देशी अर्थशास्त्र 2
देशी अर्थशास्त्र को समझने की मेरी मजबूरी
देशी अर्थशास्त्र, अर्थव्यवस्था और उसकी समझ तथा उसके प्रति विश्वास पारंपरिक है, न कि यह कोई अतीतकालीन बात है। मेरा गांव किसी भी नगर पालिका से कम से कम 40 की.मी. की दूरी पर एक नदी के किनारे बसा हुआ, जमाने से व्यावसायिक गतिविधियों वाला देहाती गांव है। मैं ऐ से ही गांव के एक किसान परिवार में पैदा हुआ, जो ग्रामीण स्तर पर खेती के साथ-साथ चिकित्सा, अध्ययन-अध्यापन, एवं ब्राह्मण जातियों में प्रचलित अन्य कार्यों के साथ राजनीति तथा समाज सेवा में भी लगा रहा। मेरे गांव में लगभग 19 जातियां हैं, 2 धर्म तथा कई हिन्दू संप्रदायों के लोग। इसलिए मुझे विविधता सहज उपलब्ध हो गई। साथ ही पारंपरिक व्यवसायों के किस्से एवं उनके दुख-दर्द भी मालूम होते रहे।
एक उठापटक वाले मध्यम वर्गीय परिवार में होने के कारण हम लोगों ने खेती भी की है और एक समय में अपने प्रकार का सफल किसान भी रहा हूं। स्नातकोत्तर के बाद एक बार दिल लगा कर खेती की और पर्याप्त उत्पादन के बाद भी उसमें होने वाले लगातार घाटे को समझ पाने की तलाश में सफल-विफल किसानों से ले कर कई धारा के किसान नेताओं, पत्रकारों, आढ़तियों एवं कालेज के प्रोफसरों से समझने की कोशिश करता रहा। इस बीच कई बार कोई फार्मूला मिलते ही प्रफुल्लित हो जाता और अपने घर परिवार में अभिभावकों को उसका माहात्म्य भी सुनाता। मुझसे मेरी पिछली पीढ़ी के लोग केवल इस तर्क के साथ असहमत हो जाते कि अपने गांव या उसके आस-पास क्या किसी ने ऐसा किया है, जो हम करें?
इस क्रम में जब मेरे समय के नए जमाने के प्रसिद्ध किसान नेता, जो अब पुराने जमाने वाले हो गए श्री शरद जोशी की किताब पढ़ी तब यह पता चला कि भारत में किसान और उनके परिवार के लोग दिनानुदिन गरीब क्यों होते जा रहे हैं। मेरे पिता जी अब केवल कथाशेष चीनी मिलों में किसानों के बकाए का मुकदमा लड़ रहे थे, जो वे जीत कर भी हार गये। भुगतान तो नहीं का नहीं ही हुआ।
चाहे चावल का थोक व्यापार हो या लकड़ी, बांस का या धातु का अथवा दवा बनाने के लिए कच्चे सामान का, चाहे वह मछुआरों की सहयोग समिति का मामाला हो या नाविकों के संगठन का, अथवा किसान सहयोग समिति पर माफियागिरी एवं जातीय वर्चस्व स्थापित करने का, सारे अंदरूनी किस्से चाहे-अनचाहे सुनता रहा। प्रेस चलाया, प्रकाशन का व्यवसाय किया, लघु पत्रकारिता की। यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि यह स्वयं भोगा हुआ या भोगे हुए अपने स्वजनों, परिजनों के अनुभव पर आधारित है, किसी एक किताब की पीएच.डी. वाली थीसिस का कोई अंश नहीं है। समझने की उलझनें जब बढ़ीं तो पूरे मघ्य भारत के विभिन्न प्रायोगिक केन्द्रों का दौरा भी किया और समझने की कोशिश की। खादी, ग्रोद्योग के प्रयोग, सरकारी असरकारी, बिना कमीशन मिशन वाली खादी से मोदीब्रांड खादी समझने के लिए, महाराष्ट्र-गुजरात भी गया। दक्षिण के रेशमपालक गांवों की यात्रा की। बहुत थोड़ा लेकिल हिमालय के कुछ गांवों में भी गया।
सवाल यह हो सकता है कि इतना सब होने के बाद तो मुझे भारत के आधुनिक आर्थिक प्रयोगों के पक्ष-विपक्ष पर लिखना चाहिए था। मैं देशी अर्थ शास्त्र को ले कर क्यों लिखने बैठ गया? इस पर खुलाशा अगले पोस्ट में।
Rajni Kant Mudgal. Rochak shuruat hai..agle ansh ki prteeksha rahegi.
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