रविवार, 27 मार्च 2011

बहुरंग : रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण

मेरे जाने-अनजाने मित्र गण! नमस्कार।
मैं ने भी ब्लाग की दुनिया में पैर रखा है। 30 साल की घुमक्कड़ी विविध सामाजिक प्रयोग एवं दुर्लभ व्यक्तियों के संपर्क के साथ मेरी मूर्खता ने मुझे रंगीन दुनिया के कई रंगों से परिचित कराया। उन पर मैं ने संस्मरण लिखा।
इस ब्लॉग में मेरे संस्मरण हैं। ये बहुरंगी दुनिया के कुछ रोचक और कुछ रहस्यमय परतों में आपको ले जायेंगे। मेरी इस दुनिया में अनेक प्रकार के लोग हैं - गृहस्थ, संन्यासी, घुमक्कड़, साधु, बौद्ध भिक्षु, अपराधी, इतिहासकार, पुरातत्त्वविद, वैज्ञानिक, कवि, लेखक, पुलिस पदाधिकारी, राजनेता, वेश्याएं, जुआरी, सामाजिक कार्यकर्ता, तांत्रिक, औघड़, पंडे, पुरोहित, वैद्य, कलाकार, पूर्व नक्सली, पत्रकार, उद्योगपति, स्वतंत्रता सेनानी, चरवाहे, नाविक, अति स्वाभिमानी और पूर्ण निर्लज्ज, मेरे मित्र एवं घर-परिवार के लोगतथ्यपरक एवं ज्ञानवर्धक सामग्री के लिये मेरा अन्य ब्लॉग है - दूसरा पहलू ।

इस ब्लाग की सारी सामग्री एक साथ पाकर मेरे मित्र एवं पाठक घबराने लगे और कुछेक को इतना अच्छा लगा कि वे इसे पढ़ने के लिये पता नहीं कब समय निकालेंगे। इसलिये मैं ने सोचा है कि किश्तवार कभी रोचक, कभी ज्ञानवर्द्धक एवं कभी आपकी जडता और एक रसता को तोड़ने वाली सामग्री पेश करूंगा।
फिलहाल अपने कुछ संस्मरणों की सूची दे रहा हूॅँ , जो अगले अंकों में आयेंगे--
बहुरंग: रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण
1 नींद का चमत्कार
2 समाधिस्थ बालक का सच
3 कर्फ्यू-पास
4 मौन में व्याख्यान
5 मेरी काम भावना का विकास
6 काका कालेलकर की दाढ़ी का रहस्य
7 मेरी भैरव साधना
8 मौके की मदद
9 भुइयाँ एवं संथाल का तिरगुन फाँस
10 गोआम
11 प्रेत भोजन
12 गन्ने की खेती का रस
13 मेरे बाबा
14 मुत्यु की शिक्षा और साक्षात्कार
इसके बाद के संस्मरणों की सूची टाइपिस्ट महाशय के यहां से सामग्री आने के बाद मिलेगी

बहुरंग : रवीन्द्र कुमार पाठक के संस्मरण

संस्मरण- 1
नींद का चमत्कार
सन् 81-82 की बात है। मैं उस समय का0 हि0 वि0 वि0, वाराणसी, में शोध छात्र था। मेरा गाँव, बिहार के भोजपुर जिले में पड़ता है, जहाँ के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध योद्धा बाबू वीर कुँवर सिंह रहे हैं। उनके गाँव जगदीशपुर में आज उनके किले के खंडहर के एक भाग को जो तुलनात्मक रूप से ठीक है, बिहार सरकार ने संग्रहालय घोषित कर रखा है। उनकी शेष संपत्तियों की ब्रिटिश काल में ही नीलामी हो चुकी है।
मुझे अपने अध्ययन के दौरान जैसे ही पता चला कि कुँवर सिंह की स्मृति में बने संग्रहालय पर उसी जिले के कुख्यात अपराधियांे का कब्जा है मैं निदेशक पुरातत्व से मिला तो उन्होने भी पुष्टि की और बात-बात में यह चुनौती सामने आई कि क्या इन अपराधियों से कोई संवाद भी हो सकता है? दरअसल ये इतने कुख्यात थे कि इनकी दृष्टि में सिगरेट का एक कश और एक हत्या में कोई फर्क नहीं था और ये सभी संपन्न घरों के बिगडै़ल जवान/प्रौढ़ थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच और मेरी 21-22 की थी।
संवाद की सबसे बड़ी बाधा उनके द्वारा देखते ही संदेह होने पर गोली चला देने की थी। मैं ने उस समूह के एक सरगना (आज स्व0) माल बाबू के एक शिक्षक से भेंटकर एक पत्र प्राप्त किया कि मुझे उनकी मदद की जरूरत है।
एक गर्मी की शाम 6.00 बजे मैं उनकी महफिल में पहुँचा। पहुँचते ही अपना परिचय देकर शिक्षक का नाम बताया और कहा कि जो भी व्यक्ति माल बाबू हों पत्र प्राप्त कर लें।
करीब 40-50 लोग बंदूक-रायफल वगैरह से लैस थे। मुझे एक चौकी पर (तख्त) बैठने को कहा गया। शाम की ठंढी हवा एवं थकान के कारण मुझे कब नींद आई, पता नहीं चला। नींद भी ऐसी कि रात मंे जगाने की सामान्य कोशिश के बाद भी नहीं खुली।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं भीतर से घबराया हुआ था और अपने आप को कोश रहा था और माल बाबू विस्मित, थके मुझे निहार रहे थे। मेरी उम्र के कारण झेंप रहे थे नहीं तो साष्टंाग दंडवत की मुद्रा में उन्होने कहा - बाबा (पाठक, ब्राह्मण होने के कारण) आप एकदम असाधारण चमत्कारी मनुष्य हैं, मैं यह भी समझ गया हूँ कि आप कोई छोटी-मोटी बात कहने नहीं आए होंगे फिर भी आपके बिना कहे भी यह मैं वादा करता हूँ कि आप जो भी कहेंगे उसका अक्षरशः पालन होगा, केवल वह बात सम्मान के विरूद्ध नहीं होनीं चाहिए।
मैं ने अपनी नींद को कोसा, माफी माँगी कि आपको मेरी रक्षा में रात भर जगना पड़ा। माल बाबू ने कहा - जिसके भय से पूरा इलाका थर्राता है। जनता-प्रशासन ठीक से सो नहीं पाती उस दल के बीच ऐसी नींद तो किसी असाधारण आदमी को ही आ समती है, आप महान हैं, मैं आपको गुरू बनाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं स्वयं सहमा और ग्लानि ग्रस्त था। मैं स्वये जानता हूं कि मैं सनक में न रहूं तो कितना बड़ा डरपोक हूं।
मैं ने उस संग्रहालय भवन को खाली करने का प्रस्ताव रखा। माल बाबू हँसे, बोले, एकदम ठीक, मैंने ठीक समझा था। मैं फिर फेरे में पड़ा, मालबाबू फिर हँसे, बोले बाबा आज के पहले माल बाबू से कोई यह बात कह नहीं सका। आप नहीं जानते कि अब तक गोली आपको छेद चुकी होती और आप यह नहीं समझ रहे कि कितनी बड़ी बात आपने मुझसे कही और माँगी है। माल बाबू अड्डा छोड़ दें, कारोबार छोड़ दें, रुतबा छोड़ दंे सचमुच मेरी लिए भी बड़ी बात है फिर भी वादा सो वादा।
इसका सम्मान जनक राश्ता यह निकाला गया कि माल बाबू स्वयं संग्रहालय की मरम्मत कर सभा आयोजन कर विदा होंगे।
बड़े सम्मान से मुझे बस में बिठाया गया। मैं जब पुरातत्व निदेशक के पास पहुँचा तो ेपहले तो वे चकित हुए फिर जातिवादी पेंच फंसाया कि कुंवर सिंह तो ठाकुर/राजपूत थे। आप को इस पचड़े से क्या लेना वगैरह-वगैरह। मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
माल बाबू तो मान गए लेकिन जातिवादी रंग मे रंगे निदेशक श्री सीताराम जी को कुँवर सिंह, खटकते रहे क्योंकि वे उनकी जाति के नहीं थे।
एक दिन आरा (जिला मुख्यालाय) की कचहरी पर मालबाबू गिरोह के सभी सदस्य मिल गए। मुझे बचते देख माल बाबू ने बुलाया सबसे परिचय कराया मुझे गुरु बताया। मेरी भारी दुर्गति, डर कि घर तक खर खबर जायेगी कि मैं गुडांे की टीम में हूँ। खैर, मैंने हार मानी, निदेशक वाली बात बताई। माल बाबू की आँखो में मेरी विवशता पर आँसू आ गए। कुछ वर्षों बाद पला चला कि माल बाबू की भी हत्या हो गई।


संस्मरण-2
समाधिस्थ बालक का सच
बचपन में मेरे पास खिलौने एवं खेलने वाले दोनों की कमी थी। संयुक्त परिवार में चौथी पीढ़ी का पहला एवं दुर्लभतुल्य बालक था।
मुझे पढ़ाने के लिए विद्वानों की बैठक बुलाकर शिक्षा पद्धति तय की गई। तय यह हुआ कि इस बच्चे को (क) बच्चों की संगति से दूर रखा जायेगा (ख) विद्यालय नहीं भेजा जायेगा (ग) स्वतंत्र पाठ्यक्रम बनाकर घर पर पढ़ाया जायेगा (घ) परदादा जी की निगरानी में पढ़ाई होगी (ड़) 12-14 साल तक शास्त्रार्थ सभा में विजेता बनाया जाएगा।
मेरा गाँव सुदूर देहात में है। मेरे दो प्रपितामह थे। छोटे वाले सांख्य, वेदांत, व्याकरण साहित्य में 4 विषयों में तीर्थ अर्थात स्नातकोत्तर उपाधिधारी थे।
7 वर्ष तक में मुझे गीता एवं अमरकोश, एक कांड कंठस्थ हो गया। मैं स्वयं खिलौना हो गया। घर रिश्तेदारी के बच्चे मुझे भोंपू कहते थे, ननिहाल में बहुत मजाक उड़ता था। जैसे ग्रामोफोन ; उस जमाने में वही थाद्ध की कुंडली, घुमाकर रिकार्ड/तवा बजता वैसे ही मेरे काम में आदेश मिलते ही बुजुर्गों के सामने गीता पाठ करना एवं मिठाई फल वगैरह खाना पड़ता था। वस्तुतः मैं बहुद उदास और दुखी रहता था।खेलने पर मनाही थी और बेवजह खूब पिटाई भी होती थी। इसके साथ बुजुर्गों की अपसी बहस भी समानांतर चलती रहती कि बच्चे को पीटने से लाभ है या हानि। इस पर मैं भीतर ही भीतर सुलगता रहता क्योंकि कुछ कर तो सकता था नहीं।
एक बार मेरे बड़े प्रपितामह को काशीवास के लिए बनारस लाया गया। अस्सी घाट पर नहाकर गीता सुनाने की मेरी ड्यूटी लगी। मैं भी स्नान कर पालथी मारकर ”धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे“ से शुरू हो गया। पाठ चालू, सामने मिठाई, फल, हो सकता है कुछ भक्तों ने कुछ सिक्के भी रखे होंगे, किसी ने मना किया होगा कि हमें दान नहीं लेना। मैं तो रोज के गीता पाठ से ऊबा गंगा की धारा में खड़ी बड़ी नौका, और उसपार पतंग उड़ाते बच्चे को देख रहा था। बच्चे और पतंग में इतन निमग्न था कि मुझे न तो आस-पास का दृश्य दिखाई दे रहा था, न ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, मैं एकटक बस पंतग देख रहा था। स्नानार्थी भक्त आते-जाते रहे, टोक-टाक का भी असर नहीं हुआ तो लोगों ने घेर लिया कि कोई दिव्य, चमत्कारी बालक आया हैं। खुली आँख से समाधि लगाता है। मेरे पितामह ताड़ गए वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होेंने झकझोर कर सचेत किया। मैं फल-मिठाई लेकर डेरे पर लौटा।
बडे़ प्रपितामह तो नहीं मरे छोटे प्रपितामह मर गए। अनौपचारिक शिक्षा बंद हो गई। मेरी रुचि एवं पीड़ा को ध्यान में रखकर पितामह ने स्वयं पतंग खरीदा एवं मुझे पतंग उड़ाना सिखाया। पतंग उडाने में मुझे बहुत मन लगा।
बाद में मैं ने एक निबंध लिखा - पतंगबाजी: बच्चांे की चिदाकाश धारणा।
कायदे से पतंग उड़ाने से बच्चों की आँख की कई बीमारियाँ ठीक होती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत प्रयोग है। यह संस्मरण गांधी मार्ग में छप गया है।





संस्मरण - 3
कर्फ्यू-पास
बात 1982-83 की है। मैं का0 हि0 वि0 वि0 में शोध छात्र था। हम लोगों की एक मंडली थी। उसमें कई जूनियर-सीनियर छात्र थे।
बनारस शहर में उन दिनों प्रतिवर्ष हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते थे। दंगा होते ही कर्फ्यू लागू। हमलोग छात्रावास में रहते थे। बस परिसर तक हमारी गतिविधियां हों या जो घर जाना चाहें उन्हें सुरक्षित बस से स्टेशन भेजा जाता था।
शहर में दंगा था, जाड़े का समय, मैं लान में चटाई पर लेटा रेडियो के लिए नाटक लिख रहा था। स्कालरशिप 400 रुपये की थी, हास्य रूपक में मुझे 250 रुपये मिलते तो मंडली का खर्चा चलता। बी0ए0 का एक छात्र आया और ताना मारा कि शहर जल रहा है और भैया आप इतने निश्ंिचत होकर हास्य रूपक लिख रहे हैं, कहाँ गई आपकी संवेदनशीलता?
मैंने समझाया - भाई कर्फ्यू में क्या करें?
उसनेे कहा - यही सोचिए कि क्या करें?
तय यह हुआ कि परिस्थिति का अध्ययन कर कुछ रिलीफ सामग्री वि.वि. से जमा कर दंगा पीड़ितो में बाँटा जाय, कुछ बयान बाजी हो। फिर समस्या सामने आई कि बिना कफर््यू पास के जायें तो कैसे जाएँ।
मेरे मित्र श्री बैकुंठ पाण्डेय जी भी शोध छात्र थे। अंततः हम दोनों ने तय किया कि तत्कालीन जिलाधिकारी भूरे लाल (जो ईमानदारी एवं कड़ाई के लिए कुख्यात थे।) उनसे ही मिला जाय।
योजना यूं बनी कि एक बड़े सादे कागज पर हास्टल में उपलब्ध सभी प्रकार की मुहरें लगाई जायं एवं फर्जी दस्तख्त कर दिए जायँ। हमलोगों ने वैसा ही किया और गली-दरगली घूमते पत्रकार बने श्री भूरे लाल तक पहुँच गए। कर्फ्यू में घूमने का अनुभव विवित्र था। पुलिस वाले कुत्तों को खदेड़ रहे थे। एक सिपाही तो पोल पर ही लाठियाँ बरसा रहा था। बैत की लाठी झाडू की तरह आगे के शिरे पर हो गई थी।
किसी तरह जब हमलोग जिलाधिकारी के पास पहुँचे तो श्रीमान् भूरेलाल स्तब्ध। हमने अपनी मंशा/योजना बताई। वे हँसे, बोले आप लोगों ने कानून का मजाक बना रखा है, तब तक नगर पुलिस उपाधीक्षक श्री द्विवेदी आ गए वे और चकित। उन्होंने पूछा ये लोग क्या चाहते हैं? कर्फ्यू पास? जिलाधिकारी पुनः हँसे - भाई हमारा कर्फ्यू पास तो आधे पोस्टकार्ड आकार का है आप लोग अपनी कोट पर जिना बड़ा र्क्फ्यू पास चिपकाए हैं उतना बड़ा तो छापा ही नहीं।
इस पास पर जब आप भूरे लाल के सामने खड़े हैं और मैं आपको जेल नहीं भेज रहा हूँ तो समझिये कि आप लोगों के लायक हमारे पास कर्फ्यू पास हमारे पास नहीं है। जरा बचकर लौटिएगा और जाने के पहले गली-मुहल्लों का समाचार भी बताते जाइए।
बाद में हमने दंगा निरोधक तंत्र एवं शास्त्र भी विकसित किया एवं सन् 1985 तक दंगा रोकने में पूरी सफलता पाई। गया में भी मेरा सामाजिक जीवन इसी कार्य से प्रारंभ हुआ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है | आपके सानिध्य ने मेरे जीवन को एक दिशा दी | इन संस्मरणों में कुछ मैं आपकी जबानी ही सुन चूका हूँ | मेरे लिए ये सिर्फ मनोरंजन नहीं हैं, बल्कि जीवन के सरल सूत्र हैं जो बिलकुल सीधे सपाट शब्दों में गढ़ दिए गए हैं |

    मेरे ब्लॉग पर भी आशीर्वचन दें |
    http://humbhojpuriya.blogspot.com/

    http://mishrashashi.blogspot.com/

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  2. Bhaiya
    Pranam .Aaapke Blog par likhne ke liye bahut din se soch raha tha .Bahut socha kya likhun.Phir socha is bar jarur likhung kyonki kai logo ne aapko nahi jana kyonki ya to wo aapko janane ke liye taiyar nahi the ya aap apni aur pure pariwar me itna wyast the ki aap aapne ko bata bhi nahi sake.Khair ye tarika bahut badhia hai jahn aapke moulik aur boudhik karyon ko humlogo ke alawe bhi log jan sakenge.Aap agar apne sansmarn me swarojgar,beyond horizon oppertunity exploring attitude,ke bare me likhe to log aur aapko jan payenge aur nai pidhi shyad jyad labhanwit hogi.D K PATHAK

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