बुधवार, 30 अप्रैल 2014

लौट के बुद्धू घर को आये किश्त - 2


आज कल भारतीय समाज का अध्ययन अविश्वासपूर्ण विदेशी दृष्टि से होता है। उसके पैमाने अलग मसलन ईशाइयत और इस्लाम में प्रलय के समय फैसला होगा। उसके पहले कुछ नहीं। भारतीय दृष्टि में प्रलय के पहले ही बहुत कुछ होता भी है और किया भी जा सकता है।
आज जो वैज्ञानिक दृष्टि की बात करते हैं वे भी समय को इसी प्रकार रेखीय दृष्टि से देखते हैं कि मरने के बाद कुछ नहीं। इस मानसिकता से संस्कार, अनुष्ठान, श्राद्ध आदि कुछ समझ में आयेगा ही नहीं। ये बातें तो धर्म वाली ही हैं। इस समस्या के समाधान के लिये लोगों ने अपने से ही तर्क बना लिया कि ये सब सच नहीं हैं लोगों के विश्वास हैं, मिथ हैं। मामला यहीं फंस गया। मतलब यह कि जो किसी आधुनिक व्यक्ति की समझ में नहीं आये वह मिथ है।
अब किसी ने सपने के डर से या अनुभूति से कुछ निर्णय लिया तो वह क्या है? मिथ के अतिरिक्त भी तो बातें होती हैं, सपने, कल्पनाएं, रिश्ते, वादे, कर्ज, उसकी भरपाई, पीढ़ी दर पीढ़ी के रिश्ते, उनकी बिरासत। केवल मिथ से कैसे काम चलेगा? जमीन के भीतर 200 से 300 फुट की गहराई में पानी का ज्ञान बिना किसी आधुनिक यंत्र के। शरीर, नस नाड़ी की समझ, इलाज। लाख बार प्रश्नों का उत्तर न खोज पाने पर भी ये नये दिमाग वाले मिथ के मिथक से बाहर नहीं आ पाते।

डायन/डाकिनी से लोग डरते हैं, उनके प्रति आकर्षण और भय दोनो है। डाक से नहीं डरते, डाक बम का बड़ा आदर है। विंच हंटिंग ईशाइयत का खुला एजेंडा है। लेकिन डायन के नाम पर हत्या संबंधी अपने शोध में आज कल इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया जाता।

इस शार्टकट को छोड़ जब मैं ने खोजा तो पाया कि डाकिनी/डायन वाली बात तो सामाजिक लालच और धार्मिक वर्चस्व तथा षडयंत्र का खेल है। इस पर मैं ने अलग से लिखा है। http://tantraparichaya.blogspot.in/2013/09/blog-post.html ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इसलिये मैं ने इनका साथ छोड़ दिया। आ गया अपनी जगह पर और पारंपरिक विद्याओं को सीखने समझने में मन लगाना उचित समझा। लौट के बुद्धू घर को आये।

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