गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

देशी अर्थशास्त्र - मुद्रा एवं माया

देशी अर्थशास्त्र - मुद्रा एवं माया
मुद्रा माया का प्रगट रूप है। माया मतलब न पूरी तरह झूठ, न पूरी तरह सच। कब धोखा दे दे, क्या पता? दिखाई-सुनाई कुछ पड़े और सच में तो कुछ और हो। मुद्रा की यही हालात है। अंग्रेजी में मनी और करेंसी कहते हैं। भारत में मुद्रा। भारत में मुद्रा कहने का मतलब तो मुझे पता है। करेंसी क्यों कहते हैं या नोट क्यों कहते हैं ठीक से नहीं पता। शायद नोट मतलब कोई छोटी लिखा पढ़ी हो, इसलिए नोट कहते हैं। रिर्जव बैंक के गवर्नर साहब एक नोट लिखते हैं - छोटी हुंडी कि मैं इतने रुपए दूँगा। आजकल लोग नोट ही देखते हैं, चेक, ड्राफ्ट वगैरह अंग्रेजी नाम वाले प्रकार भी कुछ लोगों को पता है। यह सब हुंडी और उसके मूल सिद्धांत पर विकसित है।
पहले तो ऐसा था कि मुद्रा कि जिम्मेवारी राजा पर और हुंडी की जिम्मेवारी सेठ पर होती थी। सेठ मतलब ऐसा धनी, जिसके यहाँ नगद भी पर्याप्त रहता हो। हुंडी का अविष्कार रास्ते में नगदी लूटे जाने के भय से और धातु की मुद्रा की भार से बचने के लिए किया गया था।
जिस किसी प्रकार से राजा के द्वारा अपनी पहचान वाली आकृति उकेरनी पड़ती थी, उस पक्की पहचान को मुद्रा कहते हैं। राजा, मंत्री से लेकर हर बड़े जिम्मेवार आदमी की शासकीय मुद्रा होती थी। इसे मुहर भी कहते हैं। इस प्रकार मुद्रा, मुहर, नोट वगैरह आए। करेंसी का खेल अलग है, उस पर दूसरी किश्त में।
इस व्यवहार में राजा एवं सेठ की क्षमता तथा विश्वसनीयता ही मूल बात है। दोनों में से कोई भी दीवालिया या धोखेबाज हो जाए तो मुद्रा का कोई मतलब नहीं क्योंकि ये मांगने पर देंगे ही नहीं। सेठ दीवालिया हो सकता है लेकिन राजा नहीं क्योंकि वह संप्रभु है, उसका राज्य की पूरी संपत्ति पर हक है, केवल राजकोश पर ही नहीं अतः उसके दीवालिया होने का प्रश्न ही नहीं। आज भी सेठ, निगम, वगैरह दीवालिया हो जाते हैं, ऐसे में किसी भी रूप में लिखी गई हंुडी, जैसे- नोट, चेक, डॉªफ्ट वगैरह बेकार। कुछ हुंडिया त्रिपक्षीय होती हैं, जैसे- ड्राफ्ट, बैंकर्स चेक वगैरह इसलिए मजबूत बिचौलिए की व्यवस्था रहती है, जैसे- बैंक।
खैर तो फिर आएं माया पर। आज का कागजी नोट, सिक्के धातुवाले ये सच्चे हैं या झूठे? अचानक झूठे कैसे हो गए? इन्हें मानने की मजबूरी क्या है? कैसे बचें इनकी जाल से? ऐसे अनेक प्रश्न हमारे मन में आते हैं।
कोई अनपढ हो तो उसकी मजबूरी है ही। थोड़ा बहुत पढ़े-लिखे भी फंसते ही हैं और आधुनिकता की अंधी नकल करने वाले बिरले ही बचते हैं वे पूरी तरह फंसते हैं। तब कौन नहीं फसता? पहला, जो इस माया के खेल का आयोजक होता है और दूसरा वह चालाक, जो खेल की बारीकी को भांप कर वख्त पर विदा ले लेता है, पहला है मायापति दूसरा मायावी। इस माया से बचने का उपाय है- माया को जान लेना, असली और मोटे तौर पर। तब उसका बंधन कमजोर रहेगा, तब उसे तोड़ सकेंगे।
सोना-चाँदी या अन्य कोई भी कीमती धातु अथवा जमीन जायदाद को भी लोग माया कहते हैं। उसका मतलब होता है कि व्यक्ति विशेष उस पर कब तक कब्जा रख सकता है और क्या उपयोग कर सकता है, भले ही वह अपने को मालिक समझता हो। जबरन नियंत्रण, दूसरे को वंचित रखने के निजी एवं व्यवस्थागत-कानून-समस्या से संरक्षित बल पर निर्भर होता है। राजा, चोर, लुटेरा, धोखेबाज एवं दुर्घटना नियंत्रण के विघ्न हैं और तन-मन की भोग क्षमता का घटते जाना भोग में निजी विघ्न है। इसलिए सभी धनों को माया या अन्य प्रकार से संदेहस्पद बताया गया। मुद्रा का मामला इससे बिल्कुल अलग है, वह अपने स्वरूप में ही माया है।
सीधा केन्द्रीय मामला है कि मुद्रा मूल्य पर आधारित है। पहले वस्तु के मूल्य में हेराफेरी होती थी, मुद्रा विनिमय का माध्यम थी, सोने-चाँदी के रूप में, सोना-चाँदी का भंडार बनाकर उसके समानुपाती नोट/सिक्का छाप कर। इसके बाद जैसे ही कागज की हुंडी आई-नोट के रूप में सरकार के द्वारा जारी या अन्य व्यक्तियों अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा, मुद्रा राजा, बाजार एवं व्यक्ति के नियंत्रण से बाहर हो गई। ऐसी स्थिति इसलिए बन पाती है क्योंकि हुंडी हर किसी भी मुद्रा के अभाव में अन्य संपत्तियों के बल पर उनके मूल्य से कम या बराबर सीमा में जायज तौर पर और केवल साख या संभावना के बल पर नाजायज तौर पर वास्तविक मुद्रा से हजारों गुना अधिक मात्रा में विनिमय के माध्यम के रूप में काम करती रहती है।
जब तक नगद भुगतान की स्थिति न आ जाए तब तक जाँच ही कैसे हो? इस प्रकार केवल मूल्य और विश्वास पर अर्थव्यवस्था चलती रहती है। ऐसी स्थिति अनेक लोगों के बीच निरंतर गतिशील अवस्था में बनी रहती है अतः राज्य या उसकी नियामक एंजेंसियों के नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
जैसे ही हम नगदी रहित व्यवस्था की ओर बढ़ते हैं तो ध्यान में रखें कि ईमानदार हुंडी हुडी लेखक की संपूर्ण संपत्ति के बराबर तक जारी की जा सकती है और बेईमान हुंडी या संभावना आधारित हुंडी तो अनंत तक लिखी जा सकती है। संपत्ति की सीमा में साख, संभावना, बौद्धिक संपत्ति, पेटेंट अधिकार, व्याज, मुनाफा आदि को रखते ही संपत्ति की सीमा बहुत बढ़ जाती है और कोई भी व्यक्ति ऐसी संपत्ति के आधार पर दीवानी व्यवहार तो करता ही है, उस आधार पर हुंडी भी लिख सकता है। जब सबकुछ केवल डिजिटल रहे तो देनदारी-लेनदारी केवल अभासी रहेगी। यह माया नहीं तो क्या है?
आजकल बेईमानी आधारित कई व्यावसायिक संस्थाओं के स्वरूप बने हैं, जिसमें उसके अंशधारक लाभ के लिए तो हकदार होते हैं घाटा होने पर क्षतिपूर्ति के लिए जिम्मेवार नहीं होते। माना कि 5000 धनराशि और 1000 शेयर वाली 100 लोगों की एक कंपनी है। वह उन व्यक्तियों से अलग एक व्यक्ति हो जाती है। उससे कारोबार शुरू हुआ। इसने 2000 रूपए का कर्ज भी ले लिया। इसे 5000 का शुद्ध लाभ हो गया। वह लाभ तो शेयर धारकों को मिल जाएगा लेकिन यदि 10000 का घाटा हो जाए तो क्या 5000 की कुल संपत्ति के बाद शेयर धारकों से उनकी निजी संचित संपत्ति से क्षतिपूर्ति की जाती है? या सभी शेयर धारकों को दीवालिया घोषित किया जाता है? मुझे अपने देश की किसी ऐसी घटना का पता नहीं है। यहां यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं बड़ी पब्लिक कंपनियों के संदर्भ में कह रहा हूँ।
समाज जब ऐसी खुली बेईमानी/चालाकियों को स्वीकार करता हो, उसमें सारी अर्थव्यवस्था ही अनिश्चय, संभावना और अनियंत्रण का शिकार हो जाती है।
इसे आगे बढ़ाने को सरकार तथा बाजार दोनों की भूमिका होती है। ये दोनों अपने कपटी मायावी आचरण को सही साबित करने के लिए अजीबोगरीब मापदंड बनाते हैं और अर्धसत्य आधारित जटिलतम जाल बुना जाता है। इसे बुनने समझने वाले अर्थशास्त्री और संेधमार दोनों भारी लाभांश हड़पते हैं। एक दूसरे को जनता के हितों का दुश्मन और अपने को मित्र बताते हैं। यह सब चलता रहता है लेकिन ये मायावी लोग अर्थव्यवस्था के भीतरी बेईमानियों के विरूद्ध नहीं बोलते हैं कि -
1. क्यों मुद्रा सीधे सोने-चाँदी की ही क्यों न कर दी जाए ?
2. सापेक्ष अवमूल्यन क्यों न कर दिया जाए, जैसे 1000 = 1 रुपया, 1 रुपया = 10 पैसे, नोट तो ऐसे भी कम हो जाएगा, फिर सोने-चाँदी रहने दे। न रहे मुद्रा, न बने नकली। कम से कम बड़ें नोट तो वैसे ही रहे।
3. छोट सिक्कों का मिला नहीं कारोबार पहले भी होता था आज भी हो सकता है लेकिन उससे उतनी क्षति नहीं होती ।
इसे और गहराई तथा विस्तार में जाने के लिए विनिमय, मूल्य, आश्वासन, लाभ-हानि के सिद्धांतों का विखंडन, गैरजिम्मेदारना कृत्रिम आर्थिक व्यक्तित्व, घाटे की अर्थव्यवस्था, स्थिर मुद्रा, मुद्रार्स्फीति आदि आज के जमाने की बात को तो समझना ही पड़ेगा। इन सारी धोखेबाजियों के बीच पिसती हुए भारतीय आम उत्पादक जनता हजारों साल से अपना बचाव कैसे करती है, कैसे जीती है, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। मैंने अर्थव्यवस्था संबंधी ऐसे ही भारतीय विभिन्न मानकों तथा समझ तथा लाचार पर आधारित एक पुस्तक तैयार करने का यह प्रयास है। पहले इसे टुकड़ों में ब्लाग पर प्रस्तुत किया जायेगा फिर जरूरी होने पर प्रकाषित भी किया जा सकता है।
भारत सदियों से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कर रहा है और रत्न, सोने आदि को संचय भी करता रहा  है। लुटेरे आक्रमण कर लूटते रहे हैं, फिर भी हमारा स्वर्ण भंडार खाली नहंीं होता क्योंक हम कुछ न कुछ निरंतर बेंच कर स्वर्ण खरीदते रहते हैं क्योंकि अनुभवी शिल्पी और व्यापारियों वाला यह देश जानता है कि सोना अन्य की तुलना में सर्वाधिक मान्य तथा मुसीबत में भरोसे वाला है। भारत में पहले दो पर ही भरोसा किया जाता था- गाय और सोना।
आशा है अपने देश के मन और धन को समझने में मेरे इस प्रयास से कुछ न कुछ सुविधा जरूर होगी।
रवीन्द्र पाठक


रविवार, 4 दिसंबर 2016

देशी अर्थशास्त्र को समझने की मेरी मजबूरी

देशी अर्थशास्त्र 2
देशी अर्थशास्त्र को समझने की मेरी मजबूरी 
देशी अर्थशास्त्र, अर्थव्यवस्था और उसकी समझ तथा उसके प्रति विश्वास पारंपरिक है, न कि यह कोई अतीतकालीन बात है। मेरा गांव किसी भी नगर पालिका से कम से कम 40 की.मी. की दूरी पर एक नदी के किनारे बसा हुआ, जमाने से व्यावसायिक गतिविधियों वाला देहाती गांव है। मैं ऐ से ही गांव के एक किसान परिवार में पैदा हुआ, जो ग्रामीण स्तर पर खेती के साथ-साथ चिकित्सा, अध्ययन-अध्यापन, एवं ब्राह्मण जातियों में प्रचलित अन्य कार्यों के साथ राजनीति तथा समाज सेवा में भी लगा रहा। मेरे गांव में लगभग 19 जातियां हैं, 2 धर्म तथा कई हिन्दू संप्रदायों के लोग। इसलिए मुझे विविधता सहज उपलब्ध हो गई। साथ ही पारंपरिक व्यवसायों के किस्से एवं उनके दुख-दर्द भी मालूम होते रहे।
एक उठापटक वाले मध्यम वर्गीय परिवार में होने के कारण हम लोगों ने खेती भी की है और एक समय में अपने प्रकार का सफल किसान भी रहा हूं। स्नातकोत्तर के बाद एक बार दिल लगा कर खेती की और पर्याप्त उत्पादन के बाद भी उसमें होने वाले लगातार घाटे को समझ पाने की तलाश में सफल-विफल किसानों से ले कर कई धारा के किसान नेताओं, पत्रकारों, आढ़तियों एवं कालेज के प्रोफसरों से समझने की कोशिश करता रहा। इस बीच कई बार कोई फार्मूला मिलते ही प्रफुल्लित हो जाता और अपने घर परिवार में  अभिभावकों को उसका माहात्म्य भी सुनाता। मुझसे मेरी पिछली पीढ़ी के लोग केवल इस तर्क के साथ असहमत हो जाते कि अपने गांव या उसके आस-पास क्या किसी ने ऐसा किया है, जो हम करें?
इस क्रम में जब मेरे समय के नए जमाने के प्रसिद्ध किसान नेता, जो अब पुराने जमाने वाले हो गए श्री शरद जोशी की किताब पढ़ी तब यह पता चला कि भारत में किसान और उनके परिवार के लोग दिनानुदिन गरीब क्यों होते जा रहे हैं। मेरे पिता जी अब केवल कथाशेष चीनी मिलों में किसानों के बकाए का मुकदमा लड़ रहे थे, जो वे जीत कर भी हार गये। भुगतान तो नहीं का नहीं ही हुआ।
चाहे चावल का थोक व्यापार हो या लकड़ी, बांस का या धातु का अथवा दवा बनाने के लिए कच्चे सामान का, चाहे वह मछुआरों की सहयोग समिति का मामाला हो या नाविकों के संगठन का, अथवा किसान सहयोग समिति पर माफियागिरी एवं जातीय वर्चस्व स्थापित करने का, सारे अंदरूनी किस्से चाहे-अनचाहे सुनता रहा। प्रेस चलाया, प्रकाशन का व्यवसाय किया, लघु पत्रकारिता की। यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यह स्वयं भोगा हुआ या भोगे हुए अपने स्वजनों, परिजनों के अनुभव पर आधारित है, किसी एक किताब की पीएच.डी. वाली थीसिस का कोई अंश नहीं है। समझने की उलझनें जब बढ़ीं तो पूरे मघ्य भारत के विभिन्न प्रायोगिक केन्द्रों का दौरा भी किया और समझने की कोशिश की। खादी, ग्रोद्योग के प्रयोग, सरकारी असरकारी, बिना कमीशन मिशन वाली खादी से मोदीब्रांड खादी समझने के लिए, महाराष्ट्र-गुजरात भी गया। दक्षिण के रेशमपालक गांवों की यात्रा की। बहुत थोड़ा लेकिल हिमालय के कुछ गांवों में भी गया।
सवाल यह हो सकता है कि इतना सब होने के बाद तो मुझे भारत के आधुनिक आर्थिक प्रयोगों  के पक्ष-विपक्ष पर लिखना चाहिए था। मैं देशी अर्थ शास्त्र को ले कर क्यों लिखने बैठ गया? इस पर खुलाशा अगले पोस्ट में।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

देशी अर्थशास्त्र

परंपरा
आज अर्थ शास्त्र शब्द से जो मतलब निकला जाता है, वह है-आदम स्मिथ वाला पाश्चात्य अर्थशास्त्र, जो इकोनोमिक्स का तर्जुमा है। इससे एक सर्वथा झूठी समझ बनी है कि इस इकोनोमिक्स के पहले भारत में न अर्थशास्त्र था, न वैसी कोई गहरी समझ या व्यवस्था थी। यह समझ एक ओर अपने समाज एवं परंपरा के प्रति हिकारत का भाव विकसित करती है तो दूसरी ओर यह उलझन भी पैदा करती है कि भारतीय समाज की न केवल पुरानी बल्कि कई आधुनिक गतिविधियां भी आध्ुनिक दृष्टि से समझ में नहीं आतीं। उदाहरण के लिए गाय या भैंस को पालने की सामाजिक स्वीकृति के बाद भी कुछ जातियों को दूध बेंचने की छूट थी और कुछ को नहीं, जबकि दूध बेंचने से प्रतिबंधित जातियां प्रभावशाली और खेती-पशुपालन का रोजगार करने वाली जातियां हैं। 
आधुनिक शिक्षा में जब इकोनोमिक्स का इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें अपवाद स्वरूप भले ही बताया जाता हो कि भारत में भी अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक गतिविधियों पर गहन चिंतन एवं उन्हें नियंत्रित करने का काम हुआ है, उसे इकोनोमिक्स के इतिहास में स्थान नहीं दिया जाता क्योंकि ऐसा करने पर तो प्रचलित सारी धारणाएं ही भरभरा कर बिखर जाएंगी और इस अहंकार की तुष्टि संभव नहीं होगी कि योरप ही भौतिक ज्ञान का एक मात्र स्रोत और केन्द्र रहा है, भारत ने भले ही अध्यात्म के क्षेत्र में कुछ किया हो। ना ही इस बात का आधार बन सकेगा कि योरोपीय इकोनोमिक्स पढ़ने वालों को बड़ा पद और ऊंची तनख्वाह मिलनी चाहिए।
इस बेईमानी के कारण योरप प्रभावित आज के अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न भी पैदा नहीं होता कि आखिर उत्तर भारत के मौर्य वंश एवं दक्षिण के चोल-चालुक्य जैसे बड़े राज्यों के समय बिना किसी शास्त्र या सिद्धांत के राजकीय और सामाजिक व्यवस्था चलती कैसे होगी? एक अजीब सा झूठा मुहावरा चलाया गया है कि ‘भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है’ और उससे आगे बढ़ कर बात पीछे कहा जाता है कि ‘भारत की ग्रामीण आबादी का 70 या 80 प्रतिशत भाग केवल खेती का काम करता रहा है।’ यदि इसे ही सच मान लिया जाए तो भारत पर लगातार आक्रमण करने वाले लुटेरे क्या अनाज लूटने या जानवर लूटने आते थे? पुराने खंडहर एवं इतिहास के अन्य स्रोतों से क्या लोहा, लकड़ी या अन्य धातु से बनी कोई सामग्री नहीं मिली? यहां के लोग कपड़ा नहीं पहनते थे या चिकित्सा का कोई शास्त्र यहां नहीं था? यहां के बड़े व्यापारी क्या बेंचने दूरदूर तक जाते थे? इतनी बड़ी मात्रा में सोना बार बार इकट्ठा कैसे हो जाता था? ऐसे अनेक प्रश्नों का कोई उत्तर आपको आधुनिक इकोनोमिक्स पढ़ने वाले नहीं दे पायेंगे। छोडि़ए पुरानी बातों को कुछ देर के लिए एक हाल-फिलहाल वाला सवाल है कि जब पश्चिम भयावह मंदी की चपेट में आया उस समय भारत में ऐसा क्या था कि यहां के बाजार पर उसका कोई खाश असर नहीं हुआ? सवाल बहुत सारे हैं।
केवल राज्य के साथ मिल कर या कारपोरेट लूट के अंग के रूप में व्यापार या नौकरी नहीं करनी हो, भारत के लोगों के हित में आर्थिक चिंतन या गतिविधि करनी हो और इन प्रश्नों का यदि उत्तर पाना हो तो देशी अर्थ शास्त्र को समझना ही होगा। आप यदि पूर्णतः शहरी हैं तो अपनी पूर्व धारणा को छोड़ देशी सत्य के लिए उदार बनना होगा और यदि आप देहाती क्षेत्र के हैं तो अपने बचपन से वर्तमान तक में एक क्रमबद्ध स्मृति यात्रा करते ही अनेक बातें सरलता से समझ में आने लगेंगी। उस आधार पर अपनी पिछिली पीढि़यों की स्थिति का भी आप अंदाजा आसानी से लगाकर परंपरा की परिवर्तनशील निरंतरता को सहज समझ सकेगे। 
इस क्रम में भारत की खाशियत विविधता एवं उसमें एकता को तो देखना पहचानना ही होगा। यह एैसा विषय है कि आप नहीं कह सकते कि आप इसे परिचित नहीं है या इसकी आपको कोई जरूरत नहीं है। उलटे आप भी रोजमर्रे में इसकी समस्या से जूझते-जुझाते, कुंढते-हंसते या अपनी चालाकी पर मंद-मंद मुस्कराते हुए अथवा अट्टाहास करते हुए जीते हैं। 
मैं अपने पश्चिम प्रेमी वामपंथी और दक्षिण पंथी दोनो प्रकार के मित्रों से उनके इस प्रचार के विरुद्ध जाने के लिए क्षमा भी नहीं मांग सकता कि भारत में तो कोई ज्ञान-चिंतन कभी था ही नहीं, न आज की समस्याओं की व्याख्या करने की उसमें क्षमता है, फिर भला समाधान कैसे मिलेगा? सच यह है कि आपने तो यह शब्दिक पाखंड ही इसलिए किया ताकि हमारी विशाल ज्ञान राशि और वांग्मय में आपके मौलिक होने का दावा ही न डूब जाए। कई अन्य कारण भी हैं, फिलहाल हम रुकेंगे। 
इसके लिए भारतीय आर्थिक चिंतन-ज्ञान परंपरा में एक यायावरी करते हैं और देखते हैं कि कहां क्या मिल जाता है और किसके काम का, उसमें से क्या निकलता है? आप साथ देंगे तो मेरी यात्रा का एकांत मुझे कम सतायेगा। 
आप लोगों से पूर्णतः भिन्न मुझमें ऐसी कोई मौलिकता नहीं है जो कुछ नया कहने की औकात दे सके। इसीलिए मुझे अपने पर भरोसा है कि इस कथा में कुछ न कुछ आपके लिए भी अपना कहने-समझने के लायक जरूर मिलेगा।
यह शृंखला मेरे ब्लाग बहुरंग और फेसबुक पर दोनो जगह उपलब्ध रहेगी। जो लोग पूरे या किसी छूटे हुए अंश को पढ़ना देखना चाहें, वे मेरे ब्लाग बहुरंग के लेवेल देशी अर्थशास्त्र को क्लिक कर एक साथ सारे पोस्ट देख सकेगे।

शनिवार, 10 सितंबर 2016

भाषा बोध 1

वागर्थ 4
भाषा बोध -
अन्विताभिधान वाद और अभिहितान्वय वाद
प्रश्न यह है कि यह जो मुंह से निकलने वाली बैखरी वाणी है, जो निकलते ही बिखर जाती है, उससे शब्द अर्थ के बीच के संबंध का बोध किस तरह होता है?
लोगों ने इस पर ध्यान दिया तो पहली बात यह समझ में आई कि गाय शब्द और उस चौपाया पशु के बीच का जो सबंध है कि यह गाय है, ऐसे संबंधों की समझ धीरे-धीरे बचपन से शुरू हो कर बढ़ती है। इस संबंध को भारतीय लोगों ने एक तकनीकी नाम दिया ‘अन्वय’। जब तक संबंध नहीं समझ में आए तब तक यदि कोई दूसरा व्यक्ति किसी भी भाषा के शब्द का उच्चारण करे, उसे समझ पाना नामुमकिन है। इस पर लगभग सहमति रही कि हां, यह तो जरूरी है।
इसके बाद प्रश्न यह उठा कि शब्द अर्थ के बीच के संबंध को बचनप में समझा कैसे जाता है? उसमें भी प्रश्न उठा कि बच्चा/बच्ची पहले शब्द एवं उसके अर्थ के बीच के संबंध को समझते हैं या सीधे वाक्य एवं उसके अर्थ को? यह मामला आज बहुत लंबे समय से आज तक विवादास्पद बना हुआ है। ऐसा नहीं है कि आप यदि चाहें तो गौर फरमा कर इसे समझ नहीं सकते लेकिल न लोग प्रयास करते हैं न सत्तावादी लोग इस समझ को विकसित होने देते हैं कि यदि सामान्य मनुष्य अपने सामान्य ज्ञान से एवं तर्क से ऐसे रहस्यमय लगने वाले प्रश्नों का हल खोजने लगे तो वह मानव सभ्यता कही जाने वाली व्यवस्था के लिए मुसीबत हो जायेगा।
दर्शन, राजनीति, धर्म, शिक्षा पद्धति, योग साधना जैसे विषयों की प्रयोग शाला किश्म के एक उत्पाती परिवार तथा क्षेत्र में मैं बदकिश्मती से पैदा हो गया। उसमें भी दुर्योग से मैं एक प्रयोग के पात्र के रूप में चुन लिया गया। दर्द यह कि किस प्रयोग का क्या परिणाम आ रहा है, जो मुझ पर हो रहा है, यह मुझसे कोई पूछता ही नहीं था। उलटे मनोनुकूल परिणाम न आने पर प्रयोग कर्ता मेरी ही पिटाई करने लगते। इसलिए मैं जानता हूं कि सच में होता क्या है, भले ही शिक्षाशास्त्रियों को बात समझ में न आई हो। मुझे तब सबसे अधिक मजा आता था जब सिखाने वाले आपस में लड़ जाते और मेरी शिक्षा बंद कर दी जाती। मेरी किताबें, कापियां स्लेट वगैरह वे ही फाड़ देते या फेंक देते। यी अपने आप में एक रोचक लेकिन मेरे लिए दर्दनाक मामला रहा है।
जो लोग चलनवादी और व्यवस्थावादी हैं उनका वर्णमाला, व्याकरण, शब्दकोश, सही उच्चारण आदि के प्रति अनुराग होता है। बच्चा चाहे जैसे सीखता हो ये अपने इन साधनों के गौरव को कम होने नहीं देना चाहते। ये सिखाते भी उसी तरह हैं और उसे ही न केवल सही वरन सत्य मनवाने के लिए हर जोर आजमाइश को उचित मानते हैं, मारपीट तक को। हमारे शिक्षण संस्थान तथा तथा शिक्षक लगभग इन्हीं की गिरफ्त में हैं। इनकी मान्यता है कि पहले वर्णमाला, फिर शब्द, फिर व्याकरण सहित वाक्य के माध्यम से शब्द और अर्थ के बीच के संबंध का बोध होता है।
ये मूर्ख पंडित निरक्षरों के भाषा बोध की क्या व्याख्या करेंगे?
आज इतना ही चर्चा जारी रहेगी

बुधवार, 7 सितंबर 2016

वर्णमाला एवं शब्दार्थ

वर्णमाला एवं शब्दार्थ संबंध
भारत देश अन्य देशों से इस मामले में भिन्न है कि यहां जितना ध्यान शब्दों पर दिया गया, उससे कई गुना अधिक ध्यान वर्णों के स्वरूप और उनकी विशेषताओं पर दिया गया। बहुत थोड़े अंतर से भारतीय भाषाओं की वर्णमाला लगभग एक है। मैं यहां उर्दू को नहीं गिन रहा। वर्णमाला का विशेष महत्व बीज मंत्रों की संरचना या धारिणी मंत्रों में होती है। उस परिप्रेक्ष्य में वैदिक, बौद्ध, जैन सभी एक हैं। वर्ण अर्थहीन नहीं होते। वे स्वयं नाम एवं अर्थ देानो हैं।
कुछ शब्द सुनने में एक वर्ण लगते हैं लेकिन वे पूरे शब्द होते हैं, जैसे- ‘क’, जिसका अर्थ होता है- जल, ‘ख’- जिसका अर्थ होता है- आकाश, वगैरह लेकिन सभी वर्णों के इसी तरह अर्थ भी हों यह जरूरी नहीं है। एक या एक से अधिक वर्णों के योग से शब्द बनते हैं, ये किसी अर्थ, मतलब वस्तु, क्रिया या भाव के नाम होते हैं। इन नामों को सुनने या सुनाने में एक अर्थ बोध होता हैै। उस प्रक्रिया को जोड़ कर भाषा बन जाती है।
इस संदर्भ में लोगों ने जानने की कोशिश की कि आखिर शब्द और अर्थ के बीच का संबंध हमारे दिलोदिमाग में बैठता कैसे है? कैसे कैसे शब्द से ले कर वाक्य तक की जटिलता को हमारा मस्तिष्क समझता और याद रखता है। इस मुद्दे पर शिक्षा शास्त्री, भाषाविद और शिक्षा शास्त्री दो खेमें में बहुत पहले से बंटे हुए हैं। जब से खड़ी बोली हिंदी का निर्माण हुआ, तबसे यह विवाद इधर भी आ गया। हमारे जमाने में ही प्राथमिक हिन्दी पुस्तक में यह विवाद आ गया था। मनोहर पोथी, गीताप्रेस की किताबें वर्ण माला, फिर शब्द तब वाक्य सिखाने के पक्ष में रहीं। इनके विपरीत ‘लिखो-पढ़ो’ शृंखला की सरकारी पुस्तकें सीधे वाक्य सिखाने वाली थीं। इस मामले में यह जानना रोचक होगा कि इस बहस का पुराना शास्त्रीय नाम क्या है और इनके तर्क क्या हैं? वैसे उस जमाने के हिंन्दी शिक्षक इसे नूतन खोज या आविष्कार की ही तरह पेश करते थे और पुराने शिक्षकों को हिकारत से देखते थे और पुराने शिक्षक अपने ज्ञान को परंपरागत तथा अनुभव सिद्ध बताते थे और नये वालों को कुतर्की सरकारी गुलाम बताते थे।
परंपरागत शास्त्रों में इस बहस को अन्विताभिधानवाद और अभिहितान्वय वाद के नाम से जाना जाता है। यह मजेदार चर्चा अगली पोस्ट में जिसमें बकरी, गाय, एक बच्चा और कुछ अन्य लोग मुख्य किरदार का रोल निभाएंगे।

रविवार, 4 सितंबर 2016

वागर्थ 2 --- शब्द, नाद, वाक्


शब्द, नाद, वाक्
ये तीनो नाम चलते हैं। शब्द और अर्थ तो सभी जानते हैं, नाद प्रायः ध्वनि के लिए प्रयुक्त होता है। नाद किसी भी प्रकार की ध्वनि को कहा जा सकता है। वाक् लगभग मानव की ध्वनि के लिए रूढ़ जैसा हो गया है।
इन तीनों को मिला कर शब्द के चार स्तर माने गए हैं। बैखरी- जो मुंह से बाहर निकलती है, जिसके आधार पर शब्द और अर्थ के बीच संबंध बनते हैं। मध्यमा- लगभग भुनभुनाने जैसी मानवीय आवाज, जो दूसरे को ठीक से सुनाई न पड़े। परा- मन के भीतर की आवाज, जो दूसरे को सुनाई न पड़े। पश्यंती- प्राकृतिक, सूक्ष्मतम ध्वनि, जिसे ध्यान भूमि में तटस्थ भाव से देखा/अनुभव किया जाए।
इस संार में ज्यादा उलझनें और चालाकियां बैखरी और परा के साथ है। विशेषज्ञ बैखरी स्तर के नाद का भी उचित-अनुचित अनेक प्रयोग करते हैं। यह काम केवल भारत में ही नहीं होता, लगभग सभी जगहों पर होता है।
सुविधा के लिए पहले बैखरी की कार्यप्रणाली और उससे संबंधित सामाजिक खेल को समझने का प्रयास करेंगे।
अगले पोस्ट में -
वर्णमाला एवं शब्दार्थ संबंध

शनिवार, 3 सितंबर 2016

बहुरंग: वागर्थ

बहुरंग: वागर्थ

वागर्थ

वागर्थ 1
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे, पार्वती-परमेश्वरौ।।
वाक्-वाणी एवं उसका अर्थ मिलकर हुए वागर्थ। ये आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े रहते हैं। ऐसे वागर्थ की तरह जुड़े हुए, संसार के माता-पिता पार्वती एवं परमेश्वर की मैं वंदना करता हूं, वाक्-वाणी एवं उसके अर्थ की ठीक समझ के लिए।
मैं बचपन से महा कवि कालिदास एवं गोस्वामी तुलसीदास जी की, रामचरित मानस वाली  मंगलाचरण वंदना दुहरा रहा हूं।
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।
 वाक्-वाणी एवं उसके अर्थ की ठीक समझ के प्रयास में मैं भी लगा हुआ हूं। कुछ समझा भी बाकी का शेष है। जब कालिदास/तुलसीदास जी जैसे लोग लगे हुए रहे तो मुझे देर लग रही है तो इसमें बहुत घबराने की बात नहीं है। बात ही बहुत तगड़ी है- पहले तो वाक् एवं उसके अर्थ के स्वरूप को समझना, फिर वाक् एवं उसके अर्थ के बीच जुड़ाव को समझना, फिर इस संसार में इनकी व्यापक भूमिका को पहचानना होगा तब जा कर कहा सकूंगा कि हां, अब मैं ने भी ठीक से समझ लिया है।
आप चाहे तुलसीदास जी को मानें न मानें, आस्तिक हों या नास्तिक, वैदिक हों या बौद्ध या अन्य मतावलंबी वाक् एवं उसके अर्थ की व्यूह रचना से बच नहीं सकते। हमारे जीवन में परस्पर संबंधों का बहुत बड़ा भाग इसी सरल या जटिल व्यूह रचना पर आधारित है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और हम कई बार पता नहीं सच या झूठ गौरवान्वित महसूस कराए जाते हैं कि भाषा हमें अन्य जीवों से विशिष्ट बनाती है। मैं ने सोचा कि कोई व्यक्ति यदि मुझे अन्य जीवों-योनियों में घूमने की विद्या सिखा दे तभी कह सकूंगा कि मनुष्य की अभिव्यक्ति एवं अन्य जीवों की अभिव्यक्ति में क्या अंतर है क्योंकि अभिव्यक्ति और संवाद तो अन्य जीवों में भी हो ही रहा है।
खैर, फिलहाल अन्य जीवों की बात छोडि़ए जरा मनुष्य के भीतर ही वाक् एवं उसके अर्थ की स्थिति को जानने-समझने का प्रयास किया जाए। यह एैसा विषय है कि आप नहीं कह सकते कि आप इसे परिचित नहीं है या इसकी आपको कोई जरूरत नहीं है। उलटे आप भी रोजमर्रे में इसकी समस्या से जूझते-जुझाते, कुंढते-हंसते या अपनी चालाकी पर मंद-मंद मुस्कराते हुए अथवा अट्टाहास करते हुए जीते हैं। फिर भी यह वागथ्र हमारे कब्जे में आता ही नहीं है, यह हमारी बेचैनियों में से एक है। हममें से जो जितने पढ़े लिखे औब बातों का व्यवसाय करने वाले या बातों के माध्यम से जीवन चलाने वाले होते हैं, उन्हें यह समस्या बहुत सताती है। धर्म, राजनीति, बाजार, सत्ता के विभिन्न केन्द्र और उनके प्रतिद्वंद्वियों तथा प्रतिस्पधिंयों के बीच रातदिन वाक्-युद्ध चलता रहता है। भारत के लोगों ने इसे अपने ढंग से समझने का प्रयास किया, बहुत विस्तार और गहराई में जा कर।
मैं अपने पश्चिम प्रेमी वामपंथी और दक्षिण पंथी दोनो प्रकार के मित्रों से उनके इस प्रचार के विरुद्ध जाने के लिए क्षमा भी नहीं मांग सकता कि भारत में तो कोई ज्ञान-चिंतन कभी था ही नहीं, न आज की समस्याओं की व्याख्या करने की उसमें क्षमता है, फिर भला समाधान कैसे मिलेगा? सच यह है कि आपने तो यह शब्कि पाखंड ही इसलिए किया ताकि हमारी विशाल ज्ञान राशि और वांग्मय में आपके मौलिक होने का दावा ही न डूब जाए। कई अन्य कारण भी हैं, फिलहाल हम रुकेंगे केवल वाक् एवं उसके अर्थ तक।
इसके लिए भारतीय चिंतन-ज्ञान परंपरा में एक यायावरी करते हैं और देखते हैं कि कहां क्या मिल जाता है और किसके काम का, उसमें से क्या निकलता है? आप साथ देंगे तो मेरी यात्रा का एकांत मुझे कम सतायेगा। वैसे मैं यह तो कह नहीं सकता कि यह पूर्णतः स्वांतः सुखाय है लेकिन उसके मूल में वह जरूर है क्योंकि इस यात्रा का निपर्णय तो मैं ने स्वयं लिया है।
मेरी यह यात्रा कथा नाना पुराण-निगम-आगम से सम्मत ही रहेगी। मैं इस लायक ही नहीं कि कोई नई बात कह सकूं। मुझमें कोई नयापन है ही क्या? न आप लोगों से पूर्णतः भिन्न ऐसी कोई मौलिकता है जो कुछ नया कहने की औकात दे सके। इसीलिए मुझे अपने पर भरोसा है कि इस कथा में कुछ न कुछ आपके लिए भी अपना कहने-समझने के लायक जरूर मिलेगा।
यह शृंखला मेरे ब्लाग बहुरंग और फेसबुक पर दोनो जगह उपलब्ध रहेगी। जो लोग पूरे या किसी छूटे हुए अंश को पढ़ना देखना चाहें, वे मेरे ब्लाग बहुरंग के लेवेल वागर्थ को क्लिक कर एक साथ सारे पोस्ट देख सकेगे।

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

रस की अनुभूति होती है। कैसे? यह न पूछिए

रसानुभूति 2
रस की अनुभूति होती है। कैसे? यह न पूछिए क्योंकि यह तो सभी को कमोबेश होती ही है, कम से कम षट् रस वाली या नव रस वाली या उससे भी अधिक।
असली मामला यह है कि मन भरता नहीं है। भरे तो कैसे? क्योंकि कभी मात्रा में कमी तो कभी बहुत कम समय मिला। मन करता हे कि काश यह अनुकूल अनुभूति कुछ देर और रहती। स्वादिष्ट भोजन थोड़ा और मिलता, मन भरा नहीं। तब किया क्या जाय? मानव इसी जुगाड़ में लगा है।
कुछ सोचते हैं रसानुभूति के पर्याप्त या उससे अधिक संसाधन इकट्ठे करें तो मन भर जाए। कुछ सोचते हैं - इसमें तो भोगने का समय ही नहीं बचेगा तो समय का भी प्रबंध करें और जल्दी जल्दी भोग लें। यह जल्दबाजी भी कम संकट नहीं पैदा करती। मन हो या इन्द्रियां या तन वे ही थक जाते हैं बीमार पड़ जाते हैं। तन एवं इन्द्रियों के लिए अनुकूलता या प्रतिकूलता में तो समानता भी रहती है ओर कुछ टिकाउपन भी लेकिन मन का क्या भरोसा अभी कुछ चाहिए और कुछ देर बाद उससे बिलकुल अलग, तो फिर पूरी, मन भर रसानुभूति हो कैसे?
इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में रसायन वाले रस से शरीर को ठीक रखने, षड् रस तथा पुष्टिकारक रक्त, मज्जा आदि से तन एवं इन्द्रियों को पुष्ट करने तथा भाव रस से मन एवं संजीवनी रस से आत्म तत्त्व मतलब संपूर्ण व्यक्तित्व को सरस बनाने की कला का विकास भारत में हुआ। यह तब तक सार्थक है जब तक मानव जीवन है। नाम, रूप, परंपरा तथा कुल एवं क्षेत्र की दृष्टि से विधियें में अंतर आता है लेकिन रस मूलतः एक है।
रस मूलतः एक ही है, इस बात की चर्चा अगले पोस्ट में।

रसो वै सः वह रस है

रसानुभूति 2
रसो वै सः वह रस है
इस वेद वाक्य को भी ब्रह्म का अर्थ बताने वाला माना जाता है। मतलब कि वह ब्रह्म रस है। रस शब्द कई अर्थों  में प्रयुक्त हुआ है, जिनमें मुख्य हैं- 1 जीभ से चखा जाने वाला स्वाद रूपी रस- षट् रसए 2 द्रव का पर्यायवाची जैसे सभी तरल पदार्थ, जो अपने साथ जुड़ी चीजों को संभाल कर रखते हैं, जीवन देते हैं, जल आदि, 3 पारा एवं गंधक का योग एवं ऐसी दवाएं, जिनमें पारा-गंधक का योग मिला हो, अनेक आयुर्वेदिक दवाएं, 4 काब्य/नाट्य या गान से मिलने वाली मन को खुश करने वाली अनुभूति, 5 ध्यान, योग, तंत्र आदि के अभ्यास से अपने भीतर के आनंद स्रोत तथा जीवन स्रोत से कण एवं/या विपुल रूप में चखा/अनुभूत किया जाने वाला।
रस के इन 5 अर्थों के अतिरिक्त इनके अर्थ विस्तार से भी कई अर्थ निकल सकते हैं। कोई रस के किसी एक पक्ष के बारे में बताते हुए भी कह सकता है कि वह (उसके अभिप्रेत या विवेच्य) अर्थ, भोजन, काव्य, दृश्य, अनुभूति, आदि कुछ भी रस है या सरस रसयुक्त है। साथ ही वह ब्रह्म का ही अंश है।
यदि कोई अपने को योगी, तांत्रिक (परंपरागत अर्थ में न कि काला जादू वाले) या किसी दर्शन के प्रणेता/भाष्यकार मान कर बात करे तो उसकी जिम्मेवारी उपर्युक्त सभी अर्थों में रस के अर्थ, महत्व, स्वरूप, उसकी अनुभूति/उपलब्धि का मार्ग बताने की होती है।
रससिद्धांत का निरूपण किसी आदर्शवाद, कल्पना, मिथ, चाली बात नहीं है। यहां तो बताना पड़ेगा कि भोजन कैसे स्वादु बनेगा? मूर्तियों या कला के अन्य उपादानों में सौंदर्यबोध की प्रक्रिया क्या होगी? और पैमाने क्या होंगे? वगैरह।  इसी तरह मंचीय प्रक्रिया का विधान भी बताना होगा और काव्य मीमांसा भी जिसे संस्कृत में अलंकार शास्त्र भी कहते हैं।  इन सबके साथ पूजा-पाठ, ध्यान, योग लोक-व्यवहार, कृषि, संगीत, और पता नहीं कितनी सारी बातें, जैसे - मृत्यु तथा उसके बाद सरस जन्म भी।
इन बातों के एक एक पक्ष पर तो कई लोगों ने प्रकाश डाला है लेकिन उनसे आगे बढ़ कर तंत्रालोक जैसे महान ग्रथ के रचयिता श्रीमान अभिनव गुप्त ने सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है और उसकी प्रक्रिया अनेक उपायों के साथ बताई है।
भरत मुनि का प्रसिद्ध सूत्र है- ‘‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः’’। काव्य कला आदि में विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारि भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
इन सारी बातों के विस्तार की मूल प्रक्रिया एवं रहस्य मनुष्य के तन, मस्तिष्क, इन्द्रियां, मन एवं उससे गहरी जो भी मानें, उनकी कार्य प्रणालियों का संसार की सामग्रियों से उनके संबंधों के विवेचन में निहित है।
संक्षेप में कहें तो व्यक्तित्व, अंतःकरण का बाह्य संसार से संबंध तथा उसके परिणामस्वरूप होने वाली अनुभूति या अंतस्थ जप, ध्यान आदि से प्राप्त होने वाली जीवनदायी अनुभूतियां  रस के स्रोत तथा प्रक्रियाएं हैं।
अगली किश्तों में जारी

बुधवार, 9 मार्च 2016

उदार समावेशी धर्म की जरूरत 2nd

संकीर्णतावादी धाराओं की प्रमुख विशेषताएं
समावेशी उदार सनातन धर्म ? सच कहें तो ऐसा कोई एक छोटा-मोटा समूह नहीं है। यह भारतीय बहुसंख्यक समाज का धर्म है, जिसमें अनेक संकीर्णतावादी धाराएं पनपती और विलुप्त होती रहती हैं। अंततः वे भी उसी मुख्य धारा में शामिल हो जाती हैं।
इन संकीर्णतावादी धाराओं के प्रति समाज के कुछ लोगों में प्रबल आकर्षण होता है क्योंकि वे निम्न दावे करती हैं, जो प्रचलित परंपराओं के विरुद्ध या भिन्न होती हैं, जैसे- वे प्रचलित रूढि़यों के विरुद्ध हैं, उनके प्रवर्तक ज्ञान पहले वालों से श्रेष्ठ है, इसमें नयापन है, पुराने बंधन नहीं हैं, काफी प्रभावशाली लोग इसे अपना रहे हैं, या अमुक विचार या पहचान वाले लोगों के विरुद्ध है, वगैरह।
कुछेक भक्ति आंदोलनों को छोड़ दें तो ऊपर से सुधारवादी या उदारवादी लगने वाली ये धाराएं मूलतः बड़े पैमाने पर समाज के बहुसंख्यक वर्ग के प्रति हिकारत और द्वेष भाव तथा प्रतिक्रयावादी कार्यक्रमों से भरी होती हैं। इनकी प्रेरणा के मूल स्रोत प्रायः बाहरी होते हैं और कई बार इनकी कार्यप्रणाली भी बाहरी शैली वाली होती है। कई बार तो समकालीन राजनीति से प्रचारित, प्रसारित और पोषित भी होते हैं।
भीड़, नयापन, प्रतिक्रिया और नये किश्म के संगठन के कारण उदार समावेशी समाज इन्हें भी एक नये प्रयोग के तौर पर लेता है। बाद चल कर अपने ही पाखंड तथा अंतर्द्वंद्वों के कारण आकर्षण खोते ही इनके अनुयायियों को भी बहुसंख्यक धारा में पुनः वापस आ जाना पड़ता है। सबसे नए और बड़े उदाहरणों में आर्य समाज है। आर्यसमाजी लोग तेजी के साथ सनातनी धारा में लौटे और लौट रहे हैं। कुछ दिनों बाद बस कुछेक औपचारिकताओं के अतिरिक्त सनातनी तथा आय्रसमाजी का फर्क करना कठिन हो जाएगा क्योंकि बहुसंख्यक समाज ने आर्यसमाज की वैचारिक बातों को छोड़ सुविधा वाली बातें अपना लीं तो फिर क्या आर्यसमाजी? क्या सनातनी? जब जैसी सुविधा, तब वैसी पहचान और काम।

धर्म सबंधी मेरा प्रस्ताव: किश्त 1


एक उदार समावेशी धर्म की जरूरत
आज धर्म के नाम पर चारो तरफ घृणा और हिंसा का माहौल है। धर्म को अनमोल बनाने वाले सत्य, करुणा, मैत्री जैसे मूल्य तो लगता है कि धर्म से बाहर ही हो गए हैं। कहीं मिलते भी हैं तो किसी गुप्त योजना के मुखौटों के रूप में। ऐसे अनमोल जीवन को सार्थक एवं सुखद बनाने वाले भावों की जगह विभिन्न समूहों की सामाजिक पहचान, उनका वर्चस्व, संसाधनों पर कब्जा आदि ही धर्म शब्द के अर्थ हो गए हैं और बाकी की बातें बेकार मान ली गई हैं।
आज धर्मों के देश भारत में भी न केवल अल्पसंख्यक बल्कि बहुसंख्यक हिंदू धर्म भी अंदरूनी तथा बाहरी दोनो तौरों पर खतरे में है। इस्लाम अपने ही इलाके में और ईशाइयत अपने इलाके में संकट में है। ये सभी अपनी समस्याओं को पहचानने की हिम्मत भी गंवा बैठे हैं और केवल बाहरी संकट का ही हवाला देते हैं कि एक धर्म एवं उसके मानने वालों पर दूसरे धर्म के लोगों द्वारा खतरा पैदा किया जा रहा है।
एक हद तक यह सच भी है। योरप-अमेरिका आदि के ख्रीस्त पंथ को इस्लाम के जेहादी विस्फोट और भारतीय धर्म न सही, योग-तंत्र के प्रचारकों से खतरा तो है ही। भौतिकता और सायंस टेक्नोलोजी से सभी धर्म वाले डरते हैं। साम्यवादी तथा उपभोक्तावादी दोनो नजरिए खतरा पैदा किए रहते हैं क्योंकि ये दोनो ही सायंस को मानते हैं। इनसे डरे हुए धर्म प्रचारक, व्यास आदि बार-बार सांयस का हवाला देते मिलते हैं।
यह संकट इसलिए है क्योंकि धर्म के प्रवक्ता और अधिकारी धर्म के अतीतकालिक रूपों में ही उलझे रहना चाहते हैं। काल के प्रवाह के साथ उसमें परिष्कार और समावेशी प्रणाली से डरते या चिढ़ते हैं। तब समस्या का समाधान कैसे हो? 
मैं कई सालों से इस पर सोचता रहा हूं और प्रयोग भी करता रहा हू कि शायद कोई राह मिले। अब मुझे स्पष्ट हो गया है कि एक उदार और समावेशी धर्म की जरूरत है। वह धर्म कैसा हो? किस धर्म के करीब हो? ऐसे प्रश्नों के आते ही सारे विवादों और आशंकाओं का खड़ा होना सहज है। किसे उदार या अनुदार कहा जाए? आदर्श के स्तर पर और व्यवहार के तौर पर भी अंतर कम नहीं हैं।
मुझे कुछ समाधान सूझे, जिन्हें मैं अगले 3-4 किश्तों में आपसे साझा करूंगा ताकि अपनी समझ और जीवन शैली में मैं भी समावेश कर सकूं। केवल निंदा या घृणा आधारित सुझाव न ही भेजें क्योंकि अब यह प्रगट है, रहस्य नहीं है।

मेरी समझ एवं प्रस्ताव--
1 ऐसे धर्म की बात, जिसमें सबको सम्मान एवं स्वीकृति मिले। अतः व्यक्ति, समूह या समुदाय के जय-पराजय का यहां कोई मूल्य नहीं है। वे तो विभिन्न कारणों से उत्पन्न हुई घटनाएं हैं, जिनमें एक कारण धर्म की पूर्ववर्णित संकीर्ण एवं वर्चस्ववादी व्याख्या भी है।
2 किसी प्रस्ताव के साथ वर्तमान में एवं व्यवहार में आचरण के स्तर पर मिलान भी जरूरी है। जब मिलान करते हैं तो देखते हैं कि कुछ धर्म अपनी मूल अवधारणा के ही स्तर पर ऐसे बंधे हैं कि उनका समावेशी होना संभव नहीं है। उनकी मूल अवधारणा में ही एक व्यक्ति या उसके दूत को छोड़ अन्य किसी का भी पूर्ण ज्ञानी एवं भरोसे मंद होना संभव नहीं है। ऐसी कट्टरता के साथ दिली रिश्ता तो मुमकिन ही नहीं है। बस, केवल कुछ क्षणों वाला, मजबूरी वाला समझौता होगा और भीतर में चालबाजी भी चलती रहेगी कि कब अपने को श्रेष्ठ स्थापित करें और दूसरे को नीचा दिखाएं।
3 इसलिए स्पष्ट है कि ऐसे समावेशी विचार से वे लोग ही सहमत हो सकते हैं जो अनेक पुराने ज्ञानियों के साथ अनेक वर्तमान तथा भावी ज्ञानियों को स्वीकार करने को तैयार हों। ऐसी वैचारिक उदारता केवल सनातनी हिंदुओं तथा महायानी बौद्धों एवं जैनों में पाई जाती है। बौद्धों में थेरवादी तथा सांप्रदायिक एवं सुधारवादी हिंदू विविधता एवं बहुलता को स्वीकार नहीं कर पाते। लिहाजा यह प्रस्ताव भी आरंभिक तौर पर उन्हें ही दिया जा सकता है किसी मुसलमान, ईशाई या संकीर्णतावादी बौद्ध को नहीं। 
हां, इस प्रस्ताव पर अपने को तटस्थ, धर्मनिरपेक्ष या नास्त्कि मानने वाले भी विचार कर सकते हैं क्योंकि यहां ईश्वर न मानना भी एक विकल्प है और उसका भी मान बराबर है।
4 आचरण के स्तर पर भी यदि देखें तो उपर्युक्त समुदाय को विविधता में जीने का पुराना अभ्यास है। यदि यह अपने को और अधिक उदार बनाए तो सहज ही अन्य निष्ठा एवं पहचान वाले लोग राजी खुशी इस जमात में शामिल होना चाहेंगे, जैसे आज सायंस टेक्नेलोजी आधारित जीवन शैली के प्रति सबका आकर्षण है।

मंगलवार, 1 मार्च 2016

मुझे शिकायत है

मुझे शिकायत है
1 एक शब्द से, जिसके कारण रोज मेरी हेठी होती है।
2 अपने गांवों वाले देश में मुझे घटिया किश्म का आदमी समझा जाता है।
3 मेरी पहचान कानूनी तौर पर बदल दी जाती है, वह भी झूठे अर्थ में।
4 यदि मैं उसे न मानूं तो आप मुझे देश द्रोही भी कह सकते हैं।
5 मैं पूरा देशी-देहाती आदमी हूं, न कभी विदेश गया न जाने का सपना है नेपाल तक जाने का मौका नहीं मिला, जो पास में है और पसासपोर्ट की भी दरकार नहीं है।
6 हम से ऐसी हिकारत क्यों?
सवाल मेरे भी हैं-
7 क्या यह देश केवल नागरिकों का है?
8 या फिर शहरी लोगों का?
9 या सिटिजन्स का
10 गांव में रहने वालों, उस पहचान से जीने वालों का क्यों नहीं?
यह नागरिकता क्यों इतनी कीमती है? मेरे मन की पीड़ा क्या किसी को कभी साली? क्या इस शब्द को बदल नहीं देना चाहिए? 

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

स्वास्थ्य हमारा स्वधर्म है- 1


इघर कुछ दिनों से मृत्यु पर लगातार लिखने से मित्रगण कुछ नाखुश से लग रहे थे। चलिए छोड़ते हैं और वसंत के आगमन की तैयारी करते हैं। वसंत का मजा बिना स्वसथ रहे कैसे मिलेगा अतः कुछ दिनों तक स्वास्थ्य पर चर्चा होगी।
स्वास्थ्य हमारा स्वधर्म अर्थात जन्मसिद्ध अधिकार और कर्तब्य है। आजकल स्वस्थ्य की चर्चा नकारात्मक ढंग से अधिक होती है। मतलब कि रोग का न होना या ठीक हो जाना स्वास्थ्य है। यह परिभाषा और नजरिया संकीर्ण है। यह हमें मूर्ख और संकीर्ण ही नहीं झूठा और पाखंडी बनाता है। झूठे और पाखंडी लोग मुसीबतों का सामना नहीं कर पाते और बाजार के षडयंत्र में भी आसानी से फंस जाते हैं। आजकल यह संकट दिनानुदिन बढ़ता जा रहा है।
वैसे आपको सुनने में लगेगा कि मैं क्या बेमतलब कि उलटी-पलटी बात कर रहा हूं लेकिन आप जरा कुछ सामान्य बातों पर गौर कर देखें कि दानों बातों का अंतर कितना जबरदश्त है।
अब नये जमाने के हिसाब से बात करते हैं। रोगों के इतने कारण और प्रकार हैं कि शायद ही कोई व्यक्ति पूरी तरह निरोग रह सके, यह असंभव जैसा है। मतलब कि कोई भी पूर्णतः निरोग नहीं रह सकता, तब? तब निष्कर्ष यह भी निकलता है कि निरोगिता का प्रयास कभी सफल नहीं हो सकता। उसके बाद का तर्क यह कि राज्य , समाज या बाजार यदि आपके स्वास्थ्य से खिलवाड़ करे तो उसे क्यों गंभीर मामला माना जाए? अब तो हालात ऐसी है कि रोग के पैमाने दवा बनाने वाली कंपनियां तय करती हैं। सबसे प्रचलित विवाद-बहस का नमूना डायबिटिज का है। मेरे परदादा और मेरे नाना दोनो डायबिटिक थे। उन्होंने पूरी उम्र भोगी और सक्रिय जीवन बिना इंसुलिन के या समतुल्य दवा के, लगभग 90 साल या कुछ अधिक। स्व. सुदर्शन वैद्य जी से ले कर अनेक उदाहरण मेरे सामने हैं।
अनेक साधक-संत रोगी हुए, कुछ रोग से ही मरे। हर रोग या कुछ लक्षण क्या सचमुच इतने भयानक हैं कि उनके डर से जीने की हिम्मत ही छोड़ दी जाए? क्या रोगों पर हमारा वश है? और नहीं, तो क्या हम उसके लिये जिम्मेवार हैं? रोग तो छोडि़ए दवा एवं चिकित्सक पर ही हमारा वश क्या उस तक पहुंच भी है? ऐसे अनेक मामले हैं जो स्वास्थ्य की अवधारणा पर पुनः विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं। अतः अगली किश्तें वैसी ही लगेंगी।