रविवार, 14 दिसंबर 2014

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह 3


सवाल कई हैं, जिनकी उपेक्षा की गई। भारत जब सोने की चिडि़या थी तो किस रूप में? क्या सच में केवल कृषिप्रधान समाज इतना सुखी और धनी था? क्या यहां शिल्पों/कारीगरी का विकास नहीं हुआ था? यदि हां, तो कैसा? किस रूप में? धर्म भारतीय जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा तो फिर क्या गुलामी के अतिरिक्त और उसके पूर्व यह भीतरी और बाहरी कारणों से प्रभावित नहीं रहा? यदि हां तो कैसे? हजार साल से अधिक पुराना बौद्ध धर्म भारत से खाशकर अपने पुराने आधार क्षेत्र से कैसे गायब हो गया? कोई न कोई प्रक्रिया तो बनी होगी? क्या किसी कत्लेआम की कोई सूचना मिलती है।
ऐसे प्रश्नों से आधुनिक इतिहास लेखन भागता रहा है। एक मूर्खतापूर्ण काहिलाना तर्क ढूंढ लिया गया कि गुलामी के दौरान सब समाप्त हो गया। या तो गुलामी के पहले का पूछिये या बाद का। सच यह है कि इन इतिहासकारों को समाज एवं सत्य से कोई लेना देना नहीं? मैं आये दिन इनके कुतर्कों से दुखी होता हूं। इनके निष्कर्ष प्रायः शोध के पहले ही धारणाओं के आधार पर तय किये जाते हैं। फिर सूचनाओं को उसी हिसाब से सजा दिया जाता है। वामपंथी इस तरह सजाते हैं कि सामंतवादी अत्याचार उत्पीड़न का बिंब निकले, समाजवादी वर्ग संधर्ष की जगह हर बात में वर्ण संघर्ष खोजते हैं। भाजपाइयों/संघियों ने रामराज्य पकड़ लिया है।
10 वीं शताब्दी ई के बाद पालकालीन घटनाओं, सिद्धों के प्रयास, भारतीय शिल्प शास्त्र का विकास, चिकित्सा शास्त्र की विविधता, पुराण आंदोलन, भक्ति आंदोलन पर तो आपको सामग्री इतिहास में मिलेगी ही नहीं क्योंकि संास्कृतिक इतिहास की ओर कौन सोचे? उसके लिये तो समाज में जाना होगा और समाज अपने ढंग से विकसित हुआ न कि मार्क्सवादियों या संघियों के हुक्म से।
राहुल सांकृत्यायन जैसा बौद्ध शास्त्रों के बारे में सफेद झूठ लिखने वाला नहीं मिलेगा। इसलिये पढ़े-लिखे बौद्ध भी उनकी स्थापना को प्रमाण नहीं मानते। जो पुस्तकें उन्होने ला कर दीं उनका बहुत महत्त्व है। तंत्र शास्त्र और परंपरा आम आदमी से जुड़ कर चली। यह न संस्कृत पंडितों को मान्य है न लामाओं को। मैं ने जब सीधे-सीधे पुस्तकें खोल कर उनके सामने रखीं तो सभी ने मुझे चुप रहने को कहा कि आम आदमी को सच न बताया जाय। मैं क्यों चुप रहूं? मुझे कोई पसंद करे या न करे, जिज्ञासु होगा तो तथ्यों को मिलायेगा। इसके बाद मुझे कुछ कहे की जरूरत ही नहीं।

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