शनिवार, 3 सितंबर 2016

वागर्थ

वागर्थ 1
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे, पार्वती-परमेश्वरौ।।
वाक्-वाणी एवं उसका अर्थ मिलकर हुए वागर्थ। ये आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े रहते हैं। ऐसे वागर्थ की तरह जुड़े हुए, संसार के माता-पिता पार्वती एवं परमेश्वर की मैं वंदना करता हूं, वाक्-वाणी एवं उसके अर्थ की ठीक समझ के लिए।
मैं बचपन से महा कवि कालिदास एवं गोस्वामी तुलसीदास जी की, रामचरित मानस वाली  मंगलाचरण वंदना दुहरा रहा हूं।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
 वाक्-वाणी एवं उसके अर्थ की ठीक समझ के प्रयास में मैं भी लगा हुआ हूं। कुछ समझा भी बाकी का शेष है। जब कालिदास/तुलसीदास जी जैसे लोग लगे हुए रहे तो मुझे देर लग रही है तो इसमें बहुत घबराने की बात नहीं है। बात ही बहुत तगड़ी है- पहले तो वाक् एवं उसके अर्थ के स्वरूप को समझना, फिर वाक् एवं उसके अर्थ के बीच जुड़ाव को समझना, फिर इस संसार में इनकी व्यापक भूमिका को पहचानना होगा तब जा कर कहा सकूंगा कि हां, अब मैं ने भी ठीक से समझ लिया है।
आप चाहे तुलसीदास जी को मानें न मानें, आस्तिक हों या नास्तिक, वैदिक हों या बौद्ध या अन्य मतावलंबी वाक् एवं उसके अर्थ की व्यूह रचना से बच नहीं सकते। हमारे जीवन में परस्पर संबंधों का बहुत बड़ा भाग इसी सरल या जटिल व्यूह रचना पर आधारित है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और हम कई बार पता नहीं सच या झूठ गौरवान्वित महसूस कराए जाते हैं कि भाषा हमें अन्य जीवों से विशिष्ट बनाती है। मैं ने सोचा कि कोई व्यक्ति यदि मुझे अन्य जीवों-योनियों में घूमने की विद्या सिखा दे तभी कह सकूंगा कि मनुष्य की अभिव्यक्ति एवं अन्य जीवों की अभिव्यक्ति में क्या अंतर है क्योंकि अभिव्यक्ति और संवाद तो अन्य जीवों में भी हो ही रहा है।
खैर, फिलहाल अन्य जीवों की बात छोडि़ए जरा मनुष्य के भीतर ही वाक् एवं उसके अर्थ की स्थिति को जानने-समझने का प्रयास किया जाए। यह एैसा विषय है कि आप नहीं कह सकते कि आप इसे परिचित नहीं है या इसकी आपको कोई जरूरत नहीं है। उलटे आप भी रोजमर्रे में इसकी समस्या से जूझते-जुझाते, कुंढते-हंसते या अपनी चालाकी पर मंद-मंद मुस्कराते हुए अथवा अट्टाहास करते हुए जीते हैं। फिर भी यह वागथ्र हमारे कब्जे में आता ही नहीं है, यह हमारी बेचैनियों में से एक है। हममें से जो जितने पढ़े लिखे औब बातों का व्यवसाय करने वाले या बातों के माध्यम से जीवन चलाने वाले होते हैं, उन्हें यह समस्या बहुत सताती है। धर्म, राजनीति, बाजार, सत्ता के विभिन्न केन्द्र और उनके प्रतिद्वंद्वियों तथा प्रतिस्पधिंयों के बीच रातदिन वाक्-युद्ध चलता रहता है। भारत के लोगों ने इसे अपने ढंग से समझने का प्रयास किया, बहुत विस्तार और गहराई में जा कर।
मैं अपने पश्चिम प्रेमी वामपंथी और दक्षिण पंथी दोनो प्रकार के मित्रों से उनके इस प्रचार के विरुद्ध जाने के लिए क्षमा भी नहीं मांग सकता कि भारत में तो कोई ज्ञान-चिंतन कभी था ही नहीं, न आज की समस्याओं की व्याख्या करने की उसमें क्षमता है, फिर भला समाधान कैसे मिलेगा? सच यह है कि आपने तो यह शब्कि पाखंड ही इसलिए किया ताकि हमारी विशाल ज्ञान राशि और वांग्मय में आपके मौलिक होने का दावा ही न डूब जाए। कई अन्य कारण भी हैं, फिलहाल हम रुकेंगे केवल वाक् एवं उसके अर्थ तक।
इसके लिए भारतीय चिंतन-ज्ञान परंपरा में एक यायावरी करते हैं और देखते हैं कि कहां क्या मिल जाता है और किसके काम का, उसमें से क्या निकलता है? आप साथ देंगे तो मेरी यात्रा का एकांत मुझे कम सतायेगा। वैसे मैं यह तो कह नहीं सकता कि यह पूर्णतः स्वांतः सुखाय है लेकिन उसके मूल में वह जरूर है क्योंकि इस यात्रा का निपर्णय तो मैं ने स्वयं लिया है।
मेरी यह यात्रा कथा नाना पुराण-निगम-आगम से सम्मत ही रहेगी। मैं इस लायक ही नहीं कि कोई नई बात कह सकूं। मुझमें कोई नयापन है ही क्या? न आप लोगों से पूर्णतः भिन्न ऐसी कोई मौलिकता है जो कुछ नया कहने की औकात दे सके। इसीलिए मुझे अपने पर भरोसा है कि इस कथा में कुछ न कुछ आपके लिए भी अपना कहने-समझने के लायक जरूर मिलेगा।
यह शृंखला मेरे ब्लाग बहुरंग और फेसबुक पर दोनो जगह उपलब्ध रहेगी। जो लोग पूरे या किसी छूटे हुए अंश को पढ़ना देखना चाहें, वे मेरे ब्लाग बहुरंग के लेवेल वागर्थ को क्लिक कर एक साथ सारे पोस्ट देख सकेगे।

3 टिप्‍पणियां:

  1. यह बहुत महत्वपूर्ण विषय है। धन्यवाद। सारे पोस्ट एक साथ पढ़ने का उपाय बताएं।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 23 दिसंबर 2017 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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