गुरुवार, 22 मई 2014

श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा

अथ श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा भाग एक

अगर हम एक साथ किसी दुकान पर रसगुल्ला खायें और उसका अनुभव दूसरे को बतायें। अगर अनुभव समान हों तो मतलब हमारे भीतर समानता है। दुबारा अगर रसगुल्ले में कोई अंतर आयेगा तो हम आपस में उसके बारे में जानकारी बांट सकते हैं। लेकिन यह बात किसी प्लेट में परोसे गये रसगुल्ले की संख्या पर लागू नहीं होती उसके बारे में आपको लगभग एक ही प्रकार का विवरण मिलेगा।
इस मामले में प्रायः भ्रम नहीं होता, न जोड़ में न घटाव में। वह भी तो अनुभवात्मक साक्षात्कार ही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ मामलों में हम अधिक प्रामाणिक और कुछ मामलों में व्यक्तिवादी अनुभव वाले होते हैं। अगर सच में ऐसा होता हो तो इसकी जांच पड़ताल की जानी चाहिये। 

आप भी आजमा कर देख सकते हैं।

किसी जमाने में आंवले के उदाहरण से बात समझाई जाती थी कि फलां को बात इतनी आसानी से समझ में आती है जैसे हाथ में आंवला हो। आंवला शायद नये जमाने में सबको पसंद न आये तो मैंने सोचा कि किसी दूसरे उदाहरण से बात कहने की कोशिश करता हूं। शायद रसगुल्ले से बात बन जाये।
रसगुल्ले को आत्मसात करने का अनुभव तो अनेक रसिकों को होगा। ठीक इसके विपरीत अगर किसी को अपने से बड़े किसी जड़ या चेतन के साथ एकाकार होने का अनुभव हो तो बतायें, वह साक्षात्कार भी कम मजेदार नहीं होता।

अथ श्री रसगुल्ला साक्षात्कार कथा भाग दो

रसगुल्ले का साक्षात्कार दानों तरह से होता है, निर्गुण-निराकार वाली पद्धति से और सगुण साकार वाली पद्धति से भी।

यह बात मैं साफ कर दूं कि मैं यहां बिलकुल मजाकिया मूड में नहीं हूं। एक शाकाहारी ब्राह्मण रसगुल्ले का कभी मजाक नहीं उड़ा सकता क्योंकि उस मजाक से उसके मन में दुविधा उत्पन्न हो जाती है और दुविधा के साथ रसगुल्ला खाने पर वह बिहारी पदावली में ‘सरक’ जाता है। पेट की जगह श्वास नली में घुसने लगता है तो रसगुल्ले का यह प्रकोप अति दारुण होता है। अतः रसगुल्ले का पूर्ण साक्षात्कार पूरी निष्ठा, लगन एवं शांति के साथ इत्मीनान से करना चाहिये। अति वेग में पूरा रसगुल्ला एक साथ गटकने के पहले अनेक वस्तुओं को गटकने का अभ्यास करना होगा वरना......???

मूल बात पर आते हैं कि सगुण साकार वाली विधि से साक्षात्कार करने पर यह सगुण साकार और निर्गुण निराकार वाली विधि से साक्षात्कार करने पर निर्गुण निराकार दोनों ही रूपों में ब्रह्म का अंश होने से यह उसी रूप में अनुभूत होता है।

भारतीय परंपरा में अद्वैत अवस्था भी कई प्रकार की होती है, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत वगैरह। इसी आधार पर कई दर्शन एवं संप्रदाय बने हैं। मुझे नहीं पता लोगों के अनुभव और उस पर आधारित सिद्धांत में जो अंतर है वह रसगुल्ले के अंतर के कारण है या साक्षात्कार करने वालों के अंतर के कारण। इसलिये फिर से प्रयोग कर जांच करना जरूरी लगा, तो मैं ने सोचा कि विभिन्न प्रकार से विभिन्न प्रकार के रसगुल्ले खा कर इस अंतर को समझने का प्रयास करता हूं। आप भी चाहें तो मेरा साथ दे सकते हैं। आगे का विवरण/वर्णन साक्षात्कार के बाद।
किसी योगी ने पहले भी कहा है- ‘सगुणा हो तो भरि भरि पीवे, निगुणा रहत उदासा’।


रसगुल्ला सिद्धि
गया से टेकारी जाने के रास्ते में पंचानपुर आता है। वहीं मोरहर नदी का पुल पार करने के बाद आज से 15 साल पहले तक मिश्र जी की रसगुल्ले की दुकान थी। मिश्रजी रसगुल्ला निर्माण में सिद्ध व्यक्ति थे। उनकी दुकान में मिट्टी के कुछेक बरतनों में रसगुल्ले रखे होते थे और मिट्टी के चबूतरे पर बोरी बिछी रहती थी। पूरे इलाके में विख्यात इस दुकान में व्यक्तिवादी और कंजूस का प्रवेश वर्जित था।
आद. मिश्रजी एक सिद्ध की भांति बैठे रहते थे। अब वहां पक्की दुकान हो गई है और छोटे दिल तथा औकात वाले भी रसगुल्ला खा सकते हैं। मिश्रजी आर्डर पर भी रसगुल्ला बनाते थे- 5 किलो 10 किलो के से ले कर 45 किलो तक वजन का एक रसगुल्ला। आधे किलो से कम का एक रसगुल्ला तो निहायत गरीब लोग खरीदते थे। हमारी गिनती भी उसी में थी। मात्र 3 लोग खाने वाले कभी कभी 1 किलोवाला घर लाते थे।
यह एक संदेश था कि अगर अमीर हैं तो ऐसा रसगुल्ला खरीदिये और मित्रों, परिवारों में वसुधैव कुटंबकम न सही मिल बांट कर रसगुल्ला खाने का संदेश महज एकाध किलों के टुकड़े के साथ प्रचारित कीजिये।
मिश्र जी के बड़े रसगुल्ले मानव को उसकी तुच्छता का अहसास कराते थे कि ऐ मानव! मुझे पूरी तरह आत्मसात करने के लिये तुम्हें एक बड़े दिल वाला आदमी बनना होगा। रसगुल्ले का साक्षात्कार केवल स्वयं खाने से नहीं, उसे मिल बांट कर खाने से ही होता है। म्रि जी के सिद्ध रसगुल्ले बिना कुछ कहे अनेक मुंह से बहुत कुछ कहवा लेते थे। उनके लड़के अब दुकान चलाते तो हैं लेकि मिश्रजी वाली न बुलंदी है न दृष्टि। हम लोग 1990 से 95 तक खूब मजे लिये मिश्रजी की बातो और रसगुल्ले दोनों का। यह है दिव्य साक्षात्कार।
रसगुल्ला सिद्धि
गया से टेकारी जाने के रास्ते में पंचानपुर आता है। वहीं मोरहर नदी का पुल पार करने के बाद आज से 15 साल पहले तक मिश्र जी की रसगुल्ले की दुकान थी। मिश्रजी रसगुल्ला निर्माण में सिद्ध व्यक्ति थे। उनकी दुकान में मिट्टी के कुछेक बरतनों में रसगुल्ले रखे होते थे और मिट्टी के चबूतरे पर बोरी बिछी रहती थी। पूरे इलाके में विख्यात इस दुकान में व्यक्तिवादी और कंजूस का प्रवेश वर्जित था।
आद. मिश्रजी एक सिद्ध की भांति बैठे रहते थे। अब वहां पक्की दुकान हो गई है और छोटे दिल तथा औकात वाले भी रसगुल्ला खा सकते हैं। मिश्रजी आर्डर पर भी रसगुल्ला बनाते थे- 5 किलो 10 किलो के से ले कर 45 किलो तक वजन का एक रसगुल्ला। आधे किलो से कम का एक रसगुल्ला तो निहायत गरीब लोग खरीदते थे। हमारी गिनती भी उसी में थी। मात्र 3 लोग खाने वाले कभी कभी 1 किलोवाला घर लाते थे।
यह एक संदेश था कि अगर अमीर हैं तो ऐसा रसगुल्ला खरीदिये और मित्रों, परिवारों में वसुधैव कुटंबकम न सही मिल बांट कर रसगुल्ला खाने का संदेश महज एकाध किलों के टुकड़े के साथ प्रचारित कीजिये।
मिश्र जी के बड़े रसगुल्ले मानव को उसकी तुच्छता का अहसास कराते थे कि ऐ मानव! मुझे पूरी तरह आत्मसात करने के लिये तुम्हें एक बड़े दिल वाला आदमी बनना होगा। रसगुल्ले का साक्षात्कार केवल स्वयं खाने से नहीं, उसे मिल बांट कर खाने से ही होता है। म्रि जी के सिद्ध रसगुल्ले बिना कुछ कहे अनेक मुंह से बहुत कुछ कहवा लेते थे। उनके लड़के अब दुकान चलाते तो हैं लेकि मिश्रजी वाली न बुलंदी है न दृष्टि। हम लोग 1990 से 95 तक खूब मजे लिये मिश्रजी की बातो और रसगुल्ले दोनों का। यह है दिव्य साक्षात्कार।

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