लोकाचार रहस्य : मुख्यतः बिहार एवं
उत्तर भारतीय संदर्भों में
विषय प्रवेश
सामान्य आदमी तो छोडि़ये अनेक कर्मकांडियों को भी
लोकाचार की समझ नहीं होती। वे मन ही मन उसे कोसते रहते हैं। मैं ने यह प्रयास उनकी
दिमागी जड़ता को दूर करने तथा सामान्य जिज्ञासुओं
के प्रश्नों का यथा संभव उत्तर देने के लिये यह प्रयास किया है।
सनातन धर्म में सगुण एवं निर्गुण दोनों उपासना
पद्धतियां साथ-साथ चलती हैं। सगुण उपासना पद्धति में अनेक क्रियाएं एवं भौतिक
सामग्रियां भी सम्मिलित रहती हैं। इन्हें मिला कर कर्मकांड कहा जाता है। कर्मकांड
में अनेक सामग्रियाँ एवं विधियाँ सम्मिलित रहती हैं। उनके उद्देश्य एवं लक्ष्य भी
अलग-अलग होते हैं। कर्मकांड में स्थानीय लोकाचार का भी बहुत बड़ा भाग सम्मिलित
रहता है।
कई बार कई आचार्यों/पुरोहितों को यह अच्छा नहीं
लगता, खासकर उन आचार्यों को जो संस्कृत के विद्वान होने
पर भी भारत की विविधता को राष्ट्र की एकता में बाधा मानते हैं। जो यह समझने को
तैयार नहीं हैं कि सामान्य जन अनेक संप्रदायों देवी देवताओें, उपसना शैलियों में श्रद्धा रखता है। वह करे भी तो क्या करे? स्थानीय समाज का दबाव और कुछ अतिरिक्त देवी किश्म का लाभ पाने के चक्कर में
कैसे समझे कि कौन सी बात वस्तुतः सही है या संगत है। इसलिये वह अपनी समढ तथा
सुविधा से भी अनेकता में से चुन चुन कर अपने लिये संगह करता है चाहे इसमें अनर्थ
हो या लाभ?
ऐसे विविधता विरोधी आचार्य स्वयं ही कोई आचार-विचार
नीतिशास्त्र संबंधी पुस्तक लिखते हैं और किसी न किसी प्रकार सभी लोगों पर अपने ही
विचार को लादने की कोशिश करते हैं। वैसे कुछ लोग जो सामाजिक तथा सांसारिक जीवन को
बेकार या मजबूरी वाला मानते हैं और किसी आदर्श अवस्था में समाज या व्यक्ति को
पहुँचाना ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं वे केवल अपनी समझ एवं अपने ज्ञान को ही
आदर्श तथा अनुकरणीय मानते हैं। वे विविधता एवं लोकाचार, स्थानीय समझ, नीति नियम, परंपरा एवं उत्सव तक के खिलाफ रहते हैं। स्वधर्म
पालन की सुविधा देने की जगह वास्तविक धर्म निणर्य के नाम पर दूसरे को हराने, नीचा दिखाने का काम करते हैं। ऐसे लोगों को न तो लोकाचार को समझने की जरूरत
होती है न वे समझते हैं।
इसके विपरीत वैदिक काल से आज तक अनेक ऋषि
धर्माचार्य, संत, सिद्ध, योगी गण, आम आदमी को
उसकी सुविधा, परंपरा एवं सुगमता तथा उसकी क्षमता को देखकर नाना
प्रकार से साधना के व्यक्तिगत तथा सामाजिक उपायों को सिखाते रहे हैं। इसलिए यह
जरूरी नहीं है कि आज की तारीख में प्रचलित हर कर्मकांड एवं लोकाचार का वर्णन वेदों
में ही हो। हाँ, पुराण, धर्मशास्त्रीय ग्रंथ, साधना
सिखानेवाले, योग, तंत्र तथा अन्य अनुष्ठान के ग्रंथ में भी इनका कहीं
न कहीं वर्णन संभव है। कई बार मूल बात बताकर उसकी प्रक्रिया विकसित करने की भी
सलाह दे कर बात को संक्षिप्त कर दी जाती है। लोकाचार की कुछ बातों के मूल ही
पुस्तकों में मिलेंगे, हो सकता है, पूरी
प्रक्रिया वर्णित न हो।
अनेक लोकाचार कई परंपराओं को मिलाकर भी विकसित हुए
रहते हैं। देशांतरण, धर्मातरण विवाह, तीर्थयात्रा
आदि कारणों से लोग नए पुराने लोकाचार को मिलाकर ऐसा नया रूप दे देते हैं कि उन्हें
मूल विधियों से मिलाना एवं पहचानना कठिन हो जाता है। इसमें कई सवर्ण-असवर्ण
जातियों के आचार आपसे मिले रहते हैं। उदाहरण के लिये विधवा का पुनर्विवाह पहले भी
होता था और आज भी अनेक जातियों में परंपरागत ढंग से स्वीकृत हैं, वह भी परिवार के ही भीतर, कहीं पति के बड़े भाई से कहीं छोटे भाई से। विवाह
के समय ही वधू को इस बात की जानकारी देने की चलन थी कि दुर्घटना के बाद कौन पति हो
सकता है ताकि मन उसे स्वीकार कर ले। इसीलिए देवर मतलब दूसरा वर, सहबाला भेजने का लोकाचार निभाया जाता है, वह सभी
मांगलिक आचारों में साथ-साथ रहता है, कुछेक को छोड़कर। इसी तरह कोहवर एवं मथठक्का के समय
के आचार पति के बड़े भाई ‘भसुर’ को संभावित पति का निर्देश देने वाले हैं।
सामान्यतः इस बात की समझ न होने से दोनों लोकाचार एक साथ निभाए जा रहे हैं। इसमें ‘भसुरवाला’ तो पूर्णतः बेमतलब है। आज दक्षिण बिहार में किसी भी
जाति में भसुर द्वारा विधवा का विवाह कर लेने की या पहली पत्नी के साथ उसे भी
पत्नी का दर्जा देने की चलन नहीं है। ऐसी चलन प्रायः संतान संपत्ति को स्त्री के
पुनर्विवाह से उत्पन्न संकट से बचाने के उद्देश्य से किया जाता रहा है। अभी भी कुछ
जातियों में देवर वाला पुनर्विवाह चलन में है। सवर्णों में चलन में न होने पर भी
पुरानी आदत के कारण लोकाचार निभासा जा रहा है। देवर-भाभी के मजाक में भाभी और साली
पर आधे हक की बात खूब चलती है।
बाल विवाह की बुरी प्रथा गुलामी के दिनों में प्रचलित
हुई। उस समय धर्माचरण संकट मंें था। लाचारी में उल्टे-पुल्टे संस्कार होते थे।
गीतों में यह स्पष्ट होता है जो लड़के भाग कर काशी नहीं जाते थे उनकी वैदिक शिक्षा
हो नहीं पाती थी। वैदिक गुरुकुल तो कब के समाप्त हो गये थे। इसलिए औरतों के गीतों
में काशी जाने, रूठने-मनाने का नाटक का वर्णन एवं लोकाचार में
अभिनय रहेगा और वैदिक अनुष्ठानों में मूँज की मेखला, डांडा-जनेऊ
पहनने का नाटक भी होगा मानों आज भी सचमुच में गुरूकुल हांे।
यह तो एक उदाहरण है। भारतीय गृहस्थ ने वैदिक, बौद्ध, सिद्ध, सांख्य, वैष्णव, शैव एवं शाक्त सभी तंत्र धाराओं से विधियां सीखीं
और अपर्नाइं। इसलिए लोकाचार को समझने के लिए केवल संस्कृत भाषा के ज्ञान से कम
नहीं चल सकता। भगवती तारा एवं काली को प्राकृत, स्थानीय बोली
एवं गद्य में बनी रचनाएँ प्रिय हैं। इस बात का उल्लेख संस्कृत में रची स्तुति में
है। आज भी देवी को गीत हर भाषा/बोली में गाए जाते है, उसे ‘पचरा’ गाना कहतें। मांडर, पखावज या ढोल
पर आज भी पचरा गाया जाता है।
तंत्र भोग एवं मोक्ष दोनों को देनेवाला है। गृहस्थ
जीवन मं धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूपी पुरुषार्थों में तीन तो भौतिक
ही हैं, चौथा इन तीनों से ऊपर मोक्ष है, जो इन्हीं तीनों पर आश्रित अर्थात नकारात्मक रूप में इन्हीं तीनों के संदर्भ
में है। मुक्ति तृप्ति की परम अवस्था हैए इस प्रकार यसह सकारात्मक भी है।
तंत्र की सुलभ एवं लोकजीवन में उपयोगी विधियों, समाज को जोड़नेवाली विधियों तथा वैदिक विधियों को मिलाकर लोकाचार बने हैं।
आग को लेने-देने, छुआ-छूत, पवित्रता, विभिन्न अवसरों पर विभिन्न जातियों की भूमिका संबंधी लोकाचारों में गहरे
रहस्य हैं। उन्हें जानना जरूरी है।
इस पुस्तक में बिहार के लोकाचार एवं लोकोत्सवों की
असली एवं उपयोगी बातों को प्रकट करने का
प्रयास किया गया है। इससे कोई भी सावधान व्यक्ति समझ सकता है कि लोकाचार में से
क्या करना जरूरी एवं उपयोगी है और कौन कौन सी बातें कालबाह्म एवं बेकार की हैं।
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