रसानुभूति 2
रसो वै सः वह रस है
इस वेद वाक्य को भी ब्रह्म का अर्थ बताने वाला माना जाता है। मतलब कि वह ब्रह्म रस है। रस शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें मुख्य हैं- 1 जीभ से चखा जाने वाला स्वाद रूपी रस- षट् रसए 2 द्रव का पर्यायवाची जैसे सभी तरल पदार्थ, जो अपने साथ जुड़ी चीजों को संभाल कर रखते हैं, जीवन देते हैं, जल आदि, 3 पारा एवं गंधक का योग एवं ऐसी दवाएं, जिनमें पारा-गंधक का योग मिला हो, अनेक आयुर्वेदिक दवाएं, 4 काब्य/नाट्य या गान से मिलने वाली मन को खुश करने वाली अनुभूति, 5 ध्यान, योग, तंत्र आदि के अभ्यास से अपने भीतर के आनंद स्रोत तथा जीवन स्रोत से कण एवं/या विपुल रूप में चखा/अनुभूत किया जाने वाला।
रस के इन 5 अर्थों के अतिरिक्त इनके अर्थ विस्तार से भी कई अर्थ निकल सकते हैं। कोई रस के किसी एक पक्ष के बारे में बताते हुए भी कह सकता है कि वह (उसके अभिप्रेत या विवेच्य) अर्थ, भोजन, काव्य, दृश्य, अनुभूति, आदि कुछ भी रस है या सरस रसयुक्त है। साथ ही वह ब्रह्म का ही अंश है।
यदि कोई अपने को योगी, तांत्रिक (परंपरागत अर्थ में न कि काला जादू वाले) या किसी दर्शन के प्रणेता/भाष्यकार मान कर बात करे तो उसकी जिम्मेवारी उपर्युक्त सभी अर्थों में रस के अर्थ, महत्व, स्वरूप, उसकी अनुभूति/उपलब्धि का मार्ग बताने की होती है।
रससिद्धांत का निरूपण किसी आदर्शवाद, कल्पना, मिथ, चाली बात नहीं है। यहां तो बताना पड़ेगा कि भोजन कैसे स्वादु बनेगा? मूर्तियों या कला के अन्य उपादानों में सौंदर्यबोध की प्रक्रिया क्या होगी? और पैमाने क्या होंगे? वगैरह। इसी तरह मंचीय प्रक्रिया का विधान भी बताना होगा और काव्य मीमांसा भी जिसे संस्कृत में अलंकार शास्त्र भी कहते हैं। इन सबके साथ पूजा-पाठ, ध्यान, योग लोक-व्यवहार, कृषि, संगीत, और पता नहीं कितनी सारी बातें, जैसे - मृत्यु तथा उसके बाद सरस जन्म भी।
इन बातों के एक एक पक्ष पर तो कई लोगों ने प्रकाश डाला है लेकिन उनसे आगे बढ़ कर तंत्रालोक जैसे महान ग्रथ के रचयिता श्रीमान अभिनव गुप्त ने सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है और उसकी प्रक्रिया अनेक उपायों के साथ बताई है।
भरत मुनि का प्रसिद्ध सूत्र है- ‘‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः’’। काव्य कला आदि में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारि भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
इन सारी बातों के विस्तार की मूल प्रक्रिया एवं रहस्य मनुष्य के तन, मस्तिष्क, इन्द्रियां, मन एवं उससे गहरी जो भी मानें, उनकी कार्य प्रणालियों का संसार की सामग्रियों से उनके संबंधों के विवेचन में निहित है।
संक्षेप में कहें तो व्यक्तित्व, अंतःकरण का बाह्य संसार से संबंध तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाली अनुभूति या अंतस्थ जप, ध्यान आदि से प्राप्त होने वाली जीवनदायी अनुभूतियां रस के स्रोत तथा प्रक्रियाएं हैं।
अगली किश्तों में जारी
रसो वै सः वह रस है
इस वेद वाक्य को भी ब्रह्म का अर्थ बताने वाला माना जाता है। मतलब कि वह ब्रह्म रस है। रस शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें मुख्य हैं- 1 जीभ से चखा जाने वाला स्वाद रूपी रस- षट् रसए 2 द्रव का पर्यायवाची जैसे सभी तरल पदार्थ, जो अपने साथ जुड़ी चीजों को संभाल कर रखते हैं, जीवन देते हैं, जल आदि, 3 पारा एवं गंधक का योग एवं ऐसी दवाएं, जिनमें पारा-गंधक का योग मिला हो, अनेक आयुर्वेदिक दवाएं, 4 काब्य/नाट्य या गान से मिलने वाली मन को खुश करने वाली अनुभूति, 5 ध्यान, योग, तंत्र आदि के अभ्यास से अपने भीतर के आनंद स्रोत तथा जीवन स्रोत से कण एवं/या विपुल रूप में चखा/अनुभूत किया जाने वाला।
रस के इन 5 अर्थों के अतिरिक्त इनके अर्थ विस्तार से भी कई अर्थ निकल सकते हैं। कोई रस के किसी एक पक्ष के बारे में बताते हुए भी कह सकता है कि वह (उसके अभिप्रेत या विवेच्य) अर्थ, भोजन, काव्य, दृश्य, अनुभूति, आदि कुछ भी रस है या सरस रसयुक्त है। साथ ही वह ब्रह्म का ही अंश है।
यदि कोई अपने को योगी, तांत्रिक (परंपरागत अर्थ में न कि काला जादू वाले) या किसी दर्शन के प्रणेता/भाष्यकार मान कर बात करे तो उसकी जिम्मेवारी उपर्युक्त सभी अर्थों में रस के अर्थ, महत्व, स्वरूप, उसकी अनुभूति/उपलब्धि का मार्ग बताने की होती है।
रससिद्धांत का निरूपण किसी आदर्शवाद, कल्पना, मिथ, चाली बात नहीं है। यहां तो बताना पड़ेगा कि भोजन कैसे स्वादु बनेगा? मूर्तियों या कला के अन्य उपादानों में सौंदर्यबोध की प्रक्रिया क्या होगी? और पैमाने क्या होंगे? वगैरह। इसी तरह मंचीय प्रक्रिया का विधान भी बताना होगा और काव्य मीमांसा भी जिसे संस्कृत में अलंकार शास्त्र भी कहते हैं। इन सबके साथ पूजा-पाठ, ध्यान, योग लोक-व्यवहार, कृषि, संगीत, और पता नहीं कितनी सारी बातें, जैसे - मृत्यु तथा उसके बाद सरस जन्म भी।
इन बातों के एक एक पक्ष पर तो कई लोगों ने प्रकाश डाला है लेकिन उनसे आगे बढ़ कर तंत्रालोक जैसे महान ग्रथ के रचयिता श्रीमान अभिनव गुप्त ने सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है और उसकी प्रक्रिया अनेक उपायों के साथ बताई है।
भरत मुनि का प्रसिद्ध सूत्र है- ‘‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः’’। काव्य कला आदि में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारि भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
इन सारी बातों के विस्तार की मूल प्रक्रिया एवं रहस्य मनुष्य के तन, मस्तिष्क, इन्द्रियां, मन एवं उससे गहरी जो भी मानें, उनकी कार्य प्रणालियों का संसार की सामग्रियों से उनके संबंधों के विवेचन में निहित है।
संक्षेप में कहें तो व्यक्तित्व, अंतःकरण का बाह्य संसार से संबंध तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाली अनुभूति या अंतस्थ जप, ध्यान आदि से प्राप्त होने वाली जीवनदायी अनुभूतियां रस के स्रोत तथा प्रक्रियाएं हैं।
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रसौ वै सः इस वेद वाक्य का अर्थ जो (दास्य साख्य वात्सल्य माधुर्य तथा प्रेम) रस से परीपुर्ण है.और वे है भगवान श्रीकृष्ण जिनके अंदर यह पांचो रस 100 प्रतीशत है. जबकी सामान्य जीव के अंदर वे अंशमात्र है. इसलीये ये बद्धजीव कदापी ब्रम्ह नही बन सकता.अपीतु बद्धजीव भगवान श्रीकृष्ण की प्रेममयी सेवा करके चिरकाल के लीये उनके गोलोक को प्राप्त कर सकता है.
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