बोधिसत्त्व जीमूतवाहन
की कथा का विकास
बृहत्कथा से भुइयाँ की कुलपूजा तक
भगवान बुद्ध ने बहुजन
हिताय धर्म की देशना की और अपने अनुयायी भिक्षुओं को भी बहुजन हिताय चारिका करने
का आदेश दिया-‘चरथ भिक्खवे चारिकं
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’1। भारतीय समाज में
बहुजन का अर्थ है सामान्य वर्ग, चाहे वह ग्रामवासी हो
या नगरवासी। महायान परंपरा के अनुसार लोगांे की सुविधा हेतु ही भगवान बुद्ध ने
अनेक उपायकौशल्यों का आश्रय लिया जिसका वर्णन सद्धर्मपुण्डरीक में है।2 पालि
परंपरा की दृष्टि से भी उन्होंने अनेक कथाओं एवं उपमाओं का उपयोग करते हुए
तत्कालीन मागधी भाषा में उपदेश किया। इसके साथ ही अपनी-अपनी भाषा (सकाय
निरुत्तिया) में3 उपदेशों को स्मरण रखने की भी छूट दे दी। इस शैली के कारण बौद्ध
साहित्य में अनेक कथाओं का समावेश हुआ और बाद में भगवान बुद्ध से लेकर चौरासी
सिद्धों तक अनेक पात्रों के आधार पर अनेक छोटी-बड़ी कथाएँ विकसित होती गईं। महायान
परंपरा के अनुसार मैत्रेय बुद्ध का चूँकि अवतार होना शेष है अतः बुद्ध की एक और
संभावित कथा के प्रति सबकी आशा टिकी हुई है। पालि परंपरा में जातक कथाओं की सूची
लगभग साढ़े पाँच सौ तक पहुँच जाती है।4
अन्य परंपराओं में भी
थोड़े-बहुत अंतर से जातक की कथाएँ प्रचलित हैं और उनका विश्वव्यापी विस्तार भी है।
विश्व कथा साहित्य का एक बड़ा भाग जातक कथाओं से प्रभावित हुआ है। जातक की कथाएँ
विविध रूपों में देश एवं काल के प्रभाव से प्रभावित होकर विकसित एवं परिवर्तित
होती गई हैं। ऐसी ही एक कथा बोधिसत्त्व जीमूतवाहन की कथा है। इस कथा का विस्तार प्राकृत, संस्कृत एवं परवर्ती लोक-परंपरा में किस प्रकार हुआ, इसी विषय पर यहाँ आपका ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया गया है।
जीमूतवाहन चूँकि एक
प्रेरणास्पद महान पुरुष है अतः जीमूतवाहन के साथ मगध ही नहीं मिथिला, बंगाल, उड़ीसा तक के लोगों ने अपना संबंध जोड़ रखा है।5 जीमूतवाहन की कथा के विविध
अंश विविध संदर्भों में जुड़ते हैं जिनमें से कुछ ज्ञात संदर्भो को प्रस्तुत करने
का प्रयास किया जा रहा है।
मगध के बाहर के अन्य
विद्वान भुइयाँ शब्द से परिचित हों यह जरूरी नहीं है। भुइयाँ मगध (बिहार) की
सर्वाधिक दलित जाति है।6 भुइयाँ का संबंध जीमूतवाहन से सर्वाधिक घनिष्ठ है क्योंकि
वह जीमूतवाहन को अपना पितृपुरुष मान कर जीमूतवाहन की आत्माहुति की पुण्यतिथि को
अपना कुलपर्व/पितृपर्व की वार्षिक तिथि मानती है और जीमूतवाहन के पुनर्जीवन की
खुशी में लगभग एक सप्ताह तक उत्सव मनाती है।
यह प्रयास
समन्वयप्रधान भारतीय जीवनशैली के कुछ अनुद्घाटित पक्षों की ओर ध्यानाकर्षण की एक
कड़ी के रूप में प्रस्तुत है। इसमें समन्वय की शैली को पहचान्ने का प्रयास किया
गया है कि किस प्रकार विविध धाराओं ने अपने मतांतरों का समाधान किया है। जो सबसे
उपेक्षित तबका होता है उसकी मूल परंपरा के प्रति गहरी निष्ठा होती है फिर भी
दुर्भाग्यवश समाज में उसे नकार दिया जाता है।
इसी खोज के क्रम में
विद्याधर जातक, बृहत्कथा, उसके अनुवाद, उसपर आधारित नाटकों
एवं पुराणों-उपपुराणों के भीतर अंतनिर्हित सामग्री की परीक्षा के साथ-साथ मगध की
वर्तमान प्रचलित परंपरा के साथ ‘जीमूत’ की वर्तमान स्थिति को स्पष्ट किया गया है जो लोक-परंपरा में ‘जीउत‘ हैं। भुइयाँ मगध की सर्वाधिक दलित जाति है फिर भी वह विद्याधरों के साथ किस
रूप में अपनी पितृपरंपरा को जोड़े हुए है, इस विषय पर भारतीय
संस्कृति के अध्येता विद्वानों की रुचि प्रार्थित है।
जीमूतवाहन एक
बोधिसत्त्व हैं जिसकी करुणा लोक-कल्याण के लिए कल्पवृक्ष के दान से प्रारंभ होकर
अंत में अपने शरीर का भी दान कर देने मंे पूरी होती है। वे नागों की रक्षा के लिए
अपना शरीर गरुड़ को अर्पित कर देते हैं।
इस मूल कथा के साथ विभिन्न
रचनाकारों ने अपनी कल्पनाएँ जोड़ी हैं जिनसे जीमूतवाहन की कथा थोड़े-थोड़े अंतर से
कई रूपों में प्रकट होती है। जीमूतवाहन की कथा का अभी तक ज्ञात आदिस्रोत गुणाढ्य
की बृहत्कथा है। प्राकृत की यह बृहत्कथा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन उसके अनुवादों
में विद्याधर जीमूतवाहन के प्राणोत्सर्ग की कथा का वर्णन मिलता है जो लगभग एक है।
बृहत्कथा के तीन
संस्कृत अनुवाद हैं - 1. बुधस्वामी का बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, 2. क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी तथा 3. सोमदेव भट्ट का कथासरित्सागर। इन
अनुवादों में जीमूतवाहन की कथा उपलब्ध है। श्रीहर्ष ने इस कथा का नागानंद नाटक के
रूप में नाट्य रूपांतरण किया है और रंगमंच
के अनुरूप विदूषक जैसे पात्रों को जोड़ा है। साथ ही नायक-नायिकाओं के योग्य सहायक
विम्ब भी आरोपित हैं।7 नागानंद नाटक में मूल कथा के साथ-साथ अनेक रोचक सामाग्रियाँ
जुड़ जाती हैं। करुणा की मूल भावना के साथ रसप्रवाह को भी पर्याप्त महत्त्व मिल
जाता है, ऐतिहासिकता गौण हो जाती है।
यहाँ तक की कथा
विद्याधर, सिद्ध, बुद्ध, बोधिसत्त्व, नाग एवं गौरी की
परंपरा की कथा है जिसमें गरुड़ एक प्रकार से विपक्षी और खलनायक है। विवाद का
समाधान समन्वयप्रधान शैली से होता है। गरुड़ का हृदयपरिवर्तन होता है। वह नागों को
अभयदान देता है।
इसके समानांतर पुराणों
की कथा चलती है जिसमें वैष्णव शैली का वर्चस्व होता है। इसमें जीमूतवाहन का स्वयं
विष्णु का पार्षद होना, विष्णु का अवतार होना
एवं विष्णुविग्रह के रूप में पूजित होना उल्लिखित है। मगध, मिथिला, बंगाल जैसे सिद्ध प्रभाव वाले क्षेत्र में जीमूतवाहन की पूजा की पुराण-प्रधान
धारा जाति या वर्ण के अंतर के बिना ही अधिसंख्यक लोगों में प्रचलित है। सभी
पुत्रवती स्त्रियाँ जीमूतवाहन का विग्रह ‘जिउतिया’ गले में पहनती हैं जो एक लॅाकेट की तरह होता है। बंगाल के नव्य स्मृतिकार ‘दायभाग’ निबंधसंग्रह के लेखक का नाम जीमूतवाहन है जिनकी व्यवस्था संपूर्ण बंगाल एवं
उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में मान्य है।
जीमूत भारतीय
लोक-परंपरा में अति प्रचलित शब्द है। जीमूत
का अर्थ होता है मेघ, बादल,़ पर्वत़। इस प्रकार मेघ, बादल, पर्वत़ जिसका वाहन हो वह जीमूतवाहन है।8 हिमालय पहाड़ांे में सबसे ऊँचा है।
वहाँ नाग, यक्ष, गंधर्व, किर्रिं, विद्याधर आदि अनेक
देवयोनियाँ निवास करती हैं ऐसी श्रद्धा एवं विश्वास है। आधुनिक विद्वान हिमालय की
विभिन्न जनजातियों के साथ इन देवयोनियों की पहचान करते हैं।
मगध एक प्राचीन
सांस्कृतिक क्षेत्र है। यहाँ इन देवयोनियों के विविध रूपों की पूजा होती है। इनमें
यक्ष सर्वाधिक पूजे जाते हैं। यक्ष-यक्षिणियों के नामों पर कई गाँवों के नाम हैं
एवं देवी-देवता के रूप में उनकी मूर्तियाँ भी हैं। जैसे - भल्लिनी (भलुनी), चामरी, (चँवरी), अन्धार, अन्धारी आदि। मायर गाँव में यक्षों का पोखरा है और उससे जुड़ी अनेक
किंवदंतियाँ हैं।
अन्य देवयोनियों की
पूजा के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं। विद्याधर उनमें एक हैं। इन देवयोनियों से
संबंधित अनेक प्रकार की भली-बुरी कथाएँं भी सदियों से कथा परंपरा में प्रचलित हैं।
ऐसी ही एक कथा विद्याधरनरेश राजा जीमूतवाहन की है। राजा जीमूतवाहन नागों की रक्षा
के लिए गरुड़ को अपना शरीर अर्पित कर देता है।
एक बोधिसत्त्व के रूप
में यह जीमूतवाहन की करुणापूर्ण जीवनकथा का मूल भाग है। यह कथा विभिन्न पुस्तकों
में विभिन्न रूपों में वर्णित हुई है लेकिन वहाँ वह केवल लोकश्रद्धा का पात्र बनता
है। बाद में सभी परंपराएं उसे अपना मानने का प्रयास करती हैं।
जीमूतवाहन को भी विविध
परंपराओं ने अपनाने की कोशिश की है। बौद्ध परंपरा में जीमूतवाहन एक बोधिसत्त्व है।
संस्कृत नाटकों में
नागानंद नाटक का स्थान महत्त्वपूर्ण है। नागानंद नाटक के लेखक श्री हर्ष हैं जो एक
दृष्टि से प्रसिद्ध राजा हर्ष ही हैं जिनका बौद्ध परंपरा के प्रति समर्थन
सर्वविदित है। इस नाटक में जीमूतवाहन की कथा विस्तार से वर्णित है। नागानंद नाटक
की हिंदी व्याख्या आचार्य बलदेव उपाध्याय ने की है और उसकी एक विस्तृत भूमिका भी
लिखी है।
प्रोफेसर उपाध्याय के
अनुसार श्री हर्ष के समय जीमूतवाहन की कथा लोक-परंपरा में प्रचलित थी। प्रसिद्ध
चीनी यात्री इत्सिंग ने बोधिसत्त्व जीमूतवाहन की कथा का उल्लेख किया है। प्रोफेसर
उपाध्याय के अनुसार विद्याधर जातक में इस कथा का विस्तार है। फिर भी पालि जातक के
उपलब्ध संस्करणों में जीमूतवाहन की कथा उपलब्ध नहीं है। पता नहीं किस संस्करण के
आधार पर आचार्य बलदेव उपाध्याय ने जातक के अंतर्गत बोधिसत्त्व जीमूतवाहन की कथा को
आधार मान कर उसका तुलनात्मक वर्णन एवं समीक्षा की है।9
इस साहित्यिक
कथापरंपरा के साथ-साथ जीमूतवाहन की कथा अन्य रूपों में भी विकसित हुई हैं।
बृहत्कथामंजरी के चतुर्थ लंबक में राजा ‘नरवाहन’ के जन्म की कथा के प्रसंग में कथाश्रवण के क्रम में जीमूतवाहन की कथा आती
है।10 इसमें जीमूतवाहन के पूर्वजन्म की कथा तो है किंतु उसके बोधिसत्त्व होने का
कोई उल्लेख नहीं है। बृहत्कथामंजरी की कथा का विस्तार कथासरित्सागर में प्राप्त
होता है।
कृतोपकारः
शबरः धनेनाहममोचयम्।।
स
बन्धान्मोचितो यत्नात्कृतज्ञः शबरो मया।।
कन्या
पृष्टा मया भद्र प्रतिकर्तुं ममाह च।।
तऽतोहं
स्वयमुत्तालतमालसरलाकुलम्।
इसी प्रकार कथासरित्सागर के ‘नरवाहनदत्तजन्नलंबक’11 के द्वितीय तरंग के
रूप में जीमूतवाहन की पूरी कथा वर्णित है जिसके मूल विंदु निम्न हैं।
जीमूतवाहन
विद्याधरनरेश जीमूतकेतु का पुत्र है। वह अति दानशील एवं परोपकारी है। उसके
स्वजातीय-सगोत्री उसका अनिष्ट चाहते हैं। वह क्षुब्ध होता है। प्रजा के कल्याण के
लिए वह कल्पद्रुम का दान कर देता है। बाद में अपना राज्य भी छोड़कर वन में चला
जाता है।
स्वाभाविक है कि ऐसा
कार्य सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। इसी क्रम में उल्लेख है कि राजा जीमूतवाहन
बोधिसत्त्व के अंश से इस जन्म में उत्पत्ति हुआ है। उसे अपने सभी पूर्वजन्मों की
कथा का स्मरण है।
अदरिद्रां
कुरुष्वैतां पृथिवीमखिलां सखे।
स्वस्त्यस्तु ते प्रदत्तोसि लोकाय
द्रविणार्थिने।।
इत्युक्तस्तेन
धीरेन कल्पवृक्षो ववर्ष स।
कनकं
भूतले भूरि न्नन्दुरखिलाः प्रजाः।।
दयालुर्बोधिसत्त्वांशः
कोन्यो जीमूतवाहनात्।
शक्नुयादर्थिसात्कर्तुमपि
कल्पदु्रम कृती।।
इति
जातानुरागासु ते दिक्षु विदिक्ष्वपि।
जीमूतवाहनस्योच्चैः
पप्रथे विशदं यशः।।
(हे कल्पवृक्ष! मैं
तुम्हारा दान कर रहा हूँ। पूरी पृथ्वी को तुम दरिद्रता से मुक्त कर दो। तुम्हारा
कल्याण हो। इसके बाद कल्पवृक्ष ने धन की वर्षा की और संपूर्ण प्रजा प्रसन्न्ाहो
गई। ऐसा कार्य दयालु बोधिसत्त्व जीमूतवाहन के अलावा कौन कर सकता है जो कल्पवृक्ष
का भी दान कर दे। ऐसा करने से उसका यश सभी दिशाओं में फैल गया।)
तच्छ्रु्रत्वैव
स जीमूतवाहनोपि जगाद तम्।
युवराज
ममाभूत्सा भार्या पूर्वेपि जन्मनि।।
त्वं
च तत्रैव मे जातो द्वितीयं हृदयं सुहृत्।
जातिस्मरोस्म्यहं
सर्वं पूर्वजन्मं स्मरामि तत्।।
(हे युवराज, पूर्व जन्म में तुम मेरे मित्र थे और यह कन्या भी मेरी पत्नी थी। मैं सभी
जन्मों का पूर्व वृतान्त स्मरण करने वाला हँू।)
इत्युक्तवन्तं
तत्कालं मित्रावसुरुवाच तम्।
जन्मान्तरकथां
तावच्छ्रुत्वा कौतूहलं हि मे।।
ऐसी कथा सुनकर
मित्रावसु को बहुत कौतूहल हुआ।)
जीमूतवाहन का विवाह
सिद्धकुल की कन्या से होता है। मित्रावसु का पुत्र जीमूतवाहन का मित्र एवं उसकी
बहन मलयवती उसकी प्रिया है। एक दिन भ्रमण करते हुए उसे नागों की अस्थियों की विपुल
राशि से ज्ञात होता है कि गरुड़ के लिए एक नाग को प्रतिदिन स्वयं बलिदान स्थल पर
पहुँचना होता है।
एक दिन शंखचूड़ नाग की
बारी है। उसकी रोती हुई माँ को समझा-बुझाकर वह स्वयं गरुड़ का ग्रास बन जाता है।
गरुड़ जीमूतवाहन के धैर्य तथा उपदेश से अभिभूत हो जाता है और उसे छोड़ देता है।
जीमूतवाहन को गौरी जीवित करती हैं। शेष नागों को गरुड़ अमृतवर्षा करके जीवित करता
है और अभयदान देकर अपना प्रायश्चित्त करता है।
पूर्ववर्णित कथा थोड़े
अंतर से पुराणपरंपरा में प्रचलित है। इसी प्रकार अलिखित रूप से आज भी इस कथा का
प्रवाह चल रहा है। पुराणपंरपरा में यह कथा बाकायदा एक व्रत की कथा से जुड़ गई है।
जीमूतवाहन स्वयं विष्णु का एक रूप बन जाता है,
उसकी पूजा होती
है। कथा में व्रत के अनुरूप अंतर कर दिया गया है।
जीमूतवाहन भारतीय
अलंकारशास्त्र की दृष्टि से धीरोदात्त नायक है। उसमें असीम धैर्य के साथ दूसरांे
का भला करने की असीम उदात्तता भी है। वह शुष्क नीरस व्यक्ति नहीं है। श्रृंगार रस
का भी उसके व्यक्त्तित्व में पूरा विकास है। राज्य छोड़ने के बाद भी वह अपने
पूर्वजन्म के साथ ही साथ अपनी पूर्वजन्म वाली प्रिया को भी पहचाने हुए है और इस
जन्म में भी प्रेम तथा श्रृंगार के साथ करुणा की पराकाष्ठा पर जीता है। इस प्रकार
भारतीय पैमाने से एक उत्तम नायक के सभी गुण जीमूतवाहन में उपलब्ध हैं।
जीउतिया व्रत एवं उसकी
कथा
‘जीउतिया’ व्रत आश्विन माह के
कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को किया जाता है। सप्तमी से युक्त अष्टमी में ही व्रत का
निर्देश नव्य स्मृतिकारों ने दिया है। अष्टमी वाली उदया तिथि शुभकारिणी मानी गई
है।12 जीउतिया व्रत का उल्लेख भविष्योत्तर पुराण में है।13 इसे कुछ इतिहासकार
परवर्ती मानते हैं। इसी पुराण के आधार पर कथाविधि की पोथियाँँ चलती हैं।
पुत्रवती माहिलाएँ
पूरे वर्ष भर इस व्रत कीे प्रतीक्षा करती हैैं। गरीब महिलाएँ धागे की जीउतिया गले
में सालो भर पहनती हैं और संपन्न्ा महिलाएँ चाँदी या सोने की जीउतिया गले में
पहनती हैं। मगध में अनंत एवं जीमूतवाहन, दोनों देवताओं के
सूत्र रूपी विग्रह पहनने की परंपरा है और उसका अपना विशिष्ट माहात्म्य है।
जीउतिया व्रत आम तौर
पर पुत्रवती माताएं करती हैं। पुत्रवती माताओं द्वारा यह व्रत कठिनाई के साथ किया
जाता है। इसमें आहार या फलाहार ही नहीं, पानी पीने तक की मनाही
रहती है। पुत्रवती माताएँ अपने पुत्र के ऊपर आने वाली विपत्तियों के निवारण एवं
अपने संतान के चिरायु होने की अभिलाषा से जीउतिया व्रत रखती हैं। लोकव्यवहार में
यदि किसी दुर्घटना से कोई बार-बार बच जाता है तो लोग कहते हैं कि तुम्हारी माँ ने
खर-जीउतिया अर्थात जिउतिया का कठोर व्रत किया था इसीलिए तुम बच गए, उसी का यह शुभ परिणांम है।
जीउत नाम भी देशज
नामों में एक प्रचलित नाम है। देहातों में माताएँ बहुत प्रेम से अपने पुत्र का नाम
जीउत रखती हैं। इसी जीउत की कहानी जीउतिया है। जीउतिया लोक-परंपरा का एक देशज नाम
है, जिसका संस्कृत नाम ‘जीवत्पुत्रिका व्रत’ है, अर्थात् ऐसा व्रत जिसके करने से पुत्र जीवित रहे या ऐसा व्रत जो जीवित पुत्रों
वाली, जीवित संतान वाली माताओं द्वारा किया जाता है।
पहले यह जीउत की
आत्माहुति एवं पुनर्जीवन की स्मृति-तिथि के रूप में मनाया जाता होगा जो अब पुत्र
के जीवनरक्षा जैसे प्रयोजन से जुड़ गया है। लोक धारा का वैदिकीकरण हो गया है। इस
व्रत में चौबीस घंटे न मुँह धोना है, न नहाना, न नया कपड़ा पहन्ना। भूखे-प्यासे रहना और जीउत के पुनर्जीवन के बाद ही नया
वस्त्र, पूजा, आराधना आदि करना यह सिद्ध करता है कि यह व्रत शोक भावना-प्रधान है।
जीउतिया के दिन
जीमूतवाहन भगवान का या देशज बोली में कहें तो ‘जीउत भगवान’ की पूजा होती है। कथा के अनुसार जीमूतवाहन नामक एक अत्यंत प्रतापी राजा था।
संभवतः वह नागवंशी राजा था या कोई बौद्ध राजा था।
हिन्दू परंपरा के
अनुसार नागवंशी और बौद्ध परंपरा के अनुसार वह अत्यंत दयालु बोधिसत्त्व विद्याधर
राजा था। नागवंश से पुराने विरोध के कारणों से विष्णु भगवान के वाहन गरुड़ ने
नागों पर हमला किया। प्रजा त्रस्त थी और ऐसा तय हुआ कि बारी-बारी से कुछेक
प्रजाजनों को गरुड़ के भोजन के रूप में समर्पित कर दिया जाय जिससे शेष प्रजा गरुड़
के कोप से त्रस्त न हो। दयालु राजा जीमूतवाहन को अपने मित्रराष्ट्र की नागवंशीय
प्रजा के ऊपर होने वाला अत्याचार उचित नहीं लगा।
कथा का निष्कर्ष यह कि
कोई रास्ता न निकलने पर अंत मेें दयालु राजा जीमूतवाहन ने प्रजाजनों को न तो
स्वेच्छा से बलिदान होने के लिए विवश किया न ही प्रजा को युद्ध की हिंसा की अग्नि
में गरुड़ के समक्ष झोंका। राजा जीमूतवाहन ने प्रजा के हित में यह तय किया कि वह
अपने शरीर को ही गरुड़ की सेवा में समर्पित कर देगा और उसने ऐसा ही किया।
जीमूतवाहन की प्रजा के प्रति दया एवं उच्च भावना के समक्ष युद्धप्रिय, मांसाहारी गरुड़ को लज्जित होना पड़ा। थक-हारकर अहंकार के युद्ध में पराजित
गरुड़ ने जीमूतवाहन को छोड़ दिया। भगवान विष्णु स्वंय वधस्थल पर पधारे और
उन्हांेने घोषणा की कि यह तो धर्म की एक परीक्षा थी, यथार्थ में जीमूतवाहन मेरे ही रूप हैं। जिस प्रकार मेरी पूजा की जाती है उसी
प्रकार जीमूतवाहन की पूजा की जानी चाहिए। प्रजाजनों ने अत्यंत प्रसर्तिंा का अनुभव
किया और अपने राजा के नैतिक विजयदिवस के रूप में जीउतिया मनाना शुरू किया।
पारंपरिक कथा के
अनुसार विष्णु की घोषणा के अनुरूप जो भी व्यक्ति, विशेषकर माता, जीउतिया के दिन व्रत
रखती है और उपासना करती है, उसके संतान पर आई हुई
विपत्तियाँ शंखचूड़ या जीमूतवाहन की माँ पर आई विपत्तियों की भाँति माता की
प्रार्थना या तप से दूर हो जाती हैं।
प्राचीन इतिहास की एक
धारा में यह माना जाता है कि विष्णु की पूजा अनार्यों एवं शूद्रों में पहले से
प्रचलित नहीं थी। ब्राह्मण धर्म में विष्णुपूजा एक प्रकार से सर्वणों की पूजा थी।
वैदिक ब्राह्मण धर्म की इस संकीर्णता के विरोध में पहले श्रमणों ने अर्थात् जैनियोें
या बौद्धों ने आंदोलन चलाया। जैन एवं बौद्ध धर्म में अनार्यों को भी सम्मिलित किया
गया। बाद में बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा के
आदिवासीबहुल पठारी इलाकों में वैष्णव भक्ति आंदोलन का खूब प्रभाव रहा।
इस आंदोलन में समन्वय
का मध्यमार्गी रास्ता अपनाया गया और पूजा विधियों की नई व्याख्या के साथ नया
संस्करण निर्मित किया गया। जगर्ािंथ पूजा, अनंत पूजा, कर्मा पूजा और अंततः जीमूतवाहन की पूजा को भी विष्णु की पूजा में समन्वित किया
गया।
भगवान विष्णु के
देवालयों में सवर्णों का वर्चस्व तो स्वीकार कर लिया गया किंतु अन्य रूपों में
स्त्री, शूद्र आदि को पूजा का अधिकार दे दिया गया। प्रचलित रूप मानवाकृति से भिन्न्ा
सूत्रविग्रह को प्रचलन में मान्यता दी गई। अनंत के दिन धारण किया जाने वाला भगवान
विष्णु के रूप का विग्रह हाथ में बाँधे जाने वाले चौदह गांँठोें वाले सूत या चौदह
गाँठों की आकृतियों वाल चाँदी के अनंत के रूप में प्रचलन में आया। ऐसा ही धागा
तिब्बत में भी पहना जाता है।
इस प्रकार रक्षा सूत्र के रूप में वैष्णव
प्रभुत्व की धारा प्रवाहित की गई। राजा जीमूतवाहन के प्रति जनता की जो आदर भावना
थी उसे स्वीकार किया गया और जीमूतवाहन को साक्षात् विष्णु का रूप मान लिया गया।
सामान्य लोगों में
प्रचलित इस व्रत का माहात्म्य बढ़ने से बाद में उच्च परिवारों में भी महिलाओं ने
इसे स्वीकार किया और सामान्य ब्राह्मण घरों में भी जीउतिया व्रत की परंपरा चल
पड़ी। इसी प्रकार हिन्दू धर्म में अंततः जनता-जर्नादन की भावना एवं प्रचलित उत्सव
की लोकस्वीकृति की ही विजय हुई।
जहाँ तक कथा के विकास
का प्रश्न है पौराणिक एवं इस समय प्रचलित कथा में चील्हो-सियारो (चील एवं सियार)
की कथा का भाग जुड़ गया है। यहाँ आकर जीमूतवाहन की करुणा एवं त्याग की कथा और उसकी
स्मृतितिथि के रूप में मनाए जाने वाले उत्सव के मूल विषय गौण होने लगते हैं।
स्मृति का अनेकदिवसीय उत्सव एक दिन के व्रत के रूप में बदलने लगता है। व्रत का
माहात्म्य बढ़ाने के लिए मानवेतर प्राणियों को भी जोड़ा गया है। चील्हो एवं सियारो
ने कथा सुनी और व्रत रखा। व्रत की विधि के रूप में या जबरन शोक मनवाने के लिए कथा
बढ़ाई गई कि एक ने भोजन नहीं किया तो शुभ परिणाम हुआ और दूसरे ने भोजन किया तो
अशुभ परिणाम आया।14चील्हो, सियारो जैसे पात्र
व्रत का माहात्म्य बढ़ाते हैं, करुणा एवं त्याग के
आदर्श को नहीं।
जीमूत शब्द का प्राकृत
रूप जीउत होता है। मगही में भी जीउत शब्द ही है जिसका अर्थ है जीने वाला। मगध में
आज भी अनेक लोगों के नाम जीउत रखे जाते हैं। खासकर जिस बच्चे के परिवार वाले को
बच्चे के मरने की आशंका होती है उसका नाम जीउत रख दिया जाता है कि शायद जीउत नाम
के प्रभाव से जीवित रहे।
इतनी लंबी कथा यात्रा
में जीमूत, जीउत या जीमूतवाहन कोई एक व्यक्ति न होकर किवदंती पुरुष हो जाता है। जीमूतवाहन
की कथा प्रसिद्ध भारतीय प्रेमकथा वासवदत्ता की कथा से भी जुड़ती है। बृहत्कथा
मालवा-नरेश की परंपरा से जुड़ी हुई है।15 नरवाहन के जन्म के समय उसकी माता द्वारा
सुनी गई कथाओं में से एक कथा विद्याधर कथा के रूप में है। बाल रामायण में भी
जीमूतवाहन की गणना विद्याधर के रूप में है।16
मगही ‘जीउत’ शब्द का संस्कृत ‘जीवित’ शब्द से काफी ध्वनिसाम्य है। जीवितगुप्त नाम से गुप्तकाल में दो राजा हुए हैं।
इनमें से जीवितगुप्त द्वितीय ने, जो आदित्यसेन के नाम
से जाना जाता है, मगध में मंदिरों एवं
विहारों को प्रभूत राशि दान दी थी और बहुत लोकप्रिय था। यह सूचना देववरुणाक्र एवं
अपसढ़ के शिलालेखों से ज्ञात होती है।17
जीमूत शब्द के प्रति
आकर्षण महाभारत काल से ही है। जीमूत एवं जीमूतकेतु नाम के राजा एवं त्रषि ही नहीं, पहलवान भी हुए हैं और उन सबका संबंध मगध एवं हिमालय से रहा है। इस प्रकार मगध
में किसी न किसी रूप में जीमूत या जीउत की लोकप्रियता रही है।पुराण की कथापरंपरा
को जीमूत कुल या जीमूत राष्ट्र की सूचना है। जीमूत शब्द का उपयोग राजा एवं
क्षेत्र/राष्ट्र दोनों के लिए हुआ है।199
नरराष्ट्र शब्द का
अर्थ ‘नरवाहन’ का राष्ट्र मान लिया जाय तो महासेन का मालवा क्षेत्र नरराष्ट्र है और शालिवाहन
राज्य संभवतः जीमूतवाहन का राज्य है। हिमालय में रहने वाले यक्षराज कुबेर को भी
नरवाहन कहा जाता है। मालवा, समुद्र और हिमालय, तीनों के सांस्कृतिक संबंधों को खोजना रोचक किंतु अत्यंत दुरूह कार्य है।
इसके साथ ही एक
समानांतर धारा भी लोक-परंपरा में है। यह उपर्युक्त से भिन्न है। यहाँ जीमूत ‘जीउत’ है। पर्व जीउतिया है, तिथि एक है - आश्विन
कृष्ण अष्टमी। वैदिक दृष्टि से यह निषिद्ध काल है, पितृकाल है, पितृपक्ष है। इसी काल
में जीउत की पूजा पितृपूजा के रूप में होती है। यहाँ जीउतिया केवल व्रत नहीं है, पारिवारिक उत्सव है। यह उत्सव भुइयाँ एवं ताँती जाति का उत्सव है।
इस चर्चा के पूर्व
बिहार, बंगाल एवं उड़ीसा बनाम काशी-कोशल का झगड़ा किस प्रकार मुहूर्त के विवाद में
उजागर होता है, यह जानना भी
शोधकर्ताओं के लिए एक सूत्र का काम करेगा। मगध में अष्टमी तिथि को व्रत होता है।
यह जीमूतवाहन के बलिदान वाला दुखद समय है। इस समय तो भूखे-प्यासे रहकर प्रार्थना
करना है। अतः हर हाल में पारण (व्रत के बाद का भोजन) नवमी तिथि में ही जीमूतवाहन
की जीवनप्राप्ति के बाद करना है।
चूँकि जीमूतवाहन के
प्रति काशी परंपरा की श्रद्धा नहीं है इसलिए वे अष्टमी तिथि को महालक्ष्मी व्रत की
पवित्र तिथि मान कर अष्टमी में भी पारण करने की छूट दे देते हैं। यहाँ जीमूतवाहन
के प्रति आत्मीयता लुप्त होकर तिथि के प्रपंच में फँस जाती है।
भुइयाँ के लिए
जीमूतवाहन अपना आदमी है अतः उनमें उत्सव अष्टमी के दिन व्रत-उपवास के बाद नवमी के
दिन जीमूतवाहन के जीवित होने पर दिन भर उल्लास के साथ मनाया जाता है। यह समय
भुइयाँ के लिए पितरों के स्मरण का काल है। इस दिन पितरों को माँड़ दिया जाता है।
माँड़ देना एक पारिभाषिक शब्द है जिसका वास्तविक अर्थ है जीउतिया के दूसरे दिन
पारण के समय स्नान, नए वस्त्र धारण के बाद
मिट्टी के बरतनों में शुद्ध शाकाहारी भोजन पितरों को अर्पित करना।
उसके बाद उत्सव का
सिलसिला शुरू होता है। नए कपड़े पहनकर नाच-गाने का क्रम अश्लीलता की सीमा तक पहुँच
जाता है। यह पितृपूजा ‘मगध’ के भुइयाँ जाति के लोग करते हैं। उनके लिए जीउतिया सबसे बड़ा वार्षिक पर्व एवं
अनुष्ठान है।
यह विवरण एक प्रारंभिक
प्रयास मात्र है। इस क्रम में उपलब्ध सामग्रियाँ सांस्कृतिक इतिहास पर प्रकाश
डालती हैं और विद्वानों से अपेक्षा करती हैं कि राजवंश के क्रम एवं विकास के
अध्ययन के साथ भारतीय संस्कृति के विकास के इतिहास पर स्वतंत्र शोधकार्य हो और इस
सांस्कृतिक विकास के घटक विविध जाति-प्रजातियों तथा जीवनशैलियों के विखंडन तथा
समन्वय की प्रक्रिया को भी प्रकाशित किया जाय ताकि वर्तमान समाज एवं उसकी अगली
पीढ़ी को सौमनस्य एवं समन्वय सीखने में सुविधा हो।
कुछ भी हो, हमारी लोक-परंपरा अनेकानेक विरोधों के घावों को समय के मरहम से भरकर समरस और
सरस बनाने में सक्षम है। भारतीय लोकमानस अपने ढंग से देर से ही सही, सुधारवादी और समन्वयप्रधान धारा को ही हृदयंगम करता है। घृणा और कट्टरवाद का
वर्चस्व अधिक दिनों तक नहीं रहता। जीमूतवाहन को उनके विरोधियों ने भी अपना भगवान
माना। हिंसा पर अहिंसा की इससे बड़ी जीत और क्या होगी?
उद्धरण एवं संदर्भ
1़. धम्मचक्कपवत्तन सुत्त।
2. सद्धर्मपुण्डरीक, उपायकौशल्यपरिवर्त।
3. चुल्लवग्ग, 5-33-1
4. ‘जातकों की निश्चित संख्या कितनी है, इसका निर्णय करना बड़ा
कठिन है। लंका, बर्मा और श्याम में
प्रचलित परंपरा के अनुसार जातक 550 हैं। समन्तपासादिका की बाहिरनिदान कथा में भी
जातकों की संख्या इतनी ही बताई गई है। अपण्णक- जातकादीनि ‘‘पण्णासाधिकानि प´्चसतानि जातकं ति
वेदितब्बं।’’ अट्ठसालिनी की निदानकथा में भी अपण्णक जातकादीनि
साधिकानि प´्चजातकसतानि जातकं ति वेदितब्बं’ कहा गया है।’’
पालि साहित्य का इतिहास , पृष्ठ 333, डा भरत सिंह उपाध्याय।
5. बंगाल के प्रख्यात
नव्यस्मृतिकार, दायभाग के लेखक का नाम
जीमूतवाहन है, जिससे स्पष्ट होता है
कि लोगांे के मन में जीमूतवाहन के नाम का आकर्षण रहा है। वाचस्पत्यम्, संबद्ध भाग।
6. जिला गजेटियर, गया जिला।
7. हिंदी व्याख्या के
साथ संस्करण प्रकाशित। व्याख्याकार आचार्य बलदेव उपाध्याय, चौखंबा संस्कृत सीरिज वाराणसी।
8. डवदपमत ॅपससपंउे
क्पबजपवदंतल व िैंदेातपजए चंहम.422
9. (क) नागानंद नाटक
की भूमिका, चौखंबा संस्करण, पृष्ठ 9।
(ख) ‘‘नाटक की एक और भी
महत्त्वपूर्ण विशेषता है। श्री हर्ष के समय में भारतीय जनता वैदिक धर्म को मानती
ही थी, किंतु उस समय भगवान बुद्ध के चलाए हुए बौद्ध धर्म का भी सार्वत्रिक प्रचार हो
चुका था, ऐसा इतिहासज्ञों का कहना है। नागानंद में कवि ने वैदिक और बौद्ध दोनों धर्मों
का सुंदर समन्वय किया है। जीमूतवाहन तो बोधिसत्त्व ही था। उसकी कथा भी
विद्याधरजातक में निबद्ध है जिसका आश्रय बौद्धधर्म ही है किंतु वैदिक धर्म की भी
छटा कवि ने दिखलाई है। महाकवि ने वैदिक और बौद्ध दोनों धर्मों का मनोरम समन्वय
किया है।’’
वही पृष्ठ संख्या- 39।
10. बृहत्कथामंजरी, पाणिनि प्रकाशन, दरियागंज दिल्ली,
पृष्ठ 107-111 तक।
11. कथासरित्सागर, मोतीलाल बनारसीदास, पृष्ठ 84-91 तक।
12. काशी विश्वनाथ
पंचाग, आश्विन कृष्ण पक्ष का पेज।
13. भविष्य पुराण का
भविष्योत्तर खंड।
14. जीवत्पुत्रिकाव्रतकथा, ठाकुर प्रसाद बुकसेलर, वाराणसी।
15. कथासरित्सागर
प्रथम एवं द्वितीय लंबक।
16.
मायावनेविहगवेगकृपाणकेतोजीमूतवाहनकपि´्जलहंसनाद।
विद्यावतंसतिलकोत्तमकेलिसार, विद्याधरास्त्वरितमेत रणाय यामः।।
बालरामायण, चतुर्थ अंक, श्लोक-7 चौखंबा
सुरभारती, पृष्ठ 105।
17ण् ।तबींमवसवहपबंस
ैनतअमल व िप्दकपं त्मचवतज .
टव्सण् ग्टप्ण्
ब्नददपहींउण्
18ण् च्न्त्।छप्ब् म्छब्ल्ब्स्व्च्।क्म्।ए टमजजंउ डंदपए डण्स्ण्ठण्क्ण्
19-(क) पुलिन्दाश्मक
जीमूत नरराष्ट्र्र निवासिनः।
कर्णाटका भोजकटा दक्षिणापथवासिनः।। गरुड़पुराण,
1-55-13
गरुड़ःपुराण: एक अध्ययन, डा अवधबिहारी लाल पृष्ठ 20
(ख) पुलिन्दाश्मक जीमूत नरराष्ट्रनिवासिनः।
कर्णाटाः काम्बोजा धाटा
दक्षिणापथवासिनः।।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण 1 - 9-5