दो टूक
स्वधर्म पालन में बाधा दो प्रकार से आती है- अपने भीतर से और बाहर से। अपनी बाधा को खुद ही दूर करना होता है और बाहरी से लड़ना होता है।
आज धर्म की बात ज्यादा दूसरों को प्रभावित करने या उनका फायदा उठाने के लिये होती है। ठग बातों को सीधे सरल रूप में रखने के विरोधी होती हैं। जो लोग बेइमान और कल्पना जीवी होते हैं, उन्हें ये टब खूब भाते हैं। मेरी समझ में मूर्खता, चालाकी, कपट और कृतघ्नता का धर्म में स्थान नहीं है।
स्वधर्म पालन में भीतरी बाधाएं हैं- परिवार, समाज और प्रकृति रूपी मूल स्रोत के संरक्षण से भागना। इसलिये न इन्हें न जानना, न समझना, न जुड़ना ताकि पलायन बोध की पीड़ा न हो। इसके लिये नकली आस्तिक या नास्तिक भी बन जाना। स्वधर्म पालन में बाहरी बाधाएं हैं- धर्म के दुकानदारों एवं घर परिवार से ले कर समाज के विभिन्न लोगों द्वारा यह दबाव विकसित किया जाना कि तुम केवल मेरा खयाल रखो अन्य का नहीं।
ये लोग माता-पिता, पत्नी, पुत्र, भाई, पड़ोसी जाति वाले, रिश्तेदार, मित्र, देशी, विदेशी मानवतावादी, प्रकृतिवादी कोई भी हो सकते हैं। केवल किसी एक के प्रति ही पूर्ण समर्पित होने के पक्ष में एक से एक लाजवाब तर्कों से अनेक भाषाओं के वांग्मय भरे पड़े हैं। इस उलझन से निकलन, मार्गदर्शन हेतु जब कोई किसी गुरु के पास जाये और कहे तुम मेरी शरण में आ जा सबसे रिश्ता तोड़ ले तो ये हुई बात कि पहले से कोढ़ ऊपर से खुजली। इनसे सावधान ही रहें, ये आपके इर्दगिर्द ही हैं और आपका अपना मन तो सबसे बड़ा खिलाड़ी है। मैं इनसे रोज जूझता हूं, इसके बगैर न स्वधर्म का पालन संभव है न ही बिना ग्लानि बोध की सामान्य सी जिंदगी।
स्वधर्म पालन में बाधा दो प्रकार से आती है- अपने भीतर से और बाहर से। अपनी बाधा को खुद ही दूर करना होता है और बाहरी से लड़ना होता है।
आज धर्म की बात ज्यादा दूसरों को प्रभावित करने या उनका फायदा उठाने के लिये होती है। ठग बातों को सीधे सरल रूप में रखने के विरोधी होती हैं। जो लोग बेइमान और कल्पना जीवी होते हैं, उन्हें ये टब खूब भाते हैं। मेरी समझ में मूर्खता, चालाकी, कपट और कृतघ्नता का धर्म में स्थान नहीं है।
स्वधर्म पालन में भीतरी बाधाएं हैं- परिवार, समाज और प्रकृति रूपी मूल स्रोत के संरक्षण से भागना। इसलिये न इन्हें न जानना, न समझना, न जुड़ना ताकि पलायन बोध की पीड़ा न हो। इसके लिये नकली आस्तिक या नास्तिक भी बन जाना। स्वधर्म पालन में बाहरी बाधाएं हैं- धर्म के दुकानदारों एवं घर परिवार से ले कर समाज के विभिन्न लोगों द्वारा यह दबाव विकसित किया जाना कि तुम केवल मेरा खयाल रखो अन्य का नहीं।
ये लोग माता-पिता, पत्नी, पुत्र, भाई, पड़ोसी जाति वाले, रिश्तेदार, मित्र, देशी, विदेशी मानवतावादी, प्रकृतिवादी कोई भी हो सकते हैं। केवल किसी एक के प्रति ही पूर्ण समर्पित होने के पक्ष में एक से एक लाजवाब तर्कों से अनेक भाषाओं के वांग्मय भरे पड़े हैं। इस उलझन से निकलन, मार्गदर्शन हेतु जब कोई किसी गुरु के पास जाये और कहे तुम मेरी शरण में आ जा सबसे रिश्ता तोड़ ले तो ये हुई बात कि पहले से कोढ़ ऊपर से खुजली। इनसे सावधान ही रहें, ये आपके इर्दगिर्द ही हैं और आपका अपना मन तो सबसे बड़ा खिलाड़ी है। मैं इनसे रोज जूझता हूं, इसके बगैर न स्वधर्म का पालन संभव है न ही बिना ग्लानि बोध की सामान्य सी जिंदगी।
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