मंगलवार, 17 सितंबर 2013

फुरसत किसे है?

फुरसत किसे है?
अभी नरेन्द्र मोदी के गुण गान और पितृपक्ष की कमाई के सामने सरकार, जी हां सरकार भी कमाती है, ब्राह्मणों की समिति, संघ, संगठन किसी को यह समझने की फुरसत ही नहीं है कि जाने-अनजाने यह जो खेल हो रहा है वह कल भारी तनाव पैदा कर सकता है।
बोधगया में बौद्ध नामक हर जीच की कीमत अधिक हो जाती है। बौद्ध ब्रांड अधिक बिकाऊ और फायदे का ब्रांड है। इसलिये धीरे से दूसरे मंदिर के पुजारी/पंडे भी अपने नियंत्रण की जगह को  बौद्ध धर्म से जोड़ने की कोशिश करते हैं ताकि विदेशी और बौद्ध श्रद्धालु वहां आकर दान दक्षिणा करें। बोधगया के पूरब धर्मारण्य में किया गया ऐसा प्रयास महंगा पड़ा और एक हिस्से पर बौद्धों ने कब्जा जमा लिया।
आज जब मैं सूटिंग की पूर्व तैयारी में घूम रहा था तो देखा कि गया के प्रसिद्ध शिव मंदिर ‘वृद्ध प्रपितामहेश्वर मंदिर’ का नाम चुपके से बदल कर दो नाम पट्ट लगा दिये गये हैं। हिंदू भक्तों ने उसे   ‘परमपितामहेश्वर’ बना दिया और प्रशासन ने ‘बुद्ध प्रपितामहेश्वर’ बना दिया। वृद्ध शब्द बुद्ध हो गया। दर्दनाक यह है कि आम हिंदी भाषी को पता ही नहीं कि परदादे के पिता को वृद्ध प्रपितामह कहते हैं। पंडितों में से किसी को फुरसत कहां है? धर्म चाहे जैसे बिके वही सही है, तब हिंदू धर्म पर बनियों का राज होना ही चाहिये, वे तो पहले से ही विशेषज्ञ हैं।

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