गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

समाधिस्थ बालक का सच

समाधिस्थ बालक का सच
बचपन में मेरे पास खिलौने एवं खेलने वाले दोनों की कमी थी। संयुक्त परिवार में चौथी पीढ़ी का पहला एवं दुर्लभतुल्य बालक था।
मुझे पढ़ाने के लिए विद्वानों की बैठक बुलाकर शिक्षा पद्धति तय की गई। तय यह हुआ कि इस बच्चे को (क) बच्चों की संगति से दूर रखा जायेगा (ख) विद्यालय नहीं भेजा जायेगा (ग) स्वतंत्र पाठ्यक्रम बनाकर घर पर पढ़ाया जायेगा (घ) परदादा जी की निगरानी में पढ़ाई होगी (ड़) 12-14 साल तक शास्त्रार्थ सभा में विजेता बनाया जाएगा।
मेरा गाँव सुदूर देहात में है। मेरे दो प्रपितामह थे। छोटे वाले सांख्य, वेदांत, व्याकरण साहित्य में 4 विषयों में तीर्थ अर्थात स्नातकोत्तर उपाधिधारी थे।
7 वर्ष तक में मुझे गीता एवं अमरकोश, एक कांड कंठस्थ हो गया। मैं स्वयं खिलौना हो गया। घर रिश्तेदारी के बच्चे मुझे भोंपू कहते थे, ननिहाल में बहुत मजाक उड़ता था। जैसे ग्रामोफोन ; उस जमाने में वही थाद्ध की कुंडली, घुमाकर रिकार्ड/तवा बजता वैसे ही मेरे काम में आदेश मिलते ही बुजुर्गों के सामने गीता पाठ करना एवं मिठाई फल वगैरह खाना पड़ता था। वस्तुतः मैं बहुद उदास और दुखी रहता था।खेलने पर मनाही थी और बेवजह खूब पिटाई भी होती थी। इसके साथ बुजुर्गों की अपसी बहस भी समानांतर चलती रहती कि बच्चे को पीटने से लाभ है या हानि। इस पर मैं भीतर ही भीतर सुलगता रहता क्योंकि कुछ कर तो सकता था नहीं।
एक बार मेरे बड़े प्रपितामह को काशीवास के लिए बनारस लाया गया। अस्सी घाट पर नहाकर गीता सुनाने की मेरी ड्यूटी लगी। मैं भी स्नान कर पालथी मारकर ”धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे“ से शुरू हो गया। पाठ चालू, सामने मिठाई, फल, हो सकता है कुछ भक्तों ने कुछ सिक्के भी रखे होंगे, किसी ने मना किया होगा कि हमें दान नहीं लेना। मैं तो रोज के गीता पाठ से ऊबा गंगा की धारा में खड़ी बड़ी नौका, और उसपार पतंग उड़ाते बच्चे को देख रहा था। बच्चे और पतंग में इतन निमग्न था कि मुझे न तो आस-पास का दृश्य दिखाई दे रहा था, न ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, मैं एकटक बस पंतग देख रहा था। स्नानार्थी भक्त आते-जाते रहे, टोक-टाक का भी असर नहीं हुआ तो लोगों ने घेर लिया कि कोई दिव्य, चमत्कारी बालक आया हैं। खुली आँख से समाधि लगाता है। मेरे पितामह ताड़ गए वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होेंने झकझोर कर सचेत किया। मैं फल-मिठाई लेकर डेरे पर लौटा।
बडे़ प्रपितामह तो नहीं मरे छोटे प्रपितामह मर गए। अनौपचारिक शिक्षा बंद हो गई। मेरी रुचि एवं पीड़ा को ध्यान में रखकर पितामह ने स्वयं पतंग खरीदा एवं मुझे पतंग उड़ाना सिखाया। पतंग उडाने में मुझे बहुत मन लगा।
बाद में मैं ने एक निबंध लिखा - पतंगबाजी: बच्चांे की चिदाकाश धारणा।
कायदे से पतंग उड़ाने से बच्चों की आँख की कई बीमारियाँ ठीक होती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत प्रयोग है। यह संस्मरण गांधी मार्ग में छप गया है।

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