संकीर्णतावादी धाराओं की प्रमुख विशेषताएं
समावेशी उदार सनातन धर्म ? सच कहें तो ऐसा कोई एक छोटा-मोटा समूह नहीं है। यह भारतीय बहुसंख्यक समाज का धर्म है, जिसमें अनेक संकीर्णतावादी धाराएं पनपती और विलुप्त होती रहती हैं। अंततः वे भी उसी मुख्य धारा में शामिल हो जाती हैं।
इन संकीर्णतावादी धाराओं के प्रति समाज के कुछ लोगों में प्रबल आकर्षण होता है क्योंकि वे निम्न दावे करती हैं, जो प्रचलित परंपराओं के विरुद्ध या भिन्न होती हैं, जैसे- वे प्रचलित रूढि़यों के विरुद्ध हैं, उनके प्रवर्तक ज्ञान पहले वालों से श्रेष्ठ है, इसमें नयापन है, पुराने बंधन नहीं हैं, काफी प्रभावशाली लोग इसे अपना रहे हैं, या अमुक विचार या पहचान वाले लोगों के विरुद्ध है, वगैरह।
कुछेक भक्ति आंदोलनों को छोड़ दें तो ऊपर से सुधारवादी या उदारवादी लगने वाली ये धाराएं मूलतः बड़े पैमाने पर समाज के बहुसंख्यक वर्ग के प्रति हिकारत और द्वेष भाव तथा प्रतिक्रयावादी कार्यक्रमों से भरी होती हैं। इनकी प्रेरणा के मूल स्रोत प्रायः बाहरी होते हैं और कई बार इनकी कार्यप्रणाली भी बाहरी शैली वाली होती है। कई बार तो समकालीन राजनीति से प्रचारित, प्रसारित और पोषित भी होते हैं।
भीड़, नयापन, प्रतिक्रिया और नये किश्म के संगठन के कारण उदार समावेशी समाज इन्हें भी एक नये प्रयोग के तौर पर लेता है। बाद चल कर अपने ही पाखंड तथा अंतर्द्वंद्वों के कारण आकर्षण खोते ही इनके अनुयायियों को भी बहुसंख्यक धारा में पुनः वापस आ जाना पड़ता है। सबसे नए और बड़े उदाहरणों में आर्य समाज है। आर्यसमाजी लोग तेजी के साथ सनातनी धारा में लौटे और लौट रहे हैं। कुछ दिनों बाद बस कुछेक औपचारिकताओं के अतिरिक्त सनातनी तथा आय्रसमाजी का फर्क करना कठिन हो जाएगा क्योंकि बहुसंख्यक समाज ने आर्यसमाज की वैचारिक बातों को छोड़ सुविधा वाली बातें अपना लीं तो फिर क्या आर्यसमाजी? क्या सनातनी? जब जैसी सुविधा, तब वैसी पहचान और काम।
समावेशी उदार सनातन धर्म ? सच कहें तो ऐसा कोई एक छोटा-मोटा समूह नहीं है। यह भारतीय बहुसंख्यक समाज का धर्म है, जिसमें अनेक संकीर्णतावादी धाराएं पनपती और विलुप्त होती रहती हैं। अंततः वे भी उसी मुख्य धारा में शामिल हो जाती हैं।
इन संकीर्णतावादी धाराओं के प्रति समाज के कुछ लोगों में प्रबल आकर्षण होता है क्योंकि वे निम्न दावे करती हैं, जो प्रचलित परंपराओं के विरुद्ध या भिन्न होती हैं, जैसे- वे प्रचलित रूढि़यों के विरुद्ध हैं, उनके प्रवर्तक ज्ञान पहले वालों से श्रेष्ठ है, इसमें नयापन है, पुराने बंधन नहीं हैं, काफी प्रभावशाली लोग इसे अपना रहे हैं, या अमुक विचार या पहचान वाले लोगों के विरुद्ध है, वगैरह।
कुछेक भक्ति आंदोलनों को छोड़ दें तो ऊपर से सुधारवादी या उदारवादी लगने वाली ये धाराएं मूलतः बड़े पैमाने पर समाज के बहुसंख्यक वर्ग के प्रति हिकारत और द्वेष भाव तथा प्रतिक्रयावादी कार्यक्रमों से भरी होती हैं। इनकी प्रेरणा के मूल स्रोत प्रायः बाहरी होते हैं और कई बार इनकी कार्यप्रणाली भी बाहरी शैली वाली होती है। कई बार तो समकालीन राजनीति से प्रचारित, प्रसारित और पोषित भी होते हैं।
भीड़, नयापन, प्रतिक्रिया और नये किश्म के संगठन के कारण उदार समावेशी समाज इन्हें भी एक नये प्रयोग के तौर पर लेता है। बाद चल कर अपने ही पाखंड तथा अंतर्द्वंद्वों के कारण आकर्षण खोते ही इनके अनुयायियों को भी बहुसंख्यक धारा में पुनः वापस आ जाना पड़ता है। सबसे नए और बड़े उदाहरणों में आर्य समाज है। आर्यसमाजी लोग तेजी के साथ सनातनी धारा में लौटे और लौट रहे हैं। कुछ दिनों बाद बस कुछेक औपचारिकताओं के अतिरिक्त सनातनी तथा आय्रसमाजी का फर्क करना कठिन हो जाएगा क्योंकि बहुसंख्यक समाज ने आर्यसमाज की वैचारिक बातों को छोड़ सुविधा वाली बातें अपना लीं तो फिर क्या आर्यसमाजी? क्या सनातनी? जब जैसी सुविधा, तब वैसी पहचान और काम।
सुलझी मानकिसता के साथ-साथ संवाद शैली की समस्या
जवाब देंहटाएंमेरी समझ में दुनिया का कोई भी धर्म जड़ नहीं है और उनके अंदर प्राचीनता और नवीनता का अंतद्वंद्व प्रायः हमेशा चलता रहा है - कभी प्रत्यक्ष रूप में तो कभी अप्रत्यक्ष रूप में। और इसीलिए सारे धर्मावलंबियों के व्यवहार में बदलाव भी आता गया है। सबसे कट्टर माने जाने वाले इस्लाम को ही लें, तो भारत और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में मौजूद दाऊदी बोहरा समुदाय पांच बार की नमाज तीन बार में ही पढ़ लेता है। भारतीय मुसलमानों द्वारा तजिया निकालना आदि भी इसी प्रक्रिया के उदाहरण हैं। अहमदिया समुदाय तो मुहम्मद साहब के बाद भी नबी के जन्म लेने सैद्धांतिक अवधारणा पर विश्वास करता है। इसीलिए दूसरे उन्हें मुसलमान नहीं भी मानें लेकिन वे तो खुद को मुसलमान मानते ही हैं।
इसलिए मेरी समझ में बदलाव की गुंजाइश सभी धर्मों और संप्रदायों के अनुयायियों में मौजूद है। जरूरत सही संवाद प्रक्रिया अपनाने की है जो सबको सम्मान दे और असहमति को दुश्मनी या विरोध नहीं माने। इस लिहाज से किसी लकीर को छोटा करने के प्रयास के बजाय नई लकीर खींचने के प्रयास को अधिक महत्व देना श्रेयस्कर है।
मेरे इस प्रयास को किसी नए धर्म या संप्रदाय के आरंभ का सुझाव नहीं मानें। मेरी समझ में सनातनी या हिंदू धर्म सहित सारे धमों की बहुलतावादी परंपरा के तत्वों की ग्रंथों से लेकर व्यवहार तक में पहचान करके पुष्ट करने का प्रयास बौद्धिक लोगों को नए सिरे से सोचने के लिए प्रेरित कर सकता है और समाज में स्वस्थ बहस शुरू हो सकती है। यूं भी आसपास रहने वाले समुदाय एक-दूसरे के आचार-विचार से जाने-अनजाने प्रभावित होते ही रहते हैं। अगर जान-बूझकर साझा चीजों को आत्मसात करें तो इस प्रक्रिया को काफी गति मिल सकती है।
राज बल्लभ