रविवार, 14 दिसंबर 2014

भारतीय साधना धारा का इतिहास

भारतीय साधना धारा का इतिहास किसने लिखा?
भारत को अध्यात्म प्रधान, अनेक प्रकार की साधना करने वाला देश कहा जाता है। इसके विपरीत अलेक लोग इसे पूरी तरह झूठ और ठगी बताते हैं। संस्कार की दुहाई देने वाले संघी भी 16 संस्कारों को न सही जन्म एवं मृत्यु संबंधी संस्कारों को भी मान्यता नहीं देते। भारत की साधना और संस्कार के गौरव का गान अनेक लोग करते रहते हैं लेकिन दोनो प्रकार के अतिवादियों में से किसी को फुर्सत नहीं लगी कि भारतीय साधना परंपराओं के बारे में कहीं एकत्र सूचनाएं संकलित की जायें।
महामना मालवीय जी ने यह काम महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज जी को सौंपा। उन्होंने किताबें लिखीं तो लेकिन बंगला में। बाद में इस काम को सुलभ बनाया गया के पं. हंस कुमार तिवारी ने। उन्होंने पंडित गोपीनाथ कविराज जी की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया। ये सारी पुस्तकें बिहार राष्ट्र भाषा परिषद, पटना से छपीं। अभी भी प्रतियां बहुत सस्ते में उपलब्ध हैं। सच्चे भारतप्रेमियों के लेखन एवं उनकी आवाज को अतिवादियों ने दबा दिया क्योंकि इनके स्वार्थी और लड़ाकू गुट नहीं बने न ही सरकारी संरक्षक मिले। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौर के प्रभाव के सिमटने के साथ यह धारा भी संभवतः लुप्त या समाप्त हो गई।

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह 3


सवाल कई हैं, जिनकी उपेक्षा की गई। भारत जब सोने की चिडि़या थी तो किस रूप में? क्या सच में केवल कृषिप्रधान समाज इतना सुखी और धनी था? क्या यहां शिल्पों/कारीगरी का विकास नहीं हुआ था? यदि हां, तो कैसा? किस रूप में? धर्म भारतीय जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा तो फिर क्या गुलामी के अतिरिक्त और उसके पूर्व यह भीतरी और बाहरी कारणों से प्रभावित नहीं रहा? यदि हां तो कैसे? हजार साल से अधिक पुराना बौद्ध धर्म भारत से खाशकर अपने पुराने आधार क्षेत्र से कैसे गायब हो गया? कोई न कोई प्रक्रिया तो बनी होगी? क्या किसी कत्लेआम की कोई सूचना मिलती है।
ऐसे प्रश्नों से आधुनिक इतिहास लेखन भागता रहा है। एक मूर्खतापूर्ण काहिलाना तर्क ढूंढ लिया गया कि गुलामी के दौरान सब समाप्त हो गया। या तो गुलामी के पहले का पूछिये या बाद का। सच यह है कि इन इतिहासकारों को समाज एवं सत्य से कोई लेना देना नहीं? मैं आये दिन इनके कुतर्कों से दुखी होता हूं। इनके निष्कर्ष प्रायः शोध के पहले ही धारणाओं के आधार पर तय किये जाते हैं। फिर सूचनाओं को उसी हिसाब से सजा दिया जाता है। वामपंथी इस तरह सजाते हैं कि सामंतवादी अत्याचार उत्पीड़न का बिंब निकले, समाजवादी वर्ग संधर्ष की जगह हर बात में वर्ण संघर्ष खोजते हैं। भाजपाइयों/संघियों ने रामराज्य पकड़ लिया है।
10 वीं शताब्दी ई के बाद पालकालीन घटनाओं, सिद्धों के प्रयास, भारतीय शिल्प शास्त्र का विकास, चिकित्सा शास्त्र की विविधता, पुराण आंदोलन, भक्ति आंदोलन पर तो आपको सामग्री इतिहास में मिलेगी ही नहीं क्योंकि संास्कृतिक इतिहास की ओर कौन सोचे? उसके लिये तो समाज में जाना होगा और समाज अपने ढंग से विकसित हुआ न कि मार्क्सवादियों या संघियों के हुक्म से।
राहुल सांकृत्यायन जैसा बौद्ध शास्त्रों के बारे में सफेद झूठ लिखने वाला नहीं मिलेगा। इसलिये पढ़े-लिखे बौद्ध भी उनकी स्थापना को प्रमाण नहीं मानते। जो पुस्तकें उन्होने ला कर दीं उनका बहुत महत्त्व है। तंत्र शास्त्र और परंपरा आम आदमी से जुड़ कर चली। यह न संस्कृत पंडितों को मान्य है न लामाओं को। मैं ने जब सीधे-सीधे पुस्तकें खोल कर उनके सामने रखीं तो सभी ने मुझे चुप रहने को कहा कि आम आदमी को सच न बताया जाय। मैं क्यों चुप रहूं? मुझे कोई पसंद करे या न करे, जिज्ञासु होगा तो तथ्यों को मिलायेगा। इसके बाद मुझे कुछ कहे की जरूरत ही नहीं।

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह 2

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह 2
भारतीय इतिहास लेखन को मेरी जानकारी में निम्न प्रकार से प्रभावित किया गया--
1 यूरोपीय शैली के विद्वान भारत को मूर्ख और अविकसित लोगों का देश साबित करना चाहते हैं ताकि यह स्थापित किया जा सके कि भारतीय लोग सदैव वैचारिक स्तर पर अपने को हीन और यूरोप को श्रेष्ठ मानें। इससे भारत में यूरोपीय शासन और आजादी बाद में भी उन्हीं के नकल को वाजिब ठहराया जा सके।
2 दुर्भाग्य से वामपंथी इतिहासकार भी इसी धारणा वाले हैं। साम्यवादी चिंतन और रेनेसां का विकास योरप में हुआ। इससे भारतीय इतिहास की कोई हानि नहीं। समस्या तब होती है कि जब यह कहा जाता है कि भारत में कुछ हुआ ही नहीं। भारतीय समाज जैसे सीधे जंगली युग से आधुनिक हो गया या अधिक से अधिक कृषिप्रधान समाज से आधुनिक युग में आ गया। वह भी योरप की कृपा से। 
3 इस शैली के इतिहास से इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते कि भारतीय वास्तु संरचनाएं कैसे इतनी जटिल एवं सुदृढ़ हैं? ये जंगरोधी बड़े-बड़े खंभे और बड़े तोप कैसे बनते रहे? वे भी पहाडि़यों की उन चोटियों पर कैसे ले जाये गये जहां हाथी जैसे जानवर का जाना ही असंभव है। ऐसे अनेक प्रश्नों की परवाह वामपंथी और साम्राज्यवादी इतिहासकार नहीं करते।
4 इतना ही नहीं संघी/दक्षिणपंथी इतिहासकार भी इन/ऐसे प्रश्नों का उत्तर ढूंढने में रुचि नहीं लेते। उनका मुख्य लक्ष्य पौराणिक गल्पों में ही अधिक रहता है क्योंकि वे सीधे-सीधे सुविधानुसार भारत की दुर्दशा के लिये मुख्यतः इस्लाम और थोड़ा बहुत ईशाइयत को जिम्मेदार ठहरा कर हर सवाल के उत्तर को स्थापित करते हैं।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह

भारतीय इतिहास लेखन के पूर्वाग्रह
यह मुद्दा इतिहास के छात्रों के बीच प्रायः और राजनेताओं तथा आम आदमी के बीच रुकरुक कर चर्चित होता रहता है।
भारतीय इतिहास की कुछ प्रवृत्तियां ऐसी हैं कि वर्तमान कालीन उपयोग की दृष्टि से हमेशा उलझनें ही मिलेंगी। उलझनें इतिहास में नहीं वर्तमान समाज की प्रवृत्तियों में है क्योंकि इतिहास केवल जानने और जानकारी से शिक्षा ग्रहण करने के लिये नहीं, वर्तमान विभिन्न समुदायों, जातियों एवं समूहों की परस्पर विरोधी आकांक्षाओं में हैं। इन उलझनों का प्रभाव इतना गहरा है कि भारत के सहज सामाजिक वर्गीकरणों, जैसे - परिवार, जाति, कुल-रेस, संप्रदाय, धर्म एवं आधुनिक आदर्शवादी पहचान, जैसे- साम्यवादी, समाजवादी, अंबेदकरवादी, संघी, गांधीवादी आदि वर्गीकरणों में बंटे लोग केवल अपने अनुकूल इतिहास को ही स्वीकार करना चाहते हैं।
चूंकि अतीत को तो सुधारा जा नहीं सकता अतः लोग उससे केवज अनुकूल को स्वीकार करने एं प्रकिूल को नकारने की कोशिश करते हैं। यदि कोई व्यक्ति दूसरे पक्ष को सामने लाये तो इनकी प्रतिक्रिया बहुत भयानक होती है। उसमें भी एक सुविधावादी तर्क यह है कि कुछ लोगों को, जो कुल मिला कर अल्पसंख्यक हैं, उन्हें अन्य लोगों के साथ जोड़ कर उन पर आक्रमण किया जाय और फिर उन्हें अकेला पा कर सारी समस्याओं का जड़ उन्हें ही बताया जाय। इसके बाद उन पर आक्रमण, शोषण करना आसान हो जाता है। यह पूर्णतः शत्रुता की भावना पर आधारित इतिहास लेखन है।
विडंबना यह है कि आधुनिक आदर्शवादी पहचान, जैसे- साम्यवादी, समाजवादी, अंबेदकरवादी, संघी, गांधीवादी आदि वर्गीकरणों में बंटे लोग सहज सामाजिक वर्गीकरणों, जैसे - परिवार, जाति, कुल-रेस, संप्रदाय, धर्म एवं रोजगार की दृष्टि से एक ही साथ परस्पर विरोधी पहचान वाले हो जाते हैं। उनकी सबसे अधिक दुर्गति है। एक जन्मना ब्राह्मण को कम्यूनिस्ट होने के नाते हिंदू धर्म, ही नहीं ब्राह्मण जाति को भी रोज गाली देनी होती है और इस्लाम, ईशाइयत के क्रूरता के प्रति चुप रहना ही नहीं, उसे झुठलाना होता है। इसी तरह नास्तिकतावादी और मूलतः राजनैतिक संगठन रा.स्व.से.संघ के नजरिये से ही इतिहास को लिखने की जिद ठन जाती है। वस्तुतः तथ्य की हत्या दोनो ही निर्मम ढंग से करते हैं। 
इस समस्या के कुछ अचर्चित या अल्प चर्चित मामलों की क्रमशः चर्चा होगी।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

पुराना/नया जीवन

पुराना/नया जीवन शुरू हो रहा है- 
सुनने में बात जितनी अटपटी लगे, सच्चाई में वैसा ही है। हम सभी जैसे जैसे बड़े होते हैं परिवार और समाज  हमें कुछ खांचों में साजने और मांजने लगता है। कुछ लोग बच्चों को ढालने तक की कल्पना करते हैं, जैसे कि उसकी कोई जन्मजात मौलिकता ही नहीं हो। कोई भ्रम चाहे जो पाल ले लेकिन कद-काठी की तरह मन और वाणी की बनावट में भी अनेक बातें जन्मजात रूप से मौलिक होती हैं।
कृत्रिम प्रशिक्षण से जो जितना दूर होता है, उसके व्यक्तित्व का विकास उतना ही अधिक अपनी जन्मजात मौलिकता के अनुरूप होता है।
योग साधना की दृष्टि से अपनी इस जन्मजात मौलिकता के अनुरूप संरचना में रहना स्व-भाव है। इसमें रहने का पहला पुरस्कार स्वास्थ के रूप में मिलता है। स्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ होता है- स्व में स्थित होने का भाव। हमारे यहां निरोगिता और स्वास्थ्य दानों के दो अर्थ हैं। एक योगी रोगी हो सकता है, अस्वस्थ नहीं। अस्वास्थ्य अपने मौलिक रूप में न रहने के कारण होता है। अस्वास्थ्य का आयुर्वेद में पर्यायवाची होगा ‘‘निज रोग’’ जो गलत आहार-व्यवहार और प्रज्ञापराध के कारण उत्पन्न होते हैं। जिनका कारण आंतरिक होता है न कि बाह्य। बाह्य कारण, कीटाणु, विषाणु जैसे रुद्रगण के प्रकोप और दुर्घटना या राजा और प्रकृति के प्रकोप से होने वाले रोग बाहरी हैं, जो आगंतुक हैं। इनसे पूरी तरह बच पाना संभव नहीं है। न ही स्वयं को या किसी अन्य को ऐसे रोगों के लिये दोषी ठहराना उचित है। 
अपने स्वास्थ के लिये अपनी जन्मजात मौलिकता/प्रकृति के अनुरूप जीवन जाना जरूरी होता है। इसलिये  शिक्षण-प्रशिक्षण से आई नकली बातों, मूल प्रकृति के विपरीत बातों से तन-मन को मुक्त कर पुराना/नया जीवन शुरू हो रहा है। पुराना इसलिये कि जन्मजात प्रकृति आधारित है, नया इसलिये कि बीच में प्रशिक्षण एवं भ्रम आधारित जीवन से भिन्न होगा।

समाधिस्थ बालक का सच

समाधिस्थ बालक का सच
बचपन में मेरे पास खिलौने एवं खेलने वाले दोनों की कमी थी। संयुक्त परिवार में चौथी पीढ़ी का पहला एवं दुर्लभतुल्य बालक था।
मुझे पढ़ाने के लिए विद्वानों की बैठक बुलाकर शिक्षा पद्धति तय की गई। तय यह हुआ कि इस बच्चे को (क) बच्चों की संगति से दूर रखा जायेगा (ख) विद्यालय नहीं भेजा जायेगा (ग) स्वतंत्र पाठ्यक्रम बनाकर घर पर पढ़ाया जायेगा (घ) परदादा जी की निगरानी में पढ़ाई होगी (ड़) 12-14 साल तक शास्त्रार्थ सभा में विजेता बनाया जाएगा।
मेरा गाँव सुदूर देहात में है। मेरे दो प्रपितामह थे। छोटे वाले सांख्य, वेदांत, व्याकरण साहित्य में 4 विषयों में तीर्थ अर्थात स्नातकोत्तर उपाधिधारी थे।
7 वर्ष तक में मुझे गीता एवं अमरकोश, एक कांड कंठस्थ हो गया। मैं स्वयं खिलौना हो गया। घर रिश्तेदारी के बच्चे मुझे भोंपू कहते थे, ननिहाल में बहुत मजाक उड़ता था। जैसे ग्रामोफोन ; उस जमाने में वही थाद्ध की कुंडली, घुमाकर रिकार्ड/तवा बजता वैसे ही मेरे काम में आदेश मिलते ही बुजुर्गों के सामने गीता पाठ करना एवं मिठाई फल वगैरह खाना पड़ता था। वस्तुतः मैं बहुद उदास और दुखी रहता था।खेलने पर मनाही थी और बेवजह खूब पिटाई भी होती थी। इसके साथ बुजुर्गों की अपसी बहस भी समानांतर चलती रहती कि बच्चे को पीटने से लाभ है या हानि। इस पर मैं भीतर ही भीतर सुलगता रहता क्योंकि कुछ कर तो सकता था नहीं।
एक बार मेरे बड़े प्रपितामह को काशीवास के लिए बनारस लाया गया। अस्सी घाट पर नहाकर गीता सुनाने की मेरी ड्यूटी लगी। मैं भी स्नान कर पालथी मारकर ”धर्म क्षेत्रे कुरूक्षेत्रे“ से शुरू हो गया। पाठ चालू, सामने मिठाई, फल, हो सकता है कुछ भक्तों ने कुछ सिक्के भी रखे होंगे, किसी ने मना किया होगा कि हमें दान नहीं लेना। मैं तो रोज के गीता पाठ से ऊबा गंगा की धारा में खड़ी बड़ी नौका, और उसपार पतंग उड़ाते बच्चे को देख रहा था। बच्चे और पतंग में इतन निमग्न था कि मुझे न तो आस-पास का दृश्य दिखाई दे रहा था, न ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, मैं एकटक बस पंतग देख रहा था। स्नानार्थी भक्त आते-जाते रहे, टोक-टाक का भी असर नहीं हुआ तो लोगों ने घेर लिया कि कोई दिव्य, चमत्कारी बालक आया हैं। खुली आँख से समाधि लगाता है। मेरे पितामह ताड़ गए वे मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होेंने झकझोर कर सचेत किया। मैं फल-मिठाई लेकर डेरे पर लौटा।
बडे़ प्रपितामह तो नहीं मरे छोटे प्रपितामह मर गए। अनौपचारिक शिक्षा बंद हो गई। मेरी रुचि एवं पीड़ा को ध्यान में रखकर पितामह ने स्वयं पतंग खरीदा एवं मुझे पतंग उड़ाना सिखाया। पतंग उडाने में मुझे बहुत मन लगा।
बाद में मैं ने एक निबंध लिखा - पतंगबाजी: बच्चांे की चिदाकाश धारणा।
कायदे से पतंग उड़ाने से बच्चों की आँख की कई बीमारियाँ ठीक होती हैं। यह मेरा व्यक्तिगत प्रयोग है। यह संस्मरण गांधी मार्ग में छप गया है।

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

दीक्षा तिथि की पूर्व संध्या पर

दीक्षा तिथि की पूर्व संध्या पर आप सबों को वंदन, अभिनंदन
ब्रह्मलीन गुरुदेव, स्वैच्छिक जन्म की प्रतीक्षा में लगे पितामह एवं अपने से बड़े सभी लोगों को सादर चरण स्पर्श पूर्वक प्रणाम और शिष्यों को उनके सफल होने की मंगल कामना।
मैं कल, अर्थात गीता जयंती के ब्राह्म मुहूर्त में विधिवत साधना की दृष्टि से 36 साल का हो जाऊंगा। 1978 में एकादशी द्वादशी के बीच वाले ब्राह्म मुहूर्त में दीक्षा हुई और पहले ही ध्यान में सूर्योदय हो गया। गुरु जी ने आशीर्वाद दिया जो होना था सो हो गया। मेरे जैसे अज्ञानी को भरोसा करने में ही 20 साल से अधिक लग गये। इस बीच बहुत उलझा, फिर सुलझा।
तीन युग बीत गये। चौथे में अब सब समेटने की साधना शुरू और सबसे पहले आंकांक्षाओं फिर साधना को भी तो समेटना है क्योंकि इसके बाद तो यह शरीर भी क्या पता उस लायक रहे या न रहे। उसे भी तो समेटना होता ही है।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

मरने को समझौता

कभी कभी अपने साथ भी समझौता करना पड़ता है। वस्तुतः जीने का मजा वही ले सकता है, जो या तो यह माने कि वह अभी मरेगा नहीं या वो, जो हमेशा मरने को तैयार हो। मुझे मरना, अपने या अपनों के लिये पसंद नहीं आया बशर्ते कि वे भारी पीड़ा में न हों। दुश्मन मरें तो मरें, उनसे अपना क्या?
जहां तक याद है 8 साल तक तो किसी के भी मरने की खबर से ही मैं मायूस हो जाता था। मेरे मुख्य प्रशिक्षक, मेरे बाबा (पितामह) को यह बात पसंद नहीं आई। इतना छोटा बच्चा, क्या जानता है मृत्यु के बारे में? उसके बावजूद? डरे, यह उचित नहीं है। इसलिये उन्होंने मृत्यु से मेरे डर को भगाने के अनेक उपाय किये और अंत में मरने की कला भी सिखा गये। पता नहीं मैं ने कितना आत्मसात किया, यह तो मेरे मरने के बाद ही पता चल सकेगा।
12 साल से 54 साल तक मुझे पूरा विश्वास था कि मैं मरने वाला नहीं अतः मौत की परवाह किये बिना अनेक काम किये, दुर्घटनाएं और मेरे ऊपर आक्रमण सालाने रूटीन की तरह रहे लेकिन 50 साल पूरे होते ही एक दिन मैं डरने लगा कि अब तो मेरा नंबर भी देर सबेर आयेगा ही। बहाना बनाने की वैसे भी अपने पास सुविधा नहीं है और यह तो बिलकुल सच है।
मैं ने सोचा कि इस प्रकार भीतर में डर बना रहे तो जीवन कैसे चलेगा? इस मुद्दे पर उन प्राचीन भारतीय मनीषियो को पढ़ना शुरू किया, जो थोथे आदर्शवादी न हो कर उतने ही व्यवहारिक और अनुभवी भी माने जाते हैं।  भर्तृहरि इसमें सबसे अच्छे लगे। उनका कथन है- ‘‘विद्या और धन की चिंता तो यूं करे कि कभी मरना ही नहीं है और धर्म का पालन इस तरह करे कि बस अभी तुरत मौत आने ही वाली है। ’’ यह बात दिल को भाई नहीं, इसमें दुहरी और नकली जिंदगी है।
फिर अचानक भीतर से सचाई कौंधी कि अपने आप को किसी भी क्षण मरने के लिये तैयार ही क्यों न कर ली जाये। मेरे पितामह ने किया था तो लगा कि लोग कर तो लेते ही हैं। मेरी पात्रता शायद उतनी नही, फिर भी यह प्रश्न जब भीतर में उठ गया तो क्यों न अभी से तैयारी शुरू कर दी जाये। मुझे 4 साल लगे किसी तरह अपने को मनाने में कि इस सत्य को स्वीकार करने के अतिरिक्त तो दूसरा कोई उपाय नहीं है।
मित्रों मन फिर भी पूरी तरह नहीं माना तो एक समझौता हुआ है कि जब मरने का पता ही नहीं तो टेंसन क्यों लेना? जब मरना होगा मरेंगे, इससे डर कर तो जाना भी मुश्किल है अतः मौत से बिना डरे पहले की तरह जीन है। और जो यह सवाल है कि मौत के बाद क्या होगा तो एक दो बार तो पहले भी लगभग जीते जी मरे ही हैं तो इस बार कायदे से होश में रहते हुए अंतिम यात्रा के पहले पिछली मौतों का अनुभव कर लेते हैं, फिर अंतिम निर्णय होगा कि मरना है या नहीं?
आज 95 साल के एक सुल वृद्ध से मिल कर मेरा मनेबल और बढ़ा कि देखिये इनकी हिम्मत? अभी पढ़ते हैं, सीखते हैं, तब लौटते समय याद आया कि हमारे यहां के एक पहलवानजी ने तो संभवतः 95 साल की आयु में शादी ही की थी 85 साल की महिला पहलवान से। अभी मेरी उम्र ही क्या है?

बुधवार, 12 नवंबर 2014

एक था मैत्री क्लब

एक था मैत्री क्लब
मैं इसके कुछ सदस्यों से मिला हूं- स्व. बुधमल शामसुखा जी और श्री रुद्रमान भाई। इन दोनों से मिल कर मुझे लगा कि इस क्लब के लोग सच में लाजवाब होंगे। ये लोग यह समझ रखते थे कि मैत्री के भाव को कुछ लोग भूल गये हैं और अनेक इसमें अन्य विषयों की मिलावट के कारण इसका सुख नहीं ले पाते जबकि यह मनुष्य के विकास और तृप्ति का अनिवार्य साधन है। अतः एक ऐसे मंच/मंडली की व्यवस्था रहनी चाहिये जहां लोग मैत्री जी सकें उसका सुख ले सकें।
मैत्री क्लब के कुछ नियम थे-
1 मैत्री किसी से भी हो सकती है, इसमें लिंग, जाति, धर्म, राष्ट्रीयता की सीमा नहीं हो सकती, बशर्ते दोनो पक्ष चाहे। इस माध्यम से हम दूसरे को समझ सकते हैं, उसे एक हद तक स्वीकार कर सकते हैं और बचे अंतरों के साथ मैत्री पूर्वक जीने का राश्ता भी निकाल सकते हैं।
2 अतः अपनी ओर से मैत्री का प्रस्ताव/विज्ञापन किसी व्यक्ति के सामने या  खुलेआम दोनों प्रकार से रखा जा सकता है। परस्पर सहमति और उसमें खुशी मैत्री का मूल है।
3 इस क्लब का सदस्य किसी दूसरे सदस्य से या खुले आम किसी से कुछ भी मांग सकता है या देने का प्रस्ताव रख सकता है। दूसरे सदस्य को भी वैसे ही हक है कि वह दूसरे के प्रस्ताव को स्वीकार करे या ठुकरा दे। इस क्लब में स्वनिर्णय और परस्पर लेन-देन की भी व्यवस्था है अतः केवल बालिग व्यक्ति ही सदस्य हो सकता है।
4 मैत्री अनमोल है और उस भाव के द्वारा लिया गया या दिया गया सामान, व्यवहार या भाव भी।
5 कम से कम साल में 1 बार सभी सदस्यों को किसी एक स्थान में जुटना चाहिये और मैत्री विकास के बारे में सोचना चाहिये।
6 मैत्री व्यक्ति से आगे बढ़ कर परिवार तक में जाये इसलिये यदि कोई मित्र किसी के घर जाता है तो कम से कम 3 शाम/1 रात रहने भर की यथा संभव व्यवस्था उसे करनी चाहिये। कुछ नियम और भी हो सकते हें जो मुझे याद न हों।
प्रायः ऐसा देखा गया है कि अगर कोई प्रयोग सफल होने लगे तो संसार की हर समस्या का समाधान लोग उसी में खोजने लगते हैं और मूल उद्देश्य के साथ या उसकी जगह अन्यान्य बातें भी जोड़ने लगते हैं। परिणाम होता है कि सब डूब जाता है। मेरी जानकारी में यह मैत्री क्लब भी इस घटना के कारण बिखर गया।
यदि कोई व्यक्ति चाहे तो इस दिशा में प्रयोग कर सकता है। संयोजक बन सकता है। मैं दूसरा सदस्य बनने को तैयार हूं।

शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

भारत को समझने की दृष्टियां

मगध-आंध्र संबंध के क्रम में

भारत को समझने की दृष्टियां
वैसे तो अनेक लोग अपनी अपनी सुविधा के हिसाब से भारत को आधा- अघूरा समझते रहे फिर भी भारत को समझने की प्रमुख 2 दृष्टियां हैं- 1 देशी 2 विदेशी। देशी दृष्टि में इसे पूरी तरह ठीक से समझना पड़ता है तो विदेशी में किसी एक पक्ष का ही अध्ययन मुख्यतः किया जाता है।

देशी दृष्टि - 
इसमें किसी क्षेत्र विशेष की संरचना एवं भारत के अन्य क्षेत्रों के साथ उसके संबंध को समझने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार के अध्ययन में उस क्षेत्र की सांस्कृतिक-राजनैतिक सीमा, चौहद्दी, भाषा, खानपान, सामाजिक मूल्य, इस संसार तथा उसके बाहर के बनावट की मूल समझ एवं विश्वास, आबादी का मूल वर्गीकरण (जातियां) तथा उन पर वर्ण व्यवस्था का प्रभाव, प्रमुख ऋषि, सिद्ध एवं वीर व्यक्ति, सामाजिक संघटन-विघटन की कथाएं, रोजगार-कृषि एवं शिल्प के प्रकार, भूमि के प्रकार उत्तराधिकार एवं परिवार व्यवस्था, मुख्य आचार संहिता अर्थात विधिमान्य/राजमान्य तथा लोकस्वीकृत धर्मशास्त्र/स्मृति ग्रंथ, बाहर से आकर बसे लोग एवं स्थानीय समाज से उनका संबंध, हार-जीत की याादें एंव कथाएं, ऐतिहासिक कृतज्ञता एवं प्रतिबद्धता, मनोरंजन के प्रकार एवं स्वरूप,  नई परिस्थितियों से तालमेल के सिद्धांत/सूत्र, शासन प्रणाली और कर, प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार का स्वरूप।
इस समग्र दृष्टि को देशी दृष्टि कहते हैं। उपर्युक्त सभी बातों को ध्यान में रख कर उस खे़ के आम लोगों की जीवन शैली तथा उसके लिये आखर संहिता तैयार की जाती थी। उसे स्मृति पंरपरा कहते हैं। समय समय पर समाज के विभिन्न वर्गों के लोग सभा कर इसमें संशोधन भी करते थे और जरूरत पड़ने पर नई किताब भी लिख ली जाती थी। इन नियमों का पालन करने वाले लोगों को स्मार्त कहा जाता है। न मानने पर इन पर राजदंड भी तय होता था। इस शास्त्र के सामाजिक पक्ष वाले शास्त्र को धर्मशास्त्र तथा शासन व्यवस्था एवं कर संग्रह वाले पक्ष को अर्थ शास्त्र कहा जाता था।
विदेशी दृष्टि- 
भारत को ठीक से नहीं समझ पाने वाले विदेशियों की दृष्टि है। इसमें किसी एक विषय या किसी एक पक्ष का अध्ययन अनजान की तरह किया जाता है। भारतीय दृष्टि की जगह अब विदेशी दृष्टि हावी हो गई है। भारतीय विद्वान भी पूरे संदर्भ को साथ रख कर अध्ययन करने की जगह कुछेक नमूनों का संग्रह कर दनजाने व्यक्ति की तरह केवल सतही जानकारी देते हैं तो उसमें जानने का सुख नहीं मिलता। 
मैं देशी दृष्टि से संबंधों को खोजता हूं, उसके लिये पहले अपने देश की समाज व्यवस्था और परंपरा को समझना पड़ता है। मगध तेलंगाना संबंध के लिये मुझे तेलगू भाषा सीखना पड़ेगा और प्राचीन मार्ग से एक बार यात्रा करनी पड़ेगी। जारी क्रमशः..........

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

मेरे गणितीय प्रश्नों के उत्तर 3 --- वाह रे, अनुपात!


वाह रे, अनुपात!
आपने पहले अंगुल आदि मापों के बारे में पढ़ा। आज सरकारों द्वारा प्रमाणित माप-तौल के बाट का प्रयोग होता है। पहले जब ऐसा न हो कर गुंजा, रत्ती जैसे तौल के माप थे तब क्या होता होगा? और वह सही कैसे होता होगा? खाशकर सोना-चांदी जैसे तौलों में?
भारत जैसे बड़े देश में लोगों ने यह काम अपने जिम्मे रखा था। अपने जिममे अर्थात व्यापारी वर्ग के जिम्मे। सोना चांदी में तो वही नियम आज भी लागू है। हर सर्राफा बाजार में एक दुकान मुख्यतः गहने तौलने के लिये होती है। उस दुकान ने जो वजन बता दिया उसे पूरा सर्राफा बाजार मानता है। लोगों ने इसी तरह हर जगह के लिये अपने माप बना लिये थे। इसी से काम चलता था।
अब आते हैं अनुपात पर- यदि जड़ी बूटी वाली कोई दवा या मिठाई बनानी है तो कोई छोटा माप लेते हैं, वह अपने धर का चना या मटर या आम- अमरूद भी हो सकता है। एक आम बराबर गुड़, उससे दुगना बेसन, उससे आधा मेवा, उससे आधा अदरख इस प्रकार आनुपातिक भाषा में सारे आनुपातिक मापों का विवरण । हो तो गया। असली बात तो आनुपातिक संबंधों में है नकि सेर, किलो या क्विंटल में। खेती के लिये बीज, खाद का निर्णय करना है, अपने व्यवहार के लिये यदि जमीन नापनी हो तो बस अपने हाथ से लकड़ी या रस्सी नापी, फिर उसके आनुपातिक अंतर से बांस, फिर कट्ठा या बिस्वा, उससे आगे जो नापना हो नाप लिया। सामाजिक व्यवहार के लिये नापना हो तो फिर जमीन नापने वाले पंच या स्थानीय जमींदार के यहां सुरक्षित माप का प्रयोग करना होगा। 
इसलिये अनेक ग्रंथों में केवल आनुपातिक अंतर ही लिखा गया माप की इकाई नहीं। वास्तु के मामले में वास्तुकार को गजधर भी कहा जाता है। उसके पास अपनी एक लोहे की छड़ी होती थी/है। वह गौरव के साथ उसे ले कर चला करता है/था। उसमें माप अंकित होते हैं। न रहे गज तो क्या? अपना बीता, हाथ तो अपने पास है ही। उसीके आनुपातिक अंतर से सारा काम हो जायेगा। जब यूरोपियन यहां आये तो व्यापार में उन्हें बड़ी परेशानी हुई। नाम तो माप का एक ही लेकिन माप या तौल में सामग्री में अंतर मिलता और पंचायती तौल के बिना काम संभव नहीं । अगर व्यापार से सामाजिक बहिष्कार करना हो तो बस पंचायती तौल वाले को कह दें कि इस व्यक्ति का तौल नहीं करना है। सारा खेल खत्म।  
इसी प्रकार की समस्या पहले अर्थात हजार साल पहले आई और भारत के लोगों ने उड़ीसा तथा मगध के लोगों को इस काम को संभालने की जिम्मेवारी सौंपी। यहां के गणितज्ञों को अनुपातिक की व्याख्या करने, आनुपातिक संबंधों का वर्गीकरण करने, विभिन्न प्रकार के चार्ट बनाने का काम सौंपा चाहे वह मामला किसी भौतिक सामग्री का हो या ग्रहीय पिंडों की गतिविधियों का। शिल्प, औषध तथा नक्षत्रवेध सभी संदर्भों में, सभी विद्याओं में कालिंग और मागध माप प्रमाणिक माने गये। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि यहां के लोगों ने आनुपातिक अंतरों एवं उसके संबंधों को तय करने में पीढ़ी दर पीढ़ी का काम किया। संज्ञा तथा छाया पक्ष के रूप में। सौर तंत्र में इसे दूसरे ढंग से कहा गया। यहां दोनों प्रकारों में अनुपात, आनुपातिक अंतर का बोध एवं उसके मापन को विकसित किया गया। अगले अंक में जारी.........।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

मेरे गणितीय प्रश्नों के उत्तर 2

वाह रे, अनुपात!
अनुपात से ही बोध है। इस पर पोस्ट आ गया। यह अनुपात अन्य मामलों में कैसे निर्णायक होता है, इसकी बानगी के रूप में क्रमशः कुछ उदाहरण प्रस्तुत होंगे। भारतीय वास्तुशिल्प और मूर्तिकला को तो मानना ही पडता है कि यह माडर्न सायंस के पहले से है, चाहे वह मंदिर हो, किला या अन्य बौद्ध विहार आदि वाली संरचना। सभी जगह निर्माण के पहले डिजाइन, वास्तु के छोटे-भागों का निर्धारण, उन्हें लगाने की क्रमबद्धता आदि की बारीकी भी तो रही ही होगी।  इसी प्रकार बड़ी-छोटी जितनी भी प्रतिमाएं बनीं, उनकी खूबसूरती बताती है कि इनके निर्माण में भी माप-तौल का बारक अंतर रखा गया है। लंबाई, चौड़ाई एवं गहराई सभी आयाम संतुलित हैं, बहुत सारी मूर्तियां तो हूबहू नकल जैसी हैं।
जब इस विषय के ग्रंथों को पढ़ते हैं तो उसके माप फुट, ईंच, या मीटर में नहीं मिलते। वे मिलते हैं- अंगुल, मुट्ठी, बीता, हाथ, पोरसा आदि शब्दावलियों में, जो हर व्यक्ति की दृष्टि से अलग होंगे तो फिर आखिर यह माप इतनी बारीकी से काम कैसे करता रहा और ऐसी जटिल संरचनाओं में भी सफलता कैसे मिली? दरसल भारतीय शैली में माप संबंधी सारी सूचनाएं क्षेत्रीय संदर्भ एवं अनुपात के खांचे में याद रखी और बताई जाती हैं। बहुत बार तो जब अंगुल, मुट्ठी, बीता, हाथ, पोरसा जैसे माप का भी प्रयोग न कर केवल आनुपातिक अंतर का प्रयोग किया जाता है, तब इसका रहस्य खुलता है। विस्तृत उत्तर अगले पोस्ट में.....।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

मेरे गणितीय प्रश्नों के उत्तर 1


बचपन से ही मुझे गणित में कमजोर बताया गया और ऊपर से बेचारे और कमजोर कई शिक्षकों को पढ़ाने के लिये लगा दिया गया। वे सवाल पूछने पर जवाब नहीं देते थे, उसके बदले में मेरी खूब पिटाई होती थी और तुर्रा यह कि तुम हो ही गधे, तुम गणित समझ ही नहीं सकते, बुद्धू कहीं के। इसके बाद भी तमाम विफलताओं के बावजूद मेरे मन के सवाल मर नहीं सके। मेरे वे प्रश्न भीतर ही भीतर जोर लगा कर उत्तर खोजते रहे, सालों साल। सौभाग्य से कुछ प्रश्नों के उत्तर भी मिले, कुछ समय से, कुछ बेसमय। 
एक गैरपेशेवर शिक्षक मिले मामाजी श्री हरिद्वार पाठकजी। उन्होंने मात्र 3 महीनों में 8 वीं तक का सारा गणित सिखा दिया। इससे मेरा मनोबल बढ़ा कि मैं गलत नहीं था, मेरे बेचारे और कमजोर शिक्षक गलत थे। उनसे संपर्क कुछ ही दिनों का रह सका। मेरी सफलता से ये बेचारे और कमजोर शिक्षक इतने भड़के कि अपनी औकात भर पूरी जिंदगी मुझसे दुश्मनी निकाली। मैं भी इन्हें अब जा कर माफ कर सका।
जब बात समझ में आई और वह भी 45 के बाद समझ में आई और धीरे-धीरे आती जा रही है तो गणित का मजा ही अलग लग रहा है। एक उदाहरण प्रस्तुत है- पहले मुझे अनुपात समझ में नही ंआता था कि यह क्या है? 9 तक के अंकों का मतलब तो व्यवहार से समझ में आता था लेकिन न शून्य, न अनुपात। जब अनुपात समझ में आने लगा तो मन नाच उठा कि वाह रे! अनुपात, तेरी महिमा का मैं क्या वर्णन करूं? तेरे बिना तो न जीवन है, न बोध, न कोई व्यवहार। भारतीय संस्कृति में जीने और समझने के लिये तो इसके अनुपात प्रेम को सबसे पहले समझना एवं स्वीकार करना होगा तभी सामान्य व्यवहार से ले कर आध्यात्मिक साधना का शास्त्र समझ में आ सकेगा। वाह रे! अनुपात, तेरी महिमा का मैं क्या वर्णन करूं? किसी भी व्यक्ति, सामग्री या गुण उसकी तुलना एवं मापन की की जरूरत पड़ती ही रहती है। गणित आये या न आये, अनुपात का बोध सबको होता है। जब उसका माप हो जाये तो गणित की भाषा में हो गई उसकी अभिव्यक्ति। अभी अनुपात की महिमा शुरू ही हुई है, कुछ और गुण गान करना है। अतः क्रमशः.......................जारी।

बुधवार, 24 सितंबर 2014

विधवाओं की स्थिति का रहस्य 4


पहले के तीन पोस्ट में परिप्रेक्ष्य लिखा गया है। इस प्रकार बंगाल और मिथिला से अनेक विधवाओं का काशी और बृंदावन में आ कर रहना और शेष जीवन भिक्षा पर बिताने की मजबूरी खड़ी हो गई। कुछ गौड़ीय संप्रदाय में दीक्षित हैं लेकिन अधिकांश का किसी संप्रदाय से न संबंध है न ही किसी संप्रदाय के धर्माचार्य ने इनकी जिम्मेवारी ली है।
खादी का सहारा
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अगर भारत में सूत कातना सवर्ण समाज में पुण्य काय्र नहीं माना गया होता तो बंगाल और मिथिला की सवर्ण विधवाओं की पता नहीं क्या दुर्दशा होती? महीन खादी केवल बंगाल और मिथिला में ही बनती है। अब बंगाल से सूत कातना लगभग समाप्त है लेकिन खादी संस्थाओं के भीतर असवर्ण आंदोलन के द्वारा मिथिला की इन कत्तिनों को खादी से बाहर करने के अनेकों प्रयत्नों के बाद भी यह सिलसिला जारी है।
दक्षिण बिहार में कोइरी, कुर्मी जाति खाशकर कोइरी जाति ने आंदोलन चलाया कि किसी न किसी प्रकार से सवर्ण महिलाओं को खेत में उतारा जाय। इसे सामाजिक उपलब्धि का एक पैमाना बनाया गया। संपन्न सवर्णों की महिलायें तो खेत में मजदूरी करने से रहीं तो गरीब असहाय सवर्ण महिलाओं को खेत में उतारा जाय। संयोग से ऐसी सवर्ण विरोधी खादी संस्थाएं मुख्यतः दक्षिण बिहार में ही खुलीं, जहां की सवर्ण महिलाएं कत्तिन का काम ही नहीं करती थीं लेकिन दक्षिण बिहार में इनका केन्द्र होने और जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्राति की परिभाषा का अर्थ ‘असवर्ण वर्चस्व’ मानने वालों का दबदबा खादी संस्थाओं पर बना रहा। मिथिला की कत्तिनों ने खादी संस्थाओं के सवर्णविरोधी दुर्व्यवहार से तंग आ कर सूत को सीधा बाजार में बेंचना शुरू किया और जितनी खादी की दुकानें हैं, उनमें सरकार और खादी आयोग से प्रमाणित कम, निजी करोबार वाली ज्यादा हैं। 
हाथ के महीन सूत वाली मिथिला या बंगाल की खादी धोती सबसे महंगी होती है। उसमें भी संस्थागत दुकानों में उसी धोती की कीमत कम से कम 40 प्रतिशत अधिक रहती है। ऐसी निजी दुकानें खादी के साथ हैंडलूम और पावरलूम के कपड़े भी बेंचती हैं अतः कपड़ा तो स्वयं समझना पहचानना होता है।
आज कल खादी के कपड़े के साथ पूजा में उपयोग हुतु रूई की बत्ती बनाने का काम भी इन महिलाओं द्वारा किया जाता है। हालात बहुत ही खराब है, बस खैरियत इतनी कि अपने गांव-घर में रहने का अवसर मिल जाता है और भीख नहीं मांगनी पड़ती।

सोमवार, 22 सितंबर 2014

विधवाओं की स्थिति का रहस्य 3


स्त्री के स्वतंत्र संस्कार की अवधारणा और अनुभव का महत्त्व आध्यात्मिक रूप से भी तभी रहेगा जब बंगाल से पूरब आसाम की जनजातियों या संथालों जैसी सामाजिक संरचना रहे, जिसमें स्त्री को संपत्ति पर अधिकार रहे और पुरुष प्रधान समाज में प्रचलित वैधब्य को कोई महत्त्व न हो, न तो सामाजिक, धार्मिक व्यवहार में न ही संपत्ति पर अधिकार के मामले में।
बंगाल मिथिला में ऐसा नहीं हुआ। स्त्री को देवी भी माना गया लेकिन भीतर-भीतर विधवा को घर से बाहर कर उसकी संपत्ति हड़पने की क्रूर सामाजिक स्वीकृति के खिलाफ आंदोलन नहीं हुआ बल्कि व्यभिचार, वेश्यावृत्ति के लिये एक स्वतंत्र संभावना बना दी गई। पहले यह अत्याचार संतानहीन विधवाओं पर किया जाता था बाद में अति क्रूर स्वार्थी पुत्रों द्वारा मां को भी घर से निकाल बाहर किया जाने लगा। 
कलकत्ता भारत में पाश्चात्य संस्कृति की पहली पाठशाला है। इसके बुरे प्रभावों में एक रहा घर के वृद्धों की सेवा न करना। ऐसे हाल में विधवा मां जो बूढ़ी हो गई हो या बूढ़ी हो रही हो, उसे कौन पूछे? धनाढ्यों ने तो काशी में आश्रम बनवा कर वहां भेज दिया। मध्यवर्गीय और उनके नकलची लोगों ने बस मांग मूड़ कर काशी या पश्चिम की ओर जाने वाली किसी ट्रेन में बिठा देना ही पर्याप्त समझा। मैं निजी तौर भी इस व्यवहार से पीडि़त अनेक विधवाओं से मिल चुका हूं। काशी में और गया में भी। गंगालाभ, काशी करवट, हरि बोल आदि शब्दों/मुहावरों का वास्तविक और दूसरा अर्थ जो अत्ंयत क्रूर है, वह है- गंगा में डूबो कर मारना, उसके मुंह पर तब तक पानी छिड़कना जब तक उसकी सांस बंद न हो जाये। इस प्रक्रिया को 19वीं शताब्दी तक बंगाल में मौन स्वीकृति रही। ऐसे हाल में कोई भी विधवा परिवार की क्रूर मानसिकता की भनक पाते ही स्वतः घर छोड़ने को तैयार हो जाती है। विधवाओं की बाढ़ ने काशी में कहावत प्रचलित की- ‘‘रांड़, सांढ़, सीढ़ी, संन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशी’’। क्रमशः जारी

विधवाओं की स्थिति का रहस्य 2


कई बार जब पब्लिक अपने मन से कई परंपरा की बातों को बिना सावधानी के मिलाती है तो बेइमानों की चांदी कटती है। ऐसे घालमेल के उदाहरण हर क्षेत्र में मिलेंगे। फिलहाल बंगाल-मिथिला का प्रसंग है। मिथिला का साक्षात संबंध बंगाल से रहता है जबकि मगध पर काशी, मिथिला, बंगाल और उड़ीसा तीनों की सामाजिक मान्यताओं का प्रभाव है। इस प्रकार यहां मिली-जुली व्यवस्था है।
बंगाल एवं मिथिला के सवर्णों में विवाह के बारे में एक से एक अतिवादी मान्यताएं रही हैं। बंगीय दृष्टि से विवाह संस्कार केवल स्त्री का होता है, पुरुष का नहीं। इस विषय पर अनेक शास्त्रार्थ हुए और वहां की क्षेत्रीय परंपरा यही रही। पति रूपी पुरुष उस संस्कार में मुख्य व्यक्ति नहीं सहायक मात्र है। विवाह एक बोध है, एक मानसिक संस्कार है। इसलिये पति की मूल योग्यता किसी स्त्ऱी के मन में वह तथाकथित संस्कार रूपी अनुभूति स्थापित करने की है न कि घरेलू जिम्मेवारियों की। जिम्मेवारियां तो स्त्री एवं उसके मैके के लोगों की है। इस दृष्टि को इतना आदर मिला कि कुछ लोगों को बाकायदा केवल विवाह संस्कार स्थापित करने वाला पति मान लिया गया। यह आदर्श तथा परंपरा मुख्यतः ब्राह्मण एवं कायस्थों के बीच सीमित रही। ऐसे परिवारों एवं व्यक्तियों को कुलीन कहा गया। ये लोग अनेक विवाह करते थे। एक कहावत है कि मिथिला के कुलीन ब्राह्मण की जिंदगी तो ससुराल में ही कटती है। दुखद ही नहीं दर्दनाक मान्यता यह भी कि असली कुलीन तो अपनी पत्नी को पहचान तक नहीं सकता, बेचारा कितने को पहचाने? ऐसे किसी दरिद्र कुलीन की पत्नी मरे तो उसका संरक्षण कौन करे? क्रमशः जारी......
पहले पोस्ट का लिंक----
 http://bahuranga.blogspot.in/2014/09/blog-post_19.html

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

विधवाओं की स्थिति का रहस्य

अभी हेमामालिनी ने विधवाओं की बात शुरू की तो मुझे भी कुछ बातें याद आने लगीं। मैं कोई निष्कर्ष नहीं दे रहा बस कुछ सूचनाएं भर। मैं ने भी इस मुद्दे पर कुछ अध्ययन किया है, उसी से कुछ जानकारियां दे रहा हूं- 
1 संभवतः 1978 में भारतीय लोक सभा में या हो सकता है राज्य सभा में इन विधवाओं की दुर्दशा पर प्रश्न उठा था। उसके बाद इसके सामाजिक कारणों को पहचानने के लिये एक शोध किया गया जिसकी परोक्ष कमान प्रख्यात विदुषी कपिला वात्स्यायन और प्रत्यक्ष कमान स्व. प्रो. बैद्यनाथ सरस्वती के जिम्मे थी और स्थानीय कार्य भार संभाल रहे थे श्री सत्यप्रकाश मित्तल।
2 डाटा संग्रह के बाद मैं श्री सत्यप्रकाश मित्तल जी को सहयोग कर रहा था, संस्कृत में लिखे धर्म शास्त्रीय ग्रंथों को समझने और उससे जुड़ी सामाजिक उलझनों पर भारत के विभिन्न क्षेत्रों के धर्माचार्यों के विचारों को समझने में। संस्कृत-पालि के ग्रंथों के अनुवादों में अनुवादकों ने भारी मनमानी कर रखी है, खाशकर तीन धारा के लोगों ने- आर्यसमाज, गीताप्रेस और राहुल सांकृत्यायन एवं अन्य वामपंथी अनुवादकों ने। इसलिये रिसर्च में राधाकृष्णन सहित ये तीनो मान्य नहीं हैं। मजबूरी में एक अनुवादक/दुभाषिये की जरूरत थी तो मैं भी शामिल हो गया। मैं आचार्य और संस्कृत आनर्स दोनों की परीक्षा दे कर परिणाम आने तक की अवधि में बुद्धि की धार पजाने के लिये बनारस गया था।
3 वहां अजीबोगरीब जानकारियां मिलीं, जैसे- बनारस में रहने वाले गैर हिंदी भाषी संस्कृत पंडित पूरी तरह जानकार होने पर भी धार्मिक-सामाजिक प्रश्नों का उत्तर केवल संस्कृत या भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में ही देने को तैयार थे न हिंदी ना अंग्रेजी।
4 अधिकांश विधवाएं एक ही सांस्कृतिक क्षेत्र की थीं। जी हां, बंगीय धर्म परंपरा वाली। मिथिला धर्म परंपरा में बंगीय है, इसी तरह बंगाल से सटा उड़ीसा का क्षेत्र। मिथिला छोड़ बिहार के अन्य क्षेत्र से घूमंतू सधुआइनें मिलती हैं/मिलीं लेकिन वृद्धांश्रमों में रहने वाली नहीं। बंगाल के धनी लोगों ने न केवल आसपास के पठारी इलाकों में अपनी हवाखोरी के लिये बंगले बनवाये बल्कि अपने घर की विधवाओं के लिये काशी में भी अनेक घर बनवाये। मिथला वाले इतने धनी नहीं थे न घर बनवाये। ये घर कई बार धनी विधवाओं के द्वारा विधवाश्रम में बदल दिये गये। ऐसा ही एक विधवाश्रम था, प्रसिद्ध मानवशास्त्री और कभी गांधी जी के निजी सचिव रहे प्रो. निर्मल कुमार बसु का जिसका नाम था सरोजिनी आश्रम। अब वहां स्कूल चलता है। मेरे समय तक विधवाएं थीं। 
5 बंगाल में विधवा ही नहीं स्त्री को संपत्ति में वह सामाजिक अधिकार नहीं जो अन्य उत्तर भारतीय क्षेत्रों में। विधवा स्त्री को यहां का सवर्ण समाज बहुत ही क्रूर दृष्टि से देखता है। लाख हर बात पर मां-मां कहे विवाह की अवधारणा ही वहां विचित्र है। जारी.....

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

ये जो विश्वकर्मा जी हैं


इन्हें समझना भी आसान नहीं है। वैसे तो हिंदू होने के नाते किसी भी बात को समझने की कोइ्र अनिवार्यता नहीं है। हमें जब जो मन में आये मानने की सुविधा है लेकिन मनुष्य होने के नाते यदि शास्त्र, परंपरा ब्रह्माझउीय संरचना किसी भी दृष्टि से समझने की कोशिश करेंगे तो अजीबोगरीब उलझनें सामनें आयेंगी। आज प्रसंगानुसार  विश्वकर्मा जी को लेते हैं।
ये भी देवता हैं। लेकिन इनकी दाढ़ी-मूछें हैं, शायद ब्रह्माजी की कॉपी होने के कारण या सूर्यवंशी होने के कारण। मूर्तिशास्त्र के ग्रंथ जो कहें, सूर्य के जो डिस्कनुमा प्रतिमा या चित्र बनते हैं, उसमें दाढ़ी-मूछें होती हैं। ये विश्वकर्मा जी हाथी पर चलते हैं। इनकी महिमा ऐसी कि इन्होंने न केवल खराद मशीन बनाई बल्कि उस पर सूर्य को ही चढ़ा कर काट-छांट कर दिया। नाम है विश्वकर्मा। यदि विश्व की सृष्टि इनके जिम्मे है तो ब्रह्मा जी का काम क्या होगा? ये कहीं ब्रह्मा जी के प्रतिद्वंद्वी तो नहीं हैं। पब्लिक ने इनके नामार्थ को नहीें लिया। इनके कार्यक्षेत्र को मानवीय और यांत्रिक सृष्टि तक ही मुख्य रूप से रखा।
इनकी उत्पत्ति की कथा सूर्य के अन्य संतानों- यम, यमी, धर्मराज, चित्रगुप्त, यमुना, शनिश्चर के साथ आती है। कथा तो कथा है। अपनी उत्पत्ति के पहले ही संतानोत्पत्ति करने वाले सूर्य को ये सुधार सकते हैं।
लाचारी में अपने मन को थोड़ा आधुनिक बना कर सोचना पड़ता है तब लगता है कि ये सूर्य के संतान हों या न हों आखिर इन्हें किस परंपरा में जगह मिलती? इसलिये सूर्य की परंपरा में जगह मिली। यदि यह माना जाय कि इनकी मशीन पर वास्तविक सूर्य नहीं सूर्य की मूर्ति का निर्माण हुआ तो वह मूर्ति मेरे अनुमान से लोहे की नहीं होगी। लोहे या धातु की मूर्ति को ढालना आसान है, खरादना नहीं। पत्थर की शिला को भी खराद मशीन पर चढ़ाना बहुत कठिन लगता है। यह जो बिहार से उड़ीसा तक का क्षेत्र है, वहां लकड़ी की मूर्ति की महिमा है। जगन्नाथ जी के बारे में तो आप जानते ही होंगे। इसी तरह सूर्य की मूर्ति का भी प्रावधान है। इस प्रकार पहली बार इनकी मशीन से सूर्य की लकड़ी की प्रतिमा का निर्माण हुआ, ऐसा अर्थ भी लगाया जा सकता है। ऐसे विश्वकर्मा जी के पास हाथी न हो तो कुछ नहीं हो सकता, न लकड़ी ढोना, न पत्थर हटाना न अन्य कोई काम, जिसमें भारी बल की जरूरत हो। जय विश्वकर्मा जी!

सोमवार, 15 सितंबर 2014

आज शोक दिवस है

आज शोक दिवस है, जीउतिया
महाभारत में जो भीम की कथा है, उसमें वह एक ऐसे राक्षस को मारता है, जो हर दिन एक बैलगाड़ी पर लदे सामान के साथ उसे ले जाने वाले गाड़ीवान को भी मार कर खा जाता है। इसी तरह मगध जो मूलतः पठारी और नाग वंशियों का क्षेत्र है, वहां प्रतिदिन गरुड़ के भोजन के लिये एक नाग को स्वतः प्रस्तुत होना पड़ता था। उस दिन जाने वाले नाग की माता का विह्वल होना सहज है। नागों की रक्षा के लिये हिमालय का रहने वाला विद्याधर जीमूतवाहन जो समुद्र से लौट रहा था एक मां को तड़पता देख उसके पुत्र के बदले स्वयं गरुड का भोजन बनने को प्रस्तुत हो जाता है। उसका नाम जीमूतवाहन है। गरुड़ के सामने स्वयं प्रस्तुत और पीड़ा झेलते हुए भी संयमित जीमूतवाहन की करुणा से गरुड का भी हृदय परिवर्तन हो जाता है। 
उसे जीवनदान मिलता है, विष्णु उसे अपने लोक में प्रतिष्ठित करते हैं। बाद की कथा में तो उसे विष्णु का अवतार भी माना लिया गया। आज जीमूतवाहन गरुड़ के सामने स्वयं प्रस्तुत और पीड़ा झेलते हुए हाल में है। अतः सभी पुत्रवती माताएं शोक में हैं और वे लोग जो जीमूत, जीउत को अपना कुल पुरुष मानते हैं। कल जब उसे जीवनदान मिलेगा तभी अन्न जल ग्रहण करेंगी और अपने पुत्र के लिये भी चिरंजीविता का आशीर्वाद प्राप्त करेंगी।
काशी परंपरा एवं पश्चिमी क्षेत्र के पंडितों को मगध, मिथिला आदि की यह लोक आस्था नहीं पचती है। वे इसे दूसरे अष्टमी उत्सव से गुमराह करने का निरंतर प्रयास करते हैं। स्थानीय पंडितों में भी जो अपने को ज्यादा काशीवादी और अब नागपुर के संघवाद के करीब मानते हैं, वे लोक आस्था का मजाक उड़ाते हैं लेकिन उनमें जो कर्मकांड से रोजीरोटी का जुगाड़ करते हैं, उन्हें तो व्रती माताओं की आस्था के सामने झुकना पड़ता ही है। माताएं पूछ बैठती हैं- रखिये अपने पास मुहूर्त ज्ञान, पहले यह बताइये कि जब तक जीमूतवाहन जीवित नहीं होगा व्रत कैसे तोड़ा जायेगा? कृतज्ञता नाम की भी कोई बात होती है या नहीं? उसके साथ बात यह कि जो जो स्वयं आफत में है, उससे अपने पुत्र के प्राणों की रक्षा की मांग माताएं नहीं कर सकतीं। जीमूतवाहन भी तो किसी का पुत्र ही है न?
विस्तृत विवरण is post पर पढ़ सकते हैं- 
http://bahuranga.blogspot.in/2013/09/1-2-3-4-5-6-1.html

जिउतिया की पूर्व संध्या पर

एक बात पहले ही साफ कर दूं कि मैं इन्द्र आदि देवताओं और स्वर्ग में एक पक्षीय श्रद्धा नहीं रखता। अतः अपने 3-4 पोस्टों के माध्यम से स्वयंभू देवभक्तों की गालियां सादर स्वीकृत हैं। चूंकि विष्णु पक्षपाती हैं और कपट में विश्वास करते हैं, इसी परंपरा में एक सिद्धहस्त कपटी की भांति दूसरों को कपटी घोषित कर अंततः दंडित करते हैं अतः वे भी निष्पक्ष नहीं हैं। 
आगे के पोस्टों की कथा एवं सूचनाएं पंरंपरागत तथा ग्रंथों पर आधारित हैं। व्याख्या मेरी है।
इस पृष्ठभूमि में स्मरण करें कि भारत के क्षत्रियों के प्रसिद्ध कुल हैं- सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी बाद में अग्निवंशी भी। ये सभी मुख्यतः मैदानी इलाके वाले हैं, जो बाद में अन्यत्र भी बसते गये। इनके समानांतर छोट या बड़े और मुख्यतः पहाड़ी-पठारी इलाकों में जो राजे रजवाड़े हुए वे हैं नागवंशी। यहां नागवंशी कहने का मतलब कत्तई केवल राजा शिशुनाग और उसके वंशज नहीं है।
नागवंशी राजाओं की कथा भी महाभारत काल से चलती आ रही है। इनके पक्ष विपक्ष में न केवल मैदानी भारत में ध्रुवीकरण होते रहे बल्कि पूरा भारत, चीन तथा दक्षिण एशिया भी राजनतिक तथा सांस्कृतिक वर्चस्व के संघर्ष में लगा रहा।
जीउतिया की कथा इसी वर्चस्व के संघर्ष की कथा है, जिसमें हिंसा पर अहिंसा के विजय की गौरव गाथा तथा श्रद्धांजलि है। जीउतिया के पहले दिन गरुड की हिंसा की भेंट चढ़े विद्याधर हिमालय वासी जीमूतवाहन की पीड़ा का स्मरण कर दिन भर शोक मनाने उसके जीवन रक्षा की कामना करने तथा दूसरे दिन जीवन बच जाने पर उत्सव मनाने का। 
वैष्णव धारा की अहंतुष्टि कि हमे जीमूतवाहन को विष्णु का पार्षद बनाया और बौद्ध धारा की संतुष्टि कि चलिये विष्णु जैसे पक्षपाती और गरुड जैसे क्रूर का भी हृदय परिवर्तन हो गया। इस पूरे घटनाक्रम को हृदय में और जीमूतवाहन के पक्ष में मगध मिथिला की महिलाएं हैं, पुराना बौद्ध समाज है, नागांनद नाटक है। स्थानीय गरीब, दलित लोग हैं, खाश कर भूंइयां और तांती जाति के लोग।
विरोध में काशी कुल के लोग हैं, जो आकर मगध में बसे हैं, उन्हें आदर्श मानने वाले ब्राह्मण हैं। मगध को विष्णु क्षेत्र बनाने वाले श्राद्ध जैसी शैव परंपरा के अनुष्ठान को वैष्णव व्यवसाय बनाने वाले लोग हैं। क्रमशः जारी

शनिवार, 6 सितंबर 2014

आज उत्सव-प्रधान अनंत व्रत है

किसी व्रत या उत्सव में सम्मिलित होने का सुख अलग होता है और उसे समझने का अलग। आप चाहें तो दोनों का सुख लें या किसी एक का।
रामनवमी और अनंत चतुर्दशी हमारे यहां सुविधाजनक व्रत हैं। इसमें उत्सव मनाने, खुश होने और खाने-पीने का व्रत अर्थात दृढ़ संकल्प लिया जाता है कि हम प्रसन्नतापूर्वक इस अवसर पर पूआ-पूड़ी और अनंत के समय सेवई खायेंगे। मात्र दोपहर तक का व्रत। प्रातःकाल से सफाई, नदी में स्नान, पूजा पाठ की तैयारी, खानेपीने की व्यवस्था, औरतों का सजना संवरना और अनंत पूजा के साथ कथा श्रवण। आ गई दोपहर, बस खा पी कर प्रसन्न हो जाना। पहले गांवों में हाथ से सेवई बनाने का काम पहले ही शुरू होता था। हमें उसी से पता चल जाता था कि अनंत व्रत आने वाला है।
इसमें सेवई का बहुत महत्त्व है। यह न केवल खाद्य सामग्री है अपितु पूरा सांस्कृतिक बिंब है। शिक्षा एवं ज्ञान की पहली है। इसके बिना न बोध कथाएं पूरी होती हैं न पंचतंत्र। यह मगध के अपमान-सम्मान का बिंब हैं। गौर करने पर पता चलता है कि अनंत व्रत की महिमा भी अनंत जैसी है। 
और सबसे बड़ी बात यह कि अनंत से डरने की जरूरत नहीं। अनंत को भी एक हद तक तो समझा जा ही सकता है। जो भी आदमी अनंत की खोज में है, उसे क्षीर समुद्र के मंथन जैसा प्रयास करना पढ़ता है, तभी उसे अनंत फल मिलते हैं। आप भी जाहें तो ऐसा कर सकते हैं।
इसके लिये आपको अपनी समझ की सीमाओं को पहचानना होगा। सामान्य देशी आदमी की देशी समझ देशी अवधारणाओं पर निर्भर होती है। उस प्रकार 14 भुवनों की सीमा में ही हमारा व्यावहारिक अनंत सीमित है। व्यवहार के लिये अनंत को भी स्पष्ट करना होता है, तभी धर्म, कर्म, व्रत, उत्सव, संस्कार, संबंध, दायित्व आदि व्यवहारों में सही गलत का निश्चय हो पाता है। 
लोगों ने एक समय उन्मुक्त चिंतनों की दुविधाओं एवं विविधताओं से परेशान भावप्रधान आम जनता को मानने की सुविधा प्रदान की और 14 भुवनों की लगाई गई गांठ को ही देवता का विग्रह माना। आधुनिक उदाहरण लें तो जैसे गुरु ग्रंथ साहिब गुरु हैं, वैसे ही 14 भुवनों की सीमा की पक्की गांठ रूपी पुरुषार्थ का आधार माने जाने वाले दाहिने हाथ में बांधी जाने वाले 14 गांठों वाला अनंत का विग्रह ही देवता है।
अन्य परंपराओं से इसके संबंध को समझने के लिये मेरा पुराना पोस्ट भी पढ़ सकते हैं- अनंत की 14 गांठें http://bahuranga.blogspot.in/2013/09/blog-post_7912.html

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

लगता है बात कुछ और है


आज कर्मा एकादशी है या पद्मा? पब्लिक तो कर्मा जानती है। जो पूजाविधि की कथा है- झूर पूजन विधि, जो बाजार में है और जिसे पुरोहित लोग पढ़ते हैं, उसमें कर्मा है। अन्य एकादशी के प्रति जनता का उतना लगाव नहीं है, जितना कर्मा के प्रति। यह केवल एकादशी ही नहीं, बहुत कुछ है। बिहार झारखंड में भाई-बहन के प्रेम के उत्सव के रूप रक्षा बंधन तो नया फिल्मी व्रत है। बिना रक्षा पाने का बंधन बांधे, ‘‘भैया-भौजी के करम-धरम’’ बहन का व्रत-तप के बिंबों के साथ भाई-बहन के प्रेम का यह उत्सव कई दिनों तक चलनेवाला उत्सव है।
इसमें दार्शनिक पक्ष भी हैं। आम आदमी की भाषा और बिंब में कि कर्म, उसका परिणाम किस तरह का होता है? मन पर पड़ी छाप कैसी होती है? आदमी का अपने मूल स्थान से लगाव कैसा होता है और कैसा होना चाहिये? भाग्य प्रधान है या पुरुषार्थ? व्यक्ति के प्रयास एवं परिवार की मंगल कामना के बीच क्या संबंध है? ऐसी अनेक बातें।
अब इस बात पर कोई ब्राह्मण ही सोचे, ऐसी सीमा तो हो नहीं सकती। अतः लोगों ने, आम लोगों ने सोंचा। अपने बिंबों में अपने सिद्धांत रचे। पंडितों को समझना हो तो समझें या इस भ्रम में रहें कि सनातन धर्म केवल कुछ अभिजात लोगों के लिये है। जो आचार किसी संस्कृत पोथी में नहीं मिल रहे, वे गलत हैं। पहले उनका संदर्भ तो मिलाया जाय। ऐसा न हो कि कोई पुस्तक ही छूट रही हो?
रही बात आयुर्वेद के निर्देशों की तो एक बात गजब की है। मैं बचपन और जवानी में खुद खेतों में काम करने वाला रहा हूं, केवल कराने वाला नहीं। अपने ही दालान के पायों पर फोटो की तरह फ्रेम किया हुआ स्वस्थ वृत्त, ऋतु चर्या पढ़ कर हंसता था कि अगर इसका पालन किया जाय तो खेती ही नहीं होगी। आगे का क्या कहें? इस प्रकार देखने-समझने कि कोशिश में तो लगता है कि मामला कुछ और है।
 कुछ बातें मैं ने अपने पुराने पोस्ट .http://bahuranga.blogspot.in/2013/09/blog-post_16.html में भी की हैं।

शनिवार, 23 अगस्त 2014

सुझाव आमंत्रित हैं।

सुझाव आमंत्रित हैं।
इस ब्लाग को फिर से सहेजना-सुधारना । आपके सुझाव शिर आंखों पर , बेहिचक टिपपणी करें, सुझाव दें, बुरा मानने का तो प्रश्न ही नहीं, आपके सुझाव के प्रति कृतज्ञता रहेगी।

सोमवार, 18 अगस्त 2014

श्री कृष्ण जी के नाम संदेश


कहा सुना जाता है कि आप सभी कलाओं में पारंगत एवं लीलाओं में महारत वाले महान व्यक्ति हुए। आपकी कथाएं अद्भुत हैं। वैसे तो चूंकि आप भगवान हैं अतः मैं यह नहीं कह सकता कि मैं जो कहने जा रहा हूं वह आपको पता नहीं होगा, फिर भी अगर ध्यान से हट गया हो तो इस समाचार पर विचार कर लें।
आपके संसार छोड़ने के अनेक वर्षों बाद भारत के लीला विशेषज्ञों को लगा कि आपकी अनेक लीलाओं की नकल करने में पूरा मजा नहीं आ रहा है। अतः उन्होंने सोचा कि सबको छकाने वाले नटवर नागर को ही क्यों न छकाया जाय? और इस बार ऐसा छकाया जाय कि फिर दुबारा आप किसी को छकाने की हिम्मत ही न करें। भक्त के अनुसार भगवान को चलना होता है न? भक्त भगवान के अनुसार क्यों चले?
कुछ लीला आपके चिर शत्रु प्राचीन संन्यासियों ने की और बाकी का काम संन्यासी फिल्म वालों ने पूरा कर दिया। इस काम के लिये आपने अपनी लीलाओं से जो संदेश दिया था, पहले उसकी पैरोडी बनाई गई फिर उसे फिल्मी गाने में सरसतापूर्वक परोसा गया, जैसे यह आपका ही उपदेश हो। विस्तार में कितना कहूं, संक्षेप में सुनिये- ‘कर्म किये जा फल की इच्छा, मत कर रे इंसान, जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान।’ मैं ने इसका संस्कृत श्लोक गीता में कम से कम 5000 बार खोजा लेकिन नहीं मिला। और तो और, एक ‘गीता सार’ नामक पोस्टर छपा, फिर तो उसके प्रिंट भी कपड़े पर आये। अब हर हिंदू नाई की दुकान पर लगभग टंगा रहता है क्योंकि अपने किसी नाई को प्रश्रय नहीं दिया।
बड़े चले थे न गीता में असली नकली संन्यास का मर्म बताने कि जो आग नहीं छूता और काम नहीं करता वह असली संन्यासी नहीं है, असली तो कुछ और होता है.............। उन्हीं आग न छूने वालों और कर्म न करने वालों ने आपकी गीता को अपना धार्मिक हथियार बना लिया।
अब लोग मेरे जैसे कम पढ़े लिखे संस्कृत वाले से पूछते हैं कि जो कर्मों में कुशलता को योग मानता हो, उस आदमी ने ऐसी बेवकूफी वाली बातें कैसे कीं? मैं क्या करूं? अब आपकी कथा सुनाने वाले कथा वाचक भी सीधी बात नहीं कहते कि आपने ऐसा नहीं कहा था। आपने तो कहा था कि कोई काम जब 5 कारकों/घटकों से संभव होता है तब केवल तुम केवल कर्ता हो कर पूरा हक कैसे जमा सकते हो? पैरोडी के मार में आपकी अपनी ही गीता के अपने विवरण कब के अंतर्ध्यान हो गये? ‘अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ............’’ श्लोक की चर्चा कोई नहीं करता क्येंकि अगर ऐसा करने लगे तो कार्य कारण संबंध सबकी समझ में आ जायेगा? फिर महान संतों की महत्ता कैसे बनेगी?
कैसा रहा लीला का यह समाचार?

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

बोलते समय ही झूठ

‘‘वदतो व्याघात’’
भारतीय तर्क प्रणाली में कुछ बातों को ‘‘वदतो व्याघात’’ कहा गया है, जैसे कि- खरहे की सींग, आकाश कुसुम, आग से सिंचाई आदि। यह तो बोलते समय ही झूठ है। इस पर चिंतन मनन क्या?
ये उदाहरण गैर धार्मिक और गैर राजनैतिक हैं। इसलिये इन्हें बोलते ही झूठ समझ लेना आसान है लेकिन जैसे ही किसी राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक या सांस्कृतिक झूठ के उदाहरण को सामने लाया जाता है, उसे समझते हुए भी विरोध में स्वर उठने लगेंगे। ऐसा इसलिये कि उस झूठ के प्रति ऐसी श्रद्धा रहती है कि उस माने हुए सच, न कि वास्तविक के प्रति लोग सैकड़ों वर्षों से मरने-मारने पर उतारू रहे हैं। उस झूठ पर ही उनकी पहचान रही है। अतः मुझे मालूम है कि इस शृंखला के पोस्टों पर मुझे चारों तरफ से लानत-मलामत की सौगात मिलने वाली है।
सर्वहारा की तानाशाही में हर्ज क्या है? यह ऐसा ही सवाल है। सर्वहारा भला तानाशाही क्या करेगा? और तानाशाह भी कभी सर्वहारा हो सकता है क्या? सर्वहारा के पक्षधर होने का दावा करने वाले तानाशाहों की पोल खुल चुकी है। सर्वहारा की तानाशाही न हो सकती थी, न हुई। इस सरल बात को समझने की कोशिश करने वाला हर आदमी बुर्जुआ और पता नहीं क्या क्या सिद्ध कर दिया जायेगा।
इसके समानांतर एक उदाहरण लेते हैं। ‘‘रामराज्य एक आदर्श भारतीय समाज व्यवस्था है।‘‘ कौन सा राम राज्य? कब? कैसा था? और उस समय के लोग भी उससे प्रसन्न थे क्या? संपूर्ण न सही बहुसंख्यक और उससे जुड़े हुए लोग भी सही? कौन सा रामराज्य लाना है? पहले वाला या कि कोई नया ब्रांडेड? उसमें न रावण खुश, न सीता? एक कथा के अनुसार राम के लगभग पूरे परिवार ने आत्महत्या नहीं जल समाधि ले ली। यह थोड़ी कम प्रचलित कथा है। तुलसीदास जी ने इसे नहीं लिखा है। पुराने रामराज्य में तो न चुनाव होता, न ही मोदी जी जैसे वैश्य वर्णीय को सिंहासन मिलता।
मेरा तो पहला अपराध यही हो गया कि मैं सर्वहारा की तानाशाही और रामराज्य दोनों को समझने की जुर्रत कर रहा हूं। यह तो यूरोपीय एवं भारतीय दानों परंपरा की निष्पाप दिव्यात्माओं की स्थापनाओं पर सवाल है। लेकिन भक्त मित्रों मुझे दोनों ही वदतो व्याघात लगे, आकाश कुसुम की तरह या खरहे की सींग की तरह। यदि किसी को नहीं लगता वह मुझसे समझदार और दिव्य दृष्टि वाला हो सकता है। सपनों के सौदागर इसी तरह के वदतो व्यघात  को इतनी अधिक भावनात्मक उत्तेजना से पेश करते हैं कि उसे समझना ही गुनाह माना जाता है।
मूर्खता के आंदोलन के धार्मिक उदाहरण पर अगले पोस्ट में।

गुरुवार, 31 जुलाई 2014

जी हां मैं और आप दोनों तांत्रिक हैं

जी हां मैं और आप दोनों तांत्रिक हैं
भारत में ज्ञान की धारा के सरलीकरण और जटिलीकरण के पक्ष-विपक्ष में लंबे समय से संघर्ष चल रहा है। सरलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि अगर विषय सरल रहे तो मुझे और मेरे अपने लोगों के साथ अन्य को भी उसका लाभ आसानी से मिल जायेगा। जटिलीकरण के पक्षधर सोचते हैं कि यह विषय इस प्रकार से कहा लिखा और समझाया जाय कि हर जगह पेंच फंसी रहे और कुछ खाश लोगों तक ही उपयोगी बातें सीमित रहें ताकि लाभार्थियों से उसके एवज में अधिकतम लाभ लिया जा सके, वर्चस्व कायम रहे।
तंत्र शब्द और उसका अर्थ इस पेंच में इस तरह उलझा कि रोज अनेक बार अनेक संदर्भों में तंत्र शब्द का प्रयोग करने के बावजूद अगर कोई कहे कि मैं तांत्रिक हूं तो लोग उसे शक की निगाह से देखेंगे और यदि वह दूसरे को कहे कि आप तांत्रिक हैं तो दूसरा पलट कर तुरत खंडन करता है नहीं मुझे तंत्र वंत्र से कोई लेना देना नहीं।।
तंत्र यदि ऐसा भयानक और घृणा के लायक ही है तो लोक तंत्र, राज तंत्र, तंत्रिका तंत्र, स्नायु तंत्र, योग तंत्र, आदि शब्दों का प्रयोग क्यों ? तंत्र शब्द का नाम सुनते ही डरने या घृणा करने की जगह उसे समझने की आवश्यकता है। तंत्र का सीधा और व्यापक अर्थ है- विस्तार, विस्तृत कार्यप्रणाली। कोई भी मूल सूत्र या व्यवस्था  जीवन व्यवहार में तभी लागू हो सकेगी जब उसकी कोई कार्यप्रणाली भी हो। यह कार्य प्रणाली ही तो उस सूत्र, सिद्धांत या व्यवस्था का तंत्र अर्थात विस्तार हुआ। उदाहरण के लिये- किसी भी देश में संफल या विफल लोक तंत्र का तब तक कोई वास्तविक मतलब नहीं होता जब जक चुनाव एवं राज्य सत्ता पर सामान्य नागरिकों के नियंत्रण तथा हस्तक्षेप की कार्यप्रणाली का निर्धारण न हो जाय। लोक तंत्र की सफलता सच में तब तक नहीं होगी जब तक आम नागरिकों के मन में अन्य सामाजिक-राजनैतिक मूल्यों की तुलना में लोक तांत्रिक मूल्यों के प्रति अधिक श्रद्धा और स्वीकार्यता न हो जाय। लोकतंत्र धार्मिक विश्वासों से ऊपर हो।
इसी प्रकार से विभिन्न काल खंडों में भारत के विविधता पूर्ण वातावरण में अनेक प्रकार के सूत्रों, सिद्धांतों एवं तकनीकों को मिला कर सामाजिक-राजनैतिक आवश्यकता के अनुरूप उनके तंत्र अर्थात विस्तृत कार्य प्रणालियां विकसित हुईं। ये कभी भी प्रकृति, समाज और राज्य के निरपेक्ष नहीं रहीं। अंतर इतना रहा कि किसी ने राज्य, किसी ने समाज और किसी ने केवल प्रकृति की व्यवस्था को महत्त्व दिया और अन्य की उपेक्षा की। तंत्र को समझने में चूंकि विस्तृत जानकारी और अध्ययन की आवश्यकता होती है साथ समय तथा क्षेत्र के अंतर को भी समझना होता है अतः लोग तंत्र के अर्थ को ही सीमित कर प्रयोग करने लगते हैं अन्यथा इस प्रकृति, समाज और राजनीति को समझने ओर उसके बीच जीने और खेलने वाले हम सभी तांत्रिक हैं। भाग कर जा कहां सकते हैं? तंत्र शब्द से भी पिंड छुड़ाना आसान नहीं है, अर्थ का हाल तो कह ही दिया।

गुरुवार, 10 जुलाई 2014

अर्थ/अनर्थ का शास्त्र

शब्दार्थ
अर्थ/अनर्थ का शास्त्र और तर्जुमे का खेल
आज की शिक्षित पीढ़ी और खाश कर हिन्दी भाषी पीढ़ी साम्यवादी/साम्राज्यवादी अनुवादकों के तर्जुमे/अनुवाद के कारण अनेक मामलों में भ्रांत धारणाओं का शिकार है। मघ्यमार्गी, राष्ट्रवादी कहने वालों ने इस समस्या पर ध्यान ही नहीं दिया और पारंपरिक संस्कृतनिष्ठ अनुवादकों ने अपनी परंपरा को प्रगट करने की जगह केवल क्लिष्ट जटिल शब्दों को अनुवाद के बतौर पेश किया। विज्ञान की चोरी का उदाहरण मैं ने रखा है। आज अर्थ शास्त्र को देखते हैं। वैसे भी आज बजट का दिन है।
हम लोगों के समय में भी कालेजों में यही पढ़ाया जाता था कि अर्थशास्त्र के जनक आदम स्मिथ हैं। साथ ही सारे पैमाने यूरोपीय, शब्द या तो यूरोपीय या भारतीय शब्दों को बिना उनके पूर्व प्रचलित अर्थ के जाने हुए प्रयोग।
भारत में अर्थ शास्त्र की एक स्वतंत्र धारा रही है। इसके जनक जो हों फिर भी पहली विस्तृत पुस्तक आचार्य विष्णु गुप्त उर्फ चाणक्य द्वारा लिखी गई मिलती है। उसके बाद भी यह सिलसिला जारी रहा। इस शास्त्र की परंपरा में अर्थ का मतलब है- आजीविका, चाहे वह शिल्प हो, खेती, विपणन या सेवा, और उस पर अनेक प्रकार के कर लगा कर राज्य कोश को बढ़ाना और श्रेष्ठी वर्ग को प्रसन्न साथ ही इस बात की सावधानी रखना कि प्रजा में क्षोभ न हो और वह बगावत पर न उतर जाये।
भारतीय पारंपरिक अर्थ शास्त्र भी साम्राज्यवादी है। लेकिन आधुनिक साम्राज्यवादी इसका नाम नहीं लेना चाहते, न कांग्रेसी विद्वान न ही संघी। वामपंथियों के भारतीय ज्ञान से सर्वाधिक नफरत है। भारतीय पारंपरिक अर्थ शास्त्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के करों का प्रावधान है। साथ ही पूरी सूची दी गई है कि उत्पादक, विक्रेता, सरकारी कर्मचारी तो चोरी करते ही हैं। मनोरंजन आदि सेवा कर्म करने वाले भी कर में चोरी करते हैं।
श्रीमान चाणक्य जी ने तो वेश्यावृत्ति का भी बखूबी अध्ययन किया और भिन्न प्रकार की वेश्याओं द्वारा वेश्यावृत्ति के विभिन्न चरणों पर अलग अलग कर निर्धारित किये तथा उसकी वसूली के उपाय भी बताये।
आ कल ब्राह्मण लोग चाणक्य भक्ति में लीन है। उन्हें यह जान कर शायद ही अच्छा लगे कि श्रीमान चाणक्य जी ने ब्राह्मणों को भी ठगने के उपाय बताये। गीता के श्लोकों में ब्राह्मण की जो आजीविका बताई गई हो। सच यह है कि जंगली एवं ऊसर जमीन को सुधार कर उसे खेती लायक बनाने एवं सिंचाई की व्यवस्था करने में ये कुशल रहे हैं। जमीन के प्रति इनके लगाव के कुछ ही अपवाद हैं।
इसलिये श्री चाणक्यजी कहते हैं कि ब्राह्मणों को बरबाद जमीन दान करो, वे उसे उपजाऊ बना देंगे। फिर किस बहाने उसे हथियाने से किसी को कौन रोक सकता है।

बुधवार, 4 जून 2014

दो प्रकार की जातीय पहचान

दो प्रकार की जातीय पहचान
मैं ने पहले भी लिखा है- असली जातीय पहचान की तलाश अनारक्षित समूहों में अब केवल शादी संबंध के समय होती है। आरक्षण पाने के लिये तो प्रमाण पत्र भी लेना होता है। शादी विवाह में 2 घेरे होते हैं, एक छोटा, जिसके बाहर और एक बड़ा, जिसके भीतर शादी की जाती है। इसमें भी अंदरूनी छोटे घेरे से और करीबी पहचान होती है।
इसके अतिरिक्त अगर जातियों की अंदरूनी पहचान के अंतर को समझना हो तो तीन प्रकार की पहचान चलन में है। एक में वह जाति अपनी पहचान किसी क्षेत्र से करती है दूसरी पहचान गोत्र/खाप या इसके पर्यायवाची नाम से और तीसरी पहचान गांव से बनती है।
यह गांव वाली पहचान मनुष्य को उसकी कबिलाई/खाप/गोत्र/आनुवंशिक रक्त संबंध आधारित पहचान को विभिन्न गांवों की पहचान दे कर कई टुकड़ों तोड़ देती है। जाति एक लेकिन उनके टुकड़े गांव आधारित। अनेक जातियां इसी पहचान पर जीती हैं।
दूसरी पहचान गोत्र, खाप वाली है। यह परंपरा केवल जाटों की हो, ऐसा नहीं है। यह लगभग सभी वर्णों की विविध जातियों में मिलती है। एक बात विचित्र है कि गांव आधारित पहचान वाले कलाप्रेमी, शिल्पविद्या में रुचि रखने वाले एवं सौम्य तथा कम कलहकारी होते हैं, जबकि खाप/गोत्र वालों में आज भी अपना वर्चस्व के विस्तार की भावना प्रबल होती है। वे अपने को विजेता और उच्च मानते हैं और सहिष्णु को कायर या मूर्ख।
खुले तौर पर नाम लेना उचित नहीं है लेकिन आप मिलायेंगे तो अनेक उदाहरण मिल जायेंगे। आप किसी भी जाति/बड़े समूह के अंतर्गत किन्ही दो की तुलना कर देख सकते हैं। यह समानता ब्राह्मण से डोम तक में मिलेगी।
मेरी समझ से यह प्रवृत्ति दो पकार की कबीलाई पसंद का अवशेष है। कुछ कबीले अपने में सिमट कर जीना पसंद करते हैं जबकि दूसरे लूटपाट करने, दूसरी की संपत्ति जानवर आदि पर कब्जा कर इलाके के विस्तार में।
इसी प्रकार धर्म में भी दो पसंद हैं- एक में हमारा धर्म हमारे लिये, उसमें दूसरों को शामिल क्यों करना वो अपने धर्म का पालन करे। यह सनातनी दृष्टि है। दूसरी धारा में अपने धर्म में दूसरों को शामिल करना आदर्श है। बौद्ध से आरंभ कर इस्लाम तक इसी आदर्श पर आज तक चले हैं। सनातनियों में भी स्मार्त जो बहुसंख्यक हैं , वे दूसरों पर प्रभाव जमाने की जरूरत नहीं महसूस करते जबकि अन्य नये या पुराने संप्रदाय वाले दूसरों को हराने के लिये झगड़े करते रहे हैं। सनातनियों में इस सिद्धांत पर विश्वास करने वाले शंकराचार्य सबसे बड़े नाम हैं।

गुरुवार, 22 मई 2014

श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा

अथ श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा भाग एक

अगर हम एक साथ किसी दुकान पर रसगुल्ला खायें और उसका अनुभव दूसरे को बतायें। अगर अनुभव समान हों तो मतलब हमारे भीतर समानता है। दुबारा अगर रसगुल्ले में कोई अंतर आयेगा तो हम आपस में उसके बारे में जानकारी बांट सकते हैं। लेकिन यह बात किसी प्लेट में परोसे गये रसगुल्ले की संख्या पर लागू नहीं होती उसके बारे में आपको लगभग एक ही प्रकार का विवरण मिलेगा।
इस मामले में प्रायः भ्रम नहीं होता, न जोड़ में न घटाव में। वह भी तो अनुभवात्मक साक्षात्कार ही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ मामलों में हम अधिक प्रामाणिक और कुछ मामलों में व्यक्तिवादी अनुभव वाले होते हैं। अगर सच में ऐसा होता हो तो इसकी जांच पड़ताल की जानी चाहिये। 

आप भी आजमा कर देख सकते हैं।

किसी जमाने में आंवले के उदाहरण से बात समझाई जाती थी कि फलां को बात इतनी आसानी से समझ में आती है जैसे हाथ में आंवला हो। आंवला शायद नये जमाने में सबको पसंद न आये तो मैंने सोचा कि किसी दूसरे उदाहरण से बात कहने की कोशिश करता हूं। शायद रसगुल्ले से बात बन जाये।
रसगुल्ले को आत्मसात करने का अनुभव तो अनेक रसिकों को होगा। ठीक इसके विपरीत अगर किसी को अपने से बड़े किसी जड़ या चेतन के साथ एकाकार होने का अनुभव हो तो बतायें, वह साक्षात्कार भी कम मजेदार नहीं होता।

अथ श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा भाग दो

रसगुल्ले का साक्षात्कार दानों तरह से होता है, निर्गुण-निराकार वाली पद्धति से और सगुण साकार वाली पद्धति से भी।

यह बात मैं साफ कर दूं कि मैं यहां बिलकुल मजाकिया मूड में नहीं हूं। एक शाकाहारी ब्राह्मण रसगुल्ले का कभी मजाक नहीं उड़ा सकता क्योंकि उस मजाक से उसके मन में दुविधा उत्पन्न हो जाती है और दुविधा के साथ रसगुल्ला खाने पर वह बिहारी पदावली में ‘सरक’ जाता है। पेट की जगह श्वास नली में घुसने लगता है तो रसगुल्ले का यह प्रकोप अति दारुण होता है। अतः रसगुल्ले का पूर्ण साक्षात्कार पूरी निष्ठा, लगन एवं शांति के साथ इत्मीनान से करना चाहिये। अति वेग में पूरा रसगुल्ला एक साथ गटकने के पहले अनेक वस्तुओं को गटकने का अभ्यास करना होगा वरना......???

मूल बात पर आते हैं कि सगुण साकार वाली विधि से साक्षात्कार करने पर यह सगुण साकार और निर्गुण निराकार वाली विधि से साक्षात्कार करने पर निर्गुण निराकार दोनों ही रूपों में ब्रह्म का अंश होने से यह उसी रूप में अनुभूत होता है।

भारतीय परंपरा में अद्वैत अवस्था भी कई प्रकार की होती है, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत वगैरह। इसी आधार पर कई दर्शन एवं संप्रदाय बने हैं। मुझे नहीं पता लोगों के अनुभव और उस पर आधारित सिद्धांत में जो अंतर है वह रसगुल्ले के अंतर के कारण है या साक्षात्कार करने वालों के अंतर के कारण। इसलिये फिर से प्रयोग कर जांच करना जरूरी लगा, तो मैं ने सोचा कि विभिन्न प्रकार से विभिन्न प्रकार के रसगुल्ले खा कर इस अंतर को समझने का प्रयास करता हूं। आप भी चाहें तो मेरा साथ दे सकते हैं। आगे का विवरण/वर्णन साक्षात्कार के बाद।
किसी योगी ने पहले भी कहा है- ‘सगुणा हो तो भरि भरि पीवे, निगुणा रहत उदासा’।


रसगुल्ला सिद्धि
गया से टेकारी जाने के रास्ते में पंचानपुर आता है। वहीं मोरहर नदी का पुल पार करने के बाद आज से 15 साल पहले तक मिश्र जी की रसगुल्ले की दुकान थी। मिश्रजी रसगुल्ला निर्माण में सिद्ध व्यक्ति थे। उनकी दुकान में मिट्टी के कुछेक बरतनों में रसगुल्ले रखे होते थे और मिट्टी के चबूतरे पर बोरी बिछी रहती थी। पूरे इलाके में विख्यात इस दुकान में व्यक्तिवादी और कंजूस का प्रवेश वर्जित था।
आद. मिश्रजी एक सिद्ध की भांति बैठे रहते थे। अब वहां पक्की दुकान हो गई है और छोटे दिल तथा औकात वाले भी रसगुल्ला खा सकते हैं। मिश्रजी आर्डर पर भी रसगुल्ला बनाते थे- 5 किलो 10 किलो के से ले कर 45 किलो तक वजन का एक रसगुल्ला। आधे किलो से कम का एक रसगुल्ला तो निहायत गरीब लोग खरीदते थे। हमारी गिनती भी उसी में थी। मात्र 3 लोग खाने वाले कभी कभी 1 किलोवाला घर लाते थे।
यह एक संदेश था कि अगर अमीर हैं तो ऐसा रसगुल्ला खरीदिये और मित्रों, परिवारों में वसुधैव कुटंबकम न सही मिल बांट कर रसगुल्ला खाने का संदेश महज एकाध किलों के टुकड़े के साथ प्रचारित कीजिये।
मिश्र जी के बड़े रसगुल्ले मानव को उसकी तुच्छता का अहसास कराते थे कि ऐ मानव! मुझे पूरी तरह आत्मसात करने के लिये तुम्हें एक बड़े दिल वाला आदमी बनना होगा। रसगुल्ले का साक्षात्कार केवल स्वयं खाने से नहीं, उसे मिल बांट कर खाने से ही होता है। म्रि जी के सिद्ध रसगुल्ले बिना कुछ कहे अनेक मुंह से बहुत कुछ कहवा लेते थे। उनके लड़के अब दुकान चलाते तो हैं लेकि मिश्रजी वाली न बुलंदी है न दृष्टि। हम लोग 1990 से 95 तक खूब मजे लिये मिश्रजी की बातो और रसगुल्ले दोनों का। यह है दिव्य साक्षात्कार।
रसगुल्ला सिद्धि
गया से टेकारी जाने के रास्ते में पंचानपुर आता है। वहीं मोरहर नदी का पुल पार करने के बाद आज से 15 साल पहले तक मिश्र जी की रसगुल्ले की दुकान थी। मिश्रजी रसगुल्ला निर्माण में सिद्ध व्यक्ति थे। उनकी दुकान में मिट्टी के कुछेक बरतनों में रसगुल्ले रखे होते थे और मिट्टी के चबूतरे पर बोरी बिछी रहती थी। पूरे इलाके में विख्यात इस दुकान में व्यक्तिवादी और कंजूस का प्रवेश वर्जित था।
आद. मिश्रजी एक सिद्ध की भांति बैठे रहते थे। अब वहां पक्की दुकान हो गई है और छोटे दिल तथा औकात वाले भी रसगुल्ला खा सकते हैं। मिश्रजी आर्डर पर भी रसगुल्ला बनाते थे- 5 किलो 10 किलो के से ले कर 45 किलो तक वजन का एक रसगुल्ला। आधे किलो से कम का एक रसगुल्ला तो निहायत गरीब लोग खरीदते थे। हमारी गिनती भी उसी में थी। मात्र 3 लोग खाने वाले कभी कभी 1 किलोवाला घर लाते थे।
यह एक संदेश था कि अगर अमीर हैं तो ऐसा रसगुल्ला खरीदिये और मित्रों, परिवारों में वसुधैव कुटंबकम न सही मिल बांट कर रसगुल्ला खाने का संदेश महज एकाध किलों के टुकड़े के साथ प्रचारित कीजिये।
मिश्र जी के बड़े रसगुल्ले मानव को उसकी तुच्छता का अहसास कराते थे कि ऐ मानव! मुझे पूरी तरह आत्मसात करने के लिये तुम्हें एक बड़े दिल वाला आदमी बनना होगा। रसगुल्ले का साक्षात्कार केवल स्वयं खाने से नहीं, उसे मिल बांट कर खाने से ही होता है। म्रि जी के सिद्ध रसगुल्ले बिना कुछ कहे अनेक मुंह से बहुत कुछ कहवा लेते थे। उनके लड़के अब दुकान चलाते तो हैं लेकि मिश्रजी वाली न बुलंदी है न दृष्टि। हम लोग 1990 से 95 तक खूब मजे लिये मिश्रजी की बातो और रसगुल्ले दोनों का। यह है दिव्य साक्षात्कार।

बुधवार, 7 मई 2014

लोक सुलभ साधना विधियों की समझ में ह्रास के कारण


लोक सुलभ साधना विधियों की समझ में ह्रास के कारण
भाई जी, श्री विजय प्रकाश शर्मा जी, प्रणामं

मैं आपके सवाल के आने के बाद से सोच रहा हूं कि इस बात को संक्षेप में कहूं तो कैसे कहूं? वैसे तो मैं इस विषय पर लोकाचार रहस्य नाम से एक किताब ही लिख रहा हूं, जिसमें इन सारी बातों की व्याख्या और संदर्भ भी रहेंगे।
आपका सवाल इससे हट कर दूसरा है कि आखिर इनका ह्रास कैसे हुआ?
 मुझे अभी कुछ सूत्र सूझे हैं-
1 वैदिकी करण, पुरुष नेतृत्व और ब्राह्मण नेतृत्व का अतिवाद। ये परस्पर एक दूसरे के समर्थक हो जाते हैं।
2 खेल खेल में या परोक्ष पद्धति से सीखने जीने में यही समस्या है कि समय की फेरबदल के समय इनमें संशोधन बिना सोचे समझे होते हैं क्योंकि सिद्धांत स्पष्ट तो हैं नहीं। अगर स्पष्ट रहे तो उस आधार पर संशोधन कर दिया जाय।
3 18 वीं शताब्दी के बाद धर्मशास्त्रों का संशोधन रुक गया, 19 वीं में संशोधन की जगह सुधारवादी संप्रदाय जैसे- आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि द्वारा सीधे वैदिक कालीन पद्धतियों की नकल बिना सोचे समझे अंगरेजों को ध्यान में रख कर निकाली गई तो साधना और लोक जीवन को समझने की ही जरूरत नहीं महसूस हुई उसमें संशोधन कर कालानुरूप बनाने की किसे हिम्मत और फुरसत।
मैं तो अपने एवं अपने लोगों के लिये विधियां संशोधित कर ही अनुष्ठान, संस्कार करता हूं। बेटे के जनेऊ में इसी तरह संशोधित कर दिया तो लोगों को हैरानी हुई कि लोकाचार पूरी तरह हटाये नहीं गये बल्कि वैदिक कर्मकांड ही अधिक हटाये गये। समावर्तन का भाग तो दुबारा पूरा किया, जब वह 24 साल का हो गया। 12 साल की उम्र में कैसे एक युवक वाली जीवन शैली का उपदेश दिया जा सकता था?
4 मेरे पिताजी एवं बाबा में मतांतर था कि व्यक्तित्व का विकास पतंग उड़ाने से अच्छा होगा या फुटबाल खेलने से? पिताजी की बात सभी समझ सकते थे अतः लोग उनका समर्थन करते थे। बाबा ने अपनी पहले से पतंग खरीदी और उड़ाना सिखाया साथ ही कभी भी पतंग उड़ाते समय विघ्न नहीं किया। मैं ने दोनों का लाभ लिया लेकिन दक्षता पतंगबाजी में मिली।
इस उदाहरण में असली अंतर व्यक्तित्व विकास की समझ का है। बाबा को एक ध्यान योग का प्रखर अभ्यासी बनाना था तो आमान में आंख टिकाने के लिये बच्चे को कैसे प्रेरित करते? बाद में मैं ने इसका उपयोग बच्चों की दूर की आंख की रोशनी ठीक करने तथा उनकी उग्रता विनारण के लिये किया। इसी तरह सामाजिक लक्ष्य बनते हैं। एक समय में यह सामाजिक लक्ष्य था कि किसी को भी ध्यान योग विद्या से अपरिचित नहीं रहने देना है। आज की साक्षरता से भी अधिक तगड़ा लक्ष्य। इसलिये हर सनातनी हिंदू को उसकी मर्जी बेमर्जी के भी उसकी अंतश्चेतना से परिचित करा देना ही है। इसके लिये एक समय सीमा तय की गई - उसके विवाह के पूर्व और उसकी जिम्मेदारी औरतों को सौंपी गई। आरंभ में जाति पांत छोड़ इस काम को पूरा सामाजिक समर्थन दिया गया। परंपरागत औरतों की उस दुनिया में तो अब कोई झांकता भी नहीं है, समझेगा कैसे?
दरसल सोदाहरण खोल कर न बताने तथा विद्याधर व्यक्ति एवं समुदाय को सामाजिक संरक्षण के अभाव ने बहुत सारी समस्याएं पैदा कर दीं। अब बिना उनके मार्ग दर्शन के झूठी नकल पर विद्या कब तक टिकती और दोनो तरफ के छल ने बहुत कुछ नष्ट कर दिया। बचा वही जो उनकी समझ में पूरी तरह नहीं आया और लोगों को उसमें रस मिलता रहा। इसलिये धर्म के तीन पक्ष ही अधिक प्रचलित हैं- उत्सव-मनोरंजन, सामुदायिकता, वर्चस्व प्रदर्शन। अन्य उपाय तो बस इन्हें एक रहस्यमयी संपुष्टि के लिये होते हैं।
5 एक और अंदरूनी बात, जैसे सबसे कमजोर और घटिया शिक्षा वाले को प्राथमिक शिक्षा में  डालने की चलन है, उसी तरह कर्मकांड की है। संस्कृत अनेक बड़े बड़े विद्वान जो कर्मकांड कराते भी रहे योग, तंत्र और धर्मशास्त्र के ग्रंथ पढ़ते ही नहीं थे। सफेद झूठ बालते थे साहित्य व्याकरण, दर्शन आदि के बल पर उनकी प्रतिष्ठा रहती थी। हम लोगों ने ऐसे पंडितों से जब जो चाहा कहवाया मानवता के पक्ष में।
इतने में कितना कह पाया, पता नहीं। कुछ संप्रेषित हो सका तो प्रयास को सार्थक मानूं।
मैं आपके सवाल के आने के बाद से सोच रहा हूं कि इस बात को संक्षेप में कहूं तो कैसे कहूं? वैसे तो मैं इस विषय पर लोकाचार रहस्य नाम से एक किताब ही लिख रहा हूं, जिसमें इन सारी बातों की व्याख्या और संदर्भ भी रहेंगे।
आपका सवाल इससे हट कर दूसरा है कि आखिर इनका ह्रास कैसे हुआ?
 मुझे अभी कुछ सूत्र सूझे हैं-
1 वैदिकी करण, पुरुष नेतृत्व और ब्राह्मण नेतृत्व का अतिवाद। ये परस्पर एक दूसरे के समर्थक हो जाते हैं।
2 खेल खेल में या परोक्ष पद्धति से सीखने जीने में यही समस्या है कि समय की फेरबदल के समय इनमें संशोधन बिना सोचे समझे होते हैं क्योंकि सिद्धांत स्पष्ट तो हैं नहीं। अगर स्पष्ट रहे तो उस आधार पर संशोधन कर दिया जाय।
3 18 वीं शताब्दी के बाद धर्मशास्त्रों का संशोधन रुक गया, 19 वीं में संशोधन की जगह सुधारवादी संप्रदाय जैसे- आर्यसमाज, ब्रह्मसमाज आदि द्वारा सीधे वैदिक कालीन पद्धतियों की नकल बिना सोचे समझे अंगरेजों को ध्यान में रख कर निकाली गई तो साधना और लोक जीवन को समझने की ही जरूरत नहीं महसूस हुई उसमें संशोधन कर कालानुरूप बनाने की किसे हिम्मत और फुरसत।
मैं तो अपने एवं अपने लोगों के लिये विधियां संशोधित कर ही अनुष्ठान, संस्कार करता हूं। बेटे के जनेऊ में इसी तरह संशोधित कर दिया तो लोगों को हैरानी हुई कि लोकाचार पूरी तरह हटाये नहीं गये बल्कि वैदिक कर्मकांड ही अधिक हटाये गये। समावर्तन का भाग तो दुबारा पूरा किया, जब वह 24 साल का हो गया। 12 साल की उम्र में कैसे एक युवक वाली जीवन शैली का उपदेश दिया जा सकता था?
4 मेरे पिताजी एवं बाबा में मतांतर था कि व्यक्तित्व का विकास पतंग उड़ाने से अच्छा होगा या फुटबाल खेलने से? पिताजी की बात सभी समझ सकते थे अतः लोग उनका समर्थन करते थे। बाबा ने अपनी पहले से पतंग खरीदी और उड़ाना सिखाया साथ ही कभी भी पतंग उड़ाते समय विघ्न नहीं किया। मैं ने दोनों का लाभ लिया लेकिन दक्षता पतंगबाजी में मिली।
इस उदाहरण में असली अंतर व्यक्तित्व विकास की समझ का है। बाबा को एक ध्यान योग का प्रखर अभ्यासी बनाना था तो आमान में आंख टिकाने के लिये बच्चे को कैसे प्रेरित करते? बाद में मैं ने इसका उपयोग बच्चों की दूर की आंख की रोशनी ठीक करने तथा उनकी उग्रता विनारण के लिये किया। इसी तरह सामाजिक लक्ष्य बनते हैं। एक समय में यह सामाजिक लक्ष्य था कि किसी को भी ध्यान योग विद्या से अपरिचित नहीं रहने देना है। आज की साक्षरता से भी अधिक तगड़ा लक्ष्य। इसलिये हर सनातनी हिंदू को उसकी मर्जी बेमर्जी के भी उसकी अंतश्चेतना से परिचित करा देना ही है। इसके लिये एक समय सीमा तय की गई - उसके विवाह के पूर्व और उसकी जिम्मेदारी औरतों को सौंपी गई। आरंभ में जाति पांत छोड़ इस काम को पूरा सामाजिक समर्थन दिया गया। परंपरागत औरतों की उस दुनिया में तो अब कोई झांकता भी नहीं है, समझेगा कैसे?
दरसल सोदाहरण खोल कर न बताने तथा विद्याधर व्यक्ति एवं समुदाय को सामाजिक संरक्षण के अभाव ने बहुत सारी समस्याएं पैदा कर दीं। अब बिना उनके मार्ग दर्शन के झूठी नकल पर विद्या कब तक टिकती और दोनो तरफ के छल ने बहुत कुछ नष्ट कर दिया। बचा वही जो उनकी समझ में पूरी तरह नहीं आया और लोगों को उसमें रस मिलता रहा। इसलिये धर्म के तीन पक्ष ही अधिक प्रचलित हैं- उत्सव-मनोरंजन, सामुदायिकता, वर्चस्व प्रदर्शन। अन्य उपाय तो बस इन्हें एक रहस्यमयी संपुष्टि के लिये होते हैं।
5 एक और अंदरूनी बात, जैसे सबसे कमजोर और घटिया शिक्षा वाले को प्राथमिक शिक्षा में  डालने की चलन है, उसी तरह कर्मकांड की है। संस्कृत अनेक बड़े बड़े विद्वान जो कर्मकांड कराते भी रहे योग, तंत्र और धर्मशास्त्र के ग्रंथ पढ़ते ही नहीं थे। सफेद झूठ बालते थे साहित्य व्याकरण, दर्शन आदि के बल पर उनकी प्रतिष्ठा रहती थी। हम लोगों ने ऐसे पंडितों से जब जो चाहा कहवाया मानवता के पक्ष में।
इतने में कितना कह पाया, पता नहीं। कुछ संप्रेषित हो सका तो प्रयास को सार्थक मानूं।

नींद का चमत्कार

सन् 81-82 की बात है। मैं उस समय का0 हि0 वि0 वि0, वाराणसी, में शोध छात्र था। मेरा गाँव, बिहार के भोजपुर जिले में पड़ता है, जहाँ के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध योद्धा बाबू वीर कुँवर सिंह रहे हैं। उनके गाँव जगदीशपुर में आज उनके किले के खंडहर के एक भाग को जो तुलनात्मक रूप से ठीक है, बिहार सरकार ने संग्रहालय घोषित कर रखा है। उनकी शेष संपत्तियों की ब्रिटिश काल में ही नीलामी हो चुकी है।
मुझे अपने अध्ययन के दौरान जैसे ही पता चला कि कुँवर सिंह की स्मृति में बने संग्रहालय पर उसी जिले के कुख्यात अपराधियांे का कब्जा है मैं निदेशक पुरातत्व से मिला तो उन्होने भी पुष्टि की और बात-बात में यह चुनौती सामने आई कि क्या इन अपराधियों से कोई संवाद भी हो सकता है? दरअसल ये इतने कुख्यात थे कि इनकी दृष्टि में सिगरेट का एक कश और एक हत्या में कोई फर्क नहीं था और ये सभी संपन्न घरों के बिगडै़ल जवान/प्रौढ़ थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच और मेरी 21-22 की थी।
संवाद की सबसे बड़ी बाधा उनके द्वारा देखते ही संदेह होने पर गोली चला देने की थी। मैं ने उस समूह के एक सरगना (आज स्व0) माल बाबू के एक शिक्षक से भेंटकर एक पत्र प्राप्त किया कि मुझे उनकी मदद की जरूरत है।
एक गर्मी की शाम 6.00 बजे मैं उनकी महफिल में पहुँचा। पहुँचते ही अपना परिचय देकर शिक्षक का नाम बताया और कहा कि जो भी व्यक्ति माल बाबू हों पत्र प्राप्त कर लें।
करीब 40-50 लोग बंदूक-रायफल वगैरह से लैस थे। मुझे एक चौकी पर (तख्त) बैठने को कहा गया। शाम की ठंढी हवा एवं थकान के कारण मुझे कब नींद आई, पता नहीं चला। नींद भी ऐसी कि रात मंे जगाने की सामान्य कोशिश के बाद भी नहीं खुली।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं भीतर से घबराया हुआ था और अपने आप को कोश रहा था और माल बाबू विस्मित, थके मुझे निहार रहे थे। मेरी उम्र के कारण झेंप रहे थे नहीं तो साष्टंाग दंडवत की मुद्रा में उन्होने कहा - बाबा (पाठक, ब्राह्मण होने के कारण) आप एकदम असाधारण चमत्कारी मनुष्य हैं, मैं यह भी समझ गया हूँ कि आप कोई छोटी-मोटी बात कहने नहीं आए होंगे फिर भी आपके बिना कहे भी यह मैं वादा करता हूँ कि आप जो भी कहेंगे उसका अक्षरशः पालन होगा, केवल वह बात सम्मान के विरूद्ध नहीं होनीं चाहिए।
मैं ने अपनी नींद को कोसा, माफी माँगी कि आपको मेरी रक्षा में रात भर जगना पड़ा। माल बाबू ने कहा - जिसके भय से पूरा इलाका थर्राता है। जनता-प्रशासन ठीक से सो नहीं पाती उस दल के बीच ऐसी नींद तो किसी असाधारण आदमी को ही आ समती है, आप महान हैं, मैं आपको गुरू बनाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं स्वयं सहमा और ग्लानि ग्रस्त था। मैं स्वये जानता हूं कि मैं सनक में न रहूं तो कितना बड़ा डरपोक हूं।
मैं ने उस संग्रहालय भवन को खाली करने का प्रस्ताव रखा। माल बाबू हँसे, बोले, एकदम ठीक, मैंने ठीक समझा था। मैं फिर फेरे में पड़ा, मालबाबू फिर हँसे, बोले बाबा आज के पहले माल बाबू से कोई यह बात कह नहीं सका। आप नहीं जानते कि अब तक गोली आपको छेद चुकी होती और आप यह नहीं समझ रहे कि कितनी बड़ी बात आपने मुझसे कही और माँगी है। माल बाबू अड्डा छोड़ दें, कारोबार छोड़ दें, रुतबा छोड़ दंे सचमुच मेरी लिए भी बड़ी बात है फिर भी वादा सो वादा।
इसका सम्मान जनक राश्ता यह निकाला गया कि माल बाबू स्वयं संग्रहालय की मरम्मत कर सभा आयोजन कर विदा होंगे।
बड़े सम्मान से मुझे बस में बिठाया गया। मैं जब पुरातत्व निदेशक के पास पहुँचा तो ेपहले तो वे चकित हुए फिर जातिवादी पेंच फंसाया कि कुंवर सिंह तो ठाकुर/राजपूत थे। आप को इस पचड़े से क्या लेना वगैरह-वगैरह। मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
माल बाबू तो मान गए लेकिन जातिवादी रंग मे रंगे निदेशक श्री सीताराम जी को कुँवर सिंह, खटकते रहे क्योंकि वे उनकी जाति के नहीं थे।
एक दिन आरा (जिला मुख्यालाय) की कचहरी पर मालबाबू गिरोह के सभी सदस्य मिल गए। मुझे बचते देख माल बाबू ने बुलाया सबसे परिचय कराया मुझे गुरु बताया। मेरी भारी दुर्गति, डर कि घर तक खर खबर जायेगी कि मैं गुडांे की टीम में हूँ। खैर, मैंने हार मानी, निदेशक वाली बात बताई। माल बाबू की आँखो में मेरी विवशता पर आँसू आ गए। कुछ वर्षों बाद पला चला कि माल बाबू की भी हत्या हो गई।

सोमवार, 5 मई 2014

चैता गायन: यक्ष परम्परा का अनुष्ठान

चैता गायन: यक्ष परम्परा का अनुष्ठान

मगध क्षेत्र साधना की अनेकविध शैलियों का केंद्र रहा है। भगवान बुद्ध से लेकर सिद्धों तक ने विविध प्रकार से आत्मकल्याण की साधना-पद्धतियों का उपदेश किया। मगध की जनता ने उन्हें अपने जीवन में उतारा एवं आत्मकल्याण की विविध अवस्थाआंे की उपलब्धि की। परवर्ती काल में, जब बौद्ध एवं वैदिकों का भेद बहुत कम हो गया। विविध स्थानीय उपासना शैलियाँ भी लोकजीवन का अंग बन गईं और उनकी स्वतंत्र पहचान विलुप्त हो गई। ऐसे अनेक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अवशेष वर्तमान संस्कृति एवं परंपरा में प्राप्त होते हैं। यक्ष एवं यक्षिणियाँ मगध क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं। यक्षों का स्वभाव एवं इनका स्थान देवों एवं असुरों के बीच का है। इन्हें परम प्रतापी माना जाता है। ये मांगने पर देते हैं किंतु इन्हें जो भी देने का वचन दिया गया हो उसे देना ही पड़ता है। इनकी साधना शीघ्र सफल होती है। ये कामातुर और रुधिरप्रिय माने गए हैं। इन्हें मद्य, विशेष कर मैरेय नामक सुरा प्रिय है। इन्हें सामूहिक नृत्य-गान, जिन्हें ऊँचे सुर से गाया जाता हो, काफी प्रिय हैं।
मूर्तिशास्त्र के ग्रथों में इनकी देहाकृति का वर्णन विस्तार से मिलता है। पुराणों में हाहा, हूहू नामक दो यक्षों का उल्लेख प्रायः मिलता है। वस्तुतः हाहा, हूहू यक्षों के बीज मंत्र हैं। बीज मंत्र ही देवता के नाम हो गए हैं। इन दोनों मंत्रों का संपुट लगाना आज भी चैता एवं होली/फगुआ गायन में मगध में जरूरी है। शास्त्रीय संगीत के चैता एवं चैती से इस गायन का अनिवार्य संबंध नहीं है।
पुराणों में वर्णित हाहा, हूहू के अतिरिक्त अन्य यक्ष, यक्षिणियों की भी पूजा लोग करते हैं। भल्लिनी का प्रसिद्ध मंदिर भलुनी गांव में है। वहां के पुजारी भलुनियार ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार चँवरी, अन्धारी आदि यक्षिणियों के नाम वाले भी अनेक गॉंव मगध में हैं।

चैत माह में एक विशेष शैली में गाया जाने वाला गायन चैता के नाम से जाना जाता है। मगध क्षेत्र में गॉंव की आम ंिजंदगी चैत महीने में चैता गायन के बिना अधूरी है। वर्तमान गया, पटना एवं शाहाबाद प्रमंडलों में चैता गायन बहुत लोकप्रिय है। जो लोग चैता गायन से परिचित हैं, उनके लिए यह भले ही किसी विशेष महत्त्व की बात न हो लेकिन मगध क्षेत्र से बाहर के लोगों को चैता के आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व को समझने के लिए चैता गायन के स्वरूप को बताना जरूरी है।
यह गायन गोलाकर, मंडलाकार एक या दो घेरे में बैठकर संपन्न किया जाता है। मंडल के मध्य में वादक, मुख्य रूप से ढोलक बजाने वाला या उनके सहयोगी अन्य नाल आदि बजाने वाले बैठते हैं। वृत्त की परिधि पर सहयोगी गायकगण झाल, करताल आदि के साथ बैठते है। वादक एवं गायकों के बीच इतनी दूरी रखी जाती है कि एक या दो स्त्री वेशधारी नर्तक सुविधापूर्वक मंडलाकार दायरे में नृत्य कर सकें। इस नर्तक को देेहाती क्षेत्रों में आदरपूर्वक जोगिन कहते हैं। परिधि पर बैठे हुए लोगों में से कोई एक व्यक्ति गायन का संचालन करता है। यह कोई जरूरी नहीं है कि कोई एक व्यक्ति ही मंडलाधिपति हो या गायन-समूह का प्रधान हो।
चैत्य देवगृह को कहते हैं, जिसमें भगवान बुद्ध के किसी स्वरूप अथवा बौद्ध परंपरा में स्वीकृत किसी देवता-विशेष की प्रतिमा स्थापित हो । प्रारंभ में मन की विविध अवस्थाओं पर ध्यान करनेे के लिए या विविध शैलियों के प्रचार-प्रसार के साथ न केवल धारणियों का विकास हुआ  अपितु अवलोकितेश्वर, वैरोचन आदि पुरूष देवों तथा मामकी तारा आदि देवियों को भी साधना में स्थान दिया गया। मन को अंतर्मुख करने के लिए जिन विविध पथों, मार्गो या अध्वाओं का अवलंबन किया जाता हैं, उनमें चेतना, प्राण, मन के साक्षात् क्र्रिया-व्यापार, ध्वनि, प्रकाश एवं विविध रंगों का संयोजन आदि प्रमुख हैं।
सबके समानांतर तंत्र परंपरा में ध्वनि का स्वतंत्र महत्व है। ध्वनि की चार अवस्थाएँ मानी गई हैं। वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। वैखरी वाणी स्वरूपात्मक एवं संदर्भात्मक दोनों है। गो शब्दरूपी ध्वनिसमूह (वाचक) से पशुविशेष (वाच्य) का बोध होना वाच्य-वाचक संबंध का उदाहरण है। किंतु श  ध्वनि का तालु से उच्चरित एवं गरम होना उसका स्वरूप है। यहाँ वाच्य-वाचक संबंध नहीं है। वाच्य-वाचक संबंध भी किसी न किसी व्यवहार के समय उस संदर्भ में प्रगट होता है अतः संबंध संदर्भात्मक भी है। संदर्भ बदलने पर एक ही शब्द का भिन्न अर्थ भी हो सकता है। वाच्चार्थ के वाचक शब्द के रूप में यह संदर्भात्मक है और वर्णमाला की ध्वनियों के रूप में या संगीत के आरोह-अवरोह के साथ नाद श्रुितयों के रूप में यह स्वरूपात्मक है। आध्यात्मिक साधना में वैखरी ध्वनि के उभयविध रूपों का उपयोग किया जाता है। स्तोत्र वाच्य-वाचक भाव से परिपूर्ण हैं। उनके छंद स्वरूपात्मक हैं। बीज मंत्र तथा धारिणियाँँ साक्षात् स्वरूपात्मक है। धारिणियाँँ पूर्णतः स्वरूपात्मक हैं।
इस संक्षिप्त पृष्ठभूमि के साथ यदि चैत में गाये जाने वाले लोकभाषा में निबद्ध चैता के पदों को देखें तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध बहुत कम हैं। मूलतः वे स्वरूपात्मक हैं। चैता के पदों की स्वरूपात्मकता ही प्रधान है। एक पद है - ‘आज चइत हम गाइब हो रामा, एहि ठईयाँँ’। यह पूर्णतः संकल्पात्मक है। इस पद का अर्थ है कि आज मैं इस स्थान पर चैता गायन करूॅंगा । इस तरह के एक पंक्ति वाले अनेक चैता पद मिलते हैं जिनमें कोई कथानक नहीं होता है। होरी, फाग, बारहमासा केे पदों में कथानक या वर्णन हुआ करते हैं। उसके स्थान पर चैता पदों के लिए उसकी गायन शैली ही प्रमुख होती है। फागुन वसंत का प्रारंभ है। चैत वसंत की प्रौढ़ावस्था है। मनुष्य के भाव में वसंत में रति का प्रवाह अपने चरम पर होता है। इसलिए चैता गायन में कठोरता होती है। आलाप के साथ आरोह की ओर गायक बढ़ते हैं लेकिन अवरोह की कोई व्यवस्था नहीं होती है। दोगुन, तिगुन और चौगुन में संपूर्ण गायक एवं श्रोता समूह मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। देशकाल का बोध उस क्षण ठहर जाता है, मन में चंचलता मिट जाती है और चरम पर पहुॅंचने के बाद जब एक बार हा ध्वनि के साथ विराम किया जाता है ता़े थोड़ी देर के लिए व्यक्ति का मन स्वतः चंचलता से रहित हो जाता है। यह साधकों को मन की अंतर्मुखी छवि से परिचय कराने का एक रास्ता है। हा ध्वनि और हू ध्वनि, इन दोनों का तंत्र परंपरा में अपना महत्व है। चैता गायन की पूर्णाहूति हा के साथ होती है। हा ध्वनि के उच्चारण से मणिपुर चक्र या नाभि केंद्र आंदोलित होता है।
आज भी चैता गायन तो होता है किंतु चैता गायन के साथ जुड़ी साधना का कड़ी टूट गई है। तंत्र में विधि प्रमुख होती है। तंत्र की विधियाँँ ही परोक्ष रूप से मन की चंचलता को एकाग्रता में परिणत करती हैं इसलिए बाहर से देखने में वे बहुत अटपटी लगती हैं लेकिन लोकमानस के अनुरूप होने के कारण लंबे समय तक संस्कृति का अंग बन्ने की योग्यता उनमें पायी जाती है। चैता गायन में ध्वनि और दृश्य का संयोजन इस प्रकार से किया गया है कि गाने वाले का मन पूर्णतः विरामावस्था में पहुँँच जाय । ध्वनि इतनी तालबद्ध होती है कि बीच में मन को भटकने का अवसर नहीं मिलता है। सामूहिक गायन में सुरीलेपन का कोई महत्व नहीं होता है। ध्यान इस बात पर साधा जाता है कि गायन में आप अपनी पूरी शारीरिक ऊर्जा को उडे़लते हैं या नहीं।
ऐसी कल्पना/मान्यता है कि जितने गायक हैं, वे साधक हैं और  बोधिसत्व या वज्राचार्य की शक्ति मानवीकृत रूप में जोगिन बनकर मंडलाकार पथ में तालबद्ध नृत्य कर रही है। चूँँकि तंत्र परंपरा में रति स्वीकृत है। अतः नर्तकी का अंग संचालन, मुद्राएं एवं श्रृंगार रस के पद भी पूरी आत्मीयता के साथ स्वीकृत है। आज नर्तकी के रूप में विरले ही कोई औरत नाचती है। प्रायः मर्द ही नर्तकी का रूप धारण करते हैं। नर्तकी के रूप में यह जोगिन रूप, छटा एवं श्रृंगार के सभी आह्लाद कणों को मानो सबके ऊपर बिखेरती है। इसके लिए मौन का नियम आज भी अपरिहार्य है। वह बोलती या कहती नहीं है। कल्पना है कि वह बुद्ध की तरह समाधिस्थ है। मौन  आनंद में तरंगायित है। लोगों के चित्त की चंचलता को अगाध करुणा से अपने में समेटे हुये है और चंक्रमण से, गोल गोल घूमने से जनमनमोहिनी बनकर सबको समाधि का सुख दिलाने वाली है।
चंक्रमण ध्यान भगवान बुद्ध की खोज है। घंटे दो घंटे बाह्य लोक से विमुख होकर ध्यानावस्था में जाना वैदिक परंपरा है और ठीक इसके विपरीत सदैव ध्यानस्थ रह कर जीवन के कृत्य का संपादन करना बौद्ध साधना में प्रारंभिक स्तर के प्रशिक्षण का विषय है। इसमें जोगिन चंक्रमणशील है और चैता गायक बौद्ध उपासक है। चैता के पद ‘हा’ धारिणी से युक्त होकर धारिणी का काम कर रहे है। वृत्ताकार आसन मंडल है। सभा का मुख्य कर्ताधर्ता हा ध्वनि के उच्चारण के साथ मौन का आदेश देनेवाला मंडलाधिपति है। मंडलाधिपतियों की जिम्मेवारी होती है कि वे सबके लिये अनुकूल स्थान योगिनी एवं मद्य की व्यवस्था करें, क्योंकि मद्य शरीर को थकने से रोकता है। नींद से मुक्त करता है और तात्कालिक ऊर्जा प्रदान करता है। चित्त की चंचलता को कम करता है। एकाग्र होने से सुविधा प्रदान करता है। मन की चंचलता को कुंद करता है और दृष्टि मार्ग से जो चंचलता बढ़ती है वह चंचलता जोगिनी के वृत्ताकार परिभ्रमण से बंध जाती है। बीच में बैठा हुआ ढोलक बजाने वाला ध्वनि का केंद्र होने के कारण ध्यान का केंद होता है। ध्यान की बार बार आवृत्ति से व्यक्ति का मन ध्वनि में डूब जाता है और अंतर्मुख होने के लिए अत्यंत ही सुविधापूर्ण परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। भीतर की वासना, आक्रोश, गुस्सा सारे बाहर ही संस्कृत, लयबद्ध और तालबद्ध होकर ढोलक एवं मंजीरे के थाप में संगीत का अंग बन जाते हैं।
आज सारी चीजें तो हैं लेकिन दुर्भाग्यवश अंतर्मुख करानेवाला मंडलाधिपति नहीं है। मंडलाधिपति शब्द से अधिपति गायब हो गया है। मंडल की उपाधि आज भी यादव/अहीर जाति के लोगों में स्थापित है। इस उपर्युक्त स्वरूप को जब शास्त्रीय संदर्मों के साथ जोड़ा जायेगा तब विद्वानों को भी इसकी ऐतिहासिक छवि दिखाई देगी।

शुक्रवार, 2 मई 2014

क्या आयुर्वेद वस्तुतः कोई गुप्त या गोपनीय शास्त्र है?


आयुर्वेद के विषय में एक विचित्र आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा है। यह वैसा ही आरोप है जैसा आज से पचास सौ वर्ष पहले योग एवं तंत्र पर लगा करता था और आज भी लगा करता है।
आयुर्वेद के ग्रंथ गोपनीयता की वकालत करते हैं। वैद्य अपनी विद्या को गुप्त रखते हैं। अनेक वैद्य अपनी विद्या को दूसरे को बताए बगैर ही मर गए। इससे विद्या भी नष्ट हुई और शास्त्र का भी अहित हुआ, आदि।
उपर्युक्त आरोप को ठीक से समझे बिना आयुर्वेद के प्रति नाहक विरोध एवं भ्रम फैला है, आयुर्वेद केवल कुपात्र को विद्या देने का विरोधी रहा है। ऐसा वर्णन नहीं मिलता कि इस विद्या को केवल अपने कुल या जाति के लोगों को सिखाना चाहिए। अपात्र हैं- अयोग्य, कृतघ्न, जड़बुद्धि, लालची, निर्लज्ज एवं निर्मम। क्या इन दुर्गुणों से युक्त चिकित्सकों से आज भी जनता पीडि़त नहीं है। इसी कारण पात्रता परीक्षा के लिए शर्त रखी गई कि शिष्य बनाने के पहले छे महीने तक उसे सेवा में रखकर तब उसे अंतर्वासी (साथ में रहनेवाला) बनाकर उसके गुण-दोष की परीक्षा करनी चाहिए। तब उसे शिष्य बनाना चाहिए। पात्रता की इस परीक्षा में जाति, लिंग, देश आदि का कहां कोई भेद है कि निंदा की जाए।
गुरू परंपरा एवं कुल परंपरा में बंधा हुआ आदमी धर्म, लोक लज्जा, प्रतिज्ञा और अंतत‘ सहपाठियों के सामाजिक बहिष्कार के भय से वह गुरु के प्रति केवल कृतज्ञ ही नहीं होता था अपितु की गई प्रतिज्ञा के पालन का भी भरसक प्रयास करता रहता था। प्रतिज्ञा के अंदर विद्या की रक्षा एवं सेवा की शर्तें होती थीं। आज एलोपैथ में भी यह परंपरा चलन में है ही।
कुल परंपरा यदि ज्ञान पर अधिकार देती थी तो उस ज्ञान के रक्षा की जिम्मेवारी भी उसकी होती थी। मन-बे-मन उसे कुल की विद्या को सीखना एवं नियमों का पालन करना होता था। इसके लिए रक्त संबंधों का बंधन उसे विकट एवं विपरीत स्थिति में भी विद्या से अलग नहीं कर पाता था। बचपन से सहज सन्निकटता विद्या को सुगम भी बनाती थी। यह परंपरा सामाजिक व्यवस्था का भाग थी न कि केवल आयुर्वेद पर यह बात लागू थी।
ज्ञाान के साथ-साथ उस विद्या या शिल्प की सहायक सामग्री का संरक्षण भी परंपरा में अनिवार्य होता था। हल्दी की खेती करने के लिए यह अनिवार्य था कि जो भी व्यक्ति हल्दी की खेती शुरू करेगा उसे बारह वर्षों तक लगातार हल्दी की खेती करनी ही होगी। चाहे हल्दी की कीमत घटे या बढ़े।
बाजारवादी दृष्टि से ये सब बातें उटपटांग लगती हैं हल्दी भारत में एक अपरिहार्य खाद्य पदार्थ हैं हल्दी न खाना अशुभ है। यदि उत्पादन को अनिवार्य न बनाया जाए तो कोई भी व्यक्ति हल्दी की मनमानी कीमत वसूल कर सकता है और हलदी की इतनी अघिक आवश्यकता भी नहीं होती कि बहुत अधिक उत्पादन किया जाय। अनिवार्यता के कारण परंपरा में हल्दी की खेती स्थानीय आवश्यकता भर ही होती थी। समाज की इस अंतर्दृष्टि को समझे बिना हल्दी उत्पादन संबंधी नियम को सही या गलत कहना संगत नहीं है। यदि हल्दी एवं पान का पौधा कोई दूसरे को नहीं देता एवं उसके परिष्करण की जानकारी नहीं देता फिर भी आप हल्दी या पान की कीमत में आज भी अनाप-सनाप उछाल या गिरावट नहीं पाएंगे।
आज परिस्थितियां बदल रही हैं। सभी जाति के लोग पारंपरिक पेशे के बंधन से मुक्त होकर किसी भी विद्या के प्रति बचनबद्धता एवं कृतज्ञताहीन एवं विकास करना चाहते हैं। जो जितनी ही ऊँची डिग्री हासिल करता है उसकी नीयत में उतनी ही लालच पाई जा रही है। ब्रेन ड्रेन शब्द प्रतिष्ठित रहा है। विदेश भागना आम बात है। खर्च देश का, लाभ विदेशी उठाएं या भगोड़े विद्वान।
पारंपरिेक शोध की जहाँ तक गोपनीयता का प्रश्न है यह आरोप बेबुनियाद है। वास्तविकता यह है कि एक बैद्य देश, काल, पात्र एवं रोग के अनुरूप औषध रचना में कितना दक्ष है यह उसके अनुभूत योग से प्रकट होता था। अनुभूत स्वतंत्र योगों का पहले चिकित्सकों के बीच आदान-प्रदान होता था। बाद में जब कोई वैद्य योग संग्रह की पुस्तक लिखता था उनका समावेश कर देता था। योग संग्रह की इस परंपरा का रोचक उपयोग एवं उल्लेख राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ स्वामी नामक पुस्तक में किया है।
दरअसल सारा झगड़ा व्यक्तिगत अनुभूत योगों को भारतीय कंपनियों तथा उन अयोग्य चिकित्सकों द्वारा अकृतज्ञतापूर्वक अपनाए जाने का एवं उसे पेटेंट कराने का है। जहाँ तक आयुर्वेदिक दवाओं की गोपनीयता का प्रश्न है, इसे ठीक से समझना चाहिए।  आयुर्वेद दवाएँ तीन रूपों में वर्णित होती हैं - 1. मूल दवा एवं उनके गुण, 2. शास्त्रीय दवाएँ , 3. अनुभूत योग । अनुभूत योग पर ही केवल भारतीय पेटेंट कानून लागू होता है। अनुभूत योग में से कुछ दवाएँ पेटेंटीकृत करा ली गयी हैं।
मूल दवा एवं उनके गुणों का विस्तार से वर्णन चरक संहिता आदि मूल ग्रंथों में तो है ही इसके लिए स्वतंत्र रूप से माधव निघंटु, भाव प्रकाश निघंटु जैसी कई पुस्तकें प्रकाशित या लिखित रूप में उपलब्ध हैं। शास्त्रीय दवाओं एवं उनके निर्माण की पुस्तकें भी कई हैं। जैसे भैषज्य रत्नावली, भैषज्य सार संग्रह, योग रत्नाकर आदि। इनमें वर्णित दवाओं की संख्या हजारों है। प्रायः इन्हीं दवाओं का प्रयोग होता है। ये सब गुप्त कहाँ हैं। हिंदी अनुवाद आ जाने पर तो कोई भी इसे पढ़-समझ सकता है। रही बात व्यक्तिगत अनुभूत योग एवं उनके पेटंेटीकृत रूप की तो पहली बात यह है कि प्रयोगकालीन फार्मूलों एवं अनुभवों का चिकित्सकों के बीच गोपनीय रहना अपराध नहीं है। जब तक परिणामों की विश्वसनीयता सुनिश्चित न हो जाए तब तक उसे क्यों शास्त्रीय दवाओं की सूची में डालकर प्रकाशित करना चाहिए? यह तो गलत बात होगी। इसके बाद बचे खुचे पेटेंट योगों पर यदि प्रयोग का कोई अपना  विशेषाधिकार रखना चाहता या रखता है तो इसके लिए सारी आयुर्वेदिक परंपरा पर ही गोपनीयता का आरोप लगा देना ठीक नहीं है।
जो स्वयं योग निश्चय एवं भैषज्य कल्पना (दवा बनाने की विधि) में दक्ष नहीं रहे हैं वे केवल दूसरे के योगों को लेने की स्थिति में ही रह सकते हैं, देने की स्थिति में नहीं। अतः वास्तविक वैद्य अपना योग इन्हें क्यों देते? मामला दवा कंपनियां का है जो एक ओर वैद्यों से उनका अनुभूत योग मुफ्म में हासिल करना चाहती थीं ओर दूसरी ओर वैद्यों के द्वारा घर में दवा निर्माण को सरकारी स्तर से प्रतिबंधित भी करवा रही थीं कि इससे राजस्व की हानि होती है। पेटेंट प्रप्त कर दवाओं की मनमानी कीमत रखने के अपने षडयंत्र में जब दवा कंपनियां एवं उससे जुड़े और विफल हुए अपात्र लोगोें को आयुर्वेद ही गोपनीय लगने लगा।
इसी तरह का आरोप संस्कृत भाषा सीखने से कतराने वाले नए आयुर्वेदिक डाक्टर लगाते रहे। पुराने  वैद्यों में भी जो अल्पज्ञ थे उन्हें इन नये लोगों को नचाने एवं अपना भाव बढ़ाने के लिए अच्छा लगा कि कहें कि केवल ये योग ही नहीं चिकित्सा की असली क्रिया भी मेरी कुल परंपरा में गुप्त है। रही बात नाड़ी विद्या की तो इसे सीखने के लिये गुरु के साथ अभ्यास करना ही होता है। सारे प्रायोगिक विषयों पर यह बात लागू है। नाड़ी विद्या के लक्षणों पर पुस्तकें उपल्ब्ध हैं फिर गोपनीयता कहां है?