चैता गायन: यक्ष परम्परा का अनुष्ठान
मगध क्षेत्र साधना की अनेकविध शैलियों का केंद्र रहा है। भगवान बुद्ध से लेकर सिद्धों तक ने विविध प्रकार से आत्मकल्याण की साधना-पद्धतियों का उपदेश किया। मगध की जनता ने उन्हें अपने जीवन में उतारा एवं आत्मकल्याण की विविध अवस्थाआंे की उपलब्धि की। परवर्ती काल में, जब बौद्ध एवं वैदिकों का भेद बहुत कम हो गया। विविध स्थानीय उपासना शैलियाँ भी लोकजीवन का अंग बन गईं और उनकी स्वतंत्र पहचान विलुप्त हो गई। ऐसे अनेक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अवशेष वर्तमान संस्कृति एवं परंपरा में प्राप्त होते हैं। यक्ष एवं यक्षिणियाँ मगध क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं। यक्षों का स्वभाव एवं इनका स्थान देवों एवं असुरों के बीच का है। इन्हें परम प्रतापी माना जाता है। ये मांगने पर देते हैं किंतु इन्हें जो भी देने का वचन दिया गया हो उसे देना ही पड़ता है। इनकी साधना शीघ्र सफल होती है। ये कामातुर और रुधिरप्रिय माने गए हैं। इन्हें मद्य, विशेष कर मैरेय नामक सुरा प्रिय है। इन्हें सामूहिक नृत्य-गान, जिन्हें ऊँचे सुर से गाया जाता हो, काफी प्रिय हैं।
मूर्तिशास्त्र के ग्रथों में इनकी देहाकृति का वर्णन विस्तार से मिलता है। पुराणों में हाहा, हूहू नामक दो यक्षों का उल्लेख प्रायः मिलता है। वस्तुतः हाहा, हूहू यक्षों के बीज मंत्र हैं। बीज मंत्र ही देवता के नाम हो गए हैं। इन दोनों मंत्रों का संपुट लगाना आज भी चैता एवं होली/फगुआ गायन में मगध में जरूरी है। शास्त्रीय संगीत के चैता एवं चैती से इस गायन का अनिवार्य संबंध नहीं है।
पुराणों में वर्णित हाहा, हूहू के अतिरिक्त अन्य यक्ष, यक्षिणियों की भी पूजा लोग करते हैं। भल्लिनी का प्रसिद्ध मंदिर भलुनी गांव में है। वहां के पुजारी भलुनियार ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार चँवरी, अन्धारी आदि यक्षिणियों के नाम वाले भी अनेक गॉंव मगध में हैं।
चैत माह में एक विशेष शैली में गाया जाने वाला गायन चैता के नाम से जाना जाता है। मगध क्षेत्र में गॉंव की आम ंिजंदगी चैत महीने में चैता गायन के बिना अधूरी है। वर्तमान गया, पटना एवं शाहाबाद प्रमंडलों में चैता गायन बहुत लोकप्रिय है। जो लोग चैता गायन से परिचित हैं, उनके लिए यह भले ही किसी विशेष महत्त्व की बात न हो लेकिन मगध क्षेत्र से बाहर के लोगों को चैता के आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व को समझने के लिए चैता गायन के स्वरूप को बताना जरूरी है।
यह गायन गोलाकर, मंडलाकार एक या दो घेरे में बैठकर संपन्न किया जाता है। मंडल के मध्य में वादक, मुख्य रूप से ढोलक बजाने वाला या उनके सहयोगी अन्य नाल आदि बजाने वाले बैठते हैं। वृत्त की परिधि पर सहयोगी गायकगण झाल, करताल आदि के साथ बैठते है। वादक एवं गायकों के बीच इतनी दूरी रखी जाती है कि एक या दो स्त्री वेशधारी नर्तक सुविधापूर्वक मंडलाकार दायरे में नृत्य कर सकें। इस नर्तक को देेहाती क्षेत्रों में आदरपूर्वक जोगिन कहते हैं। परिधि पर बैठे हुए लोगों में से कोई एक व्यक्ति गायन का संचालन करता है। यह कोई जरूरी नहीं है कि कोई एक व्यक्ति ही मंडलाधिपति हो या गायन-समूह का प्रधान हो।
चैत्य देवगृह को कहते हैं, जिसमें भगवान बुद्ध के किसी स्वरूप अथवा बौद्ध परंपरा में स्वीकृत किसी देवता-विशेष की प्रतिमा स्थापित हो । प्रारंभ में मन की विविध अवस्थाओं पर ध्यान करनेे के लिए या विविध शैलियों के प्रचार-प्रसार के साथ न केवल धारणियों का विकास हुआ अपितु अवलोकितेश्वर, वैरोचन आदि पुरूष देवों तथा मामकी तारा आदि देवियों को भी साधना में स्थान दिया गया। मन को अंतर्मुख करने के लिए जिन विविध पथों, मार्गो या अध्वाओं का अवलंबन किया जाता हैं, उनमें चेतना, प्राण, मन के साक्षात् क्र्रिया-व्यापार, ध्वनि, प्रकाश एवं विविध रंगों का संयोजन आदि प्रमुख हैं।
सबके समानांतर तंत्र परंपरा में ध्वनि का स्वतंत्र महत्व है। ध्वनि की चार अवस्थाएँ मानी गई हैं। वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। वैखरी वाणी स्वरूपात्मक एवं संदर्भात्मक दोनों है। गो शब्दरूपी ध्वनिसमूह (वाचक) से पशुविशेष (वाच्य) का बोध होना वाच्य-वाचक संबंध का उदाहरण है। किंतु श ध्वनि का तालु से उच्चरित एवं गरम होना उसका स्वरूप है। यहाँ वाच्य-वाचक संबंध नहीं है। वाच्य-वाचक संबंध भी किसी न किसी व्यवहार के समय उस संदर्भ में प्रगट होता है अतः संबंध संदर्भात्मक भी है। संदर्भ बदलने पर एक ही शब्द का भिन्न अर्थ भी हो सकता है। वाच्चार्थ के वाचक शब्द के रूप में यह संदर्भात्मक है और वर्णमाला की ध्वनियों के रूप में या संगीत के आरोह-अवरोह के साथ नाद श्रुितयों के रूप में यह स्वरूपात्मक है। आध्यात्मिक साधना में वैखरी ध्वनि के उभयविध रूपों का उपयोग किया जाता है। स्तोत्र वाच्य-वाचक भाव से परिपूर्ण हैं। उनके छंद स्वरूपात्मक हैं। बीज मंत्र तथा धारिणियाँँ साक्षात् स्वरूपात्मक है। धारिणियाँँ पूर्णतः स्वरूपात्मक हैं।
इस संक्षिप्त पृष्ठभूमि के साथ यदि चैत में गाये जाने वाले लोकभाषा में निबद्ध चैता के पदों को देखें तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध बहुत कम हैं। मूलतः वे स्वरूपात्मक हैं। चैता के पदों की स्वरूपात्मकता ही प्रधान है। एक पद है - ‘आज चइत हम गाइब हो रामा, एहि ठईयाँँ’। यह पूर्णतः संकल्पात्मक है। इस पद का अर्थ है कि आज मैं इस स्थान पर चैता गायन करूॅंगा । इस तरह के एक पंक्ति वाले अनेक चैता पद मिलते हैं जिनमें कोई कथानक नहीं होता है। होरी, फाग, बारहमासा केे पदों में कथानक या वर्णन हुआ करते हैं। उसके स्थान पर चैता पदों के लिए उसकी गायन शैली ही प्रमुख होती है। फागुन वसंत का प्रारंभ है। चैत वसंत की प्रौढ़ावस्था है। मनुष्य के भाव में वसंत में रति का प्रवाह अपने चरम पर होता है। इसलिए चैता गायन में कठोरता होती है। आलाप के साथ आरोह की ओर गायक बढ़ते हैं लेकिन अवरोह की कोई व्यवस्था नहीं होती है। दोगुन, तिगुन और चौगुन में संपूर्ण गायक एवं श्रोता समूह मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। देशकाल का बोध उस क्षण ठहर जाता है, मन में चंचलता मिट जाती है और चरम पर पहुॅंचने के बाद जब एक बार हा ध्वनि के साथ विराम किया जाता है ता़े थोड़ी देर के लिए व्यक्ति का मन स्वतः चंचलता से रहित हो जाता है। यह साधकों को मन की अंतर्मुखी छवि से परिचय कराने का एक रास्ता है। हा ध्वनि और हू ध्वनि, इन दोनों का तंत्र परंपरा में अपना महत्व है। चैता गायन की पूर्णाहूति हा के साथ होती है। हा ध्वनि के उच्चारण से मणिपुर चक्र या नाभि केंद्र आंदोलित होता है।
आज भी चैता गायन तो होता है किंतु चैता गायन के साथ जुड़ी साधना का कड़ी टूट गई है। तंत्र में विधि प्रमुख होती है। तंत्र की विधियाँँ ही परोक्ष रूप से मन की चंचलता को एकाग्रता में परिणत करती हैं इसलिए बाहर से देखने में वे बहुत अटपटी लगती हैं लेकिन लोकमानस के अनुरूप होने के कारण लंबे समय तक संस्कृति का अंग बन्ने की योग्यता उनमें पायी जाती है। चैता गायन में ध्वनि और दृश्य का संयोजन इस प्रकार से किया गया है कि गाने वाले का मन पूर्णतः विरामावस्था में पहुँँच जाय । ध्वनि इतनी तालबद्ध होती है कि बीच में मन को भटकने का अवसर नहीं मिलता है। सामूहिक गायन में सुरीलेपन का कोई महत्व नहीं होता है। ध्यान इस बात पर साधा जाता है कि गायन में आप अपनी पूरी शारीरिक ऊर्जा को उडे़लते हैं या नहीं।
ऐसी कल्पना/मान्यता है कि जितने गायक हैं, वे साधक हैं और बोधिसत्व या वज्राचार्य की शक्ति मानवीकृत रूप में जोगिन बनकर मंडलाकार पथ में तालबद्ध नृत्य कर रही है। चूँँकि तंत्र परंपरा में रति स्वीकृत है। अतः नर्तकी का अंग संचालन, मुद्राएं एवं श्रृंगार रस के पद भी पूरी आत्मीयता के साथ स्वीकृत है। आज नर्तकी के रूप में विरले ही कोई औरत नाचती है। प्रायः मर्द ही नर्तकी का रूप धारण करते हैं। नर्तकी के रूप में यह जोगिन रूप, छटा एवं श्रृंगार के सभी आह्लाद कणों को मानो सबके ऊपर बिखेरती है। इसके लिए मौन का नियम आज भी अपरिहार्य है। वह बोलती या कहती नहीं है। कल्पना है कि वह बुद्ध की तरह समाधिस्थ है। मौन आनंद में तरंगायित है। लोगों के चित्त की चंचलता को अगाध करुणा से अपने में समेटे हुये है और चंक्रमण से, गोल गोल घूमने से जनमनमोहिनी बनकर सबको समाधि का सुख दिलाने वाली है।
चंक्रमण ध्यान भगवान बुद्ध की खोज है। घंटे दो घंटे बाह्य लोक से विमुख होकर ध्यानावस्था में जाना वैदिक परंपरा है और ठीक इसके विपरीत सदैव ध्यानस्थ रह कर जीवन के कृत्य का संपादन करना बौद्ध साधना में प्रारंभिक स्तर के प्रशिक्षण का विषय है। इसमें जोगिन चंक्रमणशील है और चैता गायक बौद्ध उपासक है। चैता के पद ‘हा’ धारिणी से युक्त होकर धारिणी का काम कर रहे है। वृत्ताकार आसन मंडल है। सभा का मुख्य कर्ताधर्ता हा ध्वनि के उच्चारण के साथ मौन का आदेश देनेवाला मंडलाधिपति है। मंडलाधिपतियों की जिम्मेवारी होती है कि वे सबके लिये अनुकूल स्थान योगिनी एवं मद्य की व्यवस्था करें, क्योंकि मद्य शरीर को थकने से रोकता है। नींद से मुक्त करता है और तात्कालिक ऊर्जा प्रदान करता है। चित्त की चंचलता को कम करता है। एकाग्र होने से सुविधा प्रदान करता है। मन की चंचलता को कुंद करता है और दृष्टि मार्ग से जो चंचलता बढ़ती है वह चंचलता जोगिनी के वृत्ताकार परिभ्रमण से बंध जाती है। बीच में बैठा हुआ ढोलक बजाने वाला ध्वनि का केंद्र होने के कारण ध्यान का केंद होता है। ध्यान की बार बार आवृत्ति से व्यक्ति का मन ध्वनि में डूब जाता है और अंतर्मुख होने के लिए अत्यंत ही सुविधापूर्ण परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। भीतर की वासना, आक्रोश, गुस्सा सारे बाहर ही संस्कृत, लयबद्ध और तालबद्ध होकर ढोलक एवं मंजीरे के थाप में संगीत का अंग बन जाते हैं।
आज सारी चीजें तो हैं लेकिन दुर्भाग्यवश अंतर्मुख करानेवाला मंडलाधिपति नहीं है। मंडलाधिपति शब्द से अधिपति गायब हो गया है। मंडल की उपाधि आज भी यादव/अहीर जाति के लोगों में स्थापित है। इस उपर्युक्त स्वरूप को जब शास्त्रीय संदर्मों के साथ जोड़ा जायेगा तब विद्वानों को भी इसकी ऐतिहासिक छवि दिखाई देगी।
मगध क्षेत्र साधना की अनेकविध शैलियों का केंद्र रहा है। भगवान बुद्ध से लेकर सिद्धों तक ने विविध प्रकार से आत्मकल्याण की साधना-पद्धतियों का उपदेश किया। मगध की जनता ने उन्हें अपने जीवन में उतारा एवं आत्मकल्याण की विविध अवस्थाआंे की उपलब्धि की। परवर्ती काल में, जब बौद्ध एवं वैदिकों का भेद बहुत कम हो गया। विविध स्थानीय उपासना शैलियाँ भी लोकजीवन का अंग बन गईं और उनकी स्वतंत्र पहचान विलुप्त हो गई। ऐसे अनेक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अवशेष वर्तमान संस्कृति एवं परंपरा में प्राप्त होते हैं। यक्ष एवं यक्षिणियाँ मगध क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं। यक्षों का स्वभाव एवं इनका स्थान देवों एवं असुरों के बीच का है। इन्हें परम प्रतापी माना जाता है। ये मांगने पर देते हैं किंतु इन्हें जो भी देने का वचन दिया गया हो उसे देना ही पड़ता है। इनकी साधना शीघ्र सफल होती है। ये कामातुर और रुधिरप्रिय माने गए हैं। इन्हें मद्य, विशेष कर मैरेय नामक सुरा प्रिय है। इन्हें सामूहिक नृत्य-गान, जिन्हें ऊँचे सुर से गाया जाता हो, काफी प्रिय हैं।
मूर्तिशास्त्र के ग्रथों में इनकी देहाकृति का वर्णन विस्तार से मिलता है। पुराणों में हाहा, हूहू नामक दो यक्षों का उल्लेख प्रायः मिलता है। वस्तुतः हाहा, हूहू यक्षों के बीज मंत्र हैं। बीज मंत्र ही देवता के नाम हो गए हैं। इन दोनों मंत्रों का संपुट लगाना आज भी चैता एवं होली/फगुआ गायन में मगध में जरूरी है। शास्त्रीय संगीत के चैता एवं चैती से इस गायन का अनिवार्य संबंध नहीं है।
पुराणों में वर्णित हाहा, हूहू के अतिरिक्त अन्य यक्ष, यक्षिणियों की भी पूजा लोग करते हैं। भल्लिनी का प्रसिद्ध मंदिर भलुनी गांव में है। वहां के पुजारी भलुनियार ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार चँवरी, अन्धारी आदि यक्षिणियों के नाम वाले भी अनेक गॉंव मगध में हैं।
चैत माह में एक विशेष शैली में गाया जाने वाला गायन चैता के नाम से जाना जाता है। मगध क्षेत्र में गॉंव की आम ंिजंदगी चैत महीने में चैता गायन के बिना अधूरी है। वर्तमान गया, पटना एवं शाहाबाद प्रमंडलों में चैता गायन बहुत लोकप्रिय है। जो लोग चैता गायन से परिचित हैं, उनके लिए यह भले ही किसी विशेष महत्त्व की बात न हो लेकिन मगध क्षेत्र से बाहर के लोगों को चैता के आध्यात्मिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व को समझने के लिए चैता गायन के स्वरूप को बताना जरूरी है।
यह गायन गोलाकर, मंडलाकार एक या दो घेरे में बैठकर संपन्न किया जाता है। मंडल के मध्य में वादक, मुख्य रूप से ढोलक बजाने वाला या उनके सहयोगी अन्य नाल आदि बजाने वाले बैठते हैं। वृत्त की परिधि पर सहयोगी गायकगण झाल, करताल आदि के साथ बैठते है। वादक एवं गायकों के बीच इतनी दूरी रखी जाती है कि एक या दो स्त्री वेशधारी नर्तक सुविधापूर्वक मंडलाकार दायरे में नृत्य कर सकें। इस नर्तक को देेहाती क्षेत्रों में आदरपूर्वक जोगिन कहते हैं। परिधि पर बैठे हुए लोगों में से कोई एक व्यक्ति गायन का संचालन करता है। यह कोई जरूरी नहीं है कि कोई एक व्यक्ति ही मंडलाधिपति हो या गायन-समूह का प्रधान हो।
चैत्य देवगृह को कहते हैं, जिसमें भगवान बुद्ध के किसी स्वरूप अथवा बौद्ध परंपरा में स्वीकृत किसी देवता-विशेष की प्रतिमा स्थापित हो । प्रारंभ में मन की विविध अवस्थाओं पर ध्यान करनेे के लिए या विविध शैलियों के प्रचार-प्रसार के साथ न केवल धारणियों का विकास हुआ अपितु अवलोकितेश्वर, वैरोचन आदि पुरूष देवों तथा मामकी तारा आदि देवियों को भी साधना में स्थान दिया गया। मन को अंतर्मुख करने के लिए जिन विविध पथों, मार्गो या अध्वाओं का अवलंबन किया जाता हैं, उनमें चेतना, प्राण, मन के साक्षात् क्र्रिया-व्यापार, ध्वनि, प्रकाश एवं विविध रंगों का संयोजन आदि प्रमुख हैं।
सबके समानांतर तंत्र परंपरा में ध्वनि का स्वतंत्र महत्व है। ध्वनि की चार अवस्थाएँ मानी गई हैं। वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। वैखरी वाणी स्वरूपात्मक एवं संदर्भात्मक दोनों है। गो शब्दरूपी ध्वनिसमूह (वाचक) से पशुविशेष (वाच्य) का बोध होना वाच्य-वाचक संबंध का उदाहरण है। किंतु श ध्वनि का तालु से उच्चरित एवं गरम होना उसका स्वरूप है। यहाँ वाच्य-वाचक संबंध नहीं है। वाच्य-वाचक संबंध भी किसी न किसी व्यवहार के समय उस संदर्भ में प्रगट होता है अतः संबंध संदर्भात्मक भी है। संदर्भ बदलने पर एक ही शब्द का भिन्न अर्थ भी हो सकता है। वाच्चार्थ के वाचक शब्द के रूप में यह संदर्भात्मक है और वर्णमाला की ध्वनियों के रूप में या संगीत के आरोह-अवरोह के साथ नाद श्रुितयों के रूप में यह स्वरूपात्मक है। आध्यात्मिक साधना में वैखरी ध्वनि के उभयविध रूपों का उपयोग किया जाता है। स्तोत्र वाच्य-वाचक भाव से परिपूर्ण हैं। उनके छंद स्वरूपात्मक हैं। बीज मंत्र तथा धारिणियाँँ साक्षात् स्वरूपात्मक है। धारिणियाँँ पूर्णतः स्वरूपात्मक हैं।
इस संक्षिप्त पृष्ठभूमि के साथ यदि चैत में गाये जाने वाले लोकभाषा में निबद्ध चैता के पदों को देखें तो उनमें वाच्य-वाचक संबंध बहुत कम हैं। मूलतः वे स्वरूपात्मक हैं। चैता के पदों की स्वरूपात्मकता ही प्रधान है। एक पद है - ‘आज चइत हम गाइब हो रामा, एहि ठईयाँँ’। यह पूर्णतः संकल्पात्मक है। इस पद का अर्थ है कि आज मैं इस स्थान पर चैता गायन करूॅंगा । इस तरह के एक पंक्ति वाले अनेक चैता पद मिलते हैं जिनमें कोई कथानक नहीं होता है। होरी, फाग, बारहमासा केे पदों में कथानक या वर्णन हुआ करते हैं। उसके स्थान पर चैता पदों के लिए उसकी गायन शैली ही प्रमुख होती है। फागुन वसंत का प्रारंभ है। चैत वसंत की प्रौढ़ावस्था है। मनुष्य के भाव में वसंत में रति का प्रवाह अपने चरम पर होता है। इसलिए चैता गायन में कठोरता होती है। आलाप के साथ आरोह की ओर गायक बढ़ते हैं लेकिन अवरोह की कोई व्यवस्था नहीं होती है। दोगुन, तिगुन और चौगुन में संपूर्ण गायक एवं श्रोता समूह मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। देशकाल का बोध उस क्षण ठहर जाता है, मन में चंचलता मिट जाती है और चरम पर पहुॅंचने के बाद जब एक बार हा ध्वनि के साथ विराम किया जाता है ता़े थोड़ी देर के लिए व्यक्ति का मन स्वतः चंचलता से रहित हो जाता है। यह साधकों को मन की अंतर्मुखी छवि से परिचय कराने का एक रास्ता है। हा ध्वनि और हू ध्वनि, इन दोनों का तंत्र परंपरा में अपना महत्व है। चैता गायन की पूर्णाहूति हा के साथ होती है। हा ध्वनि के उच्चारण से मणिपुर चक्र या नाभि केंद्र आंदोलित होता है।
आज भी चैता गायन तो होता है किंतु चैता गायन के साथ जुड़ी साधना का कड़ी टूट गई है। तंत्र में विधि प्रमुख होती है। तंत्र की विधियाँँ ही परोक्ष रूप से मन की चंचलता को एकाग्रता में परिणत करती हैं इसलिए बाहर से देखने में वे बहुत अटपटी लगती हैं लेकिन लोकमानस के अनुरूप होने के कारण लंबे समय तक संस्कृति का अंग बन्ने की योग्यता उनमें पायी जाती है। चैता गायन में ध्वनि और दृश्य का संयोजन इस प्रकार से किया गया है कि गाने वाले का मन पूर्णतः विरामावस्था में पहुँँच जाय । ध्वनि इतनी तालबद्ध होती है कि बीच में मन को भटकने का अवसर नहीं मिलता है। सामूहिक गायन में सुरीलेपन का कोई महत्व नहीं होता है। ध्यान इस बात पर साधा जाता है कि गायन में आप अपनी पूरी शारीरिक ऊर्जा को उडे़लते हैं या नहीं।
ऐसी कल्पना/मान्यता है कि जितने गायक हैं, वे साधक हैं और बोधिसत्व या वज्राचार्य की शक्ति मानवीकृत रूप में जोगिन बनकर मंडलाकार पथ में तालबद्ध नृत्य कर रही है। चूँँकि तंत्र परंपरा में रति स्वीकृत है। अतः नर्तकी का अंग संचालन, मुद्राएं एवं श्रृंगार रस के पद भी पूरी आत्मीयता के साथ स्वीकृत है। आज नर्तकी के रूप में विरले ही कोई औरत नाचती है। प्रायः मर्द ही नर्तकी का रूप धारण करते हैं। नर्तकी के रूप में यह जोगिन रूप, छटा एवं श्रृंगार के सभी आह्लाद कणों को मानो सबके ऊपर बिखेरती है। इसके लिए मौन का नियम आज भी अपरिहार्य है। वह बोलती या कहती नहीं है। कल्पना है कि वह बुद्ध की तरह समाधिस्थ है। मौन आनंद में तरंगायित है। लोगों के चित्त की चंचलता को अगाध करुणा से अपने में समेटे हुये है और चंक्रमण से, गोल गोल घूमने से जनमनमोहिनी बनकर सबको समाधि का सुख दिलाने वाली है।
चंक्रमण ध्यान भगवान बुद्ध की खोज है। घंटे दो घंटे बाह्य लोक से विमुख होकर ध्यानावस्था में जाना वैदिक परंपरा है और ठीक इसके विपरीत सदैव ध्यानस्थ रह कर जीवन के कृत्य का संपादन करना बौद्ध साधना में प्रारंभिक स्तर के प्रशिक्षण का विषय है। इसमें जोगिन चंक्रमणशील है और चैता गायक बौद्ध उपासक है। चैता के पद ‘हा’ धारिणी से युक्त होकर धारिणी का काम कर रहे है। वृत्ताकार आसन मंडल है। सभा का मुख्य कर्ताधर्ता हा ध्वनि के उच्चारण के साथ मौन का आदेश देनेवाला मंडलाधिपति है। मंडलाधिपतियों की जिम्मेवारी होती है कि वे सबके लिये अनुकूल स्थान योगिनी एवं मद्य की व्यवस्था करें, क्योंकि मद्य शरीर को थकने से रोकता है। नींद से मुक्त करता है और तात्कालिक ऊर्जा प्रदान करता है। चित्त की चंचलता को कम करता है। एकाग्र होने से सुविधा प्रदान करता है। मन की चंचलता को कुंद करता है और दृष्टि मार्ग से जो चंचलता बढ़ती है वह चंचलता जोगिनी के वृत्ताकार परिभ्रमण से बंध जाती है। बीच में बैठा हुआ ढोलक बजाने वाला ध्वनि का केंद्र होने के कारण ध्यान का केंद होता है। ध्यान की बार बार आवृत्ति से व्यक्ति का मन ध्वनि में डूब जाता है और अंतर्मुख होने के लिए अत्यंत ही सुविधापूर्ण परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। भीतर की वासना, आक्रोश, गुस्सा सारे बाहर ही संस्कृत, लयबद्ध और तालबद्ध होकर ढोलक एवं मंजीरे के थाप में संगीत का अंग बन जाते हैं।
आज सारी चीजें तो हैं लेकिन दुर्भाग्यवश अंतर्मुख करानेवाला मंडलाधिपति नहीं है। मंडलाधिपति शब्द से अधिपति गायब हो गया है। मंडल की उपाधि आज भी यादव/अहीर जाति के लोगों में स्थापित है। इस उपर्युक्त स्वरूप को जब शास्त्रीय संदर्मों के साथ जोड़ा जायेगा तब विद्वानों को भी इसकी ऐतिहासिक छवि दिखाई देगी।
आपका चैता विश्लेषण अद्भुत है,पहले न कभी सुना था न जाना था. चंचल चित को साधने का यह तो सर्व -सुलभ साधना का अज्ञात मार्ग है.क्योंकि आज जो गाते है वे इस अवरूप को जानते नहीं. वैदिक एवं बौद्ध का सम्मिलित स्वरुप है चैता, जैसा आपने दर्शाया है, केवल ध्वनि आरोह- अवरोह का अंतर है कुछ क्रियाओं के साथ.तंत्र में प्रयुक्त मंडलाकार गति इसे तंत्र साधना का भी माध्यम बना देती है.
जवाब देंहटाएंदरअसल तंत्र साधना को कुछ लोगों ने लोक सुलभ बनाया तो कुछ लोगों ने उस पर कब्जा जमाने के लिए जटिल। यह पहली धारा के लोगों द्वारा किया गया। मैंने समाज ऐसा स्वीकृत और प्रचलित ऐसी अनेक विधियों को खोजा और उसके शास्त्रीय संदर्भों को जोड़ कर प्रस्तुत करता हूँ।
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