मरने के बाद के जीवन पर सवाल बहुत लंबे समय से चल
रहा है। मूल प्रश्न यह है कि बिना मरे मरने के बाद की स्थिति का ज्ञान कोई कैसे कर
सकता है? कोई मरा हुआ आदमी वापस तो आता नहीं हैं। कुछ लोग
तर्क दे सकते हैं कि जो लोग मर कर फिर जीवित हो जाते हैं, उनके अनुभव को प्रमाण मान लिया जाय। मैं ऐसी बात नहीं कर रहा। तरीका तो ऐसा
होना चाहिये कि जो भी चाहे उस तरीके से मरने के बाद की स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर
सके।
यह सवाल हजार साल पहले राजा अजातशत्रु को भी सता
रहा था। वे समकालीन विचारकों एवं आचार्यों के उत्तर से बहुत नाराज थे। उनकी पीड़ा
यह थी कि मैं ‘‘जब आम के बारे में पूछता हूं, तो आचार्य लोग बात बदल कर कटहल के बारे में बताना शुरू कर देते हैं।’’
धर्माचायों के लिये यह सदा से सुविधाजनक रहा है।
वैसे राजा अजातशत्रु का पहला प्रश्न भी कम कठिन नहीं था कि ‘‘भिक्खु’’ बनने का दिखाई देने वाला फल क्या है? बुद्ध ऐसे प्रश्नों को झेलने में सक्षम थे। उन्होंने कहा कि तुम्हारे जो
नौकर हाथ जोड़ कर तुम्हारी तरफ देखते रहते थे कि तुम्हारे मुंह से क्या बात निकलती
है, उसे सावधानी से सुनें। आज उन्हीं नौकरों के समक्ष
तुम हाथ जोड़ कर खड़े हो और वे मौन बैठे हैं। यह दिखाई दे रहा है कि नहीं? साधु के इसी सामाजिक पक्ष का तो लोग आज भी लाभ उठाना चाहते हैं।
भारतीय दृष्टि से शरीर मरता है, मन और आत्मा नहीं। जो आत्मा को नहीं मानते वे भी मन की ही एक अवस्था को ‘‘विज्ञान’’ , ‘‘जीवितेन्द्रिय’’ आदि नाम से
पुकारते हैं। अगर अभ्यास किया जाय तो 2-4 महीनों से कुछ साल तक की अवधि में जीते जी अपने मन
की इस अवस्था से भली भांति परिचित हुआ जा सकता है। इसी शरीर के भीतर वह क्षमता भी
है। उसका ज्ञान पा कर अपने उस मनोमय शरीर से अपने पूर्व जन्म एवं मृत्यु का
अनुभवात्मक ज्ञान पाया जा सकता है।
इस विधि को अनेक पद्धतियों से सीखा जा सकता है।
तंत्र में शीघ्र ज्ञान होता है लेकिन इसका अभ्यास समूह में एवं सिखाने वाले के
समक्ष करना होता है। योग में ध्यान के समय यह अवस्था स्वयं आती ही है। मृत्यु एवं
जन्म का ज्ञान होना वस्तुतः बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है अपने वर्तमान मन का ऐसी
बड़ी बातों को स्वीकार करने और झेलने के लिये तैयार होना क्योंकि पूर्व मुत्यु के
पहले वर्तमान जन्म, उसके पहले हुई मृत्यु, उसके पहले का
जीवन और इस प्रकार के अनेक जीवन-मृत्यु के दर्दनाक अनुभव को कौन भला जानना झेलना
चाहेगा? उस साक्षात्कार के बाद फिर इसी शरीर में सांसारिक
व्यवहार में अनेक सम्मोहन समाप्त हो जाते हैं। दूसरा जन्म और मृत्यु की बात
छोडि़ये, ध्यान में इसी जन्म का अपना अतीत सामने आते ही लोग
भाग खड़े होते हैं, खाशकर जो अपने को परम शुद्ध और सच्चा मानते हैं।
जीते-जी अपने इसी शरीर में अनेक व्यक्तित्वों की
चाल-ढाल देख कर एक बड़ी दुनिया का दरवाजा तो खुलता है परंतु धीरे-धीरे अपने आप को
धोखा देने, दूसरे से धोखा खाने, बहाना बनाने
की सुविधा समाप्त हो जाती है। इसलिये धर्म के नाम पर कल्पना एवं विश्वास के लोक
में ही जाना लोग पसंद करते हैं, ज्ञान एवं अनुभवात्मक साक्षात्कार को नहीं।
मृत्यु के साक्षात्कार को झेलने की हिम्मत जुटे न
जुटे कम से कम अपने इस शरीर के भीतर के कई व्यक्तित्वों को जानने समझने का प्रयास
तो भारतीयों को करना चाहिये फिर आप आपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर जो चाहें
निर्णय लें। इसमें किसी देवता या धर्म की अनिवार्यता भी नहीं हैं, यह तो बस एक तकनीक हैं, जिसे सीख कर आजमाया जा सकता है। इससे अनेक भय एवं
भ्रम स्वतः समाप्त हो जाते हैं।
समस्या केवल यही होगी
कि कोई बाबा आपको आसानी से सम्मोहित नहीं कर सकेगा? आपको हंसी आने लगेगी लेकिन सम्मोहत होने का सुख तो छूट ही जायेगा।
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