गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

मैं स्वधर्म का पालन करता हूं, संभवतः आप भी....................


स्वधर्म को समझा कम, महसूस अधिक किया जाता है।
1 प्राकृतिक रूप से मेरा स्वधर्म मानवीय है। अन्य जीवों से उतना ही अलग जितना मनुष्य का होता है। यह धर्म शब्द के स्वरूप वाले अर्थ से संगति है।
2 इसका सामाजिक विस्तार सनातनी, ब्राह्मण, विविधतावादी, सामाजिक मामलों में अभिरुचि वाला है। मैं अपने इस विस्तृत स्वरूप वाले धर्म को भी स्वीकार करता हूं अतः कभी न मुझे इससे अलग होने की भीतरी जरूरत होती है, न किसी लालचवश अपने इस रूप को मैं ने छुपाया। यही मेरा स्वधर्म है।
प्रकृति बड़ी है और मुझसे ताकतवर है, वह अपने से खेलने के कुछ अवसर भी देती है, उसके भीतर ही वह संभावना है। उसे प्रगट करने के लिय एक ओर उसने जिज्ञासा भरी तो दूसरी ओर रहस्य ज्ञान पर विभिन्न प्रकार का पुरस्कार तथा लापरवाही पर दंड देती है। मैं अपनी इस सीमा को कभी नहीं तोड़ता न ऐसा कुछ असंभव करने का सपना भी देखता हूं।
मनुष्य को अपने भीतर झांकने एवं प्रकृति को समझने-महसूस करने वाले यंत्र, उसकी कार्यप्रणाली का अनुभवात्मक साक्षात्कार की भी संभावना है। भारत में इसे भी धर्म का महत्त्वपूर्ण भाग माना गया है। मैं अवसर मिलने के कारण उस कार्य में भी लगा रहता हूं। इसे योग-तंत्र आदि नाम दिये गये हैं।
मैं ने यह स्पष्ट रूप से देखा, महसूस किया कि मेरा सामाजिक विस्तार वाला मानवरचित धर्म प्रकृति विरुद्ध जा नहीं सकता और नियम तोड़ने पर प्रकृति दंड देगी। अतः मैं प्राकृतिक, स्वरूपात्मक धर्म एवं सामाजिक व्यवस्था वाले मानवरचित धर्म में विरोध मिला तो प्राकृतिक, स्वरूपात्मक धर्म का समर्थन भी करता हूं और पालन भी।
3 प्रकृति एवं समाज में संतुलन तथा समरसता के लिये अल्पकालिक और दीर्घकालिक व्यवस्थाएं अनुभव के आधार पर या पता नहीं कैसे बनती रहती हैं। इसका पालन मोटे तौर पर जीव करते हैं। इसका आदर करना और बनाये रखना जरूरी है। इसे धर्म का कर्तब्य वाला संदर्भ समझा जा सकता है, जैसे-बच्चे, बीमार और बूढ़े की मदद, वह भी किसी लाभ की आशा के बगैर।
इस प्रकार, मैं अपनी बनावट, पहचान और कर्तब्य का पूरी निष्ठा से पालन की कोशिश करता हूं, जिसमें अनेक बार मेरे अज्ञान, लालच और लापरवाही से कमी भी आती है। इसे झुठलाने की जगह फिर होश में आता हूं। यही मेरा स्वधर्म है। इसी धर्म के पालन में मेरा निधन हो, ऐसी इच्छा भी है। जो लोग मुझे इस धर्म के पालन से रोकते हैं, विघ्न करते हैं, उनके प्रमि मेरे मन में बुरी भावनाएं भी आती हैं और झगड़े भी होते हैं।
इस सहज उपलब्ध अनुभव आधारित समझ का अतिरिक्त लाभ मुझे यह मिला कि धर्म संबंधी उलझनें और रहस्य आसानी से समझ में आने लगे। चूंकि यह प्रकृति अनंत, समाज बहुत बड़ा और दोनो रोज बदलने वाले हैं, अतः अपनी समझ को भी हमेशा बदलते रहने में कई बार थकान और असुविधा भी होती है लेकिन चाहे जो हो कल्याण तो स्वधर्म पालन में ही है।
50 पार की औरतें मुझे खूबसूरत लगती हैं, बच्चों को देख उनके साथ रोज खेलने का मन करता है, युवा-युवती को देख यथा संभव अपने शरीर को भी कार्यशील रखने की इच्छा होती है, मृत्यु से खेलने का शौक बरकरार है। इस आधार पर लगता है कि मैं मानसिक रूप से स्वस्थ हूं, अपने स्वरूप में हूं, शरीर धीरे-धीरे वय के प्रभाव में जा रहा है, अब उलटे पैर न पेड़ की डाल पकड़ सकता हूं न एक पैर पर बुलेट घुमा सकता हूं लेकिन कोई बात नहीं मैं ने ये मजे ले लिये और  ऐसे करतब देखने का अवसर तो मिल ही जाता है। उसी पर अपना अनुभव बता कर मैं भी युवा मंडली में सम्मिलित हो लेता हूं।
शायद ऐसी अनेक उपलब्धियां इसलिये हो पाईं कि मैं मनुष्यता के अपने स्वरूप और स्वधर्म पर जो मौलिक है, धर्म के अन्य किसी भी रूप को हावी नहीं होने दिया और उन्हें उनकी जगह नकारा भी नहीं। पता नहीं मैं सफल हूं या विफल लेकिन संतुष्ट जरूर हूं। मेरे इस आत्मोद्गार को पढ़ने के लिये आभार, धन्यवाद।

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