शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

देशी अर्थशास्त्र

परंपरा
आज अर्थ शास्त्र शब्द से जो मतलब निकला जाता है, वह है-आदम स्मिथ वाला पाश्चात्य अर्थशास्त्र, जो इकोनोमिक्स का तर्जुमा है। इससे एक सर्वथा झूठी समझ बनी है कि इस इकोनोमिक्स के पहले भारत में न अर्थशास्त्र था, न वैसी कोई गहरी समझ या व्यवस्था थी। यह समझ एक ओर अपने समाज एवं परंपरा के प्रति हिकारत का भाव विकसित करती है तो दूसरी ओर यह उलझन भी पैदा करती है कि भारतीय समाज की न केवल पुरानी बल्कि कई आधुनिक गतिविधियां भी आध्ुनिक दृष्टि से समझ में नहीं आतीं। उदाहरण के लिए गाय या भैंस को पालने की सामाजिक स्वीकृति के बाद भी कुछ जातियों को दूध बेंचने की छूट थी और कुछ को नहीं, जबकि दूध बेंचने से प्रतिबंधित जातियां प्रभावशाली और खेती-पशुपालन का रोजगार करने वाली जातियां हैं। 
आधुनिक शिक्षा में जब इकोनोमिक्स का इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें अपवाद स्वरूप भले ही बताया जाता हो कि भारत में भी अर्थव्यवस्था एवं आर्थिक गतिविधियों पर गहन चिंतन एवं उन्हें नियंत्रित करने का काम हुआ है, उसे इकोनोमिक्स के इतिहास में स्थान नहीं दिया जाता क्योंकि ऐसा करने पर तो प्रचलित सारी धारणाएं ही भरभरा कर बिखर जाएंगी और इस अहंकार की तुष्टि संभव नहीं होगी कि योरप ही भौतिक ज्ञान का एक मात्र स्रोत और केन्द्र रहा है, भारत ने भले ही अध्यात्म के क्षेत्र में कुछ किया हो। ना ही इस बात का आधार बन सकेगा कि योरोपीय इकोनोमिक्स पढ़ने वालों को बड़ा पद और ऊंची तनख्वाह मिलनी चाहिए।
इस बेईमानी के कारण योरप प्रभावित आज के अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न भी पैदा नहीं होता कि आखिर उत्तर भारत के मौर्य वंश एवं दक्षिण के चोल-चालुक्य जैसे बड़े राज्यों के समय बिना किसी शास्त्र या सिद्धांत के राजकीय और सामाजिक व्यवस्था चलती कैसे होगी? एक अजीब सा झूठा मुहावरा चलाया गया है कि ‘भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है’ और उससे आगे बढ़ कर बात पीछे कहा जाता है कि ‘भारत की ग्रामीण आबादी का 70 या 80 प्रतिशत भाग केवल खेती का काम करता रहा है।’ यदि इसे ही सच मान लिया जाए तो भारत पर लगातार आक्रमण करने वाले लुटेरे क्या अनाज लूटने या जानवर लूटने आते थे? पुराने खंडहर एवं इतिहास के अन्य स्रोतों से क्या लोहा, लकड़ी या अन्य धातु से बनी कोई सामग्री नहीं मिली? यहां के लोग कपड़ा नहीं पहनते थे या चिकित्सा का कोई शास्त्र यहां नहीं था? यहां के बड़े व्यापारी क्या बेंचने दूरदूर तक जाते थे? इतनी बड़ी मात्रा में सोना बार बार इकट्ठा कैसे हो जाता था? ऐसे अनेक प्रश्नों का कोई उत्तर आपको आधुनिक इकोनोमिक्स पढ़ने वाले नहीं दे पायेंगे। छोडि़ए पुरानी बातों को कुछ देर के लिए एक हाल-फिलहाल वाला सवाल है कि जब पश्चिम भयावह मंदी की चपेट में आया उस समय भारत में ऐसा क्या था कि यहां के बाजार पर उसका कोई खाश असर नहीं हुआ? सवाल बहुत सारे हैं।
केवल राज्य के साथ मिल कर या कारपोरेट लूट के अंग के रूप में व्यापार या नौकरी नहीं करनी हो, भारत के लोगों के हित में आर्थिक चिंतन या गतिविधि करनी हो और इन प्रश्नों का यदि उत्तर पाना हो तो देशी अर्थ शास्त्र को समझना ही होगा। आप यदि पूर्णतः शहरी हैं तो अपनी पूर्व धारणा को छोड़ देशी सत्य के लिए उदार बनना होगा और यदि आप देहाती क्षेत्र के हैं तो अपने बचपन से वर्तमान तक में एक क्रमबद्ध स्मृति यात्रा करते ही अनेक बातें सरलता से समझ में आने लगेंगी। उस आधार पर अपनी पिछिली पीढि़यों की स्थिति का भी आप अंदाजा आसानी से लगाकर परंपरा की परिवर्तनशील निरंतरता को सहज समझ सकेगे। 
इस क्रम में भारत की खाशियत विविधता एवं उसमें एकता को तो देखना पहचानना ही होगा। यह एैसा विषय है कि आप नहीं कह सकते कि आप इसे परिचित नहीं है या इसकी आपको कोई जरूरत नहीं है। उलटे आप भी रोजमर्रे में इसकी समस्या से जूझते-जुझाते, कुंढते-हंसते या अपनी चालाकी पर मंद-मंद मुस्कराते हुए अथवा अट्टाहास करते हुए जीते हैं। 
मैं अपने पश्चिम प्रेमी वामपंथी और दक्षिण पंथी दोनो प्रकार के मित्रों से उनके इस प्रचार के विरुद्ध जाने के लिए क्षमा भी नहीं मांग सकता कि भारत में तो कोई ज्ञान-चिंतन कभी था ही नहीं, न आज की समस्याओं की व्याख्या करने की उसमें क्षमता है, फिर भला समाधान कैसे मिलेगा? सच यह है कि आपने तो यह शब्दिक पाखंड ही इसलिए किया ताकि हमारी विशाल ज्ञान राशि और वांग्मय में आपके मौलिक होने का दावा ही न डूब जाए। कई अन्य कारण भी हैं, फिलहाल हम रुकेंगे। 
इसके लिए भारतीय आर्थिक चिंतन-ज्ञान परंपरा में एक यायावरी करते हैं और देखते हैं कि कहां क्या मिल जाता है और किसके काम का, उसमें से क्या निकलता है? आप साथ देंगे तो मेरी यात्रा का एकांत मुझे कम सतायेगा। 
आप लोगों से पूर्णतः भिन्न मुझमें ऐसी कोई मौलिकता नहीं है जो कुछ नया कहने की औकात दे सके। इसीलिए मुझे अपने पर भरोसा है कि इस कथा में कुछ न कुछ आपके लिए भी अपना कहने-समझने के लायक जरूर मिलेगा।
यह शृंखला मेरे ब्लाग बहुरंग और फेसबुक पर दोनो जगह उपलब्ध रहेगी। जो लोग पूरे या किसी छूटे हुए अंश को पढ़ना देखना चाहें, वे मेरे ब्लाग बहुरंग के लेवेल देशी अर्थशास्त्र को क्लिक कर एक साथ सारे पोस्ट देख सकेगे।

2 टिप्‍पणियां: