कई बार जब पब्लिक अपने मन से कई परंपरा की बातों को बिना सावधानी के मिलाती है तो बेइमानों की चांदी कटती है। ऐसे घालमेल के उदाहरण हर क्षेत्र में मिलेंगे। फिलहाल बंगाल-मिथिला का प्रसंग है। मिथिला का साक्षात संबंध बंगाल से रहता है जबकि मगध पर काशी, मिथिला, बंगाल और उड़ीसा तीनों की सामाजिक मान्यताओं का प्रभाव है। इस प्रकार यहां मिली-जुली व्यवस्था है।
बंगाल एवं मिथिला के सवर्णों में विवाह के बारे में एक से एक अतिवादी मान्यताएं रही हैं। बंगीय दृष्टि से विवाह संस्कार केवल स्त्री का होता है, पुरुष का नहीं। इस विषय पर अनेक शास्त्रार्थ हुए और वहां की क्षेत्रीय परंपरा यही रही। पति रूपी पुरुष उस संस्कार में मुख्य व्यक्ति नहीं सहायक मात्र है। विवाह एक बोध है, एक मानसिक संस्कार है। इसलिये पति की मूल योग्यता किसी स्त्ऱी के मन में वह तथाकथित संस्कार रूपी अनुभूति स्थापित करने की है न कि घरेलू जिम्मेवारियों की। जिम्मेवारियां तो स्त्री एवं उसके मैके के लोगों की है। इस दृष्टि को इतना आदर मिला कि कुछ लोगों को बाकायदा केवल विवाह संस्कार स्थापित करने वाला पति मान लिया गया। यह आदर्श तथा परंपरा मुख्यतः ब्राह्मण एवं कायस्थों के बीच सीमित रही। ऐसे परिवारों एवं व्यक्तियों को कुलीन कहा गया। ये लोग अनेक विवाह करते थे। एक कहावत है कि मिथिला के कुलीन ब्राह्मण की जिंदगी तो ससुराल में ही कटती है। दुखद ही नहीं दर्दनाक मान्यता यह भी कि असली कुलीन तो अपनी पत्नी को पहचान तक नहीं सकता, बेचारा कितने को पहचाने? ऐसे किसी दरिद्र कुलीन की पत्नी मरे तो उसका संरक्षण कौन करे? क्रमशः जारी......
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