर निरा बेवकूफी भरा काम न करो। पहले पता होना चाहिए कि इस शहर में वस्तुतः संवेदनशील और उदार लोग कौन हैं। उनके पते एवं फोन नम्बर की एक डायरेक्टरी होनी चाहिए और अखबार बांटने वालों से दोस्ती करनी पड़ती है ताकि अफवाहों के बीच सच्ची खबर जाय। आकाशवाणी की बहुत सकारात्मक भूमिका हो सकती है। मैं तुम्हें कुछ नाम, पते एवं फोन नम्बर के साथ दे रहा हूँ, ये भले लोग है परन्तु ये मुझे ठीक से नहीं जानते। इनसे मदद लेकर कर्फ्यू के बाद शांति पायी की जा सकती है। मेरा मन दंगा-पीडि़तों को राहत पहुँचाने का नहीं दंगा रोकने का शास्त्र जानने का था।

मैं ने फोन पर अपने अदरणीय, परमप्रिय, वात्सत्यमय श्री सत्य प्रकाश मित्तल जी से सारी कथा ब्यथा सुना दी कि अगर गाँधीवादी, समाजवादी और अपने को धर्म निरपेक्ष कहने वाले लोगों ने दंगा रोकने में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई तो मैं सबका भंडा फोड़ करूँगा। वे मेरे स्वभाव एवं मंडली से पूर्णतः परिचित थे। आदरणीय मित्तल चाचाजी समाजवादी आंदोलन वाले और गांधी विद्या संस्थान में कार्यरत थे।
का.हि.वि.वि परिसर में कफर््यू नहीं था अतः हमने कुलपति से लेकर माननीय प्रोफेसरों तक से   अनुरोध किया कि वे दंगा रोकने की अपील करें। बी.एच.यू. के कुलपति और शहर के माननीय लोगों ने अपील जारी करने से इंकार कर दिया क्योंकि कुछ लोगों के लिये यह स्तरीय कार्य नहीं था और मँजे हुए लोग दंगे की राजनीति में परोक्षतः शामिल थे।

इसके समानांतर संवेदनशील नौजवानों की पहल पर मैडम क़मरजहाँ जो उस समय उर्दू विभाग में व्याख्याता थीं कि अगुआई में कफर््यू तोड़कर शहर के मशहूर शायर नजीर बनारसी के आवास तक शांतियात्रा निकालने की घोषणा की गई। अखबारों में दोनों समाचार सप्रयास छपवाए गये, माहौल बनाया गया। हमारे दुस्साहस से परिचित पुलिस प्रशासन ने हमें गिरफ्तार नहीं किया और कर्फ्यू भी वापस ले लिया गया। दंगा निपट गया।
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आदरणीय मित्तल चाचाजी ने मुझे बुलाया और समझाया कि तुम जिल समाजवादियों, सर्वोदयी या वामपंथी लोगों से सक्रियता चाहते हो वे भीतर से खोखले हैं, उनके पास संगठन है ही नहीं तो करेंगे क्या? पूरे शहर में मुश्किल से ऐसे 50-100 लोग हैं जो अपने को अखिल भारतीय या क्षेत्रीय संस्था या संगठन का प्रमुख बताते हैं। उन पर क्रोध ठीक नहीं है। मैं ने पूछा कि सर्वसेवा संघ का क्या शहर के प्रति कोई कर्त्तव्य नहीं है? कहाँ गया पड़ोस धर्म और मैत्री।

दंगा पीडि़तों को राहत सामग्री पहुँचाई गई। चंदा शिक्षकों सं लिया गया। हमारी युवा मंडली का नाम हर महीने दो महीने में बदल जाती थी। चूँकि हम नारद नामकी पत्रिका निकालते थे अतः कुछ लोग की बी.एच.यू. के भीतर हमें ‘नारद परिवार’ भी कहते थे। मित्र मंडली ने तय किया कि -
1. दंगे की समाजमनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझा जाय।
2.  शहर के सज्जनों की सूची तैयार की जाय।
3. परिचर्चाएँ आयोजित हों और
4. ऐसा आदमी ढँूढा जाय जिसे दंगे में काम करने का वास्तविक अनुभव हो।

सर्व सेवा संघ से उसके खोखलेपन से अधिक हम दुर्व्यवहार से पीडि़त थे अतः उनकी उदासीनता नकरात्मकता पर अगले दंगे के समय अखबारों में फीचर छापने का निर्णय लिया गया। धर्मनिरपेक्ष     धारा के कई लोग अब हमसे बात करने लगे थे। बनारस के तीनों विश्वविद्यालयों के समाजशास्त्र एवं संबद्ध विषयों के प्रोफेसरों से बात हुई किंतु किसी से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उस समय राजनीति विज्ञान विभाग में एक विवादास्पद अध्यापक प्रो. हरिहरनाथ त्रिपाठी रहते थे। उनकी रूचि छात्रों को व्यावहारिक राजनीति समझाने में रहती थी। उनकी विचित्रता के किस्से खूब प्रचलित थे। उनके सामने भी प्रश्न रखा गया - दंगा कैसे होता है और इसे कैसे रोका जाय?

त्रिपाठी जी ने कहा - दंगा आरंभ में किसी घटना से शुरू होता है जो अफवाहों के साथ मिलकर एक ड्राईव बन जाता है, अगर तुम कांउटर ड्राइव बना सको तो दंगा रोक सकते हो। मसले पर हल्की रोशनी पड़ी। उलझन यह कि दंगा पता नहीं कब शुरू हो? इतने बड़े शहर में काउंटर ड्राईव कैसे बने? अफवाहों को रोकने की विद्या तो सीख ली गयी थी पर ताकत नहीं थी। त्रिपाठी जी बोले - काउंटर ड्राईव बनाना तुम्हारा काम, मैं उस मामले में कुछ नहीं बोल सकता।
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पैसे तो अपने पास होते नहीं थे। न बैनर, न नाम, न चंदा, न रजिस्ट्रेशन, न पार्टी। राजनीतिज्ञ हमें समझ नहीं पाते थे। पत्रकारों की दृष्टि में हमारी मंडली शिरफिरे बेवकूफों की थी, जो खतरनाक थी। श्री रवीन्द्र भाई जो उस समय सर्व सेवा संघ के अध्यक्ष थे और असम में रहते थे, उनके भाई प्रोफेसर जगन्नाथ उपाध्याय तक मित्तल जी के माध्यम से जानकारियाँ पहुँचीं और उन्हांेने भाँप लिया कि शहर में रहने वाले सर्वोदयी लोगों की प्रतिष्ठा धूल में मिलकर रहेगी। वे एक तो सक्रिय नहीं होते थे और न ही उन पर अखबारी समाचारों का असर होता था। हमारी योजना थी कि सर्व सेवा संघ के लोगों के ह्नदय परिवर्तन हेतु और उन्हें गाँाधी के पड़ोस धर्म की याद दिलाने हेतु शहर में रैली निकाली जायेगी और सर्वसेवा संघ के सामने सत्याग्रह/धरना/उपवास किया जायेगा। प्रो. जगन्नाथ उपाध्याय के कहने पर रवीन्द्र भाई (रवीन्द्र उपाध्याय) की बेचैनी बढ़ी और गाँधी विद्या संस्थान तथा सर्वसेवा संघ की ओर से हमारे मान-मनौवल का पूरा प्रयास हुआ। इसमें नारायण देशाई की बेटी डॉ संघमित्रा बहन, बद्री भाई एवं उनकी पत्नी की विशेष अभिरुचि  रही। उन्होंने कबीर मठ में एक सभा बुलाई और सभी गाँधिवादियों (जो आपस में बिखरे थे), समाजवादियों, धर्मनिरपेक्ष लोगों ने घोषणा की कि तुम लोगों को हमारा समर्थन होगा। विनोबाप्रेमी शरद कुमार साधक ने तो यहाँ तक कहा कि जब हम लोगों के साथ शहर में संगठन है ही नहीं तो ये बच्चे जो कहें हमें मान लेना चाहिए और इस प्रकार एकनागरिक शांति मंच बना, जिसका मैं संयोजक बना। मेरी उम्र उस समय मात्र 23/24 साल थी। राही जी, मेहता जी और राममूर्ति जी के हृदय पर हमारे रोने, गुस्सा करने या सामाजिक कामों का कोई असर नहीं पड़ा। ये ऑल इंडिया बनकर निर्द्वन्द भाव से अपने बंगलों में सुरक्षित रहे। हमने भी लाचारी में गुस्सा थूका, किंतु कसक रह ही गई।

 एक बार बजरंग दल ने सिखों एवं मुसलमानों से बदला लेने की चुनौती दी। जीवन में पहला अवसर था जब खुली चुनौती हो, वह भी सबके सामने, एक गोष्ठी में। दरअसल गोष्ठी शांति के निमित्त बुलाई गई थी, जिसमें खुली चुनौती आ गई।

हमने चुनौती स्वीकार की । अब ड्राईव की जगह काउंटर ड्राईव बनाना था। हमलोगों ने थोड़ा झूठ का सहारा लिया क्योंकि मृतप्राय संस्था-संगठनों को एकजुट करने से अच्छा या कि सभी के बैनरों तले शांति मार्च निकाले जाएं। अफलातून अपना प्ले काडर््स हाथ में रखने वाली तख्तियाँ इस शर्त के साथ देने पर तैयार हो गए कि उन्हें चुनाव-प्रचार के लिये सही सलामत वापिस मिल जाए। 15-20 से 30-40 की संख्या में वरिष्ठ लोग और 20-25 नौजवानों की अपनी मंडली रोज जूलूस निकाले। जिसे अखबार में नाम छपवाना हो, उसे हमारे नाश्ते भोजन की व्यवस्था पक्के तौर पर करनी पड़ती थी। हम अपना नाम नहीं छपवाते थे। इस प्रकार 15-20 रैलियों एवं अपीलों से एक माहौल बन गया। कम्यूनिस्ट पार्टी के लोगों ने भी दूरी बनाते हुए अपनी रैली निकाली। काँग्रेस, भाजपाई परेशान, संघी ठिठके हुए कि अचानक शहर बनारस में इतना उत्साह और जागृति कहाँ से आई कि सभी मैदान में कूद गए।

एक दिन उपद्रवियों का मनोबल तोड़ने के लिए विशाल मार्च निकाला जाना तय हुआ। इस बार सभी धाराओं के उदार लोग एकजुट हुए। इस रैली/मार्च की खाशियत यह थी कि दिन भर पूरे शहर में घूमने वाली थी। आरंभ बिंदु तय था किंतु भ्रमण पथ और समाप्ति तय नहीं थी। समसामयिक समाचारों से भरे पर्चे प्रेस से ताजे-ताजे छपते और बंटते थे।

प्रशासन, पुलिस, गुप्तचरवाले परेशान कि आज होगा क्या? आरंभ विंदु पर 500 लोगों से आरंभ कर अंत तक 2000 लोगों की लंबी कतार गली दर गली घूमी। चूँकि रास्ता न पहले से तय था न रैली पर उपद्रवी पत्थर आदि फेंक सके। गोपनीयता ऐसी कि संयोजक को भी पता नहीं। हर चौमुहाने/दोमुहाने पर ही अगली दिशा तय होती थी।

उपद्रवी हार गए, मान बैठे कि इस बार एकाध हत्या भले हो जाय, दंगा नहीं होगा। हमें भी अहंकार हो गया। साथ ही सालाना रश्म की तरह दंगा कराने वालों या मनमुताबिक दंगा कराने वालों को भी यह सालने लगा कि कोई समूह दंगा रोकने की व्यवस्थित कार्य प्रणाली विकसित करे यह तो ठीक नहीं। नई पीढ़ी के उदीयमान धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञों को भी भीतर-भीतर बात साल रही थी। लिहाजा दो धर्म निरपेक्ष महानुभावों ने दंगा कराने का निर्णय लिया। एक थे प्रसिद्ध गाँधीवादी, पूर्व पत्रकार, पूर्व केन्द्रीय मंत्री, वगैरह उपाधि से विभूषित।
बनारस के औरंगाबाद इलाके में दंगा हुआ। दो-तीन लोग मारे गए। हमें भी बड़ी चिंता हुई कि अब क्या करें? खैर, सच हाथ लगा। हमने रेडियो पत्रकार बन सीधा उन्हीं से उनके घर जाकर दंगा रोकनी की अपील करने को कहा। युद्ध मनोबल और दक्षता का था कि हमें मालूम है कि दंगे के पीछे कौन है, और हम आपका भंडा-फोड़ भी कर सकते हैं। गालियों की बौछारों से हमारा स्वागत हुआ। गुडों को हमें पीटने का आदेश दिया गया। हमने भी हिम्मत नहीं हारी, हम उनके पुत्रवधू से मिले और कहा कि अगर आप अपनी राजनीति चमकाना चाहती हैं तो आप ही अपील जारी कीजिए वरना हमारी भी रोजी-रोटी का मामला है, हमें कहना तो पड़ेगा ही कि दद्दा ने अपील जारी नहीं की।

हमारे नाश्ते पानी के बंदोबश्ती के साथ-साथ बहूजी ने अपील जारी की। दूसरे दिन से शांति बहाल हो गई। राजनैतिक गलियारे में चर्चा रही और हमारे बनारस में रहते दंगा नहीं हो सका।
ठीक इसी तरह एक धर्मनिरपेक्ष डाक्टर साहब थे। वे हिन्दू-मुसलमान ही नहीं शिया-सुन्नी के बीच भी दंगा-फसाद कराने में प्रवीण थे। बनारस छोड़ने के बाद मुझे उनका रहस्य पता चला। उस्ताद इतने कि हमारी शांति समिति के सदस्य भी थे।

इस घटनाओं के बीच के अंतराल में हमने सीखने का काम जारी रखा। यह सीखना ब्यक्तिगत चर्चा संपर्क यात्रा से लेकर सभा-संगोष्ठी में सक्रिय भागीदारी तक के रूप में रहा। इस शिक्षा के निष्कर्षसूत्र निम्न हैं -
स्थितियाँ:-
दंगे प्रायः पूर्व नियोजित होते हैं।
अफवाह शुरू में फैलाना पड़ता है, बाद में स्वंय दिन-दूरी रात-चौगुनी की गति से अफवाहें नए-नए रूप धारण कर फैलती हैं।
कर्फ्यू में पुलिस बहसी हो जाती है। आदमी न मिलने पर कुत्तों एवं कोई न मिलने पर बिजली-टेलिफोन में खंभांे तक को पीटने से नहीं छोड़ती।
हिन्दू, बौद्ध, मुसलमान, ईशाई एवं सिख इन सभी के मन में लाख सदाशयता के बाद भी अपने को श्रेष्ठ मानने/साबित करने की वासना बची रहती है।
सनातनी परंपरा वाले एवं दिगंबर जैनियों को छोड़कर बाकी के सभी लोग दूसरे को अपनी मंडली/धर्म में सम्मिलित करने के प्रलोभनकारी या दवाबकारी उपायों को उचित मानते हैं।
भारतीय मुस्लिम जमींदार परिवार के लोगों को यह पीड़ा सताती रहती है कि अंग्रजों के बाद उनकी हुकूमत क्यों नहीं रही? वे अपने को ठगा हुआ महसूस करते हैं? शायद किसी को समझ नहीं आता कि भारत का धर्म आधारित बँटवारे का असली रूप क्या होता?
मुस्लिम सवर्णों की तुलना में मुस्लिम असवर्ण अधिक उदार होतें हैं, किंतु हिन्दू असवर्ण नहीं।
इस्लाम एवं ईशाई पुरोहित तथा मौलवी सूफियों के खिलाफ हैं, और सच में सूफियों की स्वीकृति हिन्दू समाज में है न कि मुसलमानों में। कबीर पंथ तो केवल हिन्दू लोगों में ही मान्य है।
बहुत सारे दंगे चुनावों में वोट का घु्रवीकरण एवं बाजार में वर्चस्व के लिये कराये जाते हैं।
शहरों, कस्बों में ही अक्सर दंगे होते हैं। गाँवों में दंगा फैलाना मुश्किल है क्योंकि अफवाहें तुरंत मर जाती हैं। मुस्लिम कट्टरवादी ताकतें गाँवो में तनाव फैलाने से डरती हैं कि प्रतिक्रिया बहुत भयावह होगी।
ईशाई कट्टरवाद बहुत व्यवस्थित और संगठित होता है। पकड़ जाने पर वे मुलायम होकर काम निकाल लेते हैं।
ईशाई, मुस्लिम एवं हिन्दू कट्टरवादी ताकतों को राष्ट्रहित के विरुद्ध जाने एवं विदेशी ताकतों से हाल मिलाते देर नहीं लगती।
हथियार बेंचनेवाले सर्वाधिक निष्पक्ष होते है। वे धर्मों, जातियों में अंतर नहीं करते, चाहे ऐसे सौदागर अंतरराष्ट्रीय स्तर के बड़े हों या ग्रामीण स्तर के छोटे।
अखबारी लोगों की समझ प्रायः संकुचित होती है।
पुलिस अक्सर पक्षपात करती है।
धर्म की सांगठनिक एकता एवं लगाव तथा राष्ट्र प्रेम का द्वन्द गहरा होता है, अगर वह राष्ट्र मिश्रित आबादी वाला हो।
जैन को छोड़ सभी मतों में मूलतः दो ही कोटियाँ हैं- धार्मिक या विधर्मी। कोई भी धर्म अपने अतिरिक्त दूसरे को स्वीकार नहीं करता।
भारतीय संस्कृति एवं धर्म का लचीलापन अन्य को पचता नहीं है।
अब छूआछूत की चंगुल के ढीला पड़ते ही ईशाई एवं मुसलमान सांस्कृतिक दृष्टि से डरे-डरे रहते हैं।
उदारवादी हिन्दू संप्रदाय जैसे - आर्य समाज आदि सनातनियों से अधिक कट्टर हैं।
हिन्दू-मुसलमान वस्त्र व्यवसायी अधिक लड़ते हैं और हीरा व्यवसायी सबसे कम।
वामपंथी लोगों को मुस्लिम कट्टरवाद कम बुरा लगता है और इतिहास की घटनाओं के केवल एक पक्ष को देखते हैं। इसी तरह संघी लोग सभी मुसलमानों में दोष देखते हैं।
आधुनिक मिश्रित कालोनियों में दंगे न के बराबर होते हैं।
समाधान/अनुभूत उपाय:
दंगों को रोका जा सकता है।
विश्वसनीय एवं तटस्थ लोगों द्वारा खंडन किये जाने एवं मीडिया के समर्थन से अफवाहें रुक सकती हैं।
टेलिफोन/मोबाईल का उपयोग अफवाह रोकने में किया जा सकता है।
दंगा रोकने के लिये धर्म के गंभीर मुद्दों की चर्चा न कर मानवता का आधार लेना चाहिए।
पुलिस-प्रशासन प्रायः दंगा फैलाना नहीं चाहता पर राजनीतिज्ञों के दवाब में उसे बढ़ाता है। अतः दंगा रोकने के लिये सत्ताधारी एवं विपक्षी दोनों दलों के कुछ प्रभावशाली नेताओं से पूर्व संपर्क एवं समर्थन जरूरी होता है।
तटस्थ नागरिकों की अपील एवं शांतिमार्च बहुत उपयोगी होते हैं।
ऐसे कार्यों मे पूर्णतः तटस्थता एवं सच्चाई पर चलना जरूरी है।
संवेदनशील इलाकों में पहले से ही नेटवर्क बनाकर रात्रि पहरे के लिये फोन-बूथ बनाना उपयोगी होता है।
कार्यक्रम को उपद्रवी लोगों से बचाने के लिए पहले से यात्रा की दिशा एवं गंतब्य तय नहीं करना चाहिए।
दंगा रोकने में स्थानीय संबंधों को आधार बनाने से बहुत सुविधा होती है। ईश्वर का राज्य या धर्मराज्य, रामराज्य बनाने का दावा या औचित्य केाई भी संगठन खुलेआम नहीं साबित कर पाता और उसमें भी छल-बल के प्रयोग का तो औचित्य हीं नहीं है, न कह पाता है। प्रायः प्रतिक्रिया दर प्रतिक्रिया को सही ठहराया जाता है। जिसका सीधा उत्तर होता है - हमें जब यहीं साथ रहना है तो दूर के झगड़े को क्यों लाएँ, क्या स्थानीय युद्ध से देश-विदेश की समस्या का समाधान हो सकता है?
जहाँ कहीं भी कट्टरवादी शिक्षा के केन्द्र होते हैं वहाँ स्थाई शांति या प्रेम संभव नहीं होता। व्यवहार में ऐसे केन्द्र धर्म को आचरण की जगह राजनीति के आधार के रूप में घोषित करते हैं, या प्रयोग करते हैं। अतः कौवाली, मुशायरा आदि संस्कृतिक कार्यक्रम के बारे में भूलकर भी इनसे या मौलवियों से राय/अनुमति लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। आम जनता तो इसमें रूचि रखती ही है और कट्टरवादी भी अपनी दरगाह को थोड़े ही तोड़ेगे न कौवाली मुशायरा बंद कराने आएँगें।
धर्म पर नास्तिकतावादी टिप्पणी करने से बेहतर यह कहना है कि हमें तो ठीक-ठीक पता ही नहीं कि सच्चाई क्या ह?ै यह ऊपर वाला ही जाने। यहाँ हमें मिल-जुलकर रहने से खुदा या भगवान जो भी होगा, खुश रहेगा।
जिन शहरों में दंगे प्रायः होते हैं वहाँ कुछ स्थाई किश्म की समस्याएँ बनाकर रखी जाती हैं ताकि जब जरूरत हो, उस मसले को विवाद का कारण बनाया जा सके।
नागरिक अपील में गैर धार्मिक छवि के अराजनीतिक लोगों से अधिक पारंपरिक एवं धार्मिक छवि वाले अराजनैतिक लोगों की बातों का असर होता है।
कुल मिलाकर सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उन्माद एवं शांति की आवाज में से किसकी आवाज अधिक बुलंद है और लगातार विश्वसनीयता पूर्वक लोगों तक पहुँच रही है। स्वाभाविक है कि ऐसा काम अचानक से नहीं किया जा सकता। यह तो उस शहर के सज्जन, अनुभवी एवं भरोसेमंद लोगों के बल पर ही हो सकता है।

बनारस छोड़कर मैं गया में रहने लगा तो एक बार ऐसा संकट बाबरी मस्जिद तोड़ने की रात यहाँ भी आया। गया शहर में तनाव तो शिलापूजन एवं कार सेवकों की यात्रा के समय से ही बना हुआ था। चूँकि पुराना इतिहास दंगे का नहीं है अतः दंगे की न तो व्यवस्थित तैयारी थी, न ढाँचा। फिर भी हम लोगों ने ऊपर वर्णित उपायों को आजमा कर उस हाल में भी शहर की शांति बनाए रखी।

आम आदमी का संवाद

 कुछ महीनों बाद पुनः एक आशंका उभरी। तबलीकी की जमात का बड़ा अखिल
भारतीय स्तर का जलशा करने का निर्णय गया में तबलीकी जमात की ओर से किया गया था। 4 लाख की आवादी वाले शहर में बाहर से 1 लाख लोगों के आने का अनुमान था। प्रशासन डरा हुआ था। प्रशासन ने रेलवे स्टेशन, बस स्टाप वगैरह से समारोह स्थल तक लोगों केे आने-जाने के मार्गों का निर्धारण किया। फिर भी तबलीकी जमात के लोगों ने पूर्णतः सहजता का परिचय दिया। शहर के विभिन्न गली, नुक्कड़ों से गुजरते हुए लोग समारोह स्थल पर पहुँचे। जहां मन किया नमाज पढ़ा और खाना खाया। हाँ नमाज पढ़ने से पहले मकान मालिक से अनुमति माँगी तो भला कौन नमाज पढ़ने से रोके, भगवान या खुदा नाराज होगें तो ? घर से माँग कर पानी पिया और साथ में लाया हुआ खाना खाया। जलसा पूरा हुआ, लोग उसी तरह धीमी गति में गपशप करते चले गए। इस सहज मिलन में दंगे की कोई तरकीब काम नहीं आई। प्रशासन एवं राजनीति को भी थोड़ा यश देना ही चाहिए क्योंकि लालू प्रसाद जी एवं उनके अनुयायी ‘माई’ मुस्लिम $ यादव समीकरण वाले थे और गया में उसके अनुयायियों में मुस्लिमों में शेख और हिन्दुओं में यादव के बिना लड़ेगें कौन ? लड़ाने वाली जातियाँ अन्य हो सकती हैं। छोटी-मोटी बातों पर स्वयं लड़ने की हिम्मत सबको नहीं होती। इस प्रक्रिया में लोगों में आपसी धार्मिक चर्चा भी हुई। अखबार एवं बोट बैंक वाले दुःखी रहे। अखबार के लोगों ने मस्जिद तोड़े जाने पर सवाल पूछा? मौलाना साहेब ने कहा अल्लाह की बंदगी करने की जगह मस्जिद तो होती है। अगर खुदा ने ही मस्जिद की हिफाजत नहीं की तो उसकी मर्जी, वो जाने, उसकी इबादतगाह को उसके बंदों ने तोड़ दिया, तो मैं इस पर क्या करूँ? और तबलीकी जमात के लोग क्या करेंगे? उनका काम अल्लाह के बताए रास्ते पर चलना है, बाकी का काम अल्लाहताला का है।
काश! यह बात और लोगों की भी समझ में आ जाती।

रविवार, 8 सितंबर 2013

बहुरंग: सम्मोहन/विमोहन

बहुरंग: सम्मोहन/विमोहन: मैं सम्मोहन की दवा नहीं बेचता मानसिक उलझन, थकान, तनाव जीवन के सहज घटक हैं। इनका सहज समाधान प्रयास, विश्राम, सुख एवं दुख के भोग तथा...

सनातन धर्म समझ में क्यो नहीं आता?

सनातन धर्म समझ में क्यो नहीं आता?

समझ में इस लिये नहीं आता कि हम समझना नहीं चाहते। अपनी-अपनी सुविधा से उसे मानना मनवाना चाहते हैं। अपनी सुविधा वाले मामले को ही असली और दूसरे को नकली कहना और साबित करना चाहते हैं। चूंकि अनेक लोग ऐसा करते हैं इसलिये फिर भी सनातन धर्म की विविधता बनी और बची ही रह जाती है। यही तो है सनातन धर्म का मूल स्वरूप।
धर्म शब्द के कुछ व्यापक अर्थ हैं, जैसे-
क- स्वभाव, अग्नि का स्वभाव है जलाना, गर्मी देना। यह किसी के अस्तित्व के साथ ही सहज होता है।
ख- कर्तब्य- यह नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि मानदंडों पर आधारित होता है। यह मानव द्वारा समय एवं क्षेत्र के अंतर से सांदर्भिक रूप से निर्धारित होता रहता है। इसमें संशोधन भी होते हैं।
ग- व्यवस्था- इसके अंतर्गत अनेक प्रकार की व्यवस्थाएं आती हैं।
घ- अतीन्द्रिय अनुभव, सृष्टि के संचालन के सिद्धांत। इसके विभिन्न सिद्धांत हैं। मन एवं सृष्टि को जानने तथा उसे नियंत्रित करने के अनेक उपाय भी इसके अंतर्गत आते हैं। 
पहला अर्थ दूसरे , दूसरा अर्थ तीसरे एवं तीसरा चौथे का आधार है। ऐसा न मानने पर जो कोई भी निर्णय होता है वह आधार हीन से अनेक प्रकार की उलझनें एवं विसंगतियां पैदा करता है। मनुष्य जब जिस संदर्भ में सत्य एवं स्वभाव के अनुसार कर्तब्य का निर्धारण करता और व्यवस्था बनाता है तब इन सभी स्तरों पर संगति बनती है और उसमें सफलता भी मिलती है। जब कभी इस सहज सत्य को छल या बल के आधार कोई नकारता है वह वस्तुतः निराधार होता है।
भारत में धर्म शब्द का प्रयोग जब इन सभी अर्थों में होता है तब आप किसी एक छोटे ही अर्थ तक उसे कैसे संकुचित कर सकते हैं? ऐसा करना अपने आप को ठगना है। जी हां, ठगी दोनो स्तर पर होती है। अपने ज्ञान की सीमा को न मानना, अपनी पसंद या परंपरा को दूसरे पर लादना, धर्म के नाम पर छल एवं बल के प्रयोग की छूट देता है। जब भी कोई आधार भूत बातों के बल पर उसे चुनौती देता है वह हिलने लगता है। 
यह है सनातन धर्म की व्यापक, सच्ची और उदार समझ। इसीलिये यह सनातन है। इस कुंजी से आप अनेक ताले खोल सकते हैं। मर्जी आपकी आप किधर जायें। कोई भी सवाल सामने रख कर अजमा सकते हैं। उत्तर में संगति न बैठे तो समझिये कि कहीं गड़बड़ है।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

विमोहन/ Dehypnotizing

विमोहन/ Dehypnotizing 7
A real book, which could not be believed, but absolutely real. It is my personal experience with the book. I have tried it many times and always found correct and true.
I was suffering from a hypertension and hyper acidity with uncontrolled apatite in my student life. Usually I needed food as for 6 people every day or very high protein diet. I know my guilt, it occurred due to some experiments in the field of meditation and other disciplines. High secretion was a psychosomatic disorder and it was non curable with drugs. Whenever I tried any method to resolve the issue, it worsened. Finding out the cause was not enough, at this stage the book helped me. I am grateful to the great author and my local social guardian Mr. S.P. Mittal a senior freedom fighter and social scientist. 
I had changed my own personality with the help of this book. Strange about this is that the author is neither a psychologist nor psychotherapist, he is a Plastic surgeon of Italy. Here “is”  denotes my wishes for him , actually he may not be alive.
In 1080 when the computer was not available for common people in India I have a theoretical idea about basic features of computer human mind as well. The author has well explained these items like a handling manual of any electronic instrument. We are not slave of mind rather we have a mind and we could take its services, operate it and we can change the settings with our effort as per our need.
Sleep is more useful for learning. Of course I learnt motor cycle driving in sleep, you may not believe. If I tell more it will reduce your interest.
One friend has told that there is a link to access the book from net. This amazing book is “Psycho Cybernetics” by Dr. Maxwell Maltz, 29th reprint was published in 1979 by Pocket Books, New York.



विमोहन/ Dehypnotizing 6
Be aware of twilit sentences of TANTRA books. They have been coded and there is an open declaration that let this book destroy our rival practitioner who is just like enemy and them too who are not grateful to the tradition of tantric practices of the particular school which that book belongs to.
I think Aashaaraam is also suffering from a mental problem. He is hypnotized by a twilit statement of Tantra- in Sanskrit –
‘NITYAM BAALAA SEBYAMAANAA NITYAM WAI BARDHATE BALAM’. The foolish and dangerous meaning will be ‘if girls are used regularly, the power increases always.’
Actual and fortunate meaning will be if the medicinal plant Balaa is used regularly it improves the strength of the personality.

विमोहन/ Dehypnotizing 5
World is suffering from various type of hypnosis. We all suffer any time. The agony is that sufferer does not recognize that he/she is sufferer. Till it becomes clear to the sufferer the time has gone away.
Once I had been little affected indirectly by Aashaaraam “Bhonpoo”. As I have interest in behavioral psychotherapy with Indian methods, symptoms of psychological illness are more obvious to me than a lay man. Once a lady relative of mine got hypnotized by so called SATSANG of Aashaaraam. Her entire personality was changed. A naughty and pleasant personality was doing Jap of Bhagawan and Guru without any break. Her family members were also very pleased on this. As a relative I warned them against such sudden change but they blamed me too.
Only after 2 months the lady has to be taken to the Psychotherapist and still she is not fully normal, suffering from long affects of seduction. Her husband also became depressed latter on.

Why it happened so? Actually they were in search of CHAMTKAAR to solve their family burden. But burden increased. A heavily loaded, burdened personality is afraid of his/her failure and wants to make other responsible for his/her failure and decision whether right or wrong. Such personalities are actually always ready to be seduced and cheated. Friends accept the reality whatsoever existing in your life. As a human we do more times right but sometimes wrong too. It is normal. Try to rectify if possible otherwise accept it this attitude will save you from such type of BAABAAS.