भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह
यह मुद्दा इतिहास के छात्रों के बीच प्रायः और राजनेताओं तथा आम आदमी के बीच रुकरुक कर चर्चित होता रहता है।
भारतीय इतिहास की कुछ प्रवृत्तियां ऐसी हैं कि वर्तमान कालीन उपयोग की दृष्टि से हमेशा उलझनें ही मिलेंगी। उलझनें इतिहास में नहीं वर्तमान समाज की प्रवृत्तियों में है क्योंकि इतिहास केवल जानने और जानकारी से शिक्षा ग्रहण करने के लिये नहीं, वर्तमान विभिन्न समुदायों, जातियों एवं समूहों की परस्पर विरोधी आकांक्षाओं में हैं। इन उलझनों का प्रभाव इतना गहरा है कि भारत के सहज सामाजिक वर्गीकरणों, जैसे - परिवार, जाति, कुल-रेस, संप्रदाय, धर्म एवं आधुनिक आदर्शवादी पहचान, जैसे- साम्यवादी, समाजवादी, अंबेदकरवादी, संघी, गांधीवादी आदि वर्गीकरणों में बंटे लोग केवल अपने अनुकूल इतिहास को ही स्वीकार करना चाहते हैं।
चूंकि अतीत को तो सुधारा जा नहीं सकता अतः लोग उससे केवज अनुकूल को स्वीकार करने एं प्रकिूल को नकारने की कोशिश करते हैं। यदि कोई व्यक्ति दूसरे पक्ष को सामने लाये तो इनकी प्रतिक्रिया बहुत भयानक होती है। उसमें भी एक सुविधावादी तर्क यह है कि कुछ लोगों को, जो कुल मिला कर अल्पसंख्यक हैं, उन्हें अन्य लोगों के साथ जोड़ कर उन पर आक्रमण किया जाय और फिर उन्हें अकेला पा कर सारी समस्याओं का जड़ उन्हें ही बताया जाय। इसके बाद उन पर आक्रमण, शोषण करना आसान हो जाता है। यह पूर्णतः शत्रुता की भावना पर आधारित इतिहास लेखन है।
विडंबना यह है कि आधुनिक आदर्शवादी पहचान, जैसे- साम्यवादी, समाजवादी, अंबेदकरवादी, संघी, गांधीवादी आदि वर्गीकरणों में बंटे लोग सहज सामाजिक वर्गीकरणों, जैसे - परिवार, जाति, कुल-रेस, संप्रदाय, धर्म एवं रोजगार की दृष्टि से एक ही साथ परस्पर विरोधी पहचान वाले हो जाते हैं। उनकी सबसे अधिक दुर्गति है। एक जन्मना ब्राह्मण को कम्यूनिस्ट होने के नाते हिंदू धर्म, ही नहीं ब्राह्मण जाति को भी रोज गाली देनी होती है और इस्लाम, ईशाइयत के क्रूरता के प्रति चुप रहना ही नहीं, उसे झुठलाना होता है। इसी तरह नास्तिकतावादी और मूलतः राजनैतिक संगठन रा.स्व.से.संघ के नजरिये से ही इतिहास को लिखने की जिद ठन जाती है। वस्तुतः तथ्य की हत्या दोनो ही निर्मम ढंग से करते हैं।
इस समस्या के कुछ अचर्चित या अल्प चर्चित मामलों की क्रमशः चर्चा होगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें