देशी अर्थशास्त्र -
मुद्रा एवं माया
मुद्रा माया का प्रगट रूप है। माया मतलब न पूरी तरह झूठ, न पूरी तरह सच। कब धोखा दे दे, क्या पता? दिखाई-सुनाई कुछ पड़े और सच में तो कुछ और हो। मुद्रा की यही हालात है।
अंग्रेजी में मनी और करेंसी कहते हैं। भारत में मुद्रा। भारत में मुद्रा कहने का
मतलब तो मुझे पता है। करेंसी क्यों कहते हैं या नोट क्यों कहते हैं ठीक से नहीं
पता। शायद नोट मतलब कोई छोटी लिखा पढ़ी हो, इसलिए नोट कहते हैं।
रिर्जव बैंक के गवर्नर साहब एक नोट लिखते हैं - छोटी हुंडी कि मैं इतने रुपए
दूँगा। आजकल लोग नोट ही देखते हैं, चेक, ड्राफ्ट वगैरह अंग्रेजी
नाम वाले प्रकार भी कुछ लोगों को पता है। यह सब हुंडी और उसके मूल सिद्धांत पर
विकसित है।
पहले तो ऐसा था कि मुद्रा कि जिम्मेवारी राजा पर और हुंडी की जिम्मेवारी सेठ
पर होती थी। सेठ मतलब ऐसा धनी, जिसके यहाँ नगद भी पर्याप्त रहता
हो। हुंडी का अविष्कार रास्ते में नगदी लूटे जाने के भय से और धातु की मुद्रा की
भार से बचने के लिए किया गया था।
जिस किसी प्रकार से राजा के द्वारा अपनी पहचान वाली आकृति उकेरनी पड़ती थी, उस पक्की पहचान को मुद्रा कहते हैं। राजा, मंत्री से लेकर हर बड़े
जिम्मेवार आदमी की शासकीय मुद्रा होती थी। इसे मुहर भी कहते हैं। इस प्रकार मुद्रा, मुहर, नोट वगैरह आए। करेंसी का खेल अलग है, उस पर दूसरी किश्त में।
इस व्यवहार में राजा एवं सेठ की क्षमता तथा विश्वसनीयता ही मूल बात है। दोनों
में से कोई भी दीवालिया या धोखेबाज हो जाए तो मुद्रा का कोई मतलब नहीं क्योंकि ये
मांगने पर देंगे ही नहीं। सेठ दीवालिया हो सकता है लेकिन राजा नहीं क्योंकि वह
संप्रभु है, उसका राज्य की पूरी संपत्ति पर हक है, केवल राजकोश पर ही नहीं अतः उसके दीवालिया होने का प्रश्न ही नहीं। आज भी सेठ, निगम, वगैरह दीवालिया हो जाते हैं, ऐसे में किसी भी रूप में
लिखी गई हंुडी, जैसे- नोट, चेक, डॉªफ्ट वगैरह बेकार। कुछ हुंडिया त्रिपक्षीय होती हैं, जैसे- ड्राफ्ट, बैंकर्स चेक वगैरह इसलिए मजबूत
बिचौलिए की व्यवस्था रहती है, जैसे- बैंक।
खैर तो फिर आएं माया पर। आज का कागजी नोट, सिक्के धातुवाले ये
सच्चे हैं या झूठे? अचानक झूठे कैसे हो गए? इन्हें मानने की मजबूरी क्या है? कैसे बचें इनकी जाल से? ऐसे अनेक प्रश्न हमारे मन में आते हैं।
कोई अनपढ हो तो उसकी मजबूरी है ही। थोड़ा बहुत पढ़े-लिखे भी फंसते ही हैं और
आधुनिकता की अंधी नकल करने वाले बिरले ही बचते हैं वे पूरी तरह फंसते हैं। तब कौन
नहीं फसता? पहला, जो इस माया के खेल का आयोजक
होता है और दूसरा वह चालाक, जो खेल की बारीकी को भांप कर
वख्त पर विदा ले लेता है, पहला है मायापति दूसरा मायावी।
इस माया से बचने का उपाय है- माया को जान लेना, असली और मोटे तौर पर। तब
उसका बंधन कमजोर रहेगा, तब उसे तोड़ सकेंगे।
सोना-चाँदी या अन्य कोई भी कीमती धातु अथवा जमीन जायदाद को भी लोग माया कहते
हैं। उसका मतलब होता है कि व्यक्ति विशेष उस पर कब तक कब्जा रख सकता है और क्या
उपयोग कर सकता है, भले ही वह अपने को मालिक समझता
हो। जबरन नियंत्रण, दूसरे को वंचित रखने के निजी एवं
व्यवस्थागत-कानून-समस्या से संरक्षित बल पर निर्भर होता है। राजा, चोर, लुटेरा, धोखेबाज एवं दुर्घटना नियंत्रण
के विघ्न हैं और तन-मन की भोग क्षमता का घटते जाना भोग में निजी विघ्न है। इसलिए
सभी धनों को माया या अन्य प्रकार से संदेहस्पद बताया गया। मुद्रा का मामला इससे
बिल्कुल अलग है, वह अपने स्वरूप में ही माया है।
सीधा केन्द्रीय मामला है कि मुद्रा मूल्य पर आधारित है। पहले वस्तु के मूल्य
में हेराफेरी होती थी, मुद्रा विनिमय का माध्यम थी, सोने-चाँदी के रूप में, सोना-चाँदी का भंडार बनाकर उसके
समानुपाती नोट/सिक्का छाप कर। इसके बाद जैसे ही कागज की हुंडी आई-नोट के रूप में
सरकार के द्वारा जारी या अन्य व्यक्तियों अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा, मुद्रा राजा, बाजार एवं व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर हो गई। ऐसी
स्थिति इसलिए बन पाती है क्योंकि हुंडी हर किसी भी मुद्रा के अभाव में अन्य
संपत्तियों के बल पर उनके मूल्य से कम या बराबर सीमा में जायज तौर पर और केवल साख
या संभावना के बल पर नाजायज तौर पर वास्तविक मुद्रा से हजारों गुना अधिक मात्रा
में विनिमय के माध्यम के रूप में काम करती रहती है।
जब तक नगद भुगतान की स्थिति न आ जाए तब तक जाँच ही कैसे हो? इस प्रकार केवल मूल्य और विश्वास पर अर्थव्यवस्था चलती रहती है। ऐसी स्थिति
अनेक लोगों के बीच निरंतर गतिशील अवस्था में बनी रहती है अतः राज्य या उसकी नियामक
एंजेंसियों के नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
जैसे ही हम नगदी रहित व्यवस्था की ओर बढ़ते हैं तो ध्यान में रखें कि ईमानदार
हुंडी हुडी लेखक की संपूर्ण संपत्ति के बराबर तक जारी की जा सकती है और बेईमान
हुंडी या संभावना आधारित हुंडी तो अनंत तक लिखी जा सकती है। संपत्ति की सीमा में
साख, संभावना, बौद्धिक संपत्ति, पेटेंट अधिकार, व्याज, मुनाफा आदि को रखते ही
संपत्ति की सीमा बहुत बढ़ जाती है और कोई भी व्यक्ति ऐसी संपत्ति के आधार पर
दीवानी व्यवहार तो करता ही है, उस आधार पर हुंडी भी लिख सकता
है। जब सबकुछ केवल डिजिटल रहे तो देनदारी-लेनदारी केवल अभासी रहेगी। यह माया नहीं
तो क्या है?
आजकल बेईमानी आधारित कई व्यावसायिक संस्थाओं के स्वरूप बने हैं, जिसमें उसके अंशधारक लाभ के लिए तो हकदार होते हैं घाटा होने पर क्षतिपूर्ति
के लिए जिम्मेवार नहीं होते। माना कि 5000 धनराशि और 1000 शेयर वाली 100 लोगों की एक कंपनी है। वह उन
व्यक्तियों से अलग एक व्यक्ति हो जाती है। उससे कारोबार शुरू हुआ। इसने 2000 रूपए का कर्ज भी ले लिया। इसे 5000 का शुद्ध लाभ हो गया।
वह लाभ तो शेयर धारकों को मिल जाएगा लेकिन यदि 10000 का घाटा हो जाए तो क्या
5000 की कुल संपत्ति के बाद शेयर धारकों से उनकी निजी संचित
संपत्ति से क्षतिपूर्ति की जाती है? या सभी शेयर धारकों को
दीवालिया घोषित किया जाता है? मुझे अपने देश की किसी ऐसी घटना
का पता नहीं है। यहां यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं बड़ी पब्लिक कंपनियों के संदर्भ में
कह रहा हूँ।
समाज जब ऐसी खुली बेईमानी/चालाकियों को स्वीकार करता हो, उसमें सारी अर्थव्यवस्था ही अनिश्चय, संभावना और अनियंत्रण का
शिकार हो जाती है।
इसे आगे बढ़ाने को सरकार तथा बाजार दोनों की भूमिका होती है। ये दोनों अपने
कपटी मायावी आचरण को सही साबित करने के लिए अजीबोगरीब मापदंड बनाते हैं और
अर्धसत्य आधारित जटिलतम जाल बुना जाता है। इसे बुनने समझने वाले अर्थशास्त्री और
संेधमार दोनों भारी लाभांश हड़पते हैं। एक दूसरे को जनता के हितों का दुश्मन और
अपने को मित्र बताते हैं। यह सब चलता रहता है लेकिन ये मायावी लोग अर्थव्यवस्था के
भीतरी बेईमानियों के विरूद्ध नहीं बोलते हैं कि -
1. क्यों मुद्रा सीधे
सोने-चाँदी की ही क्यों न कर दी जाए ?
2. सापेक्ष अवमूल्यन क्यों
न कर दिया जाए, जैसे 1000 = 1 रुपया, 1 रुपया = 10 पैसे, नोट तो ऐसे भी कम हो
जाएगा, फिर सोने-चाँदी रहने दे। न रहे मुद्रा, न बने नकली। कम से कम बड़ें नोट तो वैसे ही रहे।
3. छोट सिक्कों का मिला
नहीं कारोबार पहले भी होता था आज भी हो सकता है लेकिन उससे उतनी क्षति नहीं होती ।
इसे और गहराई तथा विस्तार में जाने के लिए विनिमय, मूल्य, आश्वासन, लाभ-हानि के सिद्धांतों का विखंडन, गैरजिम्मेदारना कृत्रिम आर्थिक व्यक्तित्व, घाटे की अर्थव्यवस्था, स्थिर मुद्रा, मुद्रार्स्फीति आदि आज के जमाने
की बात को तो समझना ही पड़ेगा। इन सारी धोखेबाजियों के बीच पिसती हुए भारतीय आम
उत्पादक जनता हजारों साल से अपना बचाव कैसे करती है, कैसे जीती है, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। मैंने अर्थव्यवस्था संबंधी ऐसे ही भारतीय
विभिन्न मानकों तथा समझ तथा लाचार पर आधारित एक पुस्तक तैयार करने का यह प्रयास
है। पहले इसे टुकड़ों में ब्लाग पर प्रस्तुत किया जायेगा फिर जरूरी होने पर
प्रकाषित भी किया जा सकता है।
भारत सदियों से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कर रहा है और रत्न, सोने आदि को संचय भी करता रहा है।
लुटेरे आक्रमण कर लूटते रहे हैं, फिर भी हमारा स्वर्ण भंडार खाली
नहंीं होता क्योंक हम कुछ न कुछ निरंतर बेंच कर स्वर्ण खरीदते रहते हैं क्योंकि
अनुभवी शिल्पी और व्यापारियों वाला यह देश जानता है कि सोना अन्य की तुलना में
सर्वाधिक मान्य तथा मुसीबत में भरोसे वाला है। भारत में पहले दो पर ही भरोसा किया
जाता था- गाय और सोना।
आशा है अपने देश के मन और धन को समझने में मेरे इस प्रयास से कुछ न कुछ सुविधा
जरूर होगी।
रवीन्द्र पाठक
मुद्रा माया का स्वरूप
मुद्रा रूपी माया निम्नलिखित अनिश्चयों पर आधारित होती है- मूल्य निर्धारण, मानकी करण, विश्वास एवं धोखा। इनका विश्लेषण बारी-बारी से करना
होगा।
मूल्य निर्धारण - यह एक सापेक्ष प्रक्रिया है। मूल्य निर्धारण कौन करे? कैसे हो? यहीं से बेईमानी और पक्षपात का आरंभ होता है। पाप के
2 व्यापक आधार माने गए हैं- छल और बल। सभी संस्कृतियों में
इसे मुख्य/गौण भेद से स्वीकार किया जाता है। मुझे किसी आपवादिक समाज या संस्कृति
की जानकारी नहीं हैं, जहाँ दोनों या दोनों में से कोई
भी एक, व्यवहार में आंशिक या पूर्णतः स्वीकृत न हो। भारतीय बिंबों
में कहें तो देवता और राक्षस दो समृद्ध एवं संघर्षरत परंपराएँ हैं। इनके समानांतर
यक्ष भी धनी हैं। ये देव-राक्षस दोनों के मित्र हैं। कुबेर या देशी भाषा में कारू
के पास सबसे बड़ा खजाना रहता है। अपना धन घटने पर सभी उन्हीं पर चढ़ाई करते हैं।
कुबेर यक्ष हैं। देवता छल में और राक्षस बल में विश्वास करते हैं। यक्ष सीधी
स्पष्ट मैत्री में, दगा करने पर इनसे भयानक दंड
मिलता है, क्षमा नहीं होती।
मुद्रा के अधिष्ठाता सच पूछिए तो यक्ष एवं उसकी परंपरा के लोग हैं जो बाद में
देवों के अधीन चले गए। सांस्कृतिक संदर्भ आ गया अब आगे समझने में सुविधा होगी।
बार्टर या वस्तु विनिमय में बल प्रयोग होता है, वह भी परस्पर विवशता के
शोषण द्वारा। मूल्य जैसी कोई बात वहां नहीं है- बस इतने के बदले में इतना। वर्तमान
झारखंड एवं छत्तीसगढ़ के कुछ इलाके में नमक के बदले चिरौंजी एक मंहगा भोदभव वाला
विनिमय व्यापारी करते थे। चिरौंजी- वर्तमान मूल्य लगभग 1000 किलो का दुगना नमक 2 किलो देते थे। यह मजबूरी आधारित व्यवहार का उदाहरण हुआ।
विनिमय में मूल्य, माप एवं मुद्रा तीनों के प्रवेश
से संगठित व्यापार आरंभ होता है। आरंभ में ये तीनों अलग हैं। आज भी तीनों का स्वतंत्र
अस्तित्व है लेकिन आप थोड़ी भी सावधानी से पिछले 100 साल का पता करें तो इस 100 साल में मुद्रा एक ही साथ मूल्य, माप एवं मुद्रा तीनों
हैं।
भरोसेमंद मुद्रा
आज जितने प्रकार के
मौद्रिक कारोबार हैं, वे लगातार असुरक्षित होते जा रहे
हैं। मुद्रा धारक को भरोसा नहीं हो पा रहा
कि--
1 पता नहीं कि कब महंगाई
किती बढ़ जाए और मुद्रा का कितना अवमूल्यन हो जाए, उसकी क्रय शक्ति कितनी
कम हो जाए?
2 घर में रखी मुद्रा किस
दिन बेकार हो जाए? आप कह सकते हैं कि यह केवल
कालेधन के बारे में है लेकिन मुद्रा को बदलने में आने वाली अड़चनों के अनुभव ऐसा
नहीं बताते।
3 बैंक में रखी मुद्रा
इंटरनेटी शाजिश से अपने खाते से ही गायब हो जाए?
4 अंतरराष्ट्रीय रेटिंग
एंजेंसियां कब किस देश की मुद्रा को सस्ता और कब किसे मंहगा बना दें?
5 और तो और कैसे पता करें
कि कौन मुद्रा असली और कौन नकली है, जब विभिन्न देशों की
सरकारें ही अपने प्रतिद्वंद्वी को परेशान करने के लिए नकली मुद्रा छाप कर गुप्त
लोगों को बांटने लगें।
ये परिस्थितियां देश एवं
विदेश सभी जगह हैं। विनिमय का माध्यम मुद्रा ही जब स्वयं इतने खतरे में हो तो साफ
बात है कि पूरा विनिमय, लेन-देन और बचत सभी खतरे में चले
जाते हैं।
सामान्यतः मुद्रा के 2 रूपों के बारे में लोगों को जानकारी है- मूल मुद्रा एवं उस पर आधारित
हंुडीनुमा मुद्रा जैसे भारत में 2 से ले कर 2000 तक के नोट। इन पर आधारित अनेक प्रकार के हंुडी कारोबार होते हैं, जो द्विपक्षीय या बहुपक्षीय वायदों पर आधारित होते हैं, जैसे- चेक, ड्राफ्ट वगैरह। ये सभी निरंतर असुरक्षित होते जा रहे
हैं।
ऐसे में एक ऐसी मुद्रा
की आवश्यकता है, जो स्थिर हो, जो नकली तौर पर न बने, उसे जारी करने वाला और रखने वाला दोनो कभी भी, किसी हाल में भी
दीवालिया न हो सके, किसी की जमा पूंजी घर बैठे
रखे-रखे न बरबाद हो सके ना ही कोई अंतरराष्ट्रीय नाजायज दबाव का शिकार हो।
मैं ऐसी मुद्रा एवं ऐसी
मौद्रिक व्यवस्था के बारे में सोच रहा हूं, जो सीधे तौर पर जनता के
कब्जे में हो न कि बैंक, सरकार या अंतरराष्ट्रीय संगठनों
के। आप लोगों में से क्या किसी की इस विषय में रुचि है? क्या सोचने में सह भागी
होना चाहते हैं?
यदि हां तो कमेंट बाक्स
में सहमति और अपनी आरंभिक समझ व्यक्त कर सकते हैं।
भरोसेमंद मुद्रा 2
पहले जो भारत में
अंतर्राष्ट्रीय काराबार होते रहे, उसमें मुद्रा संबंधी व्यवस्था तो
होगी ही। वह मुद्रा भी सभी को मान्य होनी चाहिए। ऐसा तो था नहीं कि पहले बेईमान
लोग नहीं थे तो मिलावट वगैरह की समस्या से बचाना भी पड़ता होगा। राज्य भी छोटे
बड़े अनेक थे और कुछ की समयावधि भी बहुत कम होती थी। ऐसे में क्या होता होगा? और यदि आज वैसी व्यवस्था बनायी जाए तो क्या समस्या या कैसा समाधान होगा?
मुझे जो जानकारी मिली, उसके अनुसार भारत में कागजी मुद्रा नहीं थी। पाल काल तक धातु की ही मुद्राएं
थीं। मुद्रा पर राजकीय चिह्न अंकित होते थे फिर भी उनका मौलिक एवं धातुकीय रूप
वास्तविक तथा स्थिर था। मुझे तो लगता है कि मुद्रा नाम सोने की मुद्राओं से शुरू
होता था। ऐसी मुद्रा बहुत मंहगी होती थी और दैनंदिन व्यवहार में इसकी कोई आवश्यकता
नहीं थी। यह संचय तथा दूरदाज ले जाने या बहुमूल्य दान अथवा वेतन के काम आती थी।
अधिक तम रुपये भर से
दैनंदिन व्यवहार चल जाता था। रुपया मतलब चांदी का लगभग 8 ग्राम से कुछ अधिक का
सिक्का, जो हिंदी पट्टी में 1 भर माना जाता है। ‘भर’ बहुमूल्य धातु छोड़
खनिज, मसाला, वगैरह से आगे अनाज आदि
तौलने की आरंभिक इकाई होती है। तौल की इससे छोटी इकाई को फिर उसके खंडों में मापा
जाता है, जैसे आठ आना भर आदि। आज भी सर्राफा बाजार में यह आंशिक रूप
से लागू है।
सस्ती सामग्री के लिए 1 रुपया बहुत होता था, अतः उससे कम के व्यवहार के लिए
कांसे की मुद्रा होती थी, जिसे कार्षापण कहते हैं। उसके
नीचे के लिए तांबे का सिक्का कहीं होता था कहीं नहीं या वस्तु विनिमय से काम चलता
था। मावन श्रम तथा पशु श्रम के विनिमय के भी कई पेमाने थे,
जो विभिन्न
पशुओं के अनुसार तय होते थे। बैल एवं मनुष्य के श्रम के बीच के परिवर्तनीय पैमाने 1970-75 तक मेरी जानकारी में चलन में थे। योरप में शायद घोड़े के श्रम को आधार माना
जाता था। मूल आशय यह कि सोना-चांदी-कांसा-तांबे की मुद्रा बनती थी।........
अगले पोस्ट में पूरा होगा कि इसमें
--मिलावट/नकलीपन से रक्षा की क्या युक्ति बैठायी गयी
थी।
भरोसेमंद मुद्रा 3
मुद्रा में मिलावट या
नकली मुद्रा कब बनती है? तभी जब मुद्रा का बाजार मूल्य
उसके भैतिक रूप से बहुत सस्ता हो, जैसे - कागज की मुद्रा या सस्ते
धातु की मुद्रा। कागजी मुद्रा मेरी समझसे सुविधा के लिए बनी यह सही नहीं है। जैसे
ही मुद्रा के अनुपात में गोल्ड रिजर्व का सिद्धांत वस्तुतः सरकारों के द्वारा मना
जाए तो फिर नोट छापने की जरूरत ही क्यों पड़े? कम मुद्रा होने पर उसकी
क्रयशक्ति बढ़ जाती है। समस्या का समाधान स्वयं हो जाता है। एक बात और, जरा गौर करें कि एक रुपये से अधिक के सारी मुद्राएं वस्तुतः मुद्रा नहीं, वे तो एक सरकारी हुंडी के समान हैं। मैं ने हुंडी रोकने की बात नहीं की है।
धातु की मुद्रा के बारे
में यह भी एक भ्रम है कि वह वजनी होती है। आज का उदाहरण लें या पहले का, सोना कितना वजनी? यह बात तो इस पर निर्भर करता है
कि आप किस नोट से उसे तौलते हैं। नोट की छपाई पर जितना खर्च आता है, उससे बहुत कम यदि एक बार सोने या किसी स्थिर/उचित धातु पर सरकारी मुहर लगाने
पर खर्च कर दिया जाए तो परिणामतः वह मुद्रा अपने मूल द्रब्य के बाजार भाव से महंगी
हो जाएगी। तब कोई भी उसका प्रतिरूप क्यों बनायेगा? अभी भी नकली मुद्रा नहीं
नकली हुडियां बन रही हैं। ये नकली हंुडियां चाहे नोट हों,
चेक, ड्राफ्ट या किसी रूप में, उन्हीं में आसानी से मिलावट होती
है। जैसे ही मुद्रा मूल धातु की बनेगी सारी समस्या समाप्त।
रही बात चलन की, तो मुद्रा संबंधी गड़बड़ी सबसे अधिक अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में ही होती है।
यदि भारत की मुद्रा स्थिर हो जाए, तो उससे खुले आम किसी को कोई
आपत्ति नहीं होगी।
असली पाप तो ‘सरप्लस इकोनामी’ नहीं, ‘सरप्लस करेंसी’ वाली सरकारी पाप दृष्टि की है, जो आज व्यापक है। ‘सरप्लस करेंसी’ अनजान लोगों के लिए याद दिला दूं
- ‘सरप्लस करेंसी’ मतलब बिना गोल्ड रिजर्व
रखे, नोट छापते जाना। इस खेल में सरकार,
बैंक एवं
अनेक केन्द्रीय मजदूर संगठन भारत में सभी एक साथ खेलते रहे। इस पर भी लिखूंगा। इन
संगठनों और कामरेडों का नाटक और इनकी असली/नकली क्रांतिकारिता का तो लोगों को पता
ही नहीं। ऐसी मूल समस्याओं की पहचान तथा विकल्प दिए बगैर हम समाधान कैसे ढूंढ
सकेंगे?
इसलिए सभी प्रश्न सादर
शिरोधार्य हैं।
भरोसेमंद मुद्रा 4
जैसे आज की तारीख में
बाजार सीधे-सादे ढंग से केवल मांग-आपूर्ति के नियम से नहीं चलता। मूल्य का
निर्धारण केवल इसी आधार पर नहीं होता। कृत्रिम मांग उत्पन्न करना, भंडारण के माध्यम से आपूर्ति रोकना, सरकारों द्वारा मूल्य
नियंत्रण, कर छूट ही नहीं अंशदान-अनुदान आदि के माध्यम से भी किसी
वस्तु के मूल्य को प्रभावित किया जाता है। ऐसा काम पूर्णतः पूंजीवादी तथा मिश्रित
अर्थ व्यवस्था वाली दोनो सरकारें करती हैं।
यहां तक की बात तो अब
बहुत लोग जान गये हैं फिर भी अनेक लोग व्याज दर नियंत्रण,
जमा-साख
अनुपात, सरप्लस करेंसी, कराधान, ऋण नीति, सरकारी परिवहन नीति, जैसे- रेल भाड़े का
समेकीकरण आदि उन उपायों को नहीं जानते, जिनके द्वारा सरकारें
बाजार में कृत्रि़म मांग उत्पन्न कराती हैं और अर्थव्यवस्था को अपनी मर्जी के
अनुरूप पक्षपात पूर्वक नियंत्रित करती हैं।
इनमें मुद्रा से संबंधित
मुख्य चार मामले हैं- 1. बराबर मूल्य के सुरक्षित सोने के
बगैर करेंसी जारी करना, 2. हुंडी रूपी नोट/करेंसी को भी
मुद्रा घोषित कर देना, 3. इस प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न
मुद्रास्फीति को गैर सरकारी हुडियों, जैसे चेक, ड्राफ्ट, बांड वगैरह से उत्पन्न मुद्रास्फीति के साथ मिला कर
बताना, 4. धीरे-धीरे बैंक एवं मुद्रा के मुद्रण को भी बाजार के हवाले
करते जाना ताकि मुद्रा अबूझ बन जाए और शेयरबाजार की घपले बाजी से ही बड़े
पूंजीपतियों, दलालों के हाथ चली जाए।
यदि मुद्रा धातुरूपी हो
और अपने बाजार मूल्य से बस थोड़ी ही अधिक हो तो इतनी घपले बाजी नहीें हो सकती।
आंरभ में थोड़ी कठिनाई हो सकती है, खाश कर सोने के बाजार मूल्य के
संबंध में। जैसे ही सरकार अपनी स्वर्णनीति को पारदर्शी एवं सोने के आयात को भारी
कर से मुक्त कर दे, अनेक माफियाओं, आतंकवादियों का खेल ही खत्म हो जाए। इन पर नियंत्रण में जो खर्च होता है क्या
सोने पर आयात के कर से लाभ अधिक होता है? मेरे अंदाजे से उत्तर ‘नहीं’ है क्योंकि यह मसला सामाजिक रार्ष्टीय सुरक्षा तक जाता है।
सोना बिना जमा किए नोट
छापना सरप्लस करेंसी है। इससे तुरत मुद्रा की क्रयशक्ति कम हो जाती है। इसे लगभग
गोपनीय ढंग से किया जाता रहा। फिर भी इसकी पहली जानकारी रिजर्व बैंक तथा भारत
सरकार के केन्द्रीय कार्यालयों के कर्मियों को पहले मिलती रही, फिर सभी बैंक कर्मियों को। मजदूर नेता गण इस पर हंगामा करते कि इतनी मिलावट की
क्षतिपूर्ति होनी चाहिए, यह तो तनख्वाह कम करने का काम हो
गया। इससे महंगाई बढ़ेगी ही। इस क्षतिपूर्ति को सच में तो सरप्लस करेंसी की
क्षतिपूर्ति कहना चाहिए था लेकिन सरकार तथा सभी राजनैतिक यूनियनें इसे महंगाई भतता
कहती रहीं। अनेक वामपंथी या दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री झूठी बहस करते। आंदोलन होता, क्रांति के नारे लगते और तय होता कि यदि मुद्रा में 10 प्रतिशत मिलावट हुई तो
किस प्रकार के कर्मचारी को कितना महंगाई भत्ता मिले। सरकारी अफसर एवं नीति
निर्माता दबाव बनाए रखते कि कुछ न कुछ गोलमाल अवश्य होना ही चाहिए। किसी भी हाल
में केन्द्रीय सरकार एवं बैंक के कर्मियों को 8 प्रतिशत से अधिक भत्ता
न मिले एवं अन्य को 2-3 बार की मिलावट के बाद केवल एक
बार की क्षतिपूर्ति हो।
अभी पर्दे के पीछे की
कथा जारी है......................