सोमवार, 23 सितंबर 2013

बिकाऊ धर्म कथा 2

आ! बौद्ध, मुझे मार,

भारत के मध्य देश अर्थात हिंदी पट्टी से बौद्ध धर्म की स्वतंत्र पहचान समाप्त हो गई थी। साधना विधियों का समावेश लाकाचार में आम जन ने कर लिया था और भिक्षु संघ के स्वरूप तथा संपत्ति पर मठों का कब्जा हो गया था या वे विलीन हो गये थे।

आजादी के बाद परिदृश्य बदला। अब बाबा साहब अंबेदकर के अनुयायी उग्र बौद्ध आंदोलन के समर्थक हैं तो विदेशी बौद्धों को भारत में पुरानी संपत्ति तथा धार्मिक स्थलों पर कब्जा जमाने में खूब रुचि है। स्थानीय समाज से लड़ने भिड़ने के लिये वे अंबेदकरवादियों की मदद लेते हैं। ऐसे झगड़े आम हैं। इस परिस्थिति को जानने पर भी गया बोधगया के कई मंदिरों के पुजारी अपने मंदिर को जो वस्तुतः उनका होता नहीं है, उसे किसी न किसी रूप में बौद्ध धर्म से जोड़ कर कमाई बढ़ाना चाहते हैं। परिणाम ठीक उलटा होता है। पहले तो नव बौद्ध चुप रहते हैं, फिर आंदोलन कर वहां से स्थानीय पुजारियों को हटा कर किसी भिक्षु को स्थापित करते हैं फिर उनके भीतर भी उस मंदिर पर वर्चस्व का झगड़ा शुरू होता है।

धर्मारण्य क्षेत्र के मग ब्राह्मणों के कब्जे वाले मतंगवापी में लगभग आधा हिस्सा बौद्ध ले चुके और वहां सुजाता का मंदिर बन गया। धर्मारण्य मंे खेल शुरू हो गया, बुद्ध की कई मूर्तियां ब्राह्मणों द्वारा ही स्थापित करवा दी गईं। यह श्रोत्रियों के कब्जे की जगह है। अब गया तीर्थ के केन्द्र गहरा षडयंत्र शुरू हुआ है। श्राद्ध की दुष्टि से अति महत्त्वपूर्ण बृद्धप्रपितामहेश्वर मंदिर का नाम प्रशासन की ओर से बदलवा दिया गया है। अब वह सरकारी रिकार्ड में बुद्धपितामहेश्वर हो गया। ध्यान दें कि यह सब स्थानीय अपराजेय शुद्ध भाजपाई विधायक की देखरेख में किया गया है। बस झगड़ा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर का विवाद खड़ा करने भर की देर है। चित्र नीचे हैं। मेरे परिचित भाजपाइयों को इस बात पर तो चुप नहीं रहना चाहिये और खाश कर जो गया और इसके आसपास के हैं।


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