हिंदू धर्म का असली लाभार्थी कौन? ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य?
बेचारे शूद्र तो हो सकते नहीं, इसलिये मैं ने उन्हें इस प्रश्न में नहीं रखा। यह मेरा कोई काल्पनिक प्रश्न नहीं है। आज जिसे हिंदू समाज कहा और माना जा रहा है उसी की बात मैं भी कर रहा हूं।
इस प्रश्न ने ही अनेक नये आंदोलनों, संगठनों और धर्म की राजनीति को संचालित तथा नियंत्रित कर रखा है? असली लाभ है धर्म के नाम पर उपलब्ध सामाजिक आर्थिक सत्ता के केन्द्र, जैसे- मठ, महंथ, चढ़ावा और उससे हासिल होने वाले अनेक सुख चाहे पैर छुलाने जैसा मानसिक हो या महंगी कारों, होटल आदि का सुख। राजनैतिक सत्ता के सुख जिसमें वोट को नियंत्रित करना तथा राज्य सत्ता पर काबिज हो कर अप्रतिम भ्रष्टाचार से संपत्ति का अर्जन तथा संरक्षण आदि।
अब बी.जे.पी और संघ में बनिया-ब्राह्मण ध्रुवीकरण पुराना पड़ गया। खुली सनातनी रूढि़यों के समर्थन के लिये बदनाम करपात्री जी का रामराज्य परिषद का नाम भी पुरानी पीढ़ी नहीं जानती। हिंदू महा सभा दिल्ली में अभी भी है लेकिन आज उसकी अपनी अलग पहचान नहीं है।
बी.जे.पी में अनेक पिछड़े नेता उभरे लेकिन उन्हें दुबकना पड़ा, कल्याण सिंह, उमा भारती से गोविंदाचार्य तक। क्षत्रिय मंडली ने फिलहाल राजनाथ सिंह के नेतृत्व में कुर्सियां पकड़ ली हैं, उन्हें मठ नहीं, सीधे कुर्सी चाहिये, समझौते में सफलता की भी आशा है। अब मामला रह गया है-मठों का। पहले मठों में अघोषित रूप से संप्रदायों और अनुयायियों की जाति के हिसाब से महंथों का चयन होता था। इस चयन को अखाड़ा परिषद जैसी संस्थाएं एवं मठाम्नाय जैसी पुस्तकों से कानूनी समर्थन मिलता था। कबीरपंथ एवं इस तरह के अन्य संप्रदायों के मठों की महंथी पर असवर्ण जातियों के महंथों की परंपरा रही है। इस खेल में उत्तर भारत में कोईरी पुरानी और यादव नई जाति है।
आर्यसमाज के मठ, संगठनों पर अग्रवाल, मोदी या जाट ही आम तौर पर महंथ/संस्था प्रमुख होते रहे। बाबा रामदेव ने इसे ध्वस्त करा दिया, अब यादवों की बारी है।
परंपरागत अहंकारी और पुराने पिछलग्गू ब्राह्मण रा.स्व.से.संघ को जितना अपना मान लें फिलहाल रस्साकस्सी इस बात पर है कि हर मठ, महंथ और उसकी संपत्ति पर बनियों का ही नियंत्रण क्यों न हो? जब दान देने वाले मुख्यतः बनिये हों? शीर्ष बनियों ने इसी मकसद से विश्वहिंदू परिषद का गठन किया, जिसके अधीन राम सेना, बजरंग दल आदि में अन्य जातियों के उत्पाती युवकों को भर्ती कर उन्हें बलि का बकरा बनाया जा सके।
विश्वहिंदू परिषद अब हर संप्रदाय के महंथ के चयन में दखल देता है और न मानने पर तरह तरह से दबाव डालता है। हर हिंदूवादी संगठन से ब्राह्मणों के सफाये का अभियान चल रहा है। एक तरह से यह अच्छा है, मजा तो लिया सबों ने और गालियां खाईं ब्राह्मणों ने। अब धर्म के इस धूर्त स्वरूप पर पुनः लोगों का विरोध तो होना ही है और वह विरोध वैश्यों को झेलना होगा। ब्राह्मण अपनी भूमिका तलाश लें। बिहार और उत्तर प्रदेश में भूमिहारों का खेल अगले अंक में।
बेचारे शूद्र तो हो सकते नहीं, इसलिये मैं ने उन्हें इस प्रश्न में नहीं रखा। यह मेरा कोई काल्पनिक प्रश्न नहीं है। आज जिसे हिंदू समाज कहा और माना जा रहा है उसी की बात मैं भी कर रहा हूं।
इस प्रश्न ने ही अनेक नये आंदोलनों, संगठनों और धर्म की राजनीति को संचालित तथा नियंत्रित कर रखा है? असली लाभ है धर्म के नाम पर उपलब्ध सामाजिक आर्थिक सत्ता के केन्द्र, जैसे- मठ, महंथ, चढ़ावा और उससे हासिल होने वाले अनेक सुख चाहे पैर छुलाने जैसा मानसिक हो या महंगी कारों, होटल आदि का सुख। राजनैतिक सत्ता के सुख जिसमें वोट को नियंत्रित करना तथा राज्य सत्ता पर काबिज हो कर अप्रतिम भ्रष्टाचार से संपत्ति का अर्जन तथा संरक्षण आदि।
अब बी.जे.पी और संघ में बनिया-ब्राह्मण ध्रुवीकरण पुराना पड़ गया। खुली सनातनी रूढि़यों के समर्थन के लिये बदनाम करपात्री जी का रामराज्य परिषद का नाम भी पुरानी पीढ़ी नहीं जानती। हिंदू महा सभा दिल्ली में अभी भी है लेकिन आज उसकी अपनी अलग पहचान नहीं है।
बी.जे.पी में अनेक पिछड़े नेता उभरे लेकिन उन्हें दुबकना पड़ा, कल्याण सिंह, उमा भारती से गोविंदाचार्य तक। क्षत्रिय मंडली ने फिलहाल राजनाथ सिंह के नेतृत्व में कुर्सियां पकड़ ली हैं, उन्हें मठ नहीं, सीधे कुर्सी चाहिये, समझौते में सफलता की भी आशा है। अब मामला रह गया है-मठों का। पहले मठों में अघोषित रूप से संप्रदायों और अनुयायियों की जाति के हिसाब से महंथों का चयन होता था। इस चयन को अखाड़ा परिषद जैसी संस्थाएं एवं मठाम्नाय जैसी पुस्तकों से कानूनी समर्थन मिलता था। कबीरपंथ एवं इस तरह के अन्य संप्रदायों के मठों की महंथी पर असवर्ण जातियों के महंथों की परंपरा रही है। इस खेल में उत्तर भारत में कोईरी पुरानी और यादव नई जाति है।
आर्यसमाज के मठ, संगठनों पर अग्रवाल, मोदी या जाट ही आम तौर पर महंथ/संस्था प्रमुख होते रहे। बाबा रामदेव ने इसे ध्वस्त करा दिया, अब यादवों की बारी है।
परंपरागत अहंकारी और पुराने पिछलग्गू ब्राह्मण रा.स्व.से.संघ को जितना अपना मान लें फिलहाल रस्साकस्सी इस बात पर है कि हर मठ, महंथ और उसकी संपत्ति पर बनियों का ही नियंत्रण क्यों न हो? जब दान देने वाले मुख्यतः बनिये हों? शीर्ष बनियों ने इसी मकसद से विश्वहिंदू परिषद का गठन किया, जिसके अधीन राम सेना, बजरंग दल आदि में अन्य जातियों के उत्पाती युवकों को भर्ती कर उन्हें बलि का बकरा बनाया जा सके।
विश्वहिंदू परिषद अब हर संप्रदाय के महंथ के चयन में दखल देता है और न मानने पर तरह तरह से दबाव डालता है। हर हिंदूवादी संगठन से ब्राह्मणों के सफाये का अभियान चल रहा है। एक तरह से यह अच्छा है, मजा तो लिया सबों ने और गालियां खाईं ब्राह्मणों ने। अब धर्म के इस धूर्त स्वरूप पर पुनः लोगों का विरोध तो होना ही है और वह विरोध वैश्यों को झेलना होगा। ब्राह्मण अपनी भूमिका तलाश लें। बिहार और उत्तर प्रदेश में भूमिहारों का खेल अगले अंक में।
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