भारत देश नहाने वालों का देश है। घर के कुएं, नदी, नाले तालाब-पोखर से ले कर समुद्र तक ही नहीं गंगोत्री जमुनोत्री के ठंठे एवं बद्रीनारायण एवं राजगिर के गर्म पानी तक से नहाना पड़ता है। पूरे देश में घूमघूम कर विभिन्न अवसरों पर कभी भाई बहन तो कभी मित्र मंडली के साथ और पति पत्नी को तो साथ-साथ नहाना ही पड़ता है।
इसके बिना आप न धार्मिक व्यक्ति हो सकते हैं न एक जिम्मेवार नागरिक। यहां नहाये हुए व्यक्ति को ही जिम्मेवार माना जाता है। जो ठीक से नहा धो नहीं सकता वह भला और काम क्या करेगा? जिसे सुबह जगने और नहाने से डर लगता हो वह खेती-बारी, पशुपालन कुछ नहीं कर सकता। भैंस कब पानी में घुस जाय कहना मुश्किल, तो आपको भी भैंस के साथ भींगने नहाने को सदैव तैयार रहना होगा। मछुआरे तो पानी में ही रहते हैं। कब मछली की तरह डुबकी लगाने की जरूरत आ पड़े, पता नहीं। माछ, मखाना और सिंघाड़े की खेती करनेवालों को पानी में ही रहने की नौबत रहती है, वह भी सावधानी के साथ कि उसका बुरा असर न उन पर पड़े न पानी पर। पंडित जी रोज नहाने के दावेदार हैं कंपीटिशन भक्त जजमानों के बीच होता रहता है।
कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर अनेक लोगों ने अनेक जगहों पर भीड़ के रूप में या अकेले स्नान किया। हिंदू तो हिंदू मुसलमान भी नहाने के कम शौकीन नहीं हैं। नये जमाने में ंबाथ रूम में कौन कितना खर्च करता है उसीसे उसकी अमीरी का पता चलता है। इस सबके बावजूद सवाल बना हुआ है कि ऐसे सभी लोगों को ठीक से नहाने वाला माना जाय या नहीं? हिंदुस्तान चूंकि नहाने वालों का देश है अतः यहां विधिवत नहाने वालों को ही नहाया हुआ माना जाता है। बाकी की कोई मान्यता नहीं है।
नहाने वालों का कैसा दर्जा है इस बात का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि अंगरेजी में जो ग्रेजुएट शब्द का अर्थ है हिंदी में उसके लिये स्नातक शब्द का प्रयोग होता है। शाब्दिक रूप से स्नातक मतलब है नहाया हुआ। स्नातक एक जिम्मेवार व्यक्ति है जिसने ठीक से नहा लिया है। जो सामाजिक जिम्मेवारी लेने लायक हो गया है। उसकी अंतिम रूप से जांच औरतें करती हैं। पूरी छेड़छाड़ धक्कामुक्की गाली गलौज के साथ कि श्रीमान स्नातक जी का धैर्य एवं संयम उसके अनुरूप है या नहीं?
सारी प्रमुख नदियों को एक लोटे में समाने के लिये उनका स्मरण करना पड़ता है कि -
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती, नर्मदे सिंधु काबेरी जलेस्मिन संन्निधिं कुरु।। अर्थात मेरे सामने रखे इस जल में गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु एवं काबेरी नदियां सभी मिल जायं। यह बात केवल काल्पनिक नहीं होती थी बल्कि सभी नदियों का लाया हुआ जल थोड़ा थोड़ा उसमें मिलाया जाता था। अब केवल औपचारिकतर पूरी की जाती है। अपने मन से नहाने की भी पूरी सामाजिक स्वीकृति नहीं होती । पूरा समाज मिल कर यदि आपको न नहाये तो वह पूरा स्नान नहीं होता। ऐसे स्नान को अभिषेक कहते हैं। चाहे राजा बनाना हों या किसी भी प्रमुख पद पर बैठाना समाज के जिम्मेवार लोग उसे जल छिड़क कर सबके सामने अभिषेक कराते हैं तभी उसकाी सामाजिक मान्यता होती है। आज भी मगध में एवं अन्यत्र भी शादी विवाह के अवसर पर वर वधू को कई बर सभी नदियों वाले उसी कलश के जल से नहाया एवं अभिषिक्त किया जाता है।
ये कुछ नमूने हैं। जन्म से मृत्यु तक, ब्राह्मण से अंतिम जाति तक, मुसलमान ईशाई सभी तबके के लोग नहाने के प्रति तो अभी भी संवेदनशील हैं लेकिन उनका स्नान पूरा नहीं हो पा रहा है क्योंकि
1 वे अब तीर्थ भाव नहीं रखते। कहते तो हैं तीर्थयात्रा लेकिन मंदिरों की मूर्तियों पर अक्षत, फूल, पैसा बरसाने को ही पूरा समझ लेते हैं। तीर्थ में पुण्य फल का दान नहीं करते क्योंकि उन गरीबों के पास पुण्य बहुत कम होता है। तीर्थ को बचाने की भावना होती तो प्रकट तीर्थ रूपी जलाशय को गभी भी गंदा नहीं करते तीथ्र शब्द का अर्थ ही होता है जल। न उसमें मल-मूत्र पहुचाने वाले होटलों एवं धर्मशालाओं में रहते। पवित्र प्रगट गंगा यमुना जैसी नदियों के किनारे ही उसी नदी को अति छोटा करने वाले मूर्ति में कैद करने वाले मंदिरों की संकीर्णता का विरोध करते और पवित्र नदियों की रक्षा के लिये सोचते।
2 धर्म में भक्ति का बड़ा महत्त्व है। जड़ के साथ भी आत्मीयता भाव रखा जाता है। बहुत अच्छी बात है लकिन कोई अपनी कार मोटर सायकिल को तो पेट्रोल की जगह मिठाई नहीं खिलाता। उसके इलाज के लिये पंडित मौला के पास नहीं जाता। लेकिन जब नदियों की बात आती है तो उसकी आरती उतारने की आजकल चलन बढ़ कर इस हाल में पहुच गई है कि हरिद्वार की नकल पर गया की सूखी फल्गु की आरती उतारी जा रही है। यह तो किसी हाल में भक्ति नहीं हुई। नदी के प्रति भक्ति तो उसमें निरंतर जल प्रवाह को बनाये रखने में ही है।
3 जो लोग लोटावादी हैं और तीर्थों में जाने की जगह घर पर ही काम चलाना चाहते हैं वे भी समझ लें कि अब तीर्थों के जल बोतलों में रखने के लायक कहां रहे?
4 बड़े तीर्थ राष्ट्रीय अखंडता के मोटे रस्से हैं। ये दूसरों को विनम्र एवं सामंजस्य पूर्ण बनाने की परिस्थितियां गढ़ते हैं। भारत के सारे ब्राह्मण केवल अपने को ही श्रेष्ठ समझते हैं और पुराने रजवाड़ों के युद्ध की कथा से इतिहास भरा है। ये तीर्थ अपने को बड़ा माननेवाले सभी लोगों को झुकने की विवशता पैदा करते हैं। दूसरों का पैर छूना पड़ता है। अपने से छोटे राजवाड़े या जमींदारों के इलाके से गुजरने के समय कर देना या अनुमति मांगना तो पड़ता ही था। ऐंठ छोड़े बिना कोई उपाय नहीं है। जगन्नाथ जी के यहां तो परंपरा से भात खाना पड़ता है, छुआछूत नहीं स्वीकार्य है।
5 पर्यटन में आप भले ही काम चला लें तीर्थ यात्रा में तो या तो जल का आचमन (मुंह में लेना) करें या आपकी पूजा अधूरी। आज कौन हिम्मत करता है आचमन का तो फिर तीर्थयात्रा और स्नान आने कहां किया? पता नहीं आप किसे ठग रहे हैं अपने को या दूसरे को। आज आपका धर्म कोई दूसरा भ्रष्ट नहीं कर रहा, आकी यात्रा एवं सनन अधूरा इसलिये रह रहा है क्योंकि जलस्रोतों को न बचाने एवं जलाशयों को प्रदूषित करने में सबकी भूमिका है।
6 नदी, जलाशयों के घाटों की पवित्रता का स्मरण केवल छट के ही दिन क्यों ? क्या बाकी के दिन वे अपवित्र हो जाते हैं? अब तो कुछ लोग अपने घर पर या छत पर पुराने हौज या कूलर की टंकी में पानी भर कर छठ मना रहे हैं? प्रगट सूर्य के होते हुए भी सूर्य एवं नदियों की मूर्तियां बिठाकर अपने कर्तब्य से भागने का यही नतीजा होगा।
7 धर्म के मामले में सीधी बात यह है कि ‘‘धर्मो रक्षति रक्षितः’’ धर्म तभी आपकी रक्षा करता है जब आप उसकी रक्षा करें। नदियों का स्वभाव रूपी स्वधर्म है बहना और जल को साफ करते हुए वापस समुद्र तक पहुंचाना। जब मनुष्य नदियों को उसके धर्म पालन करने से पूरी तरह रोक दे तो नदियां क्या करें? गटर के जल में अपने पुरखों का अस्थि विसर्जन का चुनाव भारतीय धर्म परायण समाज एवं उसके नुमाइंदों ने किया है, नदियों ने नहीं।
8 नदी तालाब के किनारे पेशाब पैखाना नहीं करना चाहिये। थेड़ा बहुत हुआ भी तो मिट्टी पर किया हुआ पाखाना जल्द मिट्टी बन जाता है। थोड़ा बहुत बरसात में धुल कर गया भी तो उस समय मिट्टी के कणों के साथ रूपांतरित हो जाता है या मछलियों एवं अन्य का भोजन बन जाता है। जो पाखना डिटजर््ेंट एवं साबुन के साथ घुल कर नदी जल में मिलता है, उसका परिष्कार बहुत कठिन हो जाता है। आपको रोज नहाना है तो उस जलाशय एवं घाट की स्वच्छता के प्रति लगाव होगा ही। इन बाथ रूम वालों को उससे क्या लेना देना।
स्नान अगर इस भावना के साथ हो कि यह जल पवित्र है और मुझे पवित्र करने वाला है तो जल स्रोत के प्रति लगाव विकसित हो सकता है। आज स्वच्छता एवं पवित्रता के बीच के अंतर्संबध की समझ समाप्त हो गई है। इाके बिगड़ने की कथा लंबी हैं जिस पर फिर कभी चर्चा होगी। संगम क्षेत्रों की हालात ऐसी है कि पिछली कार्तिक पूर्णिमा के दिन मैं सोन, गंगा और घाघरा अर्थात सरयू के संगम क्षेत्र में गया था। मीलों तक आबादी के न होने पर भी न केवल प्लास्टिक एवं सिंथेटिक कपड़ों के अवशेष भरे थे, वहां सांस लेना भी दूभर हो गया था क्योंकि पूरा माहौल डीजल चालित नावों के धुएं से भरा था । नावों के बीच वहां भी ट्रैफिक की समस्या थी और नाविक नावों के आपस में न टकराने कें लिये काफी सतर्क थे। सोन के बालू का बाजार सब पर भारी पड़ रहा था।
अभी कुछ दिनों पहले मुझे जैनी साधुओं के कुछ समय बिताने का मौका मिला। मेरी पूरी समझ ही उलटी पड़ गई । यह क्या! यहां तो नहाना ही पाप है। अब इस कार्तिक के महीने में आपसे मैं नहाने का सुख क्यों छीनने का पाप करूं। कार्तिक बीतने दीजिये स्नान के विरुद्ध उस समय बोलाभी तो आपको अधिक बुरा नहीं लगेगा।
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