मंगलवार, 17 सितंबर 2013

अनंत की चौदह गाँठें


अनंत की चौदह गाँठें

ब्राह्मण एवं श्रमण धाराओं के दार्शनिक पक्ष-विपक्ष की चर्चाओं से संबंधित साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अन्य धाराओं से इसके शास्त्रार्थ से संबंधित पर्याप्त सामग्री भी मिलती है लेकिन बहुसंख्यक आबादी को तत्त्वचिंतन की नीरस बहस में बहुत अधिक मन नहीं लगता। पूजा, अनुष्ठान, व्रत, उत्सव आदि के माध्यम से जो बिंब और जीवनमूल्य सामने आते हैं उन्हीं जीवनमूल्यों और बिंबों के साथ जुड़कर वह जीता है, खुशी मनाता है, सही-गलत का अनुभव करता है और प्रायश्चित तथा परिष्कार जैसे काम भी करता रहता है।
जैन धर्म की मूल मान्यताओं एवं दूसरी धाराओं के साथ उसके विरोध से आम आदमी को बहुत कुछ लेना-देना नहीं है। भगवान बुद्ध एवं उनकी धारा भी अहिंसा की बात करती है फिर भी वज्रयान में मांस सेवन, बलि इत्यादि स्वीकृत हैं। बौद्ध धर्म के अनुयायी सुविधापूर्वक सभी प्रकार के मांसों का सेवन कर ही रहे हैं। इस दृष्टि से जैन थोड़े भिन्न्ा लगते हैं क्योंकि आज गृहस्थ जैन भी प्रायः शाकाहारी हैं, मांसाहार अपवाद है।
रही बात श्रद्धा, पूजा, उपासना की, तो जैनों का स्वभाव भी मुख्य  बहुसंख्यक धारा के समान ही है। मुख्य धारा में जो असंख्य देवी-देवताओं को मानती है उसमें 24 तीर्थंकर, पùावती और कुछ यक्ष, ऐसे 25-50 लोगों का समावेश देवी-देवता के रूप में कर लिया जाना कोई गंभीर समस्या वाली बात नहीं है। उनके नाम पर भी कोई उत्सव मनाया जाता है तो उत्सव में सम्मिलित हो लिया जाए, फूल, प्रसाद चढ़ा लिया जाए। यदि कोई आचार्य या विद्वान दूसरी व्याख्या कर दे रहें हो तो दूसरी व्याख्या को भी मान लिया जाय।
इन्हीं सरलताआंे एवं सुविधाओं के बीच मगध के आम आदमी के सरल-सहज मन के बीच वर्चस्व के ताने-बाने जब बुने जाते हैं तो कैसा चित्र बनता है, इसी प्रक्रिया के एक उदाहरण के रूप में आगे विवेचन किया जा रहा है। मगध में जैन परंपरा के प्रतीकों का मानवीकरण एवं वैष्णवीकरण का काम रोचक ढंग से हुआ। इस प्रक्रिया में संख्यावाचक भावों का मानवीकरण एवं मानवीकृत बिबों के अमानवीकरण जैसी विपरीत प्रक्रिया भी अपनाई गई। जैन परंपरा का ‘पंच परमेट्ठि’ ‘पंचपरमेश्वर’ जैसे बिंब में बदला तो ‘14वां’ जैसे निश्चयात्मक संख्यावाची विशेषण ने एक वचनात्मक, निश्चयात्मक चौदहवाँ अर्थ लिया फिर चौदह भुवनों वाले अर्थ में प्रतिष्ठित हुआ।
पूजा, अनुष्ठान की प्रणालियों एवं सामग्रियों का समन्वित रूपं यह है कि बहुसंख्यक आबादी, जो वैदिक/वैष्णव धारा की है नालंदा, पावापुरी, राजगृह, पार्श्वनाथ के इलाके को सहज ही जैन तीर्थ क्षेत्र मानती है। नालंदा का पुराना नाम कुंडलपुर है। नालंदा नया नाम है। इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक जैन तीर्थ क्षेत्र मगध में है। फिर भी बाहरी आबादी को छोड़कर इस समय मगध में स्थानीय आबादी जैन मतावलंबी नहीं है।
डॉ राधाकृष्ण चौधरी आदि के अनुसार पहले भी वज्जियों में, जहाँ गणतंत्रात्मक व्यवस्था थी, जैन धर्म का मुख्य प्रभाव था। इतिहास जो भी हो इस समय जैन धर्म के जो भी अनुयायी हैं वे बाहर से आकर बसे हुए अग्रवाल बिरादरी के लोग हैं। इसी कारण वे सुविधा से कभी जैन, कभी अग्रवाल, कभी गोयल कभी कुछ नामोपाधि का प्रयोग करते रहते हैं। आरा शहर जैनियों का गढ़ माना जाता है। वहाँ के प्रो0 राजा राम जैन के भाई एवं पुत्र गोयल उपाधि लिखा करते हैं। रक्तसंबंधों मे ंभी कोई समस्या नहीं होती।
इससे भिन्न्ा स्थानीय आबादी में जैन मत के बिबों एवं तत्त्वों का पूर्ण वैष्णवीकरण हो गया है। इसी प्रकार जैन भी तांत्रिक प्रभाव में है। उनके यहाँ भी यक्ष-यक्षिणियों की पूजा, बलि आदि संपन्न्ा होते हैं। यक्षिणियों में पùावती प्रमुख रूप से पूज्य हैं। भैरवपùावती कल्प एक प्रमुख तांत्रिक ग्रंथ हैं जो जैन मत में स्वीकृत है। इसी समन्वयात्मक पृष्ठभूमि में यहाँ चर्चा की जा रही है।
जैन परंपरा के चौदहवें  तीर्थंकर अनंतनाथ हुए हैं। जैन परंपरा में इनकी जयंती भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी को मनाई जाती है। ठीक इसी दिन वैष्णव शैली में अनंत भगवान की पूजा की जाती है एवं खूब धूमधाम से उत्सव मनाया जाता है। अनंत चतुर्दशी का उत्सव आधे दिन का उत्सव है। दोपहर के पहले स्त्री-पुरुष, बाल-बृद्ध, सभी नदी तालाबों में स्नान करते हैं। सुंदर कपड़े एवं साज-सज्जा के साथ किसी धार्मिक स्थान या पूजा-स्थल जहाँ पूजा का सामूहिक आयोजन हो रहा हो, सभी पहुँचते हैं। सभी लोग अपने घर से पूजा की अन्य सामग्रियों के साथ एक कटोरे में दूध एवं एक थाली में अनंत की प्रतिमा ले जाते हैं।
अनंत की प्रतिमा दो प्रकार की होती है। धातु, सोना-चाँदी या सूत की। अनंत की सूत की प्रतिमा में चौदह गाँठंे होती हैं। इसे पूजनोपरांत स्त्री बाएँ एवं पुरुष दाहिने हाथ में रक्षा या ताबीज की भाँति बाँधते हैं। तिब्बती रक्षा ठीक इसी प्रकार की होती है केवल गाँठों का अंतर होता है। धातु वाली प्रतिमा में चौदह घाट होते हैं। इसे बाजूबंद की तरह पहना जाता है। अब धातु का अनंत पहनना चलन में कम है किंतु सूत के अनंत लोग प्रायः अभी भी पहनते हैं।
पूजा के दिन मध्याह्न में पकवान भोजन बनता है जिसमें पूड़ी एवं सेवई मुख्य होती है। दोपहर में ही पूजा, कथा, प्रसाद, व्रत, पारणा सभी संपन्न्ा हो जाते हैं। यह व्रत कम, उत्सव अधिक है।
इस संक्षिप्त चर्चा के बाद इसके घटकों  की समीक्षा की जा रही है जिससे संयोजन एवं समन्वय की प्रक्रिया स्पष्ट होगी। इस पूरे प्रकरण में 14 की संख्या, रक्षा या प्रतिमा जो हाथ में बाँधी जाती है। उत्सव का माहौल, ‘अनंत’ शब्द एवं अनुष्ठान के समय अनंत फल पर टिप्पणी, क्षीर समुद्र में अनंत फल की खोज एवं उसे माथे पर बिठाने का भाव तथा कथा के भीतर के कटाक्ष एवं बिंब महत्त्वपूर्ण हैं। अनंत व्रत कथा की पोथी आसानी से बाजार में उपलब्ध है।
यहाँ मूल घटकों पर विचार किया जा रहा है-
चतुर्दशी
भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी दोनों धाराओं में स्वीकृत है।
अनंतनाथ एवं उनका जन्मोत्सव
अनंतनाथ चौदहवें तीर्थंकर हैं। उनकी जयंती भाद्रपद (भादो) शुक्ल चतुर्दशी को मनाई जाती है।
14 की संख्या
चौदहवें तीर्थंकर की जगह तीर्थंकर को हटाकर 14 भुवनों वाले नारायण रूपी विष्णु की पूजा का विधान कर दिया गया है। इसी के प्रतीक स्वरूप गाँठो वाली धागे की रक्षा या आकृति अथवा धातु की जेवर के समान प्रतिमा बनती है।
रक्षा या प्रतिमा
इस प्रकिया में अनंतनाथ की स्पष्ट मूर्ति रक्षासूत्र में परिवर्तित हो कर सामान्य जन के आकर्षण का कारण बनती है। स्त्री एवं शूद्र को विष्णु भगवान की प्रतिमा को धारण करने का अधिकार देना ही बहुत बड़ी बात है।
उत्सव का वातावरण
जयंती का वातावरण भी उत्सव का होता है। पांचरात्र परंपरा में तो बस उत्सव ही उत्सव का विधान है। भगवान रसिकों में शिरोमणि हैं। उन्हें प्रसन्न्ा करने में उत्सव अत्यधिक सहायक होते हैं।
अनंत शब्द एवं अर्थ/अनंतफल
अनंत अर्थात्् बिना अंत वाला, असीम। जैन परंपरा में यह एक तीर्थंकर का नाम है। लोक परंपरा में अनंत अर्थात्् एक दैवी शक्ति और उस दैवी शक्ति स्वरूपी अनंत की प्रतिमा। वैष्णव परंपरा में चौदह भुवनों में व्याप्त नारायण, जो विष्णु हैं और जो वस्तुतः अनंत फल देने वाले एवं असीम हैं।
क्षीर समुद्र में ढूँढना, माथे पर बिठाना-
चूँकि जैन परंपरा कर्मफल को नष्ट करने वाली है। अतः वह कर्मफल तो जलकर नदी के रास्ते, क्षीर समुद्र में चला जाता है। क्षीर समुद्र विष्णु का वास स्थान है। विष्णु की कृपा से अनंत फलों की प्राप्ति संभव है, भले ही कर्म नष्ट हो गये हों।
पूजा के ऊपरांत व्रती से पूछा जाता है - क्षीर समुद्र में क्या ढूँढ रहे हो/रही हो ? उत्तर मिलता है - अनंतफल। मिला? हाँ, तो माथे लगाओ। इस प्रकार अनंत शब्द एक ही साथ कई अर्थों, बिबों के साथ जुड़ता रहता है। तालमेल कहें या समन्वय, चलता रहता है। अनंत फलों की आशा के साथ विष्णु लोक एवं उससे सायुज्य-जुड़ाव स्थापित हो जाता है।
बात आगे बढ़ती हुई कहीं-कहीं ‘अनंत’ फल की जगह ‘अनंत गोसाई’ का रूप भी धारण कर लेती है। अनंत कथा के भीतर कई छोटी कथाएँ हैं जो कई अन्य कथाओं से मिलती हैं। उनका अवलोकन अत्यंत रोचक होगा।
भारतवर्ष की परंपरा है कि वर्षा काल में कोई भी तपस्वी, साधु, संत या भिक्षु अपनी यात्रा स्थगित कर दे और एक स्थान पर चार महीने बिताए। इसे चौमासा या वर्षावास कहा जाता है। इस वर्षावास के दौरान विभिन्न्ा धाराओं के साधु, संत, भिक्षु आम जनता से संवाद करते हैं और मिलजुलकर विविध व्रत, अनुष्ठान, यज्ञ आदि संपन्न्ा कराते हैं।
इसी अवधि में भादो शुक्ल पंचमी से चतुर्दशी तक मगध में जैन लोगों के द्वारा दशलाक्षणिक व्रतों का अनुष्ठान किया जाता है। इसी अवधि में वैष्णव धारा से प्रभावित सामान्य गृहस्थों के द्वारा भी प्रमुख व्रत किये जाते हैं। इनमें पहला ऋषि पंचमी व्रत है जो पंचमी तिथि को होता है। कर्मा एकादशी एकादशी तिथि को एवं अनंत व्रत चतुर्दशी को संपन्न्ा होता है।
इन तीन व्रतों की पूजा विधि के अंतर्गत कई पहेलीनुमा प्रश्न उठाए गये हैं। इन प्रश्नों के उत्तर के क्रम में वैष्णव धारा ने अपने मत की पुष्टि एवं दूसरे के मतों के खंडन का प्रयास किया है, फिर भी जैन, बौद्ध या उभय पक्ष द्वारा स्वीकृत मूल बातों का समावेश भी साथ-साथ कर लिया गया है। यहाँ ऐसे ही कुछ बिंबों की चर्चा की जा रही है।
ऋषि पंचमी का विधान कब किया गया? उसमंे कौन-कौन से तत्त्व जुड़ते गये? यह निर्णय करना इतिहासकारों का काम है लेकिन प्रारंभ से ही वैष्णव धारा के प्रति मगध के लोग अंध श्रद्धा वाले नहीं थे। शौच-अशौच, पवित्रता-अपवित्रता संबंधी मान्यताएँ अन्य क्षेत्रों से मगध में काफी भिन्न्ा रही हैं।
तांत्रिक परंपरा में स्त्री का स्थान श्रेष्ठ होता है और रजस्वला स्त्री भी अपवित्र नहीं मानी जाती है। इसके विपरीत वैष्णव धारा में रजस्वला स्त्री को शूद्र की कोटि में रखा जाता है। उस समय वह शूद्रों की भाँति अस्पृश्य होती है।
ऋषि पंचमी व्रत में तांत्रिकों एवं जैनियों, दोनों को पूर्ण पक्ष के रूप में रखा गया है। दशलाक्षणिक व्रत के प्रथम दिन ही सिद्धों की जगह ऋषियों की पूजा का विधान किया गया है। सिद्ध छुआछूत के समर्थक नहीं हैं चाहे वह रजास्वला स्त्री हो या शूद्र। इसी प्रायश्चित्त के लिए ऋषि पंचमी व्रत का विधान किया जाता है। ऋषियों की पूजा होती है। अपामार्ग (चिड़चिड़ी) नामक औषधीय पौधे का सेवन किया जाता है। इसी से दातून की तरह मुँह धोया जाता है और स्नान के जल में भी इसका उपयोग किया जाता है।
मगध में खेती की प्रतिष्ठा रही है। सुत्तपिटक में एक सूत्त है कसिभारद्वाज सुत्त। इस सुत्त मंे भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण खेती को उत्तम कार्य के रूप में भगवान बुद्ध के समक्ष विवेचित करता है और बुद्ध को भी अपनी धार्मिक साधना एवं उपदेश की खेती से तुलना करनी पड़ती है। मगध की इस कृषि की पक्षधर मान्यता का ऋषि पंचमी व्रत में खंडन तो नहीं किया जाता है किंतु जैनियों के समान खेती को हीन एवं खेती न करने को श्रेष्ठ घोषित किया जाता है। खेती करने में चँूंकि अनेक कीट-पतंग मारे जाते हैं। इसलिए जैनी कृषि को हिंसक कार्य मानते हैं। इस मान्यता का परोक्ष रूप से समावेश करते हुए ऋषि पंचमी के दिन न केवल कंद-मूल, शाक-सब्जी को खाने की व्यवस्था की गई है अपितु बिना खेत जोते हुए उपजाए गये अन्न्ा को अधिक पवित्र एवं ऋषि पंचमी के दिन खाने योग्य बताया गया है।
मगध में पुनपुन एवं सोन के मार्ग बदलने से कई पुरानी जल धाराएँ अवशेष के रूप में हैं। इनमें बरसात के समय पानी बहते रहता है। इस धारा के भीतर धान की एक प्रजाति उत्पन्न्ा होती है जिसकी फसल छूते ही जमीन में गिर जाती है। गरीब लोग इसे पानी में घुँसकर झटके के साथ झाड़ते हैं। गिरे हुए बीज दूसरे वर्ष पौधे उत्पन्न्ाकरते हैं। स्थानीय भाषा में इसे टेनी कहा जाता है। ऋषि पंचमी के दिन टेनी का चावल खाया जाता है। यहाँ टेनी की गणना फलाहार के रूप में होती है।
इस प्रकार ऋषि पंचमी व्रत के माध्यम से ‘अकृष्टपच्या’ भूमि की महत्ता को स्थापित करने की कोशिश की गई है। इसका प्रभाव कई स्थानीय मान्यताओं में ंमिलता है। दलहन की फसलें धान की खेतों में इसी विधि से उगाई जाती हैं और इस विधि को श्रेष्ठ विधि माना जाता है।
ऋषि पंचमी व्रत के बिंब कुछ मिले-जुले हैं लेकिन कर्मा एकादशी और अनंत के बिबों को समझना आसान है। इन दो व्रतों के भीतर एक ऐसे वृक्ष की चर्चा है जिसके फलों में कीडे़ पड़े हुए हैं। उसके फलों का कोई उपयोग नहीं कर रहा है चाहे मनुष्य हो पशु अथवा पक्षी। इसी तरह एक गाय और बछड़ा है जो इधर-उधर दौड़ रही है। बछड़ा गाय का दूध नहीं पी रहा है। एक बैल है जो निश्चिंत मुद्रा में बैठा हुआ है। एक हाथी भी है और एक गदहा भी। ऐसी दो पुष्करिणियाँ/पोखरियाँ हैं जिनका जल एक दूसरे में प्रवाहित हो रहा है। उनमें अनेक फूल खिले हुए हैं और ये पोखरियाँ काफी सुंदर हैं ।
इन उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर के रूप में बताया गया है कि आम का पेड़ वह ब्राह्मण है जो अपनी विद्या का दान नहीं करता है। वैदिक मत में पर्यटन करते हुए दूसरे को धर्मोंपदेश करना ब्राह्मण का दायित्त्व नहीं होता। यह दृष्टिकोण संगठन-प्रधान विस्तारवादी दृष्टिकोण है। इस बिंब के द्वारा विद्या दान को अनिवार्य सिद्ध करने की कोशिश की गई है।
मगध का एक बड़ा भूभाग सूखे से भी प्रभावित होता रहा है और स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में लगाए गए बीज धरती के भीतर ही नष्ट हो जाए। ऐसी धरती को बीज चुराने वाली धरती कहा गया है और गाय-बछड़े को बीज चुराने वाली धरती बताया गया है। धरती के इसी पाप के कारण उसका बछड़ा दूध नहीं पीता है। जैनियों के महान संत ऋषभदेव ऋषभ से वृषभ अर्थात्् बैल हो जाते हैं। बैल जैन, बौद्ध, वैदिक तीनों परंपराओं में शांति का प्रतीक हैं। ऋषि पंचमी एवं अनंत व्रत के संदर्भ में बैल श्री सत्यनारायण देव का रूप में यहाँ मानवीकृत रूप वाला हो जाता है।
हाथी का महत्त्व बौद्धों एवं सिद्धों में अधिक है। परिणामतः वैष्णव धारा में हाथी अभिमान का प्रतीक बन जाता है और पता नहीं किस युक्ति के आधार पर गदहे जैसे शांत स्वभाव वाले पशु को क्रोध का प्रतीक मान लिया जाता है। ब्राह्मण का तो कहना ही क्या है? वह साक्षात् अनंत भगवान का रूप है।
अनंत के मानवीकरण की चर्चा पहले की जा चुकी है। इन बिंबों के साथ दो पुष्करिणियों के बिंब सारे रहस्य को प्रगट कर देते हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था में दान लेने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है। आम जनता चाहे वह प्रजा हो या राजा ब्राह्मण एवं श्रमण भिक्षु दोनों को दान देती रही है।
इनमे से जो चतुर लोग हैं वे इस सहज अभ्यास को अपनी सुविधानुसार बदल लेते हैं। ब्राह्मण को दान न देना कट्टर जैनियों के लिए एक आदर्श की तरह रहा है। भिक्षुओं एवं मंदिरों को दान देना जैन परंपरा में स्वीकृत है जिसका विकृत रूप यह होता है कि क्यों न परस्पर ही दान दे दिया जाए। ब्राह्मण को दी गई सामग्री दूसरे कुल में चली जाती है इसलिए जैन दृष्टि से ही दान क्यों न किया जाय? इस प्रकार दान की सामग्री अपने परिवार वालों के भीतर ही रह जाएगी। इस प्रवृत्ति को धार्मिक अनुमोदन प्राप्त होते ही स्वभाविक है कि ब्राह्मणों का अहित होगा।
चूँकि स्वार्थपूर्ण दान सामान्य लोगों की दृष्टि में भी उचित नहीं है इसलिए पुष्करणियों के माध्यम से यह बताया गया है कि पुष्करणियाँ वैसी दो बहने हैं जो परस्पर एक-दूसरे को दान करती रहती थीं। इसी कारण इनका जल दूसरी दिशा में प्रवाहित न होकर परस्पर एक-दूसरे की ओर प्रवाहित होता है। यदि उन्होनें ब्राह्मणों को दान किया हुआ होता तो उनका जल बाहर भी निकलता।
चूँकि जिस पुष्करिणी का जल बाहर की ओर नहीं निकलता हो जिसमें आने और जाने के दोनों मार्ग न हांे, वह पुष्करिणी ‘बहता पानी निर्मला’ के सिद्धांत पर पवित्र नहीं मानी जा सकती । ठीक इसी प्रकार अपने परिवार में परस्पर दान को अपवित्र सिद्ध करने का प्रयास इन पुष्करणियों के माध्यम से किया गया है।
पूर्वाेक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि जैन परंपरा के मूल्यों एवं अनुष्ठानों के समतुल्य या विरोधी मूल्यों के साथ मगध में भी ऋषि पंचमी, कर्मा एकादशी तथा अनंत व्रत आज भी प्रतिष्ठित हैे। साथ ही कर्मदहन दशमी सुगंध दशमी बन गई है। अनंत चतुर्दशी के दिन अनंतपूजा के साथ अनंतनाथ की जयंती आज भी मनाई जाती है।
सहायक संदर्भ
अनंत व्रतकथा विधि
अनंतनाथ पूजा विधि
ऋषिपंचमी व्रतकथा
कर्मा एकादशी व्रतकथा
कर्मदहन विधान एवं दश लाक्षणिक धर्म

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