कर्मनाशा, कर्मदहन और कर्मा भगवान
समाज को उसके वास्तविक रूप में समझने-समझाने का बौद्धिक भार लेने की जगह कई विद्वान भारतीय समाज को अपनी सुविधानुसार ही समझना चाहते हैं। ये समाज की मुख्य एवं मिलीजुले रूप का ही बौद्ध, जैन, वैदिक, ब्राह्मण, तांत्रिक आदि विभाग करते रहते हैं। अपनी सुविधा या पूर्व कल्पनाओं के समक्ष समाज का समग्र स्वरूप एवं उसकी व्यवहार प्रक्रिया देखने समझने की उन्हें फुरसत नहीं रहती भले ही उससे तथ्यहीन निष्कर्ष निकल जाए।
बुद्ध ने अनेक समकालीनों की चर्चा की है। इनमें निगंठनाथपुत्त को महावीर माना जाता है। बुद्ध, महावीर के समय में एवं बाद में भी जब समानांतर प्रचार प्रसार एवं सहजीवन चल रहा था जैसा आज भी चल रहा है यह सहज था कि विविध धाराएँ भी साथ साथ एक दूसरे से प्रभावित होती हुई एवं प्रभावित करती चलें। परिणामतः यह भी सहज है कि साथसाथ समन्वय, वर्चस्व, संघर्ष के भी तत्त्व एवं अवशेष मिलें। कुछ लोग कट्टर अनुयायी हों कुछ ढीले-ढाले समन्वयवादी। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि जब कोई धारा दूसरी धारा की उपयोगी सामग्री अपनी धारा में सम्मिलित करती है तो भले ही वह धारा लाख सावधानी बरते, समाज न तो पूछ कर समन्वय करता है न कोई सावधानी रखता है। अतः सामाजिक व्यवहार के उदाहरण समाजसापेक्ष होते हैं न कि किसी विशिष्ट धारा के कड़े नियमों के अनुरूप।
इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर वैष्णव एवं जैन धारा की सामग्री के स्वतंत्र एवं लोकस्वीकृत दो रूपों - कर्मदहन दशमी एवं कर्मा एकादशी व्रत के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। कर्मदहन दशमी जैन परंपरा में आज भी स्वतंत्र रूप में मनाई जाती है और कर्मा एकादशी बहु प्रचलित लोक-स्वीकृत रूप है।
कर्म
‘चेतनाहं भिक्खवे कम्मं ति वदामि’। हे भिक्षुओ! मैं चेतना को कर्म कहता हूँ। कर्म संस्कार रूप में अनेक स्थूल कर्मों एवं परिणामों को उत्पन्न्ा करता है। वे कुशल-अकुशल कुछ भी हो सकते हैं। पूर्व मीमांसा इसे अपूर्व कहती है जो स्वर्ग में फलाफल देता है। यग्य-यागों की परिणति एवं संगति इसी अपूर्व से होती है। अपूर्व कर्म फल का वाहक होता है। अन्यत्र संस्कार शब्द भी इस अर्थ में प्रचलित है। संचित, क्रियमाण आदि कर्मों के रूप में इनकी व्याख्या होती है। कर्म ही शुभाशुभ फल देते हैं।
शुभकर्म शुभ फल देते हैं’, इस धारणा के आधार पर शुभकर्मों के फलों को न छोड़ने की इच्छा स्वाभाविक है। दूसरी ओर दुःखों के निरोध रूपी एवं पूर्णानंद, महासुख रूपी विश्वास की दृष्टि से भी असीम सुख, परमानंद जैसी अवस्था को भी क्यों छोड़ा जाय। पुण्य एवं मोक्ष के बीच का संकट ऐसा है कि कर्म बंधनकारी भी होता है। केवल शुभ या केवल पुण्य संभव ही नहीं है। अतः मोक्ष, निर्वाण, परमानंद आदि की अवस्था तक पहुँचने के लिए शुभाशुभ, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक जैसे द्वंद्वों से ऊपर उठना ही पडे़गा। दोनों प्रकार के कर्मोें संस्कारों का नाश करना होगा, उससे ऊपर उठना होगा। यह कर्मनाश की मूलभूत आवश्यकता है।
मगध में मोक्ष, निर्वाण, सुख-दुःख से ऊपर उठने/उठाने की कई परंपराएँ/साधना की विविधाँ विकसित हुई हैं अतः सहज ही मगध की भूमि तटस्थता, उपेक्षा एवं संचित कर्मों की नाश करने वाली भूमि है। पौराणिक दृष्टि से काशी प्रदेश के पूर्व में कर्मनाशा नदी बहती है। कर्मनाशा के बाद का पूरब का क्षेत्र मगध का क्षेत्र है। वैदिक स्वर्गप्रेमी लोगों के लिए यह निन्दित क्षेत्र है।
एक थे राजा त्रिशंकु। उन्हें सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा हुई। महर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से उन्हें स्वर्ग भेजा। देवताओं ने रोका। त्रिशंकु बीच में लटक गए और उनकी लार से कर्मनाशा नदी बनी। इस पौराणिक उपाख्यान के आधार पर स्वर्गप्रेमी, काम्य कर्मों, अनुष्ठानों के लालची लोग मगध की घोर निंदा करते हैं और इसे निषिद्ध क्षेत्र मानते हैं।
मगध रहस्यवेत्ताओं का क्षेत्र है। मुक्ति, निर्वाण मोक्ष परमानंद के लिए यह सहर्ष कर्मबंधन से मुक्त होने को तत्पर है।
कर्मदहन दशमी
बौद्ध परंपरा में अनेक विधियाँ विकसित हुई हैं जिनमें उपेक्षा भावना, विपश्यना के बल पर संस्कार नाश के उपायों की व्यवस्था की गई हैं। जैन परंपरा भी साक्षीभाव, तटस्थता की विधियों का समर्थक है। इसे प्रेक्षा ध्यान की विधि कहा जाता है। इसमें भी चित्त के निरोध की ही प्रधानता होती है जिसके पहले संस्कारों का नाश जरूरी समझा जाता है।
यहाँ जैन परंपरा के एक ऐसे ही अनुष्ठान की चर्चा की जा रही है। भाद्रपद शुक्ल दशमी के दिन जैन परंपरा में कर्मदहन दशमी का अनुष्ठान किया जाता है। कर्मदहन के मंत्र पढ़े जाते हैं।
आज मगध में ‘कर्मदहन दशमी’ नाम पूजा की पोथियों तक सीमित है। अब मगध में स्थानीय जैन आबादी नहीं है। मगध के बाहर से आकर बसे महाजन लोग अधिक हैं। इनमें अधिसंख्यक अग्रवाल हैं। वे एक ही साथ जैन एवं वैदिक, दोनो ंधाराओं के साथ जुड़े रहते हैं। उनके लिए कर्मदहन नाम बहुत प्रिय नहीं लगता। अतः वे इसे पारिवारिक व्यवहार में धूपदशमी या गंधदशमी नाम से पुकारते हैं।
पूजा की नई पोथियाँ जो पहले प्राकृत, अपभ्रंश में थीं। अब हिन्दी में भी तैयार हो रही हैं। इन पोथियों में मंत्र प्राकृत में रहते हैं। इन पोथियों में कर्मदहन की भावना का उल्लेख एवं मंत्र तो रहते हैं किंतु पूजा-पाठ करते समय कर्मदहन की भावना की जगह सिद्ध परमेट्ठि की पूजा की भावना प्रमुख हो जाती है।
दशलाक्षणिक धर्मों की स्थापना एवं कर्मदहन के लिए समानांतर अनुष्ठान भादो शुक्ल पंचमी से अनंत चतुर्दशी तक आयोजित होते हैं। इसी अवधि के बीच वैदिक एवं जैन दोनो धाराएँ समानांतर अनुष्ठान आयोजित करती हैं। पंचमी के दिन ऋषि पंचमी आयोजित होती है। एकादशी को कर्मा एवं अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत व्रत का आयोजन होता है।
आज स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य जैसे द्वन्द्वों से समाज में कर्मदहन दशमी सुगंध दशमी का रूप धारण कर चुकी है। मुझे जैन सिद्धांत भवन, आरा की पांडुलिपियों में कर्मदहन दशमी की पूजा विधि की काफी पत्रावलियाँ मिली थीं कितु आज यदि सीधे-सीधे किसी सामान्य जैन से पूछें तो हो सकता है कि वह नाम भी नहीं जानता हो।
कर्मदहन की प्रक्रिया के लिए सिद्ध परमेट्ठि की पूजा की जाती है। सिद्धों के बिना काम तो चल ही नहीं सकता। कर्मदहन जैसे क्रांतिकारी कार्य के लिए तो सिद्ध ही समर्थ हैं। परंपरानुसार आठ कर्मों की एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों के नाश हेतु कर्मदहन अनुष्ठान होता है। सिद्धों के आठ गुण माने जाते हैं इस प्रकार कुल एक सौ छप्पन प्रकार के मंत्र होते हैं। उपवासपूर्वक उनका जप एवं होम करना पड़ता है।
कर्मदहन अनुष्ठान के मंत्र दो प्रकार के हैं-
क- कर्मों के नाम के अनुसार जाप-जैसे ऊँ ह्रीं सातावेदनीकर्म रहिताय सिद्धाय नमः। ऊँ ह्री शीतस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धाय नमः।
या
ख- ऊँ ह्रीं नमो सिद्धाणं सिद्ध परमेट्ठिनं अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ऊँ पंचप्रकार ज्ञानावरणरहिताय सिद्ध परमेट्ठिने अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन कर्मों का दहन होता है उन कर्मों के साथ साधना की गहन प्रक्रिया एवं जैन दर्शन के संदर्भ को न जानने या भूल जाने के बाद शब्दों के सामान्य अर्थ जनमानस में केवल भय ही पैदा कर सकते हैं जैसे - अष्टकर्म दहनपूजा, आयुष्यकर्मविनाश पूजा, नामकर्मविनाश पूजा, गोत्रकर्मविनाश पूजा आदि।
आयु, गोत्र एवं नाम के साथ सभी कर्मफलों का नाश मगध में लोगों को हृदयग्राही नहीं हो सकता।
बौद्ध परंपरा में विपश्यना एवं शमथ दो मार्ग हैं। विपश्यना से समाधि एवं प्रज्ञा का मार्ग प्रशस्त होता है किंतु पाँच नीवरण विघ्न पैदा करते हैं। उन्हें हटाने के लिए विपश्यना पर्याप्त नहीं होती थी बल्कि शमथ, शमन के उपाय करने पड़ते हैं। इसमें प्रतिपक्ष तटस्थता से भिन्न्ा भावना आदि के उपाय करने पड़ते हैं। जैन परंपरा में भी तटस्थताप्रधान प्रेक्षा ध्यान की साधना होती है। इस साधना के बावजूद विघ्न तो रहते ही हैं। जड़ता आदि मलों को दूर करना ही पड़ता है। साथ ही साथ दूसरी धारा, जो कर्मप्रधान धारा है, उस धारा के लोगों का कर्म के प्रति प्रबल आकर्षण भी रहता है। अतः यह आवश्यक है कि पूर्व मोह को जलाया जाय। इस निमित्त जैन परंपरा में कर्मदहन दशमी व्रत का आयोजन किया जाता है। कर्मदहन दशमी काफी लोकप्रिय व्रत है।
कर्मा एकादशी
कर्मदहन दशमी की बढ़ती लोकप्रियता से अनुष्ठानप्रधान वैदिक धारा को चिंता हुई। उसने भी अत्यंत ही रोचक ढंग से कई स्तरांे वाला उपाय किया। यहाँ भारतीय समाज के पूर्वोक्त स्वभाव के साथ उसकी उत्सवप्रियता को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।
उत्सव के बिना आम आदमी का जीवन नीरस हो जाता है। व्यक्तिगत खुशी का इजहार सामयिक आयोजनों जैसे विवाह, गृहप्रवेश आदि में तो होता ही है, हर महीने दो महीने या पूरे महीने आदि की अवधि और अंतराल में अनेक उत्सव मनाये जाते हैं। स्थान भेद से समय का भेद होता है। कहने के लिए विष्णु का जागना या सोना उत्तर भारत में शुभ-अशुभ मुहूर्तों का आधार भले ही हो अनेक उत्सव प्रायः विष्णु के सोते समय भी मनाए जाते हैं।
हरिशयनी एकादशी अर्थात्् अगहन शुक्ल एकादशी को विष्णु का शयन होता है और कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवोत्थानी एकादशी को जागरण। काशी पूर्व के क्षेत्र में इस बीच कई उत्सव व्रत होते हैं जिनमें सेाहराई, दीपावली, गोधन (यम द्वितीया) रक्षाबंधन, श्रावणी, कर्मापूजा, अनंतपूजा, ऋषि पंचमी, आदि प्रमुख हैं। इनमें से भी कर्मा पूजा एवं अनंत पूजा, इनका संबंध जैन परंपरा के कर्मदहन दशमी एवं अनंत जयंती से सीधा है।
इसी क्रम में कर्मदहन दशमी के दूसरे दिन एकादशी को कर्मा पूजा का विधान होता है। कर्मदहन दशमी के अनुष्ठान के घटक तत्त्वों में भारी नीरसता है। ज्ञात तथ्य है कि जैन परंपरा के सारे व्रत/उत्सव नीरस या शोभा, अलंकरण उत्सव विहीन नहीं होते लेकिन जब कर्म का नाश ही करना है तो शोभा उत्सव की क्या आवश्यकता? ठीक इसके विपरीत कर्मा एकादशी के विधान हैं। वैष्णव धारा में कर्म- बंधन से मुक्ति रूपी अवधारणा को त्यागकर विष्णुलोक में विष्णु के साथ वास करने की सुखद कल्पना की जाती है जो एक प्रकार से स्वर्ग में रहने के समान है और विशेषता यह कि स्वर्ग से वापसी वाला खतरा भी नहीं है। वैष्णव धारा के उत्सवों की संरचना इसी मानसिकता से की गई हैं। इसमें व्यूहवाद एवं पांचरात्र आगम के मूलभूत सिद्धातों का समावेश लोकप्रिय शैली में किया गया है।
कर्मदहन दशमी के दूसरे दिन अर्थात्् एकादशी को कर्मा एकादशी का आयोजन होता है। इस एकादशी को प्रायः सभी शीतल उपचार किए जाते हैं। फलाहार करने की अनिवायर्ता तो रहती ही है। विशेष ध्यान यह रखा जाता है कि किसी भी प्रकार के गरम पदार्थ का सेवन न किया जाए। कर्मदहन दशमी को कर्म देवता अग्नि में भष्म हुए हैं उस कर्मदहन का, दाह का जो प्रभाव बचा हुआ है उसे एकादशी को शांत करना है। इसलिए कर्मा एकादशी को हर प्रकार का गरम खाद्य, पेय, अग्नि आदि का सेवन, हर चीज से बचने का नियम बनाया गया है। दूध पीना तो है लेकिन गरम दूध सर्वथा वर्जित है। आम आदमी के मन में जिज्ञासा होती है कि कर्मदहन दशमी को जब कर्मों का दाह कर दिया गया तो उसके साथ पूरे पुण्य कर्म और पुण्य कर्मों के बल पर होने वाला सौभाग्य सुख ये तो सब के सब नष्ट हो गये। फिर उन कर्मों के पुनरुज्जीवन और दुबारा कर्म व्यवस्था की स्थापना हो तो कैसे हो ? इस प्रश्न को प्रतीकात्मक और स्थानीय बिंबों एवं उदाहरणों के द्वारा बहुत सरल ढंग से वैष्णवों ने समझाने और सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की है। मानसिक स्तर पर कर्मदहन दशमी के अनुष्ठान का मजाक उड़ाते हुए यह स्थापना दी गई की वस्तुतः कर्मों का दाह ऐसे अनुष्ठान से संभव ही नहीं है और यदि किसी को लगता है कि इस अनुष्ठान में उसके कर्मों का दाह हुआ भी है तो वह केवल बाहरी कर्मों का दाह है, उन्हीें का दहन हुआ है। भीतर में कर्म और संस्कार बचे हुए ही हैं। यदि पुनः उनका सिंचन/सिंचाई का काम किया जाए तो वे दुबारा बहुत जोर-शोर से प्रगट होंगे। इसे समझाने के लिए एक पौधे का उदाहरण लिया गया है। काश या सरकंडा कुश कुल का पौधा होता है। इसे स्थानीय भाषा में झूर कहते हैं। इस कुल के पौधों की यह खासियत है कि गर्मी के दिनों में इनमें आग लगा दी जाती है। आग लगाने से इनकी जड़ें नहीं जलतीं है केवल बाहर की सूखी पत्तियाँ ही जल पाती हैं और बरसात के बाद इनमें दुगने वेग से नई कोपलें निकलती है और पौधा लहलहा जाता है। कर्मा एकादशी के दिन इसी पौधे की प्रतीक के रूप में पूजा की जाती है। इसलिए कर्मा एकादशी को झूर पूजन एकादशी भी कहते हैं। इसे झूर पुजाई भी कहते है। झूर का स्वभाव है कि दाह के बाद वह और तेजी से उन्नत, विकसित होता है। इसी तरह से कर्मदहन दशमी के दिन कर्मों का नाश नहीं हुआ है भले ही उस प्रक्रिया में मलों का नाश हुआ हो और अब जैसे झूर को शीतल उपचार की आवश्यकता है वैसी ही मनुष्य को उसके जले हुए कर्मों की सिंचाई की आवश्यकता है।
कर्मा के अनुष्ठान का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं व्यापक रूप झारखंड में सुरक्षित है। मगध में उसका संक्षिप्त रूप है। इस निबंध में संक्षिप्त अनुष्ठान की ही चर्चा की जा रही है। एकादशी के दिन सरकंडा या उसी की प्रजाति, जो रेतीली मिट्टी या नदियों में रहती है उस झाड़ को लाकर जिसे झूर या काशी कहते है उसकी पूजा करते हैं। वह आग एवं पानी को भी बर्दाश्त कर लेता है। इसमें आग एवं पानी दोनो को बर्दाश्त करने की अद्भुत क्षमता होती है और अपने सामर्थ्य से यानि जो उसकी ऊँचाई है, उससे और अपने सामर्थ्य की तुलना में अधिक गहराई से इस वनस्पति कुल में पानी सोखने की क्षमता है। इसका स्वभाव शीतल और मूत्रल होता है। इनका सेवन करने से गर्मी इत्यादि के रोग दूर होते हैं। धार्मिक भाषा में पंचकुश कुल के पाँच पवित्र पौधों में से एक झूर भी है।
कर्मा एकादशी के सायं काल झूर पूजन और दिन भर के व्रत, नदी स्नान पूर्वक झूमर गाने के साथ यह अनुष्ठान संपन्न्ा होता है। कर्मा एकादशी के दूसरे दिन..जिस दिन एकादशी व्रत का उद्यापन होता है दही-भात का सेवन किया जाता है। सारे शीतल अपचार किए जाते हैं। यह जानना अत्यंत रोचक होगा कि जैन एवं वैष्णव धाराएँ किस प्रकार अपनी पहचान बनाने एवं वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करती हैं और व्यापक/बहुसंख्यक समाज दोनों परंपराओं को किस रूप में समायोजित करता है।
इस समय मगध का स्थानीय बहुसंख्यक समाज, जो हिन्दू कहा जाता है, उसमें कर्मा एकादशी और जैन परंपरा में आज भी कर्मदहन दशमी ही की जाती है लेकिन बहुसंख्यक समाज को कर्मदहन दशमी की न तो जानकारी है और न ही उसे इन बिंबों के रूपांतरण का बोध है। उसे उत्सव चाहिए, बस इतना ही काफी है। वह दशमी को हो या एकादशी को, उसे एक दिन के अंतराल से भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
अनंत व्रत के संदर्भ में यह दिन का भेद भी मिट जाता है। अनंत चतुदर्शी के दिन दोनों ही धाराएँ एक साथ उत्सव मनाती हैं। अगले निबंध में इस विषय को स्पष्ट किया जायेगा।
कर्म की पूजा में कर्म को ही भगवान मानने जैसी श्रद्धा विकसित की है। यहाँ अभी जो औरतें गीत गाती है वह निम्न है-‘अपन करम भैया के धरम झूर में मूड़ घुसरावीला।’ यह पद एक प्रकार से कर्मा एकादशी का मंत्र है। यही मूल भाव है कि अपना कर्म और भाई का धर्म झूर की मूल की तरह प्रविष्ट कर रही हूूँ। ‘घुसरावीला’ का अर्थ होता है मैं इसे घुँसेड़ रही हूँ। कर्मा पूजा ने कर्म और कर्मवाद को मानविक रूप दे डाला है। कर्म एक भाव नहीं रहकर स्वयं में एक भगवान का रूप धारण कर लेता है।
इसी भावना और विश्वास के आधार पर कर्मा नाम के अनेक गाँव मिलते है। कर्मा ही नहीं मगध के औरंगाबाद जिले में कर्मा भगवान नाम का गाँव भी है । और भी कई जगह कर्मा भगवान नाम के गाँव होने की चर्चा आती है। कर्मा नाम होने का अर्थ है कि उस गाँव में कर्मा अनुष्ठान का जोर-शोर से आयोजन होता था और बाद में मंदिर बना। फिर उस मंदिर में कर्मा भगवान की प्रतिमा स्थापित कर दी गई।
दोनों परंपराओं कर्मदहन दशमी और कर्मा एकादशी पूजा पद्धति की जो पुस्तिकाएँ चलन में हैं उनका अवलोकन करने से अन्य बातंे भी प्रगट होगीं जो विस्तार भय से यहाँ वर्णित नहीे हैं।
उपर्युक्त प्रकार से हम देखते हैं कि मगध की संस्कृति में वैष्णव एवं जैन परंपरा के बीच कर्मवाद को लेकर जनता के बीच किस प्रकार का संवाद हुआ और जनता ने उसे क्या और कैसे समझा ? आज की तारीख में उसका कौन सा स्वरूप जीवन परंपरा और विरासत के रूप में मगध में चलन में है। कर्मवाद, पाप-पुण्य की विरोध वाली धारा तथा विरोध करने वाली मगध की भूमि स्वयं कर्म को भगवान के रूप में पूजने लगी है। दूसरी ओर कर्मवाद के मुख्य समर्थक क्षेत्र यानी मगध के पश्चिम के लोग आज भी गया को भले ही तीर्थ क्षेत्र मान लें लेकिन मगध के कर्मवाद से मुक्ति दिलाने वाली भूमि के प्रति उनका बाहरी लगाव और भीतरी विरोध बदस्तूर जारी है।
समाज को उसके वास्तविक रूप में समझने-समझाने का बौद्धिक भार लेने की जगह कई विद्वान भारतीय समाज को अपनी सुविधानुसार ही समझना चाहते हैं। ये समाज की मुख्य एवं मिलीजुले रूप का ही बौद्ध, जैन, वैदिक, ब्राह्मण, तांत्रिक आदि विभाग करते रहते हैं। अपनी सुविधा या पूर्व कल्पनाओं के समक्ष समाज का समग्र स्वरूप एवं उसकी व्यवहार प्रक्रिया देखने समझने की उन्हें फुरसत नहीं रहती भले ही उससे तथ्यहीन निष्कर्ष निकल जाए।
बुद्ध ने अनेक समकालीनों की चर्चा की है। इनमें निगंठनाथपुत्त को महावीर माना जाता है। बुद्ध, महावीर के समय में एवं बाद में भी जब समानांतर प्रचार प्रसार एवं सहजीवन चल रहा था जैसा आज भी चल रहा है यह सहज था कि विविध धाराएँ भी साथ साथ एक दूसरे से प्रभावित होती हुई एवं प्रभावित करती चलें। परिणामतः यह भी सहज है कि साथसाथ समन्वय, वर्चस्व, संघर्ष के भी तत्त्व एवं अवशेष मिलें। कुछ लोग कट्टर अनुयायी हों कुछ ढीले-ढाले समन्वयवादी। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि जब कोई धारा दूसरी धारा की उपयोगी सामग्री अपनी धारा में सम्मिलित करती है तो भले ही वह धारा लाख सावधानी बरते, समाज न तो पूछ कर समन्वय करता है न कोई सावधानी रखता है। अतः सामाजिक व्यवहार के उदाहरण समाजसापेक्ष होते हैं न कि किसी विशिष्ट धारा के कड़े नियमों के अनुरूप।
इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर वैष्णव एवं जैन धारा की सामग्री के स्वतंत्र एवं लोकस्वीकृत दो रूपों - कर्मदहन दशमी एवं कर्मा एकादशी व्रत के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। कर्मदहन दशमी जैन परंपरा में आज भी स्वतंत्र रूप में मनाई जाती है और कर्मा एकादशी बहु प्रचलित लोक-स्वीकृत रूप है।
कर्म
‘चेतनाहं भिक्खवे कम्मं ति वदामि’। हे भिक्षुओ! मैं चेतना को कर्म कहता हूँ। कर्म संस्कार रूप में अनेक स्थूल कर्मों एवं परिणामों को उत्पन्न्ा करता है। वे कुशल-अकुशल कुछ भी हो सकते हैं। पूर्व मीमांसा इसे अपूर्व कहती है जो स्वर्ग में फलाफल देता है। यग्य-यागों की परिणति एवं संगति इसी अपूर्व से होती है। अपूर्व कर्म फल का वाहक होता है। अन्यत्र संस्कार शब्द भी इस अर्थ में प्रचलित है। संचित, क्रियमाण आदि कर्मों के रूप में इनकी व्याख्या होती है। कर्म ही शुभाशुभ फल देते हैं।
शुभकर्म शुभ फल देते हैं’, इस धारणा के आधार पर शुभकर्मों के फलों को न छोड़ने की इच्छा स्वाभाविक है। दूसरी ओर दुःखों के निरोध रूपी एवं पूर्णानंद, महासुख रूपी विश्वास की दृष्टि से भी असीम सुख, परमानंद जैसी अवस्था को भी क्यों छोड़ा जाय। पुण्य एवं मोक्ष के बीच का संकट ऐसा है कि कर्म बंधनकारी भी होता है। केवल शुभ या केवल पुण्य संभव ही नहीं है। अतः मोक्ष, निर्वाण, परमानंद आदि की अवस्था तक पहुँचने के लिए शुभाशुभ, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक जैसे द्वंद्वों से ऊपर उठना ही पडे़गा। दोनों प्रकार के कर्मोें संस्कारों का नाश करना होगा, उससे ऊपर उठना होगा। यह कर्मनाश की मूलभूत आवश्यकता है।
मगध में मोक्ष, निर्वाण, सुख-दुःख से ऊपर उठने/उठाने की कई परंपराएँ/साधना की विविधाँ विकसित हुई हैं अतः सहज ही मगध की भूमि तटस्थता, उपेक्षा एवं संचित कर्मों की नाश करने वाली भूमि है। पौराणिक दृष्टि से काशी प्रदेश के पूर्व में कर्मनाशा नदी बहती है। कर्मनाशा के बाद का पूरब का क्षेत्र मगध का क्षेत्र है। वैदिक स्वर्गप्रेमी लोगों के लिए यह निन्दित क्षेत्र है।
एक थे राजा त्रिशंकु। उन्हें सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा हुई। महर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से उन्हें स्वर्ग भेजा। देवताओं ने रोका। त्रिशंकु बीच में लटक गए और उनकी लार से कर्मनाशा नदी बनी। इस पौराणिक उपाख्यान के आधार पर स्वर्गप्रेमी, काम्य कर्मों, अनुष्ठानों के लालची लोग मगध की घोर निंदा करते हैं और इसे निषिद्ध क्षेत्र मानते हैं।
मगध रहस्यवेत्ताओं का क्षेत्र है। मुक्ति, निर्वाण मोक्ष परमानंद के लिए यह सहर्ष कर्मबंधन से मुक्त होने को तत्पर है।
कर्मदहन दशमी
बौद्ध परंपरा में अनेक विधियाँ विकसित हुई हैं जिनमें उपेक्षा भावना, विपश्यना के बल पर संस्कार नाश के उपायों की व्यवस्था की गई हैं। जैन परंपरा भी साक्षीभाव, तटस्थता की विधियों का समर्थक है। इसे प्रेक्षा ध्यान की विधि कहा जाता है। इसमें भी चित्त के निरोध की ही प्रधानता होती है जिसके पहले संस्कारों का नाश जरूरी समझा जाता है।
यहाँ जैन परंपरा के एक ऐसे ही अनुष्ठान की चर्चा की जा रही है। भाद्रपद शुक्ल दशमी के दिन जैन परंपरा में कर्मदहन दशमी का अनुष्ठान किया जाता है। कर्मदहन के मंत्र पढ़े जाते हैं।
आज मगध में ‘कर्मदहन दशमी’ नाम पूजा की पोथियों तक सीमित है। अब मगध में स्थानीय जैन आबादी नहीं है। मगध के बाहर से आकर बसे महाजन लोग अधिक हैं। इनमें अधिसंख्यक अग्रवाल हैं। वे एक ही साथ जैन एवं वैदिक, दोनो ंधाराओं के साथ जुड़े रहते हैं। उनके लिए कर्मदहन नाम बहुत प्रिय नहीं लगता। अतः वे इसे पारिवारिक व्यवहार में धूपदशमी या गंधदशमी नाम से पुकारते हैं।
पूजा की नई पोथियाँ जो पहले प्राकृत, अपभ्रंश में थीं। अब हिन्दी में भी तैयार हो रही हैं। इन पोथियों में मंत्र प्राकृत में रहते हैं। इन पोथियों में कर्मदहन की भावना का उल्लेख एवं मंत्र तो रहते हैं किंतु पूजा-पाठ करते समय कर्मदहन की भावना की जगह सिद्ध परमेट्ठि की पूजा की भावना प्रमुख हो जाती है।
दशलाक्षणिक धर्मों की स्थापना एवं कर्मदहन के लिए समानांतर अनुष्ठान भादो शुक्ल पंचमी से अनंत चतुर्दशी तक आयोजित होते हैं। इसी अवधि के बीच वैदिक एवं जैन दोनो धाराएँ समानांतर अनुष्ठान आयोजित करती हैं। पंचमी के दिन ऋषि पंचमी आयोजित होती है। एकादशी को कर्मा एवं अनंत चतुर्दशी के दिन अनंत व्रत का आयोजन होता है।
आज स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य जैसे द्वन्द्वों से समाज में कर्मदहन दशमी सुगंध दशमी का रूप धारण कर चुकी है। मुझे जैन सिद्धांत भवन, आरा की पांडुलिपियों में कर्मदहन दशमी की पूजा विधि की काफी पत्रावलियाँ मिली थीं कितु आज यदि सीधे-सीधे किसी सामान्य जैन से पूछें तो हो सकता है कि वह नाम भी नहीं जानता हो।
कर्मदहन की प्रक्रिया के लिए सिद्ध परमेट्ठि की पूजा की जाती है। सिद्धों के बिना काम तो चल ही नहीं सकता। कर्मदहन जैसे क्रांतिकारी कार्य के लिए तो सिद्ध ही समर्थ हैं। परंपरानुसार आठ कर्मों की एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों के नाश हेतु कर्मदहन अनुष्ठान होता है। सिद्धों के आठ गुण माने जाते हैं इस प्रकार कुल एक सौ छप्पन प्रकार के मंत्र होते हैं। उपवासपूर्वक उनका जप एवं होम करना पड़ता है।
कर्मदहन अनुष्ठान के मंत्र दो प्रकार के हैं-
क- कर्मों के नाम के अनुसार जाप-जैसे ऊँ ह्रीं सातावेदनीकर्म रहिताय सिद्धाय नमः। ऊँ ह्री शीतस्पर्शनामकर्मरहिताय सिद्धाय नमः।
या
ख- ऊँ ह्रीं नमो सिद्धाणं सिद्ध परमेट्ठिनं अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ऊँ पंचप्रकार ज्ञानावरणरहिताय सिद्ध परमेट्ठिने अर्धं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन कर्मों का दहन होता है उन कर्मों के साथ साधना की गहन प्रक्रिया एवं जैन दर्शन के संदर्भ को न जानने या भूल जाने के बाद शब्दों के सामान्य अर्थ जनमानस में केवल भय ही पैदा कर सकते हैं जैसे - अष्टकर्म दहनपूजा, आयुष्यकर्मविनाश पूजा, नामकर्मविनाश पूजा, गोत्रकर्मविनाश पूजा आदि।
आयु, गोत्र एवं नाम के साथ सभी कर्मफलों का नाश मगध में लोगों को हृदयग्राही नहीं हो सकता।
बौद्ध परंपरा में विपश्यना एवं शमथ दो मार्ग हैं। विपश्यना से समाधि एवं प्रज्ञा का मार्ग प्रशस्त होता है किंतु पाँच नीवरण विघ्न पैदा करते हैं। उन्हें हटाने के लिए विपश्यना पर्याप्त नहीं होती थी बल्कि शमथ, शमन के उपाय करने पड़ते हैं। इसमें प्रतिपक्ष तटस्थता से भिन्न्ा भावना आदि के उपाय करने पड़ते हैं। जैन परंपरा में भी तटस्थताप्रधान प्रेक्षा ध्यान की साधना होती है। इस साधना के बावजूद विघ्न तो रहते ही हैं। जड़ता आदि मलों को दूर करना ही पड़ता है। साथ ही साथ दूसरी धारा, जो कर्मप्रधान धारा है, उस धारा के लोगों का कर्म के प्रति प्रबल आकर्षण भी रहता है। अतः यह आवश्यक है कि पूर्व मोह को जलाया जाय। इस निमित्त जैन परंपरा में कर्मदहन दशमी व्रत का आयोजन किया जाता है। कर्मदहन दशमी काफी लोकप्रिय व्रत है।
कर्मा एकादशी
कर्मदहन दशमी की बढ़ती लोकप्रियता से अनुष्ठानप्रधान वैदिक धारा को चिंता हुई। उसने भी अत्यंत ही रोचक ढंग से कई स्तरांे वाला उपाय किया। यहाँ भारतीय समाज के पूर्वोक्त स्वभाव के साथ उसकी उत्सवप्रियता को भी ध्यान में रखना आवश्यक है।
उत्सव के बिना आम आदमी का जीवन नीरस हो जाता है। व्यक्तिगत खुशी का इजहार सामयिक आयोजनों जैसे विवाह, गृहप्रवेश आदि में तो होता ही है, हर महीने दो महीने या पूरे महीने आदि की अवधि और अंतराल में अनेक उत्सव मनाये जाते हैं। स्थान भेद से समय का भेद होता है। कहने के लिए विष्णु का जागना या सोना उत्तर भारत में शुभ-अशुभ मुहूर्तों का आधार भले ही हो अनेक उत्सव प्रायः विष्णु के सोते समय भी मनाए जाते हैं।
हरिशयनी एकादशी अर्थात्् अगहन शुक्ल एकादशी को विष्णु का शयन होता है और कार्तिक शुक्ल पक्ष की देवोत्थानी एकादशी को जागरण। काशी पूर्व के क्षेत्र में इस बीच कई उत्सव व्रत होते हैं जिनमें सेाहराई, दीपावली, गोधन (यम द्वितीया) रक्षाबंधन, श्रावणी, कर्मापूजा, अनंतपूजा, ऋषि पंचमी, आदि प्रमुख हैं। इनमें से भी कर्मा पूजा एवं अनंत पूजा, इनका संबंध जैन परंपरा के कर्मदहन दशमी एवं अनंत जयंती से सीधा है।
इसी क्रम में कर्मदहन दशमी के दूसरे दिन एकादशी को कर्मा पूजा का विधान होता है। कर्मदहन दशमी के अनुष्ठान के घटक तत्त्वों में भारी नीरसता है। ज्ञात तथ्य है कि जैन परंपरा के सारे व्रत/उत्सव नीरस या शोभा, अलंकरण उत्सव विहीन नहीं होते लेकिन जब कर्म का नाश ही करना है तो शोभा उत्सव की क्या आवश्यकता? ठीक इसके विपरीत कर्मा एकादशी के विधान हैं। वैष्णव धारा में कर्म- बंधन से मुक्ति रूपी अवधारणा को त्यागकर विष्णुलोक में विष्णु के साथ वास करने की सुखद कल्पना की जाती है जो एक प्रकार से स्वर्ग में रहने के समान है और विशेषता यह कि स्वर्ग से वापसी वाला खतरा भी नहीं है। वैष्णव धारा के उत्सवों की संरचना इसी मानसिकता से की गई हैं। इसमें व्यूहवाद एवं पांचरात्र आगम के मूलभूत सिद्धातों का समावेश लोकप्रिय शैली में किया गया है।
कर्मदहन दशमी के दूसरे दिन अर्थात्् एकादशी को कर्मा एकादशी का आयोजन होता है। इस एकादशी को प्रायः सभी शीतल उपचार किए जाते हैं। फलाहार करने की अनिवायर्ता तो रहती ही है। विशेष ध्यान यह रखा जाता है कि किसी भी प्रकार के गरम पदार्थ का सेवन न किया जाए। कर्मदहन दशमी को कर्म देवता अग्नि में भष्म हुए हैं उस कर्मदहन का, दाह का जो प्रभाव बचा हुआ है उसे एकादशी को शांत करना है। इसलिए कर्मा एकादशी को हर प्रकार का गरम खाद्य, पेय, अग्नि आदि का सेवन, हर चीज से बचने का नियम बनाया गया है। दूध पीना तो है लेकिन गरम दूध सर्वथा वर्जित है। आम आदमी के मन में जिज्ञासा होती है कि कर्मदहन दशमी को जब कर्मों का दाह कर दिया गया तो उसके साथ पूरे पुण्य कर्म और पुण्य कर्मों के बल पर होने वाला सौभाग्य सुख ये तो सब के सब नष्ट हो गये। फिर उन कर्मों के पुनरुज्जीवन और दुबारा कर्म व्यवस्था की स्थापना हो तो कैसे हो ? इस प्रश्न को प्रतीकात्मक और स्थानीय बिंबों एवं उदाहरणों के द्वारा बहुत सरल ढंग से वैष्णवों ने समझाने और सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की है। मानसिक स्तर पर कर्मदहन दशमी के अनुष्ठान का मजाक उड़ाते हुए यह स्थापना दी गई की वस्तुतः कर्मों का दाह ऐसे अनुष्ठान से संभव ही नहीं है और यदि किसी को लगता है कि इस अनुष्ठान में उसके कर्मों का दाह हुआ भी है तो वह केवल बाहरी कर्मों का दाह है, उन्हीें का दहन हुआ है। भीतर में कर्म और संस्कार बचे हुए ही हैं। यदि पुनः उनका सिंचन/सिंचाई का काम किया जाए तो वे दुबारा बहुत जोर-शोर से प्रगट होंगे। इसे समझाने के लिए एक पौधे का उदाहरण लिया गया है। काश या सरकंडा कुश कुल का पौधा होता है। इसे स्थानीय भाषा में झूर कहते हैं। इस कुल के पौधों की यह खासियत है कि गर्मी के दिनों में इनमें आग लगा दी जाती है। आग लगाने से इनकी जड़ें नहीं जलतीं है केवल बाहर की सूखी पत्तियाँ ही जल पाती हैं और बरसात के बाद इनमें दुगने वेग से नई कोपलें निकलती है और पौधा लहलहा जाता है। कर्मा एकादशी के दिन इसी पौधे की प्रतीक के रूप में पूजा की जाती है। इसलिए कर्मा एकादशी को झूर पूजन एकादशी भी कहते हैं। इसे झूर पुजाई भी कहते है। झूर का स्वभाव है कि दाह के बाद वह और तेजी से उन्नत, विकसित होता है। इसी तरह से कर्मदहन दशमी के दिन कर्मों का नाश नहीं हुआ है भले ही उस प्रक्रिया में मलों का नाश हुआ हो और अब जैसे झूर को शीतल उपचार की आवश्यकता है वैसी ही मनुष्य को उसके जले हुए कर्मों की सिंचाई की आवश्यकता है।
कर्मा के अनुष्ठान का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं व्यापक रूप झारखंड में सुरक्षित है। मगध में उसका संक्षिप्त रूप है। इस निबंध में संक्षिप्त अनुष्ठान की ही चर्चा की जा रही है। एकादशी के दिन सरकंडा या उसी की प्रजाति, जो रेतीली मिट्टी या नदियों में रहती है उस झाड़ को लाकर जिसे झूर या काशी कहते है उसकी पूजा करते हैं। वह आग एवं पानी को भी बर्दाश्त कर लेता है। इसमें आग एवं पानी दोनो को बर्दाश्त करने की अद्भुत क्षमता होती है और अपने सामर्थ्य से यानि जो उसकी ऊँचाई है, उससे और अपने सामर्थ्य की तुलना में अधिक गहराई से इस वनस्पति कुल में पानी सोखने की क्षमता है। इसका स्वभाव शीतल और मूत्रल होता है। इनका सेवन करने से गर्मी इत्यादि के रोग दूर होते हैं। धार्मिक भाषा में पंचकुश कुल के पाँच पवित्र पौधों में से एक झूर भी है।
कर्मा एकादशी के सायं काल झूर पूजन और दिन भर के व्रत, नदी स्नान पूर्वक झूमर गाने के साथ यह अनुष्ठान संपन्न्ा होता है। कर्मा एकादशी के दूसरे दिन..जिस दिन एकादशी व्रत का उद्यापन होता है दही-भात का सेवन किया जाता है। सारे शीतल अपचार किए जाते हैं। यह जानना अत्यंत रोचक होगा कि जैन एवं वैष्णव धाराएँ किस प्रकार अपनी पहचान बनाने एवं वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करती हैं और व्यापक/बहुसंख्यक समाज दोनों परंपराओं को किस रूप में समायोजित करता है।
इस समय मगध का स्थानीय बहुसंख्यक समाज, जो हिन्दू कहा जाता है, उसमें कर्मा एकादशी और जैन परंपरा में आज भी कर्मदहन दशमी ही की जाती है लेकिन बहुसंख्यक समाज को कर्मदहन दशमी की न तो जानकारी है और न ही उसे इन बिंबों के रूपांतरण का बोध है। उसे उत्सव चाहिए, बस इतना ही काफी है। वह दशमी को हो या एकादशी को, उसे एक दिन के अंतराल से भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
अनंत व्रत के संदर्भ में यह दिन का भेद भी मिट जाता है। अनंत चतुदर्शी के दिन दोनों ही धाराएँ एक साथ उत्सव मनाती हैं। अगले निबंध में इस विषय को स्पष्ट किया जायेगा।
कर्म की पूजा में कर्म को ही भगवान मानने जैसी श्रद्धा विकसित की है। यहाँ अभी जो औरतें गीत गाती है वह निम्न है-‘अपन करम भैया के धरम झूर में मूड़ घुसरावीला।’ यह पद एक प्रकार से कर्मा एकादशी का मंत्र है। यही मूल भाव है कि अपना कर्म और भाई का धर्म झूर की मूल की तरह प्रविष्ट कर रही हूूँ। ‘घुसरावीला’ का अर्थ होता है मैं इसे घुँसेड़ रही हूँ। कर्मा पूजा ने कर्म और कर्मवाद को मानविक रूप दे डाला है। कर्म एक भाव नहीं रहकर स्वयं में एक भगवान का रूप धारण कर लेता है।
इसी भावना और विश्वास के आधार पर कर्मा नाम के अनेक गाँव मिलते है। कर्मा ही नहीं मगध के औरंगाबाद जिले में कर्मा भगवान नाम का गाँव भी है । और भी कई जगह कर्मा भगवान नाम के गाँव होने की चर्चा आती है। कर्मा नाम होने का अर्थ है कि उस गाँव में कर्मा अनुष्ठान का जोर-शोर से आयोजन होता था और बाद में मंदिर बना। फिर उस मंदिर में कर्मा भगवान की प्रतिमा स्थापित कर दी गई।
दोनों परंपराओं कर्मदहन दशमी और कर्मा एकादशी पूजा पद्धति की जो पुस्तिकाएँ चलन में हैं उनका अवलोकन करने से अन्य बातंे भी प्रगट होगीं जो विस्तार भय से यहाँ वर्णित नहीे हैं।
उपर्युक्त प्रकार से हम देखते हैं कि मगध की संस्कृति में वैष्णव एवं जैन परंपरा के बीच कर्मवाद को लेकर जनता के बीच किस प्रकार का संवाद हुआ और जनता ने उसे क्या और कैसे समझा ? आज की तारीख में उसका कौन सा स्वरूप जीवन परंपरा और विरासत के रूप में मगध में चलन में है। कर्मवाद, पाप-पुण्य की विरोध वाली धारा तथा विरोध करने वाली मगध की भूमि स्वयं कर्म को भगवान के रूप में पूजने लगी है। दूसरी ओर कर्मवाद के मुख्य समर्थक क्षेत्र यानी मगध के पश्चिम के लोग आज भी गया को भले ही तीर्थ क्षेत्र मान लें लेकिन मगध के कर्मवाद से मुक्ति दिलाने वाली भूमि के प्रति उनका बाहरी लगाव और भीतरी विरोध बदस्तूर जारी है।
प्रिय रविन्द्रजी को स्नेहाशीष।प्रस्तुति बहुत ही ज्ञानवर्द्धक है।एक शब्द की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ- हरिशयनी एकादशी अगहन शुक्ल लिखा हुआ है,इसे सुधार दें- आषाढ़ शुक्ल होना चाहिए न ?
जवाब देंहटाएंJee haan, apane sahee kahaa hai. Galatee ho gayee hai. Ise sudhara jaayega. Dhanyavad, pranam.
हटाएंबहुत अच्छा लगा.आपके विश्लेषण ने जैन और बौद्ध दोनों की असहज परंपरा को कर्मनाशा में डुबाकर लोकाचार में जोड़ दिया और वैष्णव कर्मवाद को भी स्थापित कर दिया.इतिहास में यही हुआ है अतः इस ऐतिहासिक तथ्य के पुनर्विचार हेतु बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंAapaka protsahan achha laga, Pranam.
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