सन् 81-82 की बात है। मैं उस समय का0 हि0 वि0 वि0, वाराणसी, में शोध छात्र था। मेरा गाँव, बिहार के भोजपुर जिले में पड़ता है, जहाँ के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध योद्धा बाबू वीर कुँवर सिंह रहे हैं। उनके गाँव जगदीशपुर में आज उनके किले के खंडहर के एक भाग को जो तुलनात्मक रूप से ठीक है, बिहार सरकार ने संग्रहालय घोषित कर रखा है। उनकी शेष संपत्तियों की ब्रिटिश काल में ही नीलामी हो चुकी है।
मुझे अपने अध्ययन के दौरान जैसे ही पता चला कि कुँवर सिंह की स्मृति में बने संग्रहालय पर उसी जिले के कुख्यात अपराधियांे का कब्जा है मैं निदेशक पुरातत्व से मिला तो उन्होने भी पुष्टि की और बात-बात में यह चुनौती सामने आई कि क्या इन अपराधियों से कोई संवाद भी हो सकता है? दरअसल ये इतने कुख्यात थे कि इनकी दृष्टि में सिगरेट का एक कश और एक हत्या में कोई फर्क नहीं था और ये सभी संपन्न घरों के बिगडै़ल जवान/प्रौढ़ थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच और मेरी 21-22 की थी।
संवाद की सबसे बड़ी बाधा उनके द्वारा देखते ही संदेह होने पर गोली चला देने की थी। मैं ने उस समूह के एक सरगना (आज स्व0) माल बाबू के एक शिक्षक से भेंटकर एक पत्र प्राप्त किया कि मुझे उनकी मदद की जरूरत है।
एक गर्मी की शाम 6.00 बजे मैं उनकी महफिल में पहुँचा। पहुँचते ही अपना परिचय देकर शिक्षक का नाम बताया और कहा कि जो भी व्यक्ति माल बाबू हों पत्र प्राप्त कर लें।
करीब 40-50 लोग बंदूक-रायफल वगैरह से लैस थे। मुझे एक चौकी पर (तख्त) बैठने को कहा गया। शाम की ठंढी हवा एवं थकान के कारण मुझे कब नींद आई, पता नहीं चला। नींद भी ऐसी कि रात मंे जगाने की सामान्य कोशिश के बाद भी नहीं खुली।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं भीतर से घबराया हुआ था और अपने आप को कोश रहा था और माल बाबू विस्मित, थके मुझे निहार रहे थे। मेरी उम्र के कारण झेंप रहे थे नहीं तो साष्टंाग दंडवत की मुद्रा में उन्होने कहा - बाबा (पाठक, ब्राह्मण होने के कारण) आप एकदम असाधारण चमत्कारी मनुष्य हैं, मैं यह भी समझ गया हूँ कि आप कोई छोटी-मोटी बात कहने नहीं आए होंगे फिर भी आपके बिना कहे भी यह मैं वादा करता हूँ कि आप जो भी कहेंगे उसका अक्षरशः पालन होगा, केवल वह बात सम्मान के विरूद्ध नहीं होनीं चाहिए।
मैं ने अपनी नींद को कोसा, माफी माँगी कि आपको मेरी रक्षा में रात भर जगना पड़ा। माल बाबू ने कहा - जिसके भय से पूरा इलाका थर्राता है। जनता-प्रशासन ठीक से सो नहीं पाती उस दल के बीच ऐसी नींद तो किसी असाधारण आदमी को ही आ समती है, आप महान हैं, मैं आपको गुरू बनाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं स्वयं सहमा और ग्लानि ग्रस्त था। मैं स्वये जानता हूं कि मैं सनक में न रहूं तो कितना बड़ा डरपोक हूं।
मैं ने उस संग्रहालय भवन को खाली करने का प्रस्ताव रखा। माल बाबू हँसे, बोले, एकदम ठीक, मैंने ठीक समझा था। मैं फिर फेरे में पड़ा, मालबाबू फिर हँसे, बोले बाबा आज के पहले माल बाबू से कोई यह बात कह नहीं सका। आप नहीं जानते कि अब तक गोली आपको छेद चुकी होती और आप यह नहीं समझ रहे कि कितनी बड़ी बात आपने मुझसे कही और माँगी है। माल बाबू अड्डा छोड़ दें, कारोबार छोड़ दें, रुतबा छोड़ दंे सचमुच मेरी लिए भी बड़ी बात है फिर भी वादा सो वादा।
इसका सम्मान जनक राश्ता यह निकाला गया कि माल बाबू स्वयं संग्रहालय की मरम्मत कर सभा आयोजन कर विदा होंगे।
बड़े सम्मान से मुझे बस में बिठाया गया। मैं जब पुरातत्व निदेशक के पास पहुँचा तो ेपहले तो वे चकित हुए फिर जातिवादी पेंच फंसाया कि कुंवर सिंह तो ठाकुर/राजपूत थे। आप को इस पचड़े से क्या लेना वगैरह-वगैरह। मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
माल बाबू तो मान गए लेकिन जातिवादी रंग मे रंगे निदेशक श्री सीताराम जी को कुँवर सिंह, खटकते रहे क्योंकि वे उनकी जाति के नहीं थे।
एक दिन आरा (जिला मुख्यालाय) की कचहरी पर मालबाबू गिरोह के सभी सदस्य मिल गए। मुझे बचते देख माल बाबू ने बुलाया सबसे परिचय कराया मुझे गुरु बताया। मेरी भारी दुर्गति, डर कि घर तक खर खबर जायेगी कि मैं गुडांे की टीम में हूँ। खैर, मैंने हार मानी, निदेशक वाली बात बताई। माल बाबू की आँखो में मेरी विवशता पर आँसू आ गए। कुछ वर्षों बाद पला चला कि माल बाबू की भी हत्या हो गई।
मुझे अपने अध्ययन के दौरान जैसे ही पता चला कि कुँवर सिंह की स्मृति में बने संग्रहालय पर उसी जिले के कुख्यात अपराधियांे का कब्जा है मैं निदेशक पुरातत्व से मिला तो उन्होने भी पुष्टि की और बात-बात में यह चुनौती सामने आई कि क्या इन अपराधियों से कोई संवाद भी हो सकता है? दरअसल ये इतने कुख्यात थे कि इनकी दृष्टि में सिगरेट का एक कश और एक हत्या में कोई फर्क नहीं था और ये सभी संपन्न घरों के बिगडै़ल जवान/प्रौढ़ थे। उनकी उम्र 35-40 के बीच और मेरी 21-22 की थी।
संवाद की सबसे बड़ी बाधा उनके द्वारा देखते ही संदेह होने पर गोली चला देने की थी। मैं ने उस समूह के एक सरगना (आज स्व0) माल बाबू के एक शिक्षक से भेंटकर एक पत्र प्राप्त किया कि मुझे उनकी मदद की जरूरत है।
एक गर्मी की शाम 6.00 बजे मैं उनकी महफिल में पहुँचा। पहुँचते ही अपना परिचय देकर शिक्षक का नाम बताया और कहा कि जो भी व्यक्ति माल बाबू हों पत्र प्राप्त कर लें।
करीब 40-50 लोग बंदूक-रायफल वगैरह से लैस थे। मुझे एक चौकी पर (तख्त) बैठने को कहा गया। शाम की ठंढी हवा एवं थकान के कारण मुझे कब नींद आई, पता नहीं चला। नींद भी ऐसी कि रात मंे जगाने की सामान्य कोशिश के बाद भी नहीं खुली।
सुबह जब मेरी नींद खुली तो मैं भीतर से घबराया हुआ था और अपने आप को कोश रहा था और माल बाबू विस्मित, थके मुझे निहार रहे थे। मेरी उम्र के कारण झेंप रहे थे नहीं तो साष्टंाग दंडवत की मुद्रा में उन्होने कहा - बाबा (पाठक, ब्राह्मण होने के कारण) आप एकदम असाधारण चमत्कारी मनुष्य हैं, मैं यह भी समझ गया हूँ कि आप कोई छोटी-मोटी बात कहने नहीं आए होंगे फिर भी आपके बिना कहे भी यह मैं वादा करता हूँ कि आप जो भी कहेंगे उसका अक्षरशः पालन होगा, केवल वह बात सम्मान के विरूद्ध नहीं होनीं चाहिए।
मैं ने अपनी नींद को कोसा, माफी माँगी कि आपको मेरी रक्षा में रात भर जगना पड़ा। माल बाबू ने कहा - जिसके भय से पूरा इलाका थर्राता है। जनता-प्रशासन ठीक से सो नहीं पाती उस दल के बीच ऐसी नींद तो किसी असाधारण आदमी को ही आ समती है, आप महान हैं, मैं आपको गुरू बनाना चाहता हूँ। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं स्वयं सहमा और ग्लानि ग्रस्त था। मैं स्वये जानता हूं कि मैं सनक में न रहूं तो कितना बड़ा डरपोक हूं।
मैं ने उस संग्रहालय भवन को खाली करने का प्रस्ताव रखा। माल बाबू हँसे, बोले, एकदम ठीक, मैंने ठीक समझा था। मैं फिर फेरे में पड़ा, मालबाबू फिर हँसे, बोले बाबा आज के पहले माल बाबू से कोई यह बात कह नहीं सका। आप नहीं जानते कि अब तक गोली आपको छेद चुकी होती और आप यह नहीं समझ रहे कि कितनी बड़ी बात आपने मुझसे कही और माँगी है। माल बाबू अड्डा छोड़ दें, कारोबार छोड़ दें, रुतबा छोड़ दंे सचमुच मेरी लिए भी बड़ी बात है फिर भी वादा सो वादा।
इसका सम्मान जनक राश्ता यह निकाला गया कि माल बाबू स्वयं संग्रहालय की मरम्मत कर सभा आयोजन कर विदा होंगे।
बड़े सम्मान से मुझे बस में बिठाया गया। मैं जब पुरातत्व निदेशक के पास पहुँचा तो ेपहले तो वे चकित हुए फिर जातिवादी पेंच फंसाया कि कुंवर सिंह तो ठाकुर/राजपूत थे। आप को इस पचड़े से क्या लेना वगैरह-वगैरह। मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
माल बाबू तो मान गए लेकिन जातिवादी रंग मे रंगे निदेशक श्री सीताराम जी को कुँवर सिंह, खटकते रहे क्योंकि वे उनकी जाति के नहीं थे।
एक दिन आरा (जिला मुख्यालाय) की कचहरी पर मालबाबू गिरोह के सभी सदस्य मिल गए। मुझे बचते देख माल बाबू ने बुलाया सबसे परिचय कराया मुझे गुरु बताया। मेरी भारी दुर्गति, डर कि घर तक खर खबर जायेगी कि मैं गुडांे की टीम में हूँ। खैर, मैंने हार मानी, निदेशक वाली बात बताई। माल बाबू की आँखो में मेरी विवशता पर आँसू आ गए। कुछ वर्षों बाद पला चला कि माल बाबू की भी हत्या हो गई।
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