मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

लौट के बुद्धू घर को आये किश्त - 1


अगर कुछ दूसरा होता तो और झूठा होता इसलिये यही सही कि काश मैं भी एक सच्चा ब्राह्मण होता। मैं ने बचपन में बिना मन पुरोहिती की जबकि अधिकांश जजमान हमसे गरीब थे और ताज्जुब की बात की हमारे ही बटाईदार हमें गरीब/भिखारी जैसा समझते थे। मुझे यह गवारा न था और मैं ने बगावत कर दी कि पुरोहिती मुझसे नहीं होगी। बहुत लात खाई लेकिन दो चार को छोड़ सारे जजमानों को भड़का कर ही दम लिया।
जब होश आया तब समझा कि अब तक जिसे असली समझ कर पढ़ा- दर्शन और तर्क शास्त्र वह तो केवल ऊपरी बात थी। भारतीय समाज दर्शन शास्त्र और इतिहास से नहीं, वह तो धर्मशास्त्र से चलता है। तब पुरातत्त्व मंडली छोड़ी, न्याय शास्त्र छोड़ा। संस्कृति साहित्य पहले  ही छोड़ चुका था। यह ज्ञान मुझे एंथ्रोपोलोजी वालों/ समाज शास्त्रियों से मिला। काणे के धर्मशास्त्र के इतिहास के साथ पूरे भारत का धर्मशास्त्र संस्कृत मूल रूप में 2 साल में पढ़ा। सोचा अब समाज समझ में आयेगा लेकिन नहीं समझ में आया क्योंकि यह धर्म शास्त्र आधा दर्शन और आधा योग-तंत्र शास्त्र पर आधारित था। इसमें अनेक रहस्य थे।
मेरे समय के दिग्गज समाज शास्त्रियों को समाज ठीक से समझ में नहीं आता था और सवाल पूछने पर नाराज हो जाते थे। मेरी मूर्खता के कारण सभी मुझे माफ कर देते थे। मैं उनसे पूछता कि यह बतायें शहर बनारस से सांप्रदायिक द्वेष कैसे मिटाया जा सकता है? दंगे कैसे रोके जा सकते हैं? वात्सल्य के कारण इन्होंने मेरी समझ सुधारने के लिये विद्वानों की एक बड़ी सभा बुलाई हमने खूब सवाल पूछे लेकिन जवाब किसी से नहीं मिला। सबों ने एक स्वर से कहा हम तो अध्ययन करते हैं, उपाय सुझाना हमारा काम नहीं। पूरा परिश्रम लगभग व्यर्थ। खोज जारी रही अगले किश्त में.......

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