आयुर्वेद के विषय में एक विचित्र आरोप-प्रत्यारोप चलता रहा है। यह वैसा ही आरोप है जैसा आज से पचास सौ वर्ष पहले योग एवं तंत्र पर लगा करता था और आज भी लगा करता है।
आयुर्वेद के ग्रंथ गोपनीयता की वकालत करते हैं। वैद्य अपनी विद्या को गुप्त रखते हैं। अनेक वैद्य अपनी विद्या को दूसरे को बताए बगैर ही मर गए। इससे विद्या भी नष्ट हुई और शास्त्र का भी अहित हुआ, आदि।
उपर्युक्त आरोप को ठीक से समझे बिना आयुर्वेद के प्रति नाहक विरोध एवं भ्रम फैला है, आयुर्वेद केवल कुपात्र को विद्या देने का विरोधी रहा है। ऐसा वर्णन नहीं मिलता कि इस विद्या को केवल अपने कुल या जाति के लोगों को सिखाना चाहिए। अपात्र हैं- अयोग्य, कृतघ्न, जड़बुद्धि, लालची, निर्लज्ज एवं निर्मम। क्या इन दुर्गुणों से युक्त चिकित्सकों से आज भी जनता पीडि़त नहीं है। इसी कारण पात्रता परीक्षा के लिए शर्त रखी गई कि शिष्य बनाने के पहले छे महीने तक उसे सेवा में रखकर तब उसे अंतर्वासी (साथ में रहनेवाला) बनाकर उसके गुण-दोष की परीक्षा करनी चाहिए। तब उसे शिष्य बनाना चाहिए। पात्रता की इस परीक्षा में जाति, लिंग, देश आदि का कहां कोई भेद है कि निंदा की जाए।
गुरू परंपरा एवं कुल परंपरा में बंधा हुआ आदमी धर्म, लोक लज्जा, प्रतिज्ञा और अंतत‘ सहपाठियों के सामाजिक बहिष्कार के भय से वह गुरु के प्रति केवल कृतज्ञ ही नहीं होता था अपितु की गई प्रतिज्ञा के पालन का भी भरसक प्रयास करता रहता था। प्रतिज्ञा के अंदर विद्या की रक्षा एवं सेवा की शर्तें होती थीं। आज एलोपैथ में भी यह परंपरा चलन में है ही।
कुल परंपरा यदि ज्ञान पर अधिकार देती थी तो उस ज्ञान के रक्षा की जिम्मेवारी भी उसकी होती थी। मन-बे-मन उसे कुल की विद्या को सीखना एवं नियमों का पालन करना होता था। इसके लिए रक्त संबंधों का बंधन उसे विकट एवं विपरीत स्थिति में भी विद्या से अलग नहीं कर पाता था। बचपन से सहज सन्निकटता विद्या को सुगम भी बनाती थी। यह परंपरा सामाजिक व्यवस्था का भाग थी न कि केवल आयुर्वेद पर यह बात लागू थी।
ज्ञाान के साथ-साथ उस विद्या या शिल्प की सहायक सामग्री का संरक्षण भी परंपरा में अनिवार्य होता था। हल्दी की खेती करने के लिए यह अनिवार्य था कि जो भी व्यक्ति हल्दी की खेती शुरू करेगा उसे बारह वर्षों तक लगातार हल्दी की खेती करनी ही होगी। चाहे हल्दी की कीमत घटे या बढ़े।
बाजारवादी दृष्टि से ये सब बातें उटपटांग लगती हैं हल्दी भारत में एक अपरिहार्य खाद्य पदार्थ हैं हल्दी न खाना अशुभ है। यदि उत्पादन को अनिवार्य न बनाया जाए तो कोई भी व्यक्ति हल्दी की मनमानी कीमत वसूल कर सकता है और हलदी की इतनी अघिक आवश्यकता भी नहीं होती कि बहुत अधिक उत्पादन किया जाय। अनिवार्यता के कारण परंपरा में हल्दी की खेती स्थानीय आवश्यकता भर ही होती थी। समाज की इस अंतर्दृष्टि को समझे बिना हल्दी उत्पादन संबंधी नियम को सही या गलत कहना संगत नहीं है। यदि हल्दी एवं पान का पौधा कोई दूसरे को नहीं देता एवं उसके परिष्करण की जानकारी नहीं देता फिर भी आप हल्दी या पान की कीमत में आज भी अनाप-सनाप उछाल या गिरावट नहीं पाएंगे।
आज परिस्थितियां बदल रही हैं। सभी जाति के लोग पारंपरिक पेशे के बंधन से मुक्त होकर किसी भी विद्या के प्रति बचनबद्धता एवं कृतज्ञताहीन एवं विकास करना चाहते हैं। जो जितनी ही ऊँची डिग्री हासिल करता है उसकी नीयत में उतनी ही लालच पाई जा रही है। ब्रेन ड्रेन शब्द प्रतिष्ठित रहा है। विदेश भागना आम बात है। खर्च देश का, लाभ विदेशी उठाएं या भगोड़े विद्वान।
पारंपरिेक शोध की जहाँ तक गोपनीयता का प्रश्न है यह आरोप बेबुनियाद है। वास्तविकता यह है कि एक बैद्य देश, काल, पात्र एवं रोग के अनुरूप औषध रचना में कितना दक्ष है यह उसके अनुभूत योग से प्रकट होता था। अनुभूत स्वतंत्र योगों का पहले चिकित्सकों के बीच आदान-प्रदान होता था। बाद में जब कोई वैद्य योग संग्रह की पुस्तक लिखता था उनका समावेश कर देता था। योग संग्रह की इस परंपरा का रोचक उपयोग एवं उल्लेख राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ स्वामी नामक पुस्तक में किया है।
दरअसल सारा झगड़ा व्यक्तिगत अनुभूत योगों को भारतीय कंपनियों तथा उन अयोग्य चिकित्सकों द्वारा अकृतज्ञतापूर्वक अपनाए जाने का एवं उसे पेटेंट कराने का है। जहाँ तक आयुर्वेदिक दवाओं की गोपनीयता का प्रश्न है, इसे ठीक से समझना चाहिए। आयुर्वेद दवाएँ तीन रूपों में वर्णित होती हैं - 1. मूल दवा एवं उनके गुण, 2. शास्त्रीय दवाएँ , 3. अनुभूत योग । अनुभूत योग पर ही केवल भारतीय पेटेंट कानून लागू होता है। अनुभूत योग में से कुछ दवाएँ पेटेंटीकृत करा ली गयी हैं।
मूल दवा एवं उनके गुणों का विस्तार से वर्णन चरक संहिता आदि मूल ग्रंथों में तो है ही इसके लिए स्वतंत्र रूप से माधव निघंटु, भाव प्रकाश निघंटु जैसी कई पुस्तकें प्रकाशित या लिखित रूप में उपलब्ध हैं। शास्त्रीय दवाओं एवं उनके निर्माण की पुस्तकें भी कई हैं। जैसे भैषज्य रत्नावली, भैषज्य सार संग्रह, योग रत्नाकर आदि। इनमें वर्णित दवाओं की संख्या हजारों है। प्रायः इन्हीं दवाओं का प्रयोग होता है। ये सब गुप्त कहाँ हैं। हिंदी अनुवाद आ जाने पर तो कोई भी इसे पढ़-समझ सकता है। रही बात व्यक्तिगत अनुभूत योग एवं उनके पेटंेटीकृत रूप की तो पहली बात यह है कि प्रयोगकालीन फार्मूलों एवं अनुभवों का चिकित्सकों के बीच गोपनीय रहना अपराध नहीं है। जब तक परिणामों की विश्वसनीयता सुनिश्चित न हो जाए तब तक उसे क्यों शास्त्रीय दवाओं की सूची में डालकर प्रकाशित करना चाहिए? यह तो गलत बात होगी। इसके बाद बचे खुचे पेटेंट योगों पर यदि प्रयोग का कोई अपना विशेषाधिकार रखना चाहता या रखता है तो इसके लिए सारी आयुर्वेदिक परंपरा पर ही गोपनीयता का आरोप लगा देना ठीक नहीं है।
जो स्वयं योग निश्चय एवं भैषज्य कल्पना (दवा बनाने की विधि) में दक्ष नहीं रहे हैं वे केवल दूसरे के योगों को लेने की स्थिति में ही रह सकते हैं, देने की स्थिति में नहीं। अतः वास्तविक वैद्य अपना योग इन्हें क्यों देते? मामला दवा कंपनियां का है जो एक ओर वैद्यों से उनका अनुभूत योग मुफ्म में हासिल करना चाहती थीं ओर दूसरी ओर वैद्यों के द्वारा घर में दवा निर्माण को सरकारी स्तर से प्रतिबंधित भी करवा रही थीं कि इससे राजस्व की हानि होती है। पेटेंट प्रप्त कर दवाओं की मनमानी कीमत रखने के अपने षडयंत्र में जब दवा कंपनियां एवं उससे जुड़े और विफल हुए अपात्र लोगोें को आयुर्वेद ही गोपनीय लगने लगा।
इसी तरह का आरोप संस्कृत भाषा सीखने से कतराने वाले नए आयुर्वेदिक डाक्टर लगाते रहे। पुराने वैद्यों में भी जो अल्पज्ञ थे उन्हें इन नये लोगों को नचाने एवं अपना भाव बढ़ाने के लिए अच्छा लगा कि कहें कि केवल ये योग ही नहीं चिकित्सा की असली क्रिया भी मेरी कुल परंपरा में गुप्त है। रही बात नाड़ी विद्या की तो इसे सीखने के लिये गुरु के साथ अभ्यास करना ही होता है। सारे प्रायोगिक विषयों पर यह बात लागू है। नाड़ी विद्या के लक्षणों पर पुस्तकें उपल्ब्ध हैं फिर गोपनीयता कहां है?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें