बुधवार, 7 सितंबर 2016

वर्णमाला एवं शब्दार्थ

वर्णमाला एवं शब्दार्थ संबंध
भारत देश अन्य देशों से इस मामले में भिन्न है कि यहां जितना ध्यान शब्दों पर दिया गया, उससे कई गुना अधिक ध्यान वर्णों के स्वरूप और उनकी विशेषताओं पर दिया गया। बहुत थोड़े अंतर से भारतीय भाषाओं की वर्णमाला लगभग एक है। मैं यहां उर्दू को नहीं गिन रहा। वर्णमाला का विशेष महत्व बीज मंत्रों की संरचना या धारिणी मंत्रों में होती है। उस परिप्रेक्ष्य में वैदिक, बौद्ध, जैन सभी एक हैं। वर्ण अर्थहीन नहीं होते। वे स्वयं नाम एवं अर्थ देानो हैं।
कुछ शब्द सुनने में एक वर्ण लगते हैं लेकिन वे पूरे शब्द होते हैं, जैसे- ‘क’, जिसका अर्थ होता है- जल, ‘ख’- जिसका अर्थ होता है- आकाश, वगैरह लेकिन सभी वर्णों के इसी तरह अर्थ भी हों यह जरूरी नहीं है। एक या एक से अधिक वर्णों के योग से शब्द बनते हैं, ये किसी अर्थ, मतलब वस्तु, क्रिया या भाव के नाम होते हैं। इन नामों को सुनने या सुनाने में एक अर्थ बोध होता हैै। उस प्रक्रिया को जोड़ कर भाषा बन जाती है।
इस संदर्भ में लोगों ने जानने की कोशिश की कि आखिर शब्द और अर्थ के बीच का संबंध हमारे दिलोदिमाग में बैठता कैसे है? कैसे कैसे शब्द से ले कर वाक्य तक की जटिलता को हमारा मस्तिष्क समझता और याद रखता है। इस मुद्दे पर शिक्षा शास्त्री, भाषाविद और शिक्षा शास्त्री दो खेमें में बहुत पहले से बंटे हुए हैं। जब से खड़ी बोली हिंदी का निर्माण हुआ, तबसे यह विवाद इधर भी आ गया। हमारे जमाने में ही प्राथमिक हिन्दी पुस्तक में यह विवाद आ गया था। मनोहर पोथी, गीताप्रेस की किताबें वर्ण माला, फिर शब्द तब वाक्य सिखाने के पक्ष में रहीं। इनके विपरीत ‘लिखो-पढ़ो’ शृंखला की सरकारी पुस्तकें सीधे वाक्य सिखाने वाली थीं। इस मामले में यह जानना रोचक होगा कि इस बहस का पुराना शास्त्रीय नाम क्या है और इनके तर्क क्या हैं? वैसे उस जमाने के हिंन्दी शिक्षक इसे नूतन खोज या आविष्कार की ही तरह पेश करते थे और पुराने शिक्षकों को हिकारत से देखते थे और पुराने शिक्षक अपने ज्ञान को परंपरागत तथा अनुभव सिद्ध बताते थे और नये वालों को कुतर्की सरकारी गुलाम बताते थे।
परंपरागत शास्त्रों में इस बहस को अन्विताभिधानवाद और अभिहितान्वय वाद के नाम से जाना जाता है। यह मजेदार चर्चा अगली पोस्ट में जिसमें बकरी, गाय, एक बच्चा और कुछ अन्य लोग मुख्य किरदार का रोल निभाएंगे।

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